Friday 17 September 2021

किसी सम्मानित व्यक्तित्व के नाम से कागजी पुरस्कार एवं सम्मान देने का अधिकार भी इन्हें आखिर कौन दे देता है?

इस समय सम्मान खूब बंट रहे हैं| न देने वालों की कमी है और न लेने वालों की| कम्प्यूटर पर कागज डिजाइन करके किसी को देने में जाता भी क्या है आखिर? इसी बहाने हिंदी सेवी होने का खिताब भी मिल जाता है| देने वाला फायदा में होता है जबकि लेने वाला अक्सर ठगा जाता है| देने वाले इसी बहाने प्रतिष्ठित मान लिया जाता है जबकि लेने वाला अपना पैसा तो खर्च करके आता ही है एक तरह से ईमान भी गँवा कर जाता है |


जो सही मायने में रचनाकार हैं, जिनके पास अपनी जमीन और अपना विवेक है वह ऐसे सम्मान पत्र को लेने से मना कर दें, जिसके साथ सम्मानजनक नकद राशि न जुड़ी हो| ऐसा करके वह अपनी इज्जत तो बचा ही लेंगे उनकी इज्जत भी बचा लेंगे जिनके नाम से धड़ल्ले से लोग पुरस्कार और सम्मान बाँट रहे हैं| जिनके नाम से पुरस्कार और सम्मान बांटा जा रहा है वह तो हैं नहीं इस दुनिया में इसलिए वह खुद ऐसी स्थिति का मूल्यांकन करें जो इसमें सहभागी हो रहे हैं|

किसी सम्मानित व्यक्तित्व के नाम से कागजी पुरस्कार एवं सम्मान देने का अधिकार भी इन्हें आखिर कौन दे देता है? कम से कम ऐसे रचनाकार यदि जिन्दा होते तो कदापि ऐसा न करने देते| किसी दिवंगत रचनाकार को सम्मान नहीं दे सकते तो अपमान करने का अधिकार किसने दे दिया भाई? यह सब तो शोध के विषय हो चले हैं| सवाल यह है कि शोध करवाए कौन? हर किसी को इधर के दिन ऐसे सम्मानित होने या सम्मान पत्र प्राप्त करने की लालसा बढ़ी हुई है| हर कोई मंच-माला की तलाश में अटक-भटक रहा है|


समस्या यहीं तक हो तो चल भी जाए| पुरस्कारों का नाम तक रखना जिसे नहीं आता है दुर्भाग्य से वह भी स्वयं को भारतेंदु, निराला, मुक्तिबोध, महादेवी, अमृता प्रीतम का उत्तराधिकारी सिद्ध करने लगता है| इतनी हिम्मत कहाँ से ले आते हैं भाई? थोड़ी तो शर्म होनी चाहिए न? चलो व्यक्तिगत स्तर पर कुछ भी कह लो स्वयं को, कुछ भी घोषित कर लो लेकिन जो सही अर्थों में श्रम किये हैं, अपने समय की विसंगतियों को झेले हैं उनके नाम पर तो अपनी रोटी न संको न?

कागज बाँट कर बड़ा आप बन जाइए लेकिन जिन्होंने वाकई सारी उम्र हिंदी भाषा एवं साहित्य की सेवा की है उसको तो मुक्त रहने दीजिये? जीते जी तो आप जैसे सस्ते लोगों के दकियानूसी स्वभाव को झेलता है एक संघर्षशील लेखक और मरने के बाद इनकी स्वार्थलिप्सा उस पर भारी पड़ जाती है| फिर इसी प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के नाम को इस तरह बदनाम करने का षड्यंत्र क्यों रचा जाता है या रचा जा रहा है?

अब इन प्रश्नों के जवाब किससे मांगने जाया जाए? आप सबके समझ में कुछ हो तो जरूर कहें, मैं तो फिलहाल जालंधर शहर की नौटंकी देखने में व्यस्त हूँ| सार्थक तरीके का कोई काम करना यहाँ जोखिम का सौदा है| सम्मान पत्र बाँट कर बड़ा होना और पुस्तक लोकार्पण समारोह रखकर बड़ा बन जाना यहाँ के लिए सबसे सरल और आसान तारिका है|