मनुष्य अपने विचारों की वजह से
जाना जाता है | युग कोई भी रहा हो, समय कोई भी रहा हो विचारों के तारतम्य में अपने
समय-समाज को आलोकित जरुर किया है उसने | यह उसी तारतम्यता का प्रमाण है कि आज हम
अपने विचारों के प्रारंभिक अवस्था से चलते-चलते इक्कीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक
एवं बौद्धिक समय में प्रवेश कर गए हैं | विद्वानों ने इस शदी को स्वतंत्रता एवं
समानता की शदी कहा है | भारत में उत्तर आधुनिकता का मुख्य दौर इस शताब्दी के
प्रारंभ से ही स्वीकार किया गया है | व्यक्ति, परिवार, समुदाय, समाज, देश, और
राष्ट्र से ऊपर उठकर विश्व की परिकल्पना करने लगा है | देशीयता की जगह
अंतर्देशीयता और राष्ट्रीयता की जगह अंतर्राष्ट्रीयता ने ले ली है | यह सच है कि
भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना सैद्धान्तिकतः उसके प्रारंभिक समय
से ही रहा है पर उसका व्यावहारिक और साकार रूप अब थोड़े बहुत अंतर के साथ हमारे
सामने आने लगा है |
परिवर्तन कभी भी स्वयं नहीं आता |
परिवर्तन को लाना पड़ता है | यह मानव जीवन की एक प्रबल विशेषता है | जो
परिस्थितियाँ उसके अनुकूल होती हैं उसे बदलने या परिवर्तित करने की चेष्टा व्यक्ति
कभी नहीं करता लेकिन जो स्थितियां उसके प्रतिकूल होती हैं उसे वह स्वीकार भी नहीं
करता | स्वीकार और अस्वीकार की संभावनाएं जहाँ बलवती हो उठती हैं कविता वहीँ से
शुरू होती है | मध्यकाल का संत साहित्य, छायावाद की स्वच्छंद काव्यधारा और
स्वतंत्रता पूर्व की राष्ट्रीयता सम्बन्धी कवि या कविताएँ इस प्रसंग के विशुद्ध
प्रमाण हैं | इस समय की कविताओं द्वारा परिवर्तन की जो संभावनाएं जनमानस के ह्रदय
में तलाशने की कोशिश की गयी, वह आज की कविताओं में बड़े सिद्दत के साथ देखा और समझा
जा सकता है |
अपने प्रारंभिक अवस्था से लेकर आज
तक जितना परिवर्तन समाज में हुआ, उससे कहीं ज्यादा परिवर्तन कविता के स्वरुप में
हुआ | स्वतंत्रता और समानता के जिस तरह की मांग समाज में बढ़ी कविता में भी वह मांग
उतनी ही तीव्रता के साथ बढ़ी | कहना तो यह भी गलत न होगा कि समाज-विकास के साथ-साथ
कविता का भी विकास हुआ | मानव जीवन में कितने संघर्षों के बाद समाज का अस्तित्व
निखर कर बाहर आया होगा, लोग एक- दूसरे को
जानने और समझने का प्रयत्न करना शुरू किए होंगे इन सबका विधिवत विवेचन-विश्लेषण
मानव-इतिहास में हुआ है और अनवरत आज भी हो रहा है | सवाल यह है कि कविता में समाज
का सम्पूर्ण अस्तित्व निखरकर कब सामने आया? लोग एक दूसरे के भावनाओं एवं संभावनाओं
को जानने समझने का प्रयत्न कब से और किस तरह सुरु किए? कविता की उपलब्धता सबके लिए
एक सामान रही या नहीं? रही भी तो किस स्तर पर, किसके लिए और किस हद तक?
