घर से निकले हुए कई वर्ष हो गये| गाँव में रहते हुए शहर बार-बार आकर्षित करता रहा| किसी को जब देखता आते हुए तो मचल-मचल जाता था| दूर से ही देखकर दौड़ लेता था और जब तक उसे घर तक लाकर छोड़ नहीं देता और उनके द्वारा लाई गयी मिठाइयाँ खाकर पानी नहीं पी लेता, संतोष नहीं होता था| कई बार जब मिठाई नहीं होती थी तो इस आशा में वापिस आता कि शायद बाद में मिले| फिर कई दिन तक इंतज़ार रहता| बचपन था तो कुछ भी सम्भव था| इंतज़ार भी, निराशा भी और एक हद तक गुस्सा भी|
Saturday, 3 June 2023
कितने दिन हो गये...
Friday, 2 June 2023
सुबह का इंतज़ार महज एक नाटक होता है
मनुष्य बस इसी तरह चलता है...
मन के दुखी होने में
'आह प्रेमचंद' और फिर वाह 'प्रेमचंद'
परिवेश की समझ जिनको नहीं होती है वही अनाप-शनाप बकते हैं| 'कथा' में स्वाभाविकता की जगह 'एजेण्डा' सेट करना प्रेमचंद के बस की बात नहीं थी...वह सच देखते थे लेकिन छिपाते नहीं थे| गोदान में मातादीन के मुह में हड्डी डलवाने की यथास्थिति को कौन नहीं जानता है? इसी तरह से घीसू और माधव के चारित्रिक बुनावट के पीछे का यथार्थ भी शायद ही किसी से छिपा हुआ हो...अब यदि वह एजेण्डा लेकर चलते हैं तो इन दोनों स्थितियों पर उन्हें घेरा जाना चाहिए...लेकिन नहीं...जो ऐसा कर रहे हैं खुद कसी एजेंडे से ग्रसित है और प्रदूषित हैं...कथालोचना की बारीक-सी समझ रखने वालों को भी पता है कि चरित्र की बनावट कितने संजीदगी से की जाती है...कभी शेखर जोशी जी ने इलाहबाद में बोला था 'कहानी के कथ्य और शिल्प को बनाकर चलना तलवार के धार पर चलने के बराबर है|" इधर के एजेंडेबाज कथाकारों ने तलवार ही गायब कर दी तो भला 'धार' कैसे संभलेगी...