कविता में जैसे-जैसे जिम्मेदारी का भाव
बढ़ा है ढोंग और ढकोसलों का सहारा कवियों द्वारा लिया गया है| ठगबाजी इतनी सक्रिय
और स्वाभाविक रही कि उसके आवरण में जन सरोकारों को दूषित करने के लिए बाजारीकरण
विधिवत यहाँ भी लाया गया| अब तो परिणाम यह हो गया है कि इन दिनों के परिवेश में
कवियों की संख्या अधिक और कविताओं की लोकप्रियता घटी है| इसकी सबसे बड़ी वजह ये है
कि जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए वे प्रकाशित होने से अछूते रहे और जिन्हें अछूते रहना
चाहिए वे प्रकाशित होकर जबरन साहित्यिक समाज में घुसपैठ करते रहे| कवि अखिलेश्वर
पाण्डेय ऐसे ही कवि हैं जो यह स्वीकार करते हुए “मैं तमाम चुनौतियों के लिए/ खुद
को तैयार करना चाहता हूँ”, छपास-संस्कृति से दूर रहते हुए रचनाकर्म में सक्रिय
हैं| अपनी सद्यः प्रकाशित कृति “पानी उदास है” के माध्यम से ये अपनी स्वाभाविक और यथार्थ
स्थिति में कविता की जनधर्मिता को मानवीय संवेदना का आधार तत्त्व स्वीकारते हैं| सच
यह भी है कि इनकी कविताएँ ‘जन’ के लिए बड़ी देर से और कई परिस्थितियों से गुजरने के
बाद सुलभ हो सकीं हैं| हो सकता है इसके पीछे प्रकाशकीय उलझन कार्य कर रही हो; इस
अनुभव-संपन्न लेखन से रचना और समाज के समबन्धों की पड़ताल बड़ी तल्लीनता से की गयी
है|
संग्रह में छपी महत्त्वपूर्ण कविताओं में जन-जीवन
की छवि देखते हुए हृदय आह्लादित हो उठा है| ग्रामीण संस्कृति से कवि का बड़ा लगाव
रहा है| यह लगाव आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है जहाँ “खोजना अपने ही लोगों को/
अपनी ही तरह के लोगों की भीड़ में/ बेहद दुष्कर है|” कवि द्वारा चित्रित यथार्थ
द्वारा मानवीय विकास यात्रा के ‘रास्ता’ में एक पूरा संस्कृतिबोध जिस तरह से
स्पष्ट हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है| शब्दों का यह रेखांकन देखा जा सकता है--“कुछ
पालतू कुक्कुर भांकते हैं/ मानो, उसकी दिनचर्या में खलल पड़ गया है/ दरवाजे के बाहर
खड़ी/ बछिया भी रंभाती है/ मुर्गियाँ मुझे दौड़ाती हैं/ मानों/ कह रही हों/ सुरक्षित
दूरी बनाए रखो/ समझ में नहीं आता/ यह कच्चा-पक्का रास्ता/ बस्ती में जाता है/ या
बस्ती से बाहर आता है/ जो भी हो यह रास्ता है अच्छा/ रोटी कमाने शहर जाने वाला हर
नौजवान/ और गाँव की हर बेटी का दूल्हा/ आखिर इसी रास्ते तो जाता है|” यह भी एक
विडंबना हो सकती है आज के समय की कि न तो अब वे कच्ची-पक्की सड़के रह पा रही हैं और
न ही तो बछियाँ, मुर्गियां और पालतू कुत्तों की स्थापित परम्पराएं| ग्रामीण
संस्कृति जैसे सांस लेने में अब परेशानी-सी महसूस कर रही हो| इसलिए भी क्योंकि
“अटालिकाओं की छाया ने/ हमें बौना बना दिया है/ मल्टीप्लेक्स ने छीन ली हमारी
मासूमियत/ हैरी पॉटर को उड़ान भरते देख/ रोमांचित होते हैं हम/ बच्चों को खेलने से
रोकते हैं/ मशीनों के शोर में दब गयी है भाषा/ बंजर हो गयी है हमारी भावभूमि/ अब
उगते नहीं उस पर/ सुविचार|” सुविचार तभी उगेंगे जब संस्कारों की खेती हो| परिवेश
में रहने वाले लोग उद्यमी और मेहनती हों| विघटन की जगह संगठन की प्रधानता हो| आज
इन सभी स्थितियों का अभाव ग्रामीण संस्कृति में वर्तमान हुआ है|
कवि ग्रामीण व्यवहारों में बड़ा स्पष्ट
है| यह स्पष्टता उसकी इस प्रतिबद्धता में प्रमाणित होती है कि “गाँव की पगडंडियों