यह सच है कि चतुरवर्णीय व्यवस्था
के तहत भारतीय समाज में निवर्तमान मानव-समाज को चार प्रमुख वर्णों में विभाजित
करके रखा गया | नेतृत्व एवं प्रतिनिधित्व का अधिकार प्रमुखतः ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र में पहले तीन वर्ण को ही प्राप्त रहा | सेवाभाव की प्रधानता होने
की वजह से या तो शूद्र-वर्ग ने अभिव्यक्ति के संसाधनों का प्रयोग करना उचित नहीं
समझा या फिर चाहते हुए भी उन्हें ऐसा अवसर नहीं दिया गया, यह एक व्यापक चिंतन और
शोध का विषय है, जिस पर आधिकारिक विद्वान अनवरत अपना कार्य कर रहे हैं लेकिन इस
सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन्हें कविता कहने या लिखने के लायक पहले कभी
नहीं समझा गया | कविता को उनके लायक जरूर समझने और समझाने का प्रयत्न किया जाता
रहा है | कविता अपने विशुद्ध रूप में भावात्मक और मुख्य रूप से तत्कालीन परिवेश की
उपज होती है | इसके लिए किसी भी बाह्य प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | यह
मानना रहा है सिद्ध साहित्य के पुरोधाओं का | हिंदी साहित्य के बीज आलोचकों द्वारा
उनके इस मांग को प्रायः परंपरा विरोधी और शास्त्र विरोधी करार दिया गया |
तत्कालीन समय के
व्यवस्था-विरोधी और रूढ़िवादी प्रवृत्तियों को पूर्णतः नकारने वाले सिद्ध कवियों के
विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की इस स्थापना को जरूर परखा जाना चाहिए-“84
सिद्धों में बहुत मछुए, चमार, धोबी, डोम, कहार, लकड़हारे, दरजी तथा बहुत से शूद्र
कहे जाने वाले लोग थे अतः जाति-पांति के खंडन तो वे आप ही थे | नाथ संप्रदाय भी जब
फैला तब उसमे भी नीची और अशिक्षित श्रेणियों के बहुत से लोग आये जो शास्त्र-ज्ञान
संपन्न न थे | जिनकी बुद्धि का विकास बहुत सामान्य कोटि का था |”[1] संभव
है कि शुक्ल जी यह कहना चाहते हों कि कविता कहने के लिए बुद्धि संपन्न और ऊंच जाति
का होना आवश्यक है | उनमे शास्त्र-ज्ञान सम्पन्नता यदि होती, वे ब्राह्मण जाति और
उनके नीतियों पर कठोर उक्तियों का प्रयोग विल्कुल न करते | ऐसा होने से वे
तत्कालीन जड़ परम्परावादी मानसिकता को नकारने के बजाय उसे अपनाते और उसी के अनुसार
अपना व्यवहार करते |
कविता इस बात के लिए क्यों राजी होती? वह तो
सबको एक सामान मानती है | सबके दुःख-दर्द, वेदना-संवेदना को अभिव्यक्ति प्रदान
करती है | फिर विरोधों और अन्यायों से लड़ना तो कवि और कविता का स्वभाव है |
परिवर्तन ही इनकी नियति है | इस नियति को आज से बहुत समय पहले सर्वप्रथम सिद्धों
एवं नाथों द्वारा पहचाना गया था | बाद में इसे धारदार बनाने की प्रकृया कबीर और
रैदास जी शुरू करते हैं | सामाजिक विषमताओं को ख़तम कर पहली बार समानता की आवाज
बुलंद करने वाले सिद्धों पर अपना मत रखते हुए बच्चन सिंह जी ने सही कहा है-“जहां
तक सिद्ध जाति-पांति की प्रथा, ऊंच-नीच का भेद, शास्त्र विजड़ित तत्ववाद और
बाह्याडम्बर का विरोध करते हैं वहाँ तक उनकी भूमिका निस्संदेह प्रगतिशील है | वे
अत्यंत तीखे और दो टूक ढंग से उनका खंडन करते थे | बाद में खंडन का यह स्वर कबीर
में और भी जोरदार ढंग से प्रतिध्वनित हुआ |”[2] ऐसे
प्रगतिशील स्वर को कविता का रूप न मानकर साम्प्रदायिकता का स्वर करार देना एक तरह
से आलोचकों का पूर्वाग्रह से ग्रसित होना भी हो सकता है और परंपरा के प्रति झुकाव
भी | हिंदी साहित्य और हिन्दू परंपरा दोनों ही इस मानसिकता से पोषित और दूषित हैं,
यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है |
हिंदी साहित्य के विकास
परंपरा पर यदि दृष्टिपात किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि दलित हिंदी कविता
सही अर्थों में सिद्धों, नाथों एवं कबीर परंपरा का विकास है | यहाँ भी कविता के
बाह्य सौंदर्य को महत्व न देकर आतंरिक भावों एवं दृष्टियों को प्रधानता दी जा रही
है | कविता के पारंपरिक विश्लेषण को त्यागकर नई आलोचना पद्धति का विकास किया जा
रहा है | बजरंग बिहारी तिवारी से हुई बातचीत में शरण कुमार लिम्बाले जी कहते
हैं-“दलित साहित्य का विषय, आशय अलग है, दलित साहित्य का नायक और स्वर अलग है |
दलित साहित्य कला नहीं पोलिटिकल डाक्यूमेंट है | इसका लक्ष्य मानव-मुक्ति है पाठक
का आनंद नहीं | इसकी थ्योरी अपने अधिकार और स्वतंत्रता की भावना से विकसित हुई है
| इसे ध्यान में रखकर इस साहित्य की चर्चा होनी चाहिए | ऐसी चर्चा के लिए हम अलग सौंदर्यशास्त्र
की बात करते हैं |”[3]
अर्थात जिस मानसिकता से ग्रसित होकर संत आदि की वाणियों एवं कविताओं को ख़ारिज करने
का प्रयत्न किया गया था और लगभग आज भी किसी न किसी रूप में ऐसा किया जाने का
प्रयास होता रहता है, दलित आलोचक एवम साहित्यकार इस प्रवृत्ति को सिरे से नकारते
हैं | होना भी चाहिए | यदि शरीर का कोई अंश दर्द से पीड़ित है तो हृदय से उल्लास और
उमंग के स्वर नहीं, दुःख एवं वेदना के आह छूटते हैं | दलित हिंदी कविता इसी आह की
उपज है |
इस दृष्टि से हीरा डोम जी द्वारा लिखित
कविता “अछूत की शिकायत” (1914 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित) प्रथम दलित हिंदी
कविता स्वीकार करना और श्री अछूतानन्द जी को प्रथम परिपक्व दलित हिंदी कवि घोषित
करना दलित हिंदी कविता के विकासक्रम को नकारना होगा |[4] अभी
तक परंपरा से लगभग यह सभी को स्वीकार रहा है कि चिंतन का प्रारंभ हिंदी साहित्य
में प्रारंभ से ही रहा है |[5] यह
बात मैनेजर पाण्डेय जी ने भी स्वीकार किया है और दलित साहित्य के विकासक्रम को
स्पष्ट करते हुए कहा है “दलित साहित्य के रचनाकार तब भी थे, जब कोई दलित आन्दोलन
नहीं था, क्योंकि यातनाग्रस्त व्यक्ति को चीखने से कोई रोक नहीं सकता और दलित
साहित्य एक स्तर पर यातना से पैदा हुई चीख का ही साहित्य है”[6]
हिंदी काव्य साहित्य में हीरा
डोम और अछूतानन्द जी का ये बड़ा योगदान माना जा सकता है इन्होनें संत परंपरा को
हिंदी पट्टी में नवीन रूप प्रदान करते हुए दलित स्वर को प्रतिष्ठापित करने में
महत्वपूर्ण भूमिका जरूर निभाई है | वर्तमान समय में दलित हिंदी कविता के अंतर्गत
प्रतिष्ठापित हो रहे वही नवीन रूप परिवर्तनकारी प्रमुख स्वर बनकर उभरे हैं | यह स्वर परिवर्तन का कारवां लिए जीवन और समाज
के हर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है | सामाजिक वातावरण जिस गहरे और यथार्थ बोध के धरताल
पर पहुंचकर, जिन नवीन मान्यताओं की प्रतिष्ठा हेतु संघर्ष रत दिखाई दे रहा है,
निःसंदेह उसे साकार रूप में लाने का कार्य कविता द्वारा ही संभव है जिसे देर से ही
सही दलित रचनाकारों ने पहचाना है और उसे व्यावहारिक जीवन का हिस्सा बनाने के लिए
संघर्षरत दिखाई दे रहे है |
इनके कवि-हृदय का मूल स्वर सामाजिक स्वतंत्रता के साथ वैयक्तिक निजता की संभावनाओं
को प्रश्रय देना भी है | वैयक्तिक निजता तभी प्राप्त होगी जब समाज पर इनका सीधा
हस्तक्षेप होगा | सामाजिक नीतियों एवं रीतियों पर सीधे तौर पर हस्तक्षेप वही कर
सकता है जिसे सामाजिक समानता का अधिकार प्राप्त हो | इसी अधिकार से इन्हें वंचित
रखा गया | डॉ० शरणकुमार लिम्बाले जी के अनुसार-“हजारों वर्षों से दलितों को सत्ता,
संपत्ति और प्रतिष्ठा से वंचित रखा गया | दलित इस व्यवस्था के विरुद्ध बगावत न
करें इसलिए “यह व्यवस्था ईश्वर ने बनाई है” ऐसा सिद्धांत प्रतिपादित किया गया |
दलितों की हजारों पीढियां यह अन्याय सहन करती हुई जी रही हैं |”[7] कुशल
सामाजिकता का निर्वाह करने के लिए ये अधिकार इसलिए भी प्राप्त करना आवश्यक होता है
क्योंकि इसके बाद शोषण का कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता | भारतीय समाज में समानता का
यह अधिकार आज से नहीं, दलितों द्वारा सदियों से माँगा जाता रहा है | इनके मांग के
आड़ में इनके अस्तित्व को ही नकारने का प्रयास किया जाता रहा | यह प्रयास धार्मिकता
के आवरण में अधिक किया गया |
निःसंदेह यह हमारे समाज की
विडंबना ही है कि कौन किस स्थिति में है इसका आकलन सामाजिकता के आधार पर न करके
अबतक मात्र धर्म के आधार पर किया जाता रहा है | हर एक स्थिति पर धार्मिक मान्यताओं
को लाकर खड़ा करना और फिर उसके आवरण में भेदभाव आधारित व्यवहार करना इस देश की एक
संस्कृति सी हो गयी है | इस असामाजिक संस्कृति को राजकिशोर जी के इस वक्तव्य से समझा जा सकता है-“भारत में अस्पृश्यता का आधार
मूलतः धार्मिक मान्यताएं हैं | धर्म के सर्वोपरि होने के कारण समाजशास्त्रीय
दृष्टि से उसका विश्लेषण करने की जरूरत नहीं समझी गयी | बढ़ते बढ़ते यह प्रवृत्ति
शुचिता, पाप-पुण्य और अन्य रूढ़िगत मान्यताओं का अभिन्न अंग बन गयी | कोई भी
सामाजिक मान्यता या व्यवहार जब कर्मकांड का हिस्सा बन जाता है तो वह कठोर से कठोर
मानव विरोधी कानून से भी ज्यादा भय की व्युत्पत्ति करता है और धीरे-धीरे बंदिशें
इतनी कड़ी कर देता है कि उसके बारे में पुनर्विचार या परिवर्तन की बात सोचना भी
संभव नहीं होता |’’[8]
भारतीय परिवेश में दलितों के लिए बंदिशें ही बंदिशें बनाई गयी | प्रारंभ से लेकर
आज तक इनके लिए धर्म ने मात्र बांधना ही चाहा है | दलितों ने तो इस बंधन को
स्वीकार करके सामाजिक मान्यताओं के स्वीकार का भी समर्थन दिया लेकिन इस धर्म ने
उसे कभी भी अपना नहीं समझा | दलित कवि एवं विचारक धार्मिक भावनाओं के पोषक उनके
आधार ग्रंथों को सिरे से नकारते हैं | उनकी दृष्टि में ये धार्मिक ग्रन्थ एक तरह
से वे हथकंडे हैं जिनके आवरण में दलित एवं कमजोर लोगो को शोषित किया जाता है |
शोषण के जो हथकंडे ये दलितों के लिए अपनाते हैं वही यदि इनके लिए
लागु होती, क्या तब भी वे धर्म के प्रति निष्ठावान होते? ‘‘तब तुम्हारी निष्ठां
क्या होती’’ कविता में कँवल भारती जी यही पूंछना चाहते हैं – उनके अनुसार-
यदि
धर्म सूत्रों में लिखा होता
तुम
ब्राह्मणों, ठाकुरों और वैश्यों के लिए
विद्या,
वेद पाठ और यज्ञ निषिद्ध है,
यदि
तुम सुन लो वेद का एक भी शब्द
तो
कानों में डाल दिया जाए पिघला शीशा,
यदि
वेद-विद्या पढ़ने की करो धृष्टता
तो
काट दी जाए तुम्हारी जिह्वा
यदि
यज्ञ करने का करो दुह्साहस
तो
छीन ली जाए तुम्हारी धन-संपत्ति
या,
क़त्ल कर दिया जाये तुम्हें उसी स्थान पर
तब,
तुम्हारी निष्ठां क्या होती ?”[9]
धार्मिक आडम्बर का मानव समाज
में कोई योगदान नहीं है | इसने सिर्फ और सिर्फ लोगों को बांटा भर है | जोड़ा नहीं
कहीं से भी किसी भी स्तर पर | वह ईश्वर जिसके अस्तित्व की बात लोग करते हैं और
उसमे आस्था रखने के लिए दबाव डालते हैं, यदि उसमे किसी प्रकार की कोई सार्थकता
होती तो समाज में इतनी बड़ी असमानता न होती | एक वर्ग-विशेष को उससे दूर रहने और न
छूने के लिए मजबूर न किया जाता | संभव है
कि यह ईश्वर एक आकर्षण मात्र हो जिसको केंद्र में रखकर धार्मिक ठेकेदार लोगों को
वहां पहुँचने पर मजबूर करते हैं और जब वे आते हैं तो उनका शोषण करते हैं | शोषण की
इस प्रवृत्ति पर बोलते हुए डॉ० भीमराव अम्बेडकर जी ने भी कहा था-“मैं आप लोगों से
स्पष्ट कह देना चाहता हूँ मनुष्य धर्म के लिए नहीं है बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है
| संसार में मनुष्य से बढ़कर और कोई चीज नहीं है | धर्म एक साधन मात्र है जिसे बदला
जा सकता है |”[10]
डॉ० अम्बेडकर का यह विचार हालांकि हिन्दू धर्म से बौद्ध धर्म को अपनाने के सम्बन्ध
में था | लेकिन यहाँ दलित हिंदी कवि धर्म में परिवर्तन नहीं अपितु वे उसमे सुधार
लाने के पक्ष में अधिक दिखाई देते हैं | इसीलिए दलित हिंदी कवि धार्मिकता के इस
कुप्रभाव को ख़त्म कर सामाजिक न्याय की मांग करते हैं | वे पंडितों एवं धार्मिक
ठेकेदारों पर स्वयं को उपस्थित करके संतुष्ट हो जाना चाहते हैं कि आखिर इसके आवरण
में कैसे एक मानव दानव के रूप में परिणत हो उठता है | यहाँ तक कि वे ईश्वर के
अस्तित्व का ही नकार करते हैं |
“हाँ-हाँ
मैं नकारता हूँ
ईश्वर के अस्तित्व को
संसार के मूल में उसके कृतित्व को
विकास-प्रक्रिया में उसके स्वत्व को
प्रकृति के संचरण नियम में
उसके वर्चस्व को,
क्योंकि ईश्वर एक मिथ्या विश्वास है
एक आकर्षक कल्पना है
अर्द्ध-विकसित अथवा कलुषित मस्तिष्क की
तब जाग सकता है कैसे
इसके प्रति श्रद्धा का भाव?
सहज लगाव?
फिर भी मैं चाहता हूँ मन्दिर में प्रवेश
और बनना पुजारी
हाँ-हाँ मैं पुजारी बनना चाहता हूँ
देव-दर्शन के लिए नहीं
पूजन-अर्चन के लिए नहीं
केवल जानने के लिए कि—
देव-मूर्ति के सान्निध्य में रहकर
एक मानव कैसे बन जाता है
पाषाण-हृदय अमानव?[11] (एन. आर. सागर - अभिलाषा)
ईश्वर के अस्तित्व को
संसार के मूल में उसके कृतित्व को
विकास-प्रक्रिया में उसके स्वत्व को
प्रकृति के संचरण नियम में
उसके वर्चस्व को,
क्योंकि ईश्वर एक मिथ्या विश्वास है
एक आकर्षक कल्पना है
अर्द्ध-विकसित अथवा कलुषित मस्तिष्क की
तब जाग सकता है कैसे
इसके प्रति श्रद्धा का भाव?
सहज लगाव?
फिर भी मैं चाहता हूँ मन्दिर में प्रवेश
और बनना पुजारी
हाँ-हाँ मैं पुजारी बनना चाहता हूँ
देव-दर्शन के लिए नहीं
पूजन-अर्चन के लिए नहीं
केवल जानने के लिए कि—
देव-मूर्ति के सान्निध्य में रहकर
एक मानव कैसे बन जाता है
पाषाण-हृदय अमानव?[11] (एन. आर. सागर - अभिलाषा)
धरती पर सबको एक सामान रूप से
भेजने वाला ईश्वर असमानता की शिक्षा तो नहीं देता है | फिर अलग जाति, अलग पंथ और
अलग धर्म की मांग समाज में क्यों प्रमुख हो उठती है? वे यह जानना चाहते हैं कि
आखिर असमानता का भाव आया कहाँ से | धरती सबकी है | आसमान सबका है | हम सब एक ही
जमीन पर होते हैं फिर वे इतने ऊंचे कैसे हो जाते हैं और हम हर स्थिति में सबल होते
हुए भी इतने कमजोर कैसे हो जाते हैं? दलितों के ह्रदय में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक
भी है कि आखिर जब वे भी इसी विकसित मानव-समाज के अंश हैं फिर वे इतने पिछड़े और
शोषित क्यों रह जाते हैं? ओमप्रकाश वालमीकि जी का यह प्रश्न वाकई तर्कसंगत है और
सामाजिक न्याय की मांग को सार्थकता प्रदान करती है |- उनके अनुसार-:
“जिस रास्ते से चलकर तुम पहुँचे हो
इस धरती पर
उसी रास्ते से चलकर आया मैं भी
फिर तुम्हारा कद इतना ऊँचा
कि आसमान को भी छू लेते हो
तुम आसानी से
और मेरा कद इतना छोटा
कि मैं छू नहीं सकता
जमीन को न छूने पाने की व्यथा
तो सिर्फ वही बयान कर सकता है जिसे ऐसा करने और यहाँ तक सोचने मात्र के लिए विवश
किया गया हो | ये कभी एहसास ही न कर सके कि विद्यमान उसी समाज में हैं, जिसकी
संरचना एक दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होने की प्रवृत्ति पर किया गया था | इनके
जीवन काल से लेकर मृत्युकाल तक इन्हें अपनी रीतियों-नीतियों से अलग रखने का
षड़यंत्र रचा जाता रहा | ये महसूस तो करते थे पर कहते किससे? सुनता कौन? समाज में
सामाजिक रीतियों एवं नीतियों से जबरजस्ती अलग-थलग छोड़ दिए जाने की वेदना-व्यथा को
अभिव्यक्त करते हुए कवि कहता है-
ओ!
मेरे गाँव !
तेरी
जमीन पर
घुटी-घुटी
साँसों के साथ
चलना
पड़ता है अलग-थलग
लड़खड़ाते
कदमों से
चलना
पड़ता है अलग-थलग
मरने
के बाद भी
जलना
पड़ता है अलग-थलग |”[13]
परंपरा से चली आ रही भारतीय
समाज में दलित समुदाय के साथ ये घटनाएँ अब आम बात हो चुकी हैं | इनके विरोध में दलित समुदाय जब भी एक होना चाहा
सवर्णों द्वारा उन्हें विभाजित करने का प्रयास बराबर किया जाता रहा है | यह सब
ब्राह्मणवादी विचारधारा के षड्यंत्रों के परिणामस्वरूप हुआ | होना तो यह चाहिए कि
इस व्यवस्था की यदि अनुपालना करनी ही है तो फिर ऐसा दोनों तरफ से किया जाना चाहिए
| जाति-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मात्र दलित वर्ग से ही ऐसी संभावनाओं की
अपेक्षा करना सामाजिक नैतिकता के विरुद्ध है | नैतिकता की परवाह कौन करता है? यदि
यही परवाह होती तो फिर मनुष्य-जाति के विकसित अवस्था में प्रवेश कर जाने के बाद कम
से कम असमानता की सूरत किसी भी रूप में न विद्यमान होती | समाज में नित प्रतिदिन
विकसित हो रहे समस्त विभेदताओं की वजह यदि कोई है तो वह उच्च-वर्ग के लोग हैं | डॉ०
सुभाषचंद्र जी की माने तो-“जाति व्यवस्था उच्च-वर्ग की उत्पत्ति है जो निम्न-वर्ग
में फूट डालकर उसकी एकता को छिन्न-भिन्न करती है | जाति-व्यवस्था के नियमों या
आचार-संहिता की अनुपालना हमेशा निम्न-वर्गों से की जाती है | कोई प्रभावी व्यक्ति
जाति-व्यवस्था की कथित आचार-संहिता को तोड़ता है तो उस पर कोई दण्डात्मक कार्यवाही
नहीं की जाती |”[14]
उसे हर संभव प्रयत्न करके दबाने की कोशिशें जरूर की जाती हैं | यह कोशिशें कभी राम
के रूप में शम्बूक की हत्या करके की गयी तो कभी द्रोणाचार्य के रूप में एकलव्य का
अंगूठा दान में मांगकर | दलित कवि इस पीड़ा को, इस षड़यंत्र को आज तक नहीं भुला पाए
हैं | डॉ० श्याम सिंह शशि ने ‘एकलव्य से’ कविता में एकलव्य से पूंछते हुए अपनी
पीड़ा को इस तरह व्यक्त करते हैं-
“एकलव्य!
तुम्हें
भोला भंडारी कहूं या ज्ञानी मूर्ख
जो
अंगूठा काटकर
दे
बैठे एक ऐसे गुरु को, दक्षिणा में
जिसने
तुम्हें नहीं सिखाया था
क
ख ग भी – धनुर्विद्या का
और
बना दिया तुम्हें ही निशाना अपने धनुष की धूर्त विद्या का
और
यों काट गए हाथ पूरे समाज के
समाज-जिसके
तुम अगुआ थे |”[15]
दलित कवियों की दृष्टि में अब ऐसा होना सम्भव
नहीं है | समाज में रहने के लिए अपनी कथनी पर सबको संतुलन स्थापित करना होगा |
अपनी करनी का हिसाब सामाजिकता की दृष्टि से सब को देना पड़ेगा | शोषण और अत्याचार
की एक बारगी कार्यवाही समाप्त होगी | किसी एक वर्ग को कठघरे में घेरने की
प्रवृत्ति पर रोक लगाना होगा | यह इसलिए क्योंकि अब दलित समुदाय पिछड़ा और पद-दलित होकर
चुप रहने की भूमिका का निर्वहन ही नहीं करेगा | वह दहाड़ेगा भी | सदियों से चले आ
रहे शोषण के पीछे कहीं न कहीं उसका यही मौन रहा है जो उसे पीछे करता रहा | अब वह
चौकन्ना है | अपने समाज के प्रति, अपने अस्तित्व के प्रति और अपने प्रवृत्तियों के
प्रति भी | यथार्थतः यदि देखा जाय तो दलितों का अपनी प्रवृत्ति, अस्तित्व और समाज
के प्रति चौकन्ना होना एक विस्तृत समाज की संरचना में अपनी सहभागिता को सुनिश्चित
कराना है | जो दलित शब्द लज्जा, उपेक्षा और अपमान का बोध कराता था वही दलित शब्द
अब समाज में समानता का प्रतीक समझा जाने लगा है | इस शब्द की व्यापकता को परखने का
प्रयास किया जाय तो यह माना जा सकता है-“दलित शब्द भाषावाद, अलगाववाद, जातिवाद,
क्षेत्रवाद को नकारता है तथा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है |
‘दलित’ शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देता है जिनकी पहचान इतिहास के पृष्ठों में सदा
के लिए मिटा दी गयी है | जिनकी गौरवपूर्ण संस्कृति, ऐतिहशिक धरोहर, कालचक्र में खो
गयी है |”[16]
कर्मशील भारती की ये काव्य पंक्तियाँ दलित
शब्द की कितनी सुन्दर विवेचना समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती हैं-
मैनें
कभी भी किसी से
घृणा
नहीं की
छल
नहीं किया
न
सिखाई कभी किसी को घृणा
मैनें
सीखा है प्रेम से रहना और एकता
करुणा
और शील पर कायम रहना
अहिंसा
प्रज्ञा
निष्ठा
स्त्री
सम्मान
मैं
दलित हूँ |”[17]
हिंदी साहित्य से लेकर सम्पूर्ण भारतीय समाज में सहभागिता को सुनिश्चित
कराने की प्रतिबद्धता जिस तीव्र गति से बढ़ रही है, यह अनवरत बनी रहनी चाहिए |
इसमें किसी भी प्रकार की मंदता या भटकाव की स्थिति नहीं होनी होनी चाहिए | ऐसा यदि
होता है, तो इसमें कोई शक नहीं कि प्रतिरोधी शक्तियां, जिसका सामना करते हुए
दलितों ने अपनी अलग पहचान और शान बनाई है, उन्हें कुंद करने के लिए नये षड़यंत्र
बनाकर खड़ी हो जाएं | यहाँ डॉ० सुभाषचंद्र
जी के इस वक्तव्य को जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए-“कोई आन्दोलन विस्तार पाता है, तो
वह अपनी परंपरा की पहचान करता है | जो आन्दोलन अपनी प्रगतिशील परंपरा की सही पहचान
करके उसे अपने आन्दोलन से जोड़ पाता है तभी उसका भविष्य भी उज्ज्वल होता है | परंपरा
के प्रति व्यहार पर ही दलित आन्दोलन चिंतन का भविष्य टिका है | चिंताजनक पहलू यही
है कि वर्तमान की उपलब्धियों से उत्पन्न अतिरिक्त जोश के झोंक में अपनी परंपरा को
ही गरियाने न लगें | दलित साहित्य और आन्दोलन समाज में बुनियादी परिवर्तन लाने का
संकल्प है, जिससे करोड़ों-करोड़ों दलित-शोषित जनता को आशाएं अपेक्षाएं हैं |”[18] इसमें
कोई संदेह नहीं है कि दलित हिंदी कवि अपने पारम्परा से पूर्णतः जुड़े हुए हैं और जो
अतीत में न हो सका उसे पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं | इस प्रतिबद्धता में
मानव-जीवन की सार्थक सम्बद्धता भी जुडी हुई है जिसकी उपेक्षा न तो दलित कवि कर
सकते हैं और न ही तो वर्तमान समाज |
[1] शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिंदी साहित्य का
इतिहास, नई दिल्ली, कमल प्रकाशन, पृष्ठ-26
[2] सिंह, डॉ० बच्चन, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास,
नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-30
[3] लिम्बाले, शरणकुमार, दलित साहित्य का सौंदर्य
शास्त्र (अनु०-रमणिका गुप्ता), नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2014, पृष्ठ-173
[4] डॉ० बच्चन सिंह ने “हिंदी साहित्य का दूसरा
इतिहास” में लिखा है-“कुछ लोग 1914 की ‘सरस्वती’ में हीरा डोम लिखित “अछूत की
शिकायत’’ को पहली दलित कविता मानते हैं | कुछ दूसरे अछूतानन्द को पहला दलित कवि
कहते हैं | उन्होंने 1910 से 1927 तक बहुत-सी दलित कविताएँ लिखी | किन्तु वे
दिनांकित नहीं हैं | इसलिए हीरा डोम को ही पहला दलित कवि कहना संगत है |” (हिंदी
साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ-518-519)
[5] ‘नवे दशक की हिंदी दलित कविता’ के ‘दलित साहित्य
का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ नमक अध्याय में डॉ० रजत जी लिखती हैं-“सन् 1000 ई० के
बाद सिद्ध रचनाकारों में सरहपा जैसे कवि दलित दलित जाती से हुए हैं....इस बात पर
प्रायः सभी विद्वान एकमत हैं कि सरहपा सातवीं-आठवीं शताब्दी के थे और वे दलित जाति
में पैदा हुए थे |(द्रष्टव्य – तिवारी, बजरंग बिहारी, जाति और जनतंत्र : दलित
उत्पीड़न का वर्तमान, गाजियाबाद, साहित्य संस्थान, 2015, पृष्ठ-178)
[6]
यादव, राजेंद्र (सं.) हंस
(मासिक-पत्रिका), नई दिल्ली, सत्ता, विमर्श और दलित विशेषांक, अंक-अगस्त, 2004,
पृष्ठ-204
[7]
लिम्बाले, शरणकुमार, दलित साहित्य का
सौंदर्य शास्त्र (अनु०-रमणिका गुप्ता), नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2014,
पृष्ठ-43
[8] राजकिशोर, दलित विमर्श : सन्दर्भ गाँधी, शिमला,
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, 2003, पृष्ठ-1
[9] द्रष्टव्य-कुमार, निरंजन, मनुष्यता के आईने में
दलित साहित्य का समाजशास्त्र, नई दिल्ली, अनामिका पब्लिशर्स, 2010, पृष्ठ-90
[10] द्रष्टव्य-काजल, डॉ० अजमेर सिंह, दलित चिंतन के
आयाम, दिल्ली, श्री नटराज प्रकाशन, 2012, पृष्ठ-67
[13] सिंह, डॉ० सुखबीर, दीर्घा, पृष्ठ-13
[14] चन्द्र, डॉ० सुभाष, दलित मुक्ति आन्दोलन : सीमाएं
और संभावनाएं, पंचकुला, आधार प्रकाशन, 2010, पृष्ठ-23
[15]
द्रष्टव्य- द्रष्टव्य-कुमार, निरंजन,
मनुष्यता के आईने में दलित साहित्य का समाजशास्त्र, नई दिल्ली, अनामिका पब्लिशर्स,
2010, पृष्ठ-82-83
[16]
सन्देश, विजय कुमार, नामदेव, दलित चेतना
और स्त्री विमर्श, नई दिल्ली, क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी, 2009, पृष्ठ-41
[17]
भारती, कर्मशील, कलम को दर्द कहने दो,
पृष्ठ-62
[18]
चन्द्र, डॉ० सुभाष, दलित मुक्ति आन्दोलन :
सीमाएं और संभावनाएं, पंचकुला, आधार प्रकाशन, 2010, (भूमिका)पृष्ठ-14
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