साहित्य आनंद मात्र देने का
उपक्रम नहीं है | परिवर्तन का कुशल माध्यम भी है | जीवन जीना एक बात है | जीवन को
जीते हुए समय-संसार में अपनी स्थिति एवं अस्तित्व को बनाए रखना एक बड़ी बात है |
जीवन-पथ पर चलते हुए कई बार हमें कुछ अच्छे पात्र मिल जाते हैं, जीवन की राह सरल
हो जाती है | कई बार कुछ ऐसे भी मिलते हैं जिनमे स्वार्थता की अधिकता होती है |
उनमें जीवन-समय को ठीक तरीके से जी ले जाने की प्रतिबद्धता नहीं होती | वैयक्तिक
हित को साधने की, चाहे किसी भी रूप में, प्रबलता जरूर होती है | यहाँ इस स्थिति पर
आकर जीवन संघर्षों का पुलिंदा हो जाता है | इन संघर्षों से लड़ते-जूझते व्यक्ति इतने
हद तक टूट जाता है, बिखर जाता है, ऐसे समय में उसके जीवन का उद्देश्य क्या है; वह
क्यों जी रहा है; जीते हुए क्या पाना चाहता है और अब क्या पा रहा है? भूलना पड़ता
है | कई भूल भी जाते हैं क्योंकि यहाँ
प्राप्ति का नहीं, सवाल जीवन जीने का होता है |
भारतीय समाज में यह प्रवृत्ति
कुछ अधिक यथार्थता लिए हुए दिखाई देती है | यहाँ जीवन में वर्तमान रहने और
जीवन-जीने दोनों में दो दृष्टियाँ प्रमुख रूप से महत्त्वपूर्ण होती हैं | जो जीवन
में वर्तमान होता है बहुत गहरे में जीवन के कटु यथार्थ को भोग रहा होता है | जो
जीवन को जी रहा होता है यथार्थ का सामना तो वह भी करता है पर अनुभूति के स्तर पर
नहीं, केवल जीने के धरातल पर | अतीत की अतल गहराइयों में डूबकर विचरण करने वाले
व्यक्तित्व वर्तमान की विसंगतियों से सीधे जूझते हैं | टकराते हैं और सुनहरे
भविष्य के लिए नए मार्ग की तलाश करते हैं | जो जीवन को जीने भर की परिकल्पना करते
हैं उनका सम्बन्ध न तो अतीत से होता है और न ही तो भविष्य से | किसी भी स्थिति से
वे सिर्फ जीने में विश्वास करते हैं | जीवन में वर्तमान होना जीवन के यथार्थ से
संघर्ष करना है | साहित्य का इस यथार्थ से गहरा सम्बन्ध है | यह इसलिए कि मनुष्य
स्वयं यथार्थ की परिणति है |
मानव जीवन में आदर्शता और
नैतिकता का कार्य उसे यथार्थ से पहचान कराने मात्र से है | साहित्य में इनकी
भूमिका को इसी रूप में जानने और समझने-समझाने का प्रयत्न करना चाहिए | इससे आदर्श
और नैतिकता व्यक्ति के जीवन में किसी भी तरीके से आरोपित नहीं होंगे | सहज और
स्वाभाविक होंगे | सहजता और स्वाभाविकता व्यक्ति के आतंरिक और आत्मिक गुण हैं |
इनका बाह्यावरण से कोई लेना देना नहीं है | जहां हमारे द्वारा बाहरी वेश-भूषा को
भी सहजता और स्वाभाविकता में शामिल करने का प्रयत्न किया जाता है वहाँ बनावटीपन और
ढोंग का समावेश हो उठता है | यह स्थिति न तो साहित्य के लिए हितकर होता है और न ही
तो मानव-जीवन के लिए | यह इसलिए भी क्योंकि हम साहित्य को जीवन का प्रेरणास्त्रोत मानते
हैं | जीवन को साहित्य का संसाधन स्वीकार करते हैं | साहित्य का साध्य यही है कि
वह जीवन को कितने हद तक प्रेरित और प्रभावित करता है |
हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा ने जीवन
को अर्थवत्ता प्रदान करने में बड़ी भूमिका निभाई है | जहां तक उपन्यास आदर्शता और
नैतिकता के आवरण से आच्छादित रहा, वहाँ तक हम जीवन को समझने और समझाने के लिए
कविता का सहारा लेते रहे | कविता के माध्यम से जीवन के विसंगतियों और विडम्बनाओं
को समझने का प्रयत्न करते रहे | यह बात समझना आज के परिदृश्य में नितांत आवश्यक है
कि कविता एक जटिल प्रक्रिया है (विशेषकर नई कविता के रूप में स्थापित हो रही
मुक्त-छंद को देखने से यह बात और भी सही तरीके से स्पष्ट हो जायेगी) | यहाँ भावों