और/ खेत के मेड़ों के बारे में लिखना है|” उसकी दृष्टि में अभावों की भावभूमि तक
अनवरत बढ़ते रहने के लिए संस्कृति को इस स्थिति तक पहुंचाने में उजाड़-संस्कृति की
बड़ी भूमिका रही है| बीजों को आकार लेने से पहले ही उसे निकालकर खा जाने वाले लोग
गहरे में देखे गए हैं| आज यह उन्हीं की कृपा है कि बाग-बगीचे उजड़ कर ऊसर-रूप
परिवर्तित होने के लिए विवश हुए हैं| यहाँ कवि जानना चाहता है—“रोटी हमारा पोषण
करती है/ रोटी देने वाले हमारा शोषण/ चूल्हे की आग डराती है हर रोज/ जंगल तेजी से
ख़त्म हो रहे हैं/ जलावन कहाँ से आएगा?” जलावन के अभाव में यह चिंता कवि की ही नहीं
परिवेश की भी है...हर घर यदि गैस जलती भी है तो फिर उतने पैसे कहाँ से आएँगे? इसका
जवाब कोई देता नहीं पूछने वाले चरित्र पर संशय जरूर कर लिया जाता है| बावजूद इसके
कवि आहत है और संवेदनात्मक स्तर गहरे यथार्थ तक उनसे जुड़ा है| यह जुडाव का ही
प्रतिफल है कि जब उसे गाँव की स्थिति याद आती है वह कविता तो किसी भी स्तर पर पूरा
नहीं कर पाता| वह स्वयम स्वीकारता है “मैं जागता रहा पूरी रात/ अधूरी कविता नहीं
हो सकी पूरी/ मुझे याद आता रहा--/ माँ के पैरों की बिंवाई/ पिता जी का फटा कुरता/
दादी की आँखों का मोतियाबिंद/ मैं था तो रोशनी से जगमगाते लैंप के पास/ मुझे याद
आता रहा/ मेरे गाँव में पसरा अँधेरा|”
संग्रह की कविताओं में कवि का वर्तमान
राजनीतिक षड्यंत्रों से भी बड़ा वास्ता रहा है| वह दिन प्रतिदिन आम आदमी की किफायती
में लिए जा रहे कसमों, किए जा रहे वायदों और दिए जा रहे दिलासों से परिचित ही नहीं
है अपितु झेल भी रहा है| भयावह राजनीतिक षड्यंत्रों से वह विचलित तो होता ही है,
देश के शीर्ष नेतृत्व द्वारा हताहत किए जा रहे जन-संवेदना की यथार्थता उसे कहीं
अन्दर तक परेशान भी कर जाती हैं| जुमलेबाजी रवैये ने कैसे जनमानस को अपने गिरफ्त
में समेटे हुए है वह कवि के इन पंक्तियों से देखा जा सकता है “दूसरों को डराने के
लिए/ कुछ लोग क्या-क्या नहीं करते/ इससे परे/ कुछ कलाबाज ऐसे हैं--/ जिनके
‘भाइयों-बहनों’ कहते ही/ डर जाता है पूरा देश|” डर जाने की यह स्थिति एक बार
पाठक-मन को कवि के स्वभाव पर शक करने के लिए बाधित भी करती है ऐसा इसलिए भी
क्योंकि कहीं न कहीं जो छवि बुद्धिजीवियों द्वारा देश के अगुवा की बैठा दी गयी है,
यथार्थ वहीं भर नहीं है| ठीक से समझा जाए तो उस अकाट्य मौन से तो कहीं अधिक अच्छा
है और आत्मीय है ‘भाइयों-बहनों’ कहकर मौन-संचारित चुप्पी को तोडना| कभी कभी ऐसा भी
लगता है कि समकालीन हिंदी कवि पक्षपात का भी शिकार हो रहा हैं| लेकिन जब कवि की ये
पंक्तियाँ दिखाई देती हैं तो संतोष की किरणें बलवती हो उठती हैं कि कवि सच ही
लिखता है जो भी लिखे-
“उलट दो समय रथ के उस पहिये को
जो इंसानियत के सीने से गुजर
रहा है और
उन लोगों के बारे में लिखो
जो जुलूस का नेतृत्व करना नहीं
जानते
झंडा लेकर चलने का सामर्थ्य
नहीं जिनमें
आक्रोश से भरी हुई
बेरोजगार, दिशाहीन पीढ़ी के
बारे में लिखो
जिसकी नाक में नकेल डालकर
पालतू बनाने की राजनीतिक कोशिश
हो रही है|”
यह भी सही है कि वर्तमान समय में कविता लिखने से अधिक समय कवियों का सत्ता
और राजनीति की जुगाली करते बीत रहा है| कवि और साहित्यकार का जो कार्य है यदि वह
ठीक से उसे निभाए तो लोकतंत्र जैसी साशन-व्यवस्था में निराशा के लिए कहीं कोई जगह
