खाए-पिए-अघाए
लोग दल-दारू-बल के साथ द सिटी ब्यूटीफुल, चंडीगढ़ में आज से दो दिन के लिए जनता के पैसे
पर सैर करने आए हैं| कितना आश्चर्य है न कि, खुले मंचों से
जनता की संभावनाओं पर पानी फेरने वाले, जनता को गाली देने वाले ही आज उसके
अधिकारों के लिए इकट्ठे हो रहे हैं| वैसे कहने को तो प्रतिरोध की संस्कृति को बल
देने के लिए ये इकट्ठे हो रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि अकादमियों, पुरस्कारों और दान के पैसों पर किस तरह कब्ज़ा जमाया जाए इस पर भी सेंध
लगाने आए हैं|
वैसे
इनके कार्यक्रम के आयोजन से लेकर शहर पिछले दिनों से ही थोड़े आश्चर्य में है| मैं
भी यहीं पर हूँ तो बहुत से लोगों के मुह से कुछ गाहे-बगाहे सुन भी रहा हूँ| अब जब
ये आ ही गये हैं तो यह भी मन में आ रहा है कि जब इतने बड़े कवि और साहित्यकार हैं
तो कम से कम 10-20 लाख की बिसारत तो लिखी ही जायेगी इनके सेवा-सत्कार में.....विश्वास
मानिए इतने में कोई एक नगर तो बस ही जाता......कोई गाँव तो सुन्दर बन ही जाता......फिर
इन्हें गाँव से क्या लेना-देना.....वैसे यह भी सच है कि ये लोग गाँव और ग्रामीण से
बहुत प्रेम करते हैं लेकिन यह हैरानी की बात है न कि इनके कोई कार्यक्रम वहां पर
नहीं होते?
और
ये भी सच है कि ये लोग गाँव में जाते भी नहीं| वैसे ये सौंदर्य के बड़े उपासक भी
हैं| स्त्री के शायद ही ऐसे कोई उपकरण होंगे जिस पर इनके कलम नहीं चले होंगे?
सुविधाओं के शौक़ीन भी हैं न तो गर्मी बर्दास्त होती है और न ही तो ठंडी सहन होती
है| फिर वहाँ गाँव में एसी रूम, WIFI सुविधा, मंहगी रम की
बोतलें......आवश्यकतानुसार सुरा के साथ सुंदरियां इन्हें कहाँ से नशीब होंगी? गाँव
में किसी नवयौवना को देखकर इश्क के शेर भी नहीं पढ़ सकते क्योंकि बहुत से तो उम्र के
अंतिम पड़ाव पर हैं......संभव है गाँव वाले खदेड़ कर.........खैर....अब ये चंडीगढ़ तो
महानगर है| ये स्वयं महापुरुष तो एक इशारे में जो कुछ यहाँ उपलब्ध हो सकता है वह
भला वहां क्योंकर होगा?
कविता
की शक्ल में कहें तो जंगल से परिवेश में जब कोई छुट्टा सांड या आवारा शेर आता है
तो बस्ती में बड़ा उत्पात भी मचाता है| पिछले दिनों बाबा राम रहीम के रूप में एक
आया था...पूरा पंचकूला जला था....चंडीगढ़ बचा रहा था...अब आज तो चुनावी बिसात पर
राम के प्रतिरोधी बहुत से रहीमों के गुट आए हैं.....देखना यह है कि चंडीगढ़ को ही जलाते
हैं या फिर किसी और शहर को जलाने की नींव रखकर जाते हैं|
पूरे
देश के बुद्धिजीवी, मीडिया, साहित्यकार, कवि ये आशा संजोए बैठे हैं कि जनता की
आवाज को बुलंद करने का एक नया प्लेटफ़ॉर्म आज विकसित किया जाएगा....| हो भी सकता है
कि ऐसा हो....लेकिन बहुत से कवियों, साहित्यकारों में से एक कवि ..... अशोक वाजपेयी की एक कविता को यहाँ सांझा कर रहा
हूँ....इस कविता के माध्यम से यह देखने का प्रयास किया जा सकता है कि उम्र के इस
पड़ाव पर ऐसे लोग क्या खोजने के लिए आए हैं-----यथा
“कहाँ
होती है दुनिया उस समय
जब
मैं तुझे सारे अंगों से थाम लेता हूँ
और
एक तृप्ति में स्थिर कर देता हूँ
तेरा
सौंदर्य?
जब
हम सुन्दर होते हैं
अपने
शरीर के उस विह्वल गुम्फन में
कहाँ
होती है दुनिया उस समय
उसके
वे क्षुब्ध पिता और पागल-परेशान भाई
क्यों
उस समय दफ्तरों या क्लासों में
काम
करते होते हैं,
और
क्यों सिर्फ हमारे लिए सुरक्षित छोड़ दिया जाता है
हलकी
धूप में उजाला सूनसान
खिड़की
के बराबर आकाश का एक नीला टुकड़ा
और
एक उत्तेजक दोपहर?
कहाँ
होती है दुनिया उस समय
जो
बाद में मोड़ पर मिलती है—परेशान
पर
हमें अपमानित करने को तैयार
अपनी-अपनी
पत्नियों से अतृप्त अनुभवी बुजुर्गों की
बदहवास
और हितैषी दुनिया
कहाँ
होती है उस समय
--जब
हम सुन्दर होते हैं
एक
उत्तेजक दोपहर में
अपने
शरीर के उस विह्वल गुम्फन में |[1]
(अशोक वाजपेयी, कहाँ होती है
दुनिया (कविता), 1961)