को अभिव्यक्त कर पाना उतना सहज नहीं है | जहां भावों की अभिव्यक्ति सहज रूप में न
हो सके वहाँ पाठक-वर्ग के लिए आत्मिक रूप में तादात्म्य बैठा पाना बड़ा मुश्किल
होता है | साहित्यकार, साहित्य और पाठक ये तीन रूप से तीन कोण पर मौजूद होते हैं |
इनमें एक दूसरे का पारस्परिक तादात्म्य होने से ही सामाजिक परिवेश में साहित्य की
अर्थवत्ता स्पष्ट होती है |[1] एक
सफल उपन्यासकार के भीतर एक कवि-हृदय मौजूद होता है (भाव-सम्प्रेषण की दृष्टि से)
लेकिन एक कवि के अन्दर उपन्यासकार का हो पाना सर्वथा मुश्किल होता है | यही एक
अंतर है जो कविता और गद्य में स्पष्ट फर्क करते दिखाई देता है |
मोहनदास नैमिशराय द्वारा लिखित उपन्यास
“क्या मुझे खरीदोगे?” कविता और उपन्यास के मध्य विद्यमान मानवीय अन्तर्द्वंद्व को
बड़े सलीके से अभिव्यक्ति प्रदान करती है | इस उपन्यास का आधार है तो स्त्री-जीवन
पर महानगरीय परिवेश भी अपने सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ मौजूद है | जिस तरीके से
महानगरीय परिवेश का कोई यथावत स्वरुप अभी तक निर्धारित नहीं हो सका, अपने
प्रारंभिक अवस्था से लेकर आज तक सम्पूर्ण परिवेश एक कठिनता के दौर से गुजरता रहा, मानवता
के विकास का पैमाना लिए हुए अमानवीयता की पराकाष्ठा पर पहुंचकर मानवीय सभ्यता पर
अट्टहास करता रहा | ठीक उसी तरह से स्त्री का जीवन भी अभी तक अनिश्चितता और
असंभावनाओं के मध्य झूल रहा है | मानवता का संस्कार देने वाली स्त्री अमानवता के
दंश से दूषित होकर औरत होने की पीड़ा से व्यथित है | ध्यान देने की बात तो ये है कि
स्त्री और महानगर दोनों को इस स्थिति तक पहुँचाने में उत्तरदायी यही समाज है
जिसमें कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है | नैतिकता यदि उसकी कर्तव्य परायणता
है तो अनैतिकता उसकी विवशता | कर्तव्य परायणता और अनैतिकता के मध्य ही मनुष्य
सीमित रहा है | अब जब उस स्थिति से लोग बाहर आने लगे हैं तो उन्हें नैतिकता के
मापदंडों में बांधने की कोशिशें की जा रही हैं | ये मापदण्ड स्त्री जीवन के लिए तो
बहुत पहले से ही किये जाते रहे हैं महानगरीय परिवेश के लिए भी आवाजें बुलंद की जा
रही है | आलोच्य उपन्यास के हवाले से कहा जाए तो स्वभावतः महानगरीय उठा-पटक की
स्थिति स्त्री-जीवन की यथार्थ स्थिति है |
विस्तार पाना महानगर की मजबूरी है |
विस्तृत होना स्त्री की | लोगों की दीनता, हीनता और मजबूरियों को वहन करता है
महानगर | जीने और जीते हुए लोगों को जिलाने का विकल्प देता है महानगर | स्त्रियाँ
भी लोगों की दीनता और हीनता के समय विद्यमान खालीपन को पूरी करती हैं | तनहाई, और
रुसवाई को दूर करती हैं | वे गम के साये में लिपटे हुए बेतहाशा दुःख भोगती हैं,
लेकिन जिस समाज में वे रहती हैं उस समाज को संयमित, सुरक्षित और संरक्षित करती
हैं, अपने खुशियों, आशाओं एवं संभावनाओं का गला घोंट कर | इसके बावजूद महानगर और स्त्री
की विसंगतियों को ही लोग बयान करते हैं | कोई उनकी यथार्थ स्थिति को समझने का
प्रयत्न नहीं करता | समाज में आए अनैतिक एवं अनधिकृत मान्यताओं के प्रचार-प्रसार
में दोषी लोग इन्हीं को ठहराते हैं |
भारतीय समाज में यह विडंबना कुछ
अधिक है | यहाँ स्त्रियों को देवी तो माना गया, पूज्य भी समझा गया लेकिन मात्र एक
नैतिक मान्यताओं के तहत | उपभोग इनका एक खरीदी गयी वस्तु के आधार पर ही हुआ और
होता रहा आज तक | उपन्यासकार का यह स्पष्टीकरण इस यथार्थ को और भी विस्तार देता
है,- “आदिकाल से आधुनिक युग तक यही सब होता रहा है | तब से लेकर आज तक कितने युग
बदले, कितनी समस्याओं के समाधान किए गए | कितनी बीमारियों का आविष्कार हुआ |
संस्कृति में अनेक बार परिवर्तन हुए | लेकिन पुरुष और नारी के बीच खरीद-फरोख्त की
प्रक्रिया न बदली |”[2]
खरीद-फरोख्त की यह प्रक्रिया गाँव हो या शहर, नगर हो या महानगर प्रत्येक जगह
विद्यमान है | रूप इनके अलग हैं , हो सकते हैं, पर व्यवहार एक ही है | किसी भी रूप
में स्त्री को प्राप्त करना और अपनी स्वच्छंदता के अनुसार इनका उपभोग करना | एक
यथार्थ स्थिति यह भी है कि इस समाज में जीवन-यापन कर रही स्त्रियाँ, पुरुषों के
बहकावे और झांसे में आकर बिकना अपनी नियति मान बैठी हैं |
‘क्या मुझे खरीदोगे’ उपन्यास की नायिका
सरिता इसी नियति का शिकार है | यह बात और है कि मनुष्य का भाग्य बहुत कुछ उसके समय
और संस्कार को प्रभावित करता है | जीवन-समय में वह करता वही है जिसे उसका भाग्य
निर्देशित करता है | यह मानकर जीवन में घटित होने वाली समस्त विडम्बनाओं को सह ले जाना
सच्चे अर्थों में हजारों-करोड़ों मनुष्यों को पशुता का जीवन जीने के लिए आमंत्रित
करना होता है | जीवन की एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि सब कुछ भाग्य ही निर्धारित नहीं
करता | भाग्य के साथ-साथ उसका कर्म और वह समाज, जिसमें वह वर्तमान होता है, उसके
जीवन को प्रभावित करता है | स्त्री का जीवन इस बात का प्रमाण है | हमारे समाज में
स्त्री-जीवन को उसका भाग्य नहीं अपितु वह समाज निर्धारित करता है जिसमें वह
वर्तमान होती है | भारतीय समाज पुरुषवादी समाज है | इसे पितृसत्तात्मक समाज भी कहा
जाता है | इस समाज में स्त्रियों के रहने, बोलने, चलने और यहाँ तक कि पहनने, खाने,
सुनने-सुनाने तक में वही व्यवहार किया जा सकता है, जिसे पुरुष चाहता है | इस
सन्दर्भ में प्रसिद्ध लेखिका क्षमा शर्मा जी का यह कहना विल्कुल सच है -“स्त्रियों
को देवी का संबोधन देने वाला समाज इस तथाकथित संबोधन की आड़ में सदियों से उसे
प्रताड़ित करता आया है | स्त्रियाँ कैसी हों, वे कैसे रहें, कैसे चलें, कैसे बैठें,
कैसे हँसें, कैसे बात करे? पुरुष ने अपने विचारों और अवधारणा के अनुसार स्त्री का
निर्माण किया | स्त्री ने स्वयं अपने बारे में, अपनी भावना, अपनी इच्छा, अनिच्छा
के बारे में कभी कुछ नहीं कहा |”[3]
स्त्री का इस तरह चुप रहने का ही परिणाम है कि आज इस पुरुषवादी देश में स्त्री के
साथ स्त्री की परछाई को भी नहीं रहने दिया जाता है |
आलोच्य उपन्यास में प्रेम है, परिवार
है, मित्र हैं, समाज है और है पूरी प्रकृति जिसने स्त्री-पुरुष दोनों को एक सामान
रूप से जीने और रहने के लिए समान धरातल और आधार स्तम्भ प्रदान किया है | लेकिन
सत्य तो यह है कि ये सभी चीजें स्त्रियों से बहुत दूर हैं | परिवार में रहते हुए
भी वह परिवार की नहीं मानी जाती | प्रेम का अधिकार होने के बावजूद यही प्रेम शोषण
का उपक्रम बनकर प्रकट होता है | उसके मित्र तो होते हैं लेकिन वे उसी स्त्री को
मित्रता के बजाय अपना निजी संपत्ति समझ बैठते हैं | समाज का तो कहना ही क्या,
बंधनों और बंदिशों की इतनी बड़ी सूची सिर्फ और सिर्फ स्त्री को कैद में रखने के लिए
बनाई गई होती हैं | विडंबना की स्थिति तो ये है कि जिस स्त्री को समाज अपनी
मर्यादा और अस्तित्व से जोड़कर देखता है वही समाज उसके कपड़े उतारकर निर्वस्त्र करना
अपनी शान और शौकत समझता है | स्त्री इन्हीं विडम्बनाओं के मध्य झूलते-झेलते जीव का
नाम है जिसका उद्भव मात्र एक वस्तु के सामान होता है और अंत पानी से निकाली गयी उस
मछली के समान, जिसके हिस्से तड़पना, विलखना और अपने भाग्य को कोसना ही आता है | यह
वाकई विचारणीय है कि “युग बदले हैं, ऋतुएँ बदली हैं और हुआ है समाज परिवर्तन, पर
महिलाओं की स्थिति लगभग वैसी है | क्या मुझे खरीदोगे” उपन्यास में महानगर के जीवंत
चित्र उभरते हैं | जिसमें शोषण भी है और आन्दोलन भी | विराट संस्कृति में औरत कहाँ
है? ऐसे अनेक सवाल उभरते हैं | पाठकों को सोचने और विश्लेषण करने को विवश करते हैं
|”[4]
सरिता का जन्म एक गरीब पर, भले घर में
होता है | पिता की मृत्यु उसके पैदा होने के कुछ दिन बाद ही हो जाती है | घर में
वह है और उसकी माँ है | सरिता पढने में ठीक है | इसलिए उसकी माँ उसे मजूरी करके भी
पढाना चाहती है | माँ का यह संघर्ष समाज में उसके अपने दम पर था | जवान हो चुकी
पुत्री के लिए | जहां और जिस घर में कोई पुरुष न हो उस घर और समाज में रहते हुए एक
सयान पुत्री के लिए | समय के इस पड़ाव को झेलना एक स्त्री के लिए सर्वथा संघर्षमय
होता है | सरिता की माँ दमयंती की चिंता और संघर्ष यही है | जब तक उसकी पुत्री घर
वापस नहीं पहुँच जाती तब तक वह चिंता में डूबी रहती है | उसकी यह चिंता एक हद तक
जायज भी है | वर्तमान समय में एक बड़ा परिवर्तन आया है | स्त्रियाँ कुछ हद तक उस
पारंपरिक मान्यता पर सवाल करना सीख ही नहीं रही हैं अपितु साहस के साथ नकार भी रही
हैं | उपन्यास की नायिका सरिता का यह सोचना भी सच है कि “गलती अकेले माँ की नहीं
है | हजारों वर्षों से सामाजिक बंधनों से छटपटाती सम्पूर्ण औरत जाति की नियति ही
ऐसी है | पुरुष समाज द्वारा थोपी मानसिकता की है | सदियों से एक जैसी नियति को भोग
रही महिला समाज के भीतर यह सवाल उठना जरूरी भी है | पुरुष क्यूं चाहेगा कि कल की गुलाम
औरत आज आजाद बनकर जिए? पर नारी समाज को ही इन सबमें परिवर्तन लाना होगा |”[5] इस
परिवर्तन को लाने में स्त्री के लिए सबसे अधिक आवश्यक है कि वह अपनी ममतामयी
स्वभाव को त्यागकर पुरुष की-सी कठोरता को धारण करने का प्रयास करे |
भारतीय समाज में ममतामयी होना
विद्वानों द्वारा एक स्त्री का सबल पक्ष स्वीकार किया गया है | निर्ममता पुरुष का
स्वभाव होता है, ऐसा अभी तक बताया जाता रहा है | ममता की दृष्टि से देखें तो
स्त्री में भावुकता का होना स्वाभाविक है | निर्ममता की दृष्टि से देखें तो पुरुष
के हृदय में भावुकता के स्थान पर कठोरता का समावेश अधिक होता है | भावुकता स्त्री
जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी है | भावुकता में त्याग और समर्पण की भावना अधिक होती है
| यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जहां त्याग और समर्पण होता है वहाँ मांग और
अधिकार की प्रवृत्ति कमजोर हो जाती है | ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा सर्ग’ में जयशंकर
प्रसाद ने बड़ी सूक्ष्मता से यह बात स्त्रियों को समझाना चाहा था “ठहरो नारी क्या
कहती हो/ संकल्प अश्रु जल से अपने / दान कर चुकी तुम पहले ही/ जीवन के सोने से
सपने |”[6] एक
पुरुष के संसर्ग में आने के बाद स्त्री का अपना सर्वस्व उसे सौंप देने की
प्रवृत्ति ही उसे दासता का जीवन जीने के लिए विवश करती है |
आलोच्य उपन्यास की नायिका के अन्दर और
बहुत कुछ बहुसंख्यक भारतीय नारी के हृदय में विद्यमान दासता की इस प्रवृत्ति को
उपन्यासकार नैमिशराय जी ने प्रेम के आवरण में शोषण करने की प्रवृत्ति का पर्दाफाश
किया है | सरिता सागर के प्रेम में आने के बाद और कोख में उसका बच्चा ठहरने के बाद
जिस तरीके से स्वयं के भाग्य-दुर्भाग्य को सागर के निर्णय पर, और उसके संबल पर
अपना भविष्य यह कहते हुए निर्धारित होने की परिकल्पना करती है, “मैनें तो सब कुछ
भुला कर अपने आपको तुम्हारे हवाले कर दिया है |...सागर चाहे जहां ले चलो | मैं तो
तुम्हारी हूँ बस |”[7]
उपन्यासकार का यह कहना कि “सागर सरिता के मुख से वही सच तो सुनने को बेताब था | वह
चाहता सरिता जल्द उसके साथ चलने की मंजूरी दे दे|” यह सिर्फ एक सागर की नहीं अपितु
प्रत्येक सागर की इच्छा होती है प्रत्येक सरिता से | पुरुष इन्हीं कसीदों में कसकर
तो स्त्री को धर्म संकट के मोड़ पर लाकर खड़ा करता है | ऐसा धर्म संकट जहां से स्त्री
न तो वापस होने लायक होती है और न ही तो आगे बढ़ने की स्थिति में |
मानव-जीवन में प्रेम व्यक्ति के व्यक्तित्व को विस्तार देता है | प्रेम में
आकर्षण होता है एक खिंचाव होता है | वही आकर्षण और वही खिंचाव जो एक अँधेरे में
रहते हुए व्यक्ति के लिए उजाले के प्रति होता है | हालांकि उजाले की पहचान अँधेरे
के अस्तित्व से ही होती है, ठीक उसी तरह जैसे अच्छाई की पहचान बुराई के अस्तित्व
से होती है | मानव जीवन अच्छाई-बुराई, अँधेरे-उजाले के मध्य रहते और चलते हुए
व्यतीत होता है | “जहां अँधेरा होता है वहाँ उजाला भी होता है | अच्छाई और
बुराई की धूप-छांव में ही मानव अपना जीवन
व्यतीत करता है | वही मानव जिसने सभ्यता की खोज की थी | सभ्यता के उसी उजाले का
प्रतीक बनकर मनुष्य ने जीवन में इसका संचार किया है | मनुष्य के जीवन में रस की उत्पत्ति आरम्भ से रही थी | रस के बाद
रंगों की उत्पत्ति हुई | रंगों के बाद उमंगों को थिरकने का बल मिला | प्रेम के रस
ने मनुष्य को बल दिया |”[8] बल के
ही माध्यम से उसने नए समय और सन्दर्भ का संचार किया | सत्य यह भी है कि प्रेम ने
ही स्वार्थता को फलीभूत होने और करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा किया | इस
भूमिका में पड़ने के बाद जहां बहुत से लोग आबाद हुए तो बहुत से लोग बरबाद भी हुए |
इस सन्दर्भ में एक सच्चाई यह भी है
कि प्रेम की दुनिया में पदार्पण करने के बाद व्यक्ति अपना अस्तित्व भूल जाता है | यहाँ
हर कोई एक-दूसरे के समक्ष समर्पण करना अपना कर्तव्यबोध स्वीकार करता है |
कर्तव्यबोध के सम्बन्ध में यह अपेक्षा होती है कि ऐसा दोनों तरफ से हो | इसमें भी
स्त्री को असफलता ही मिलती आयी है | पुरुष के लिए प्रेम स्त्री को गुलाम बनाने की सबसे
सफल नीति साबित हुई है | भारतीय समाज में पुरुष ने हर एक समय मात्र प्राप्त करने
की कोशिश की है | जहां बात देने की आयी है वहाँ स्त्री से या तो अपना किनारा कर
लिया है या फिर समाज और परिवार का वास्ता देकर छोड़ दिया है उसे भटकने के लिए | भटकन
के पीछे की स्थिति को न तो समाज समझने की कोशिश करता है और न ही तो उस समाज को
दिशा देने वाले | यहीं व्यक्ति को अपनी जाति और अपना अस्तित्व याद आता है | अपना समाज और अपना परिवेश याद आता है | यदि
परिवेश, समाज और अपनी सामाजिक स्थिति का आंकलन व्यक्ति किसी को प्रेम करने से पहले
समझ ले तो संभव है कि किसी का घर न छूटे, न टूटे | समाज की सामाजिकता भी बनी रहे
और मानव की मानवीयता भी परन्तु ऐसा होता नहीं, ऐसा तब होता है जब हम अपना कदम बहुत
आगे बढ़ा चुके होते हैं | यह उपन्यास के इस संवाद-अंश से और भी स्पष्ट होता है-
“सरिता देखो मुझे गलत मत समझना | मैं
तुमसे शादी करूंगा, अवश्य ही | लेकिन यहाँ नहीं|”
“पर
यहाँ क्यूं नहीं सागर?”
“इसलिए
कि यह समाज, यह दुनिया हमें चैन से यहाँ रहने न देगी | माना कि तुम्हारे घर वाले
तैयार हो जाएँगे पर मेरा परिवार कभी भी तुम्हें अपने घर की बहू स्वीकार न कर सकेगा
|”
“पर
ऐसा क्यूं?”
“इसलिए
कि जिस जाति से तुम हो उस जाति की बहू को वे अपने घर में सहन नहीं कर पायेंगे |”
“क्या...?”
“हाँ
सरिता, मैं अपने घरवालों को बेहतर जानता हूँ |”
“पर
मैनें तो कभी अपनी जाति तुम्हें बताई नहीं | और न ही तुमसे तुम्हारी जाति के बारे
में पूछा |”.....
“सवाल
जाति पूछने या बताने का नहीं है |”
“तो
फिर काएका है?”
“सरिता
तुम समझने का प्रयास करो | हमारे देश में किसी की जाति कहाँ छुपी रह सकती है?”[9]
सामाजिक जीवन के ऐसे कठिन मोड़ पर
स्त्री के लिए सवाल बुरा या भला मानने की नहीं अपितु एक सार्थक विकल्प तलाशने की
होती है | पुरुष के लिए जाति, धर्म, परिवार और समाज ये सभी बंधन इसी समय
अस्तित्वमान हो उठते हैं | जबकि स्त्रियों के लिए ये तब भी कोई मायने नहीं रखते जब
किसी को पाने के लिए कदम बढ़ाती हैं और मायने तब भी नहीं रखते जब कोई उसे अपने जीवन
से हटाने की इच्छा प्रकट करता है | ऐसी स्थिति में सामाजिक विडम्बनाएं स्त्रियों
के लिए सहज-सुलभ होते हैं | खासकर तब, जव वह प्रेम के केंद्र में होती है | यहीं
से शुरू होता है उसके जीवन में भटकाव | यहीं से प्रारंभ होता है उसके जीवन का
संघर्ष | यहीं से बाधित होता है उसका भविष्य और यहीं से समाज उसे विभिन्न अमानवीय
उपमाओं से आच्छादित करना प्रारंभ करता है |
सरिता के जीवन में सागर का प्रवेश एक तूफ़ान की तरह
होता है | यही तूफ़ान उसे अपने अंधड़ में लपेटकर मुम्बई जैसे महानगर में पहुंचा देता
है | आधुनिकता की अंतिम दहलीज पर कदम रख चुके उस महानगर में जहाँ प्रत्येक प्राणी,
मात्र एक वस्तु बनकर रह जाता है | यहाँ हर हाल में बिकना मनुष्य की नियति बन जाती
है | बात जब औरत की हो तो फिर कुछ कहा नहीं अपितु कल्पना भर किया जा सकता है | ऐसी
कल्पना जो स्वयं में अंतिम कल्पना नहीं हो सकती | साथ में यदि पुरुष होता है तो
स्त्री के लिए संबल होता है | जीवन यापन करने का आधार होता है | ऐसा अभी तक भारतीय
परिवेश में सिखाया जाता रहा है | पुरुष नहीं होता तो स्त्री लावारिस हो उठती है | अनाथ
हो उठती है | उसे पूछने वाला कोई नहीं होता | यदि कोई होता भी है तो मात्र लूटने
वाला | यह नियति समाज के हर नगर और हिस्से की है फिर वह तो मुम्बई महानगर है | यह
महानगर नैतिकता की समस्त संभावनाओं को ताक पर रखकर जीवन को जीना सिखाता है | जीने
की ऐसी नियति कुछ लोगों का शौक होता है तो कुछ की मजबूरी | शौक बड़े घराने के लोगों
के लिए होते हैं जो जीवन को जीना ही अपना कर्तव्य समझते हैं लेकिन मजबूरी उन सबकी
होती है जो जीवन जीने के लिए मात्र संघर्ष कर रहे होते हैं | उपन्यास की पात्र
मीरा का सरिता को संबोधित करते हुए यह कहना विल्कुल जायज और सही है कि “जानेमन, यह
बंबई है | यहाँ तो अधिकतर लड़कियों के साथ यही सब होता है जो तेरे साथ हुआ | सरिता
तेरे माथे पर लिखी दुर्भाग्य की कहानी अकेली तेरी नहीं है, बल्कि इस शहर में भटक
रही उन तमाम बदनसीब लड़कियों की कहानी है जिन्हें प्यार के स्थान पर धोखा मिला है
|”[10] यहाँ
पहुंचकर यह समझने में भी कोई कठिनाई नहीं रह जाती कि औरत चाहे गरीब हो या फिर हो
अमीर यदि पुरुष-प्रताड़ित है तो दुर्गति उसकी सुनिश्चित है |
संघर्ष के कारवां में सही गलत की परिभाषा लगभग
परिवर्तित हो जाती है | यहाँ गलत लगने वाली हर एक स्थिति सही इसलिए आभाषित होती है
क्योंकि सवाल जीवन को जीने का होता है | यह जीना किसी भी प्रकार का हो सकता है |
नैतिकता-अनैतिकता कोई मायने नहीं रखती | यहाँ सब कुछ समाप्त हो जाता है | बचता है
तो सिर्फ और सिर्फ वस्तु-मूल्य, बिकने और खरीदने का | मुम्बई जैसे महानगर में
पदार्पण करने के बाद सरिता जैसी हजारों
औरतों के लिए बिकना ही एक विकल्प बचता है | यदि वे बिके न तो फिर जीवन को जिए न |
इस महानगरीय संस्कृति को जीने और जीते रहने के लिए यह कोई आश्चर्य नहीं कि व्यक्ति
के हृदय में औरत के प्रति नैतिकता का जो भाव विद्यमान होता है वह भी उपभोग और
उपभोक्ता के भाव में तब्दील हो जाता है | नैमिशराय जी यह मानते हैं कि इस संस्कृति
में वर्तमान लोगों का जीवन बहुत ही दुर्लभ होता है | औरतें चाहे वह ज्यादा उम्र की
हों या फिर कम उम्र की शोषण उनका होता ही है | महानगरीय इस यथार्थ स्थिति का वर्णन
करते हुए उपन्यासकार कुछ इस तरह अपनी अभिव्यक्ति देता है-“बंबई की सूनसान सड़कें,
जहां बिछी हुई औरतें होती | कहीं कम उम्र की लडकियां भी साथ में रहती | रात का सफ़र
बिताने के लिए रात के ही यात्री होते हैं | दिन निकलते निकलते वे लुकछिप जाते हैं
| कहाँ जाते हैं वे लोग? कहाँ बसेरा होता है उनका? कहाँ आश्रय लेते हैं वे? बंबई
एक ऐसा शहर रहा है, जहां सम्भोग के दर्शन को सिर्फ किताबों में पढ़ने की जरूरत नहीं
है | न ही आसनों का अध्ययन करने की | महानगर के भीतर इन सबकी व्यावहारिकता देखकर
बहुत कुछ समझ आने लगता है |”[11] यह
समझ दोनों तरफ जागृत होती है | स्त्री के हृदय में इस दृष्टि से कि नैतिकता के
आवरण में बंध कर रहने का कोई अर्थ नहीं है तो पुरुष हृदय में इस दृष्टि से कि
स्त्री उपभोग करने के लिए ही बनी है | दोनों को जीवन का आनंद मात्र खरीद-फरोख्त
में आभाषित होता है |
उपन्यास की एक पात्र मीरा का सिद्धांत
इस मायने में और स्पष्टता लिए हुए है | वह इस बात में विश्वास रखती है कि यदि हमें
बिकना ही है तो फिर उस बिकने में भी पुरुष का हस्तक्षेप हम क्यों स्वीकार करें |
यदि यहाँ ऐसी स्थिति में उसका हस्तक्षेप स्वीकार किया जाता है फिर शोषण का कारवां
रुकेगा नहीं अपितु और भी तीव्र गति से बढ़ेगा | कम से कम यहाँ तो पुरुष यह समझने के
लिए बाध्य हो कि औरत का भी अपना अस्तित्व होता है | उसकी भी कोई अहमियत होती है |
समाज मात्र पुरुष से ही तो नहीं चलता | स्त्री का भी तो बराबर का सहयोग होता है |
लेकिन यदि सहयोग की इस भावना को स्वीकार ही किया गया होता अब तक इस भारतीय समाज
में तो फिर औरतों पर इतनी अधिक ज्यादती तो विल्कुल भी न होती | सरिता के लिए मीरा
का यह वक्तव्य पुरुष समाज को कठघरे में खड़ा करता है “मैं भी कभी तेरी तरह शरीर
बेचने को गलत ही मानती थी | लेकिन मजबूरी में मुझे वह सब करना पड़ा | बेचना पड़ा
अपने शरीर को, अपनी आत्मा को |...नारी आखिर कब तक पुरुष का खिलौना बनी रहे, क्या
पुरुष उसका खिलौना नहीं बन सकता |”[12]
उपन्यासकार स्त्री-जीवन
में व्याप्त भारतीय समाज की इन्हीं विसंगतियों को चित्रित करता है | देश की आधी
आबादी के साथ हो रहे इन्हीं ज्यादतियों को जन-सामान्य के मध्य उपस्थित करना चाहता
है | वह यह दिखाना चाहता है कि समाज में स्त्री को सिर्फ जन्म लेने का अधिकार है |
उसके अस्तित्व से लेकर अस्मिता तक का ठेका पुरुष-वर्ग ने अपने पास सुरक्षित रखा है
| जन्म लेने का यह अधिकार भी उसे न मिलता यदि पुरुष का वश चलता | बहुत हद तक ऐसा
भी करने का प्रयत्न लोगों द्वारा किया जाता रहा है | आलोच्य उपन्यास को पढ़कर ऐसा
आभास होता है कि एकाधिकार का यह दौर भी अब समाप्त होने वाला है | बहुत हद तक समाज
में स्त्री-जीवन से संदर्भित विषयों में क्या सही है और क्या गलत इसका निर्णय
पुरुष नहीं स्त्रियाँ लेने लगी हैं | ज्यादती किसी भी प्रकार की हो, किसी भी
क्षेत्र की हो, एक सीमा के बाद असह्य हो जाती है | उससे निजात पाने का एक ही तरीका
होता है, नकार, उन समस्त प्रकार की असम्वेदनाओं का नकार जो, जो विकास मार्ग पर
रोड़ा बनते प्रतीत होते हैं | ऐसा अब किया जा रहा है | सफलता भी मिल रहा है उन्हें
| उपन्यास के अंत में सरिता का स्वयं को नियति के वश में छोड़ देना और प्रचलित
परम्पराओं पर कुठाराघात करते हुए विरोध और विद्रोह का मार्ग अख्तियार करना इस बात
का सबसे बड़ा प्रमाण है |
[1]
साहित्य, अपने व्यक्त रूप में, साहित्यकार या कर्ता, साहित्य-कृति और
साहित्य के पाठक-वर्ग का त्रिकोण है, और, इन तीनों का ही अपना अलग-अलग, और समष्टि
रूप में एक संश्लिष्ट सामाजिक परिवेश होता है | साहित्यकार के कृतित्व का जिन
रूपों में विकास होता है-जिन परिस्थितियों में वह साहित्य-साधना करता है, वह
साहित्यकार का सामाजिक परिवेश है | स्वभावतः कर्ता और कृति के सामाजिक परिवेश में
घनिष्ट सम्बन्ध रहता है, किन्तु दोनों सदा-सर्वथा एक नहीं होते-कभी कभी कृति की रचना-प्रक्रिया कुछ ऐसी परिस्थितियों से
होकर गुजरती है जो कर्ता की सामान्य परिस्थितियों से भिन्न होती है | इनके
अतिरिक्त एक तीसरा सामाजिक परिवेश होता है उपभोक्ता या पाठक का जो कर्ता और कृति
के परिवेश से प्रायः भिन्न होता है |
डॉ० नगेन्द्र ग्रंथावली, भाग-4,पृष्ठ-277-278
[2]
नैमिशराय, मोहनदास, क्या मुझे खरीदोगे,
दिल्ली, श्री नटराज प्रकाशन, 2005, पृष्ठ-15
[3]
शर्मा, क्षमा, स्त्रीवादी विमर्श, समाज और
साहित्य, पृष्ठ-128
[4]
गौतम, रूपचंद, आजाद भारत में दलित, नई
दिल्ली, श्री नटराज प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-145
[5]
नैमिशराय, मोहनदास, क्या मुझे खरीदोगे,
पृष्ठ-25
[6]
प्रसाद, जयशंकर, कामायनी,
[7]
नैमिशराय, मोहनदास, क्या मुझे खरीदोगे,
दिल्ली, श्री नटराज प्रकाशन, 2005, पृष्ठ-50
[8]
वही, पृष्ठ-35
[9]
वही, पृष्ठ-44
[10]
वही, पृष्ठ-105-106
[11]
वही, पृष्ठ-63
[12]
वही, पृष्ठ-106
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