ही न रह जाए| विश्वास की ऐसी ही स्थिति तब भी कवि में दिखाई देती है जब वह
राजनीतिक दलों की संकीर्णता से कहीं गहरे में परिचित होता है| तमाम प्रकार की
संकीर्णता को दूर करके स्वस्थ समाज का निर्माण करने वाले यही राजनीतिक दल जब देश
को जाति के आधार पर बाँटते हुए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की जुगत भिड़ाते हैं
तो कवि अपने स्वाभाविक स्थिति में यह कहने से हिचक नहीं महसूस करता “मेरा मन करता
है/ किसी समाजशास्त्री से जाकर पूछ लूं/ क्या होती है—मजदूरों की जात?/ कल कारखाने
का यह मुख्य द्वार/ भीड़ से भर जाता है शाम को/ क्या होती है—उस भीड़ की जात? कोई लड़
ले चुनाव/ जात के नाम पर/ कोई ठग ले वोटर को/ उसकी जात बताकर/ क्या कोई नेता बता
पायेगा/ क्या होती है राजनीति की जात?” इन प्रश्नों के उत्तर किसी भी राजनीतिक
पार्टियों के पास नहीं होगा क्योंकि यही इनकी रोजी-रोटी होती है|
एक सच यह भी है कि कवि परंपरा का जो
निर्वहन इस संग्रह में मिलता है वैसा वर्तमान हिंदी कविता में कम ही देखने को मिल
रहा है| जहाँ झूठों की एक विधिवत दुनिया बसाई जा रही है समाज में वहीं सत्यता की
राह पर चलने की प्रतिबद्धता इस कवि को एक अलग दृष्टि-बोध के साथ आगे बढ़ने का संबल
प्रदान करती है| “आओ कुछ ऐसा लिखें/ जो निष्पक्ष हो/ बाजारी बुद्धिजीवियों की तरह/
पक्षपाती न हो/ सदभावना हो,सदाचार तो हो/ पर दुरभावना व दुराचार न हो|” जब कवि
‘बाजारी बुद्धिजीवियों’ की बात करता है तो यकायक अवसरवादी साहित्यकारों की छवि
सामने आ जाती है| ऐसे साहित्यकार जिनका जन-सरोकार से कुछ भी लेना-देना न होकर
पुरस्कार से सब कुछ होता है| जो सत्ता की जुगाली मात्र इसलिए करते हैं कि
अकादमियों के किसी कार्यक्रम में उन्हें बुला लिया जाय न कि इसलिए कि जनता अपने
अधिकारों और कर्तव्यों को समझकर इस संकट कालीन समय में शक्ति और सामर्थ्यवान हो
सके| लोभी, लालची और लगभग जुगाडू-संस्कृति से उपजे ऐसे पुरस्कार-प्रिय कवियों की
कवि-धर्मिता पर कवि खूब प्रहार करता है और यह उद्घोषित करता है कि—
“कवियों !
तुम्हारी कविता
मिट्टी का माधो है...
जो सिर्फ दिखती अच्छी है
अन्दर से है खोखली ...
कवियों !
तुम्हारी कविता
खोटा सिक्का है
जो चल नहीं सकता
इस दुनिया के बाजार में|”
सच तो यह है कि कवि वह होता है जिसे
जीवन-संघर्ष में बिताए जा रहे समय कलुषता का आभास हो| जिसके शब्दों में शोषकों के
चंगुल में फंसे जन-हृदय को मुक्त करने की क्षमता और कलम में सार्थक प्रयास हो| जन-जीवन
की यथार्थ परिस्थिति का स्पर्श करते हुए कवि का यह मानना “मैं कवि हूँ.../इसीलिए
जानता हूँ/ घाव कितना गहरा होता है/ मैं कवि हूँ/ इसीलिए मानता हूँ/ मुस्कान भले
नकली हो/ संवेदनाएं हमेशा असली होती हैं/ इसी से सच्ची बात बोलता हूँ/ झूठी
मुस्कान नहीं बेचता”, निश्चित वर्तमान कवियों की यथास्थिति को स्पष्ट करती है| ऐसे
भाव जिन कवियों में हो सही अर्थों में वह कवि है और उसकी कविता अनुकरणीय है|
निश्चित ही कवि अखिलेश्वर पाण्डेय
समकालीन विसंगातिबोध को अपने काव्य का विषय बड़े ही बारीकी से बनाते हैं और उसमें
पूरी तरह से रमकर यथार्थ का अन्वेषण करते हैं| यह उसके अन्वेषण का ही प्रभाव है कि
वह मानवीय संवेदना और कवि-दृष्टि को जीवित रखने के लिए हर ढंग से लोक-प्रेम में
समर्पित है| यही वजह है कि समुद्र की लहरों के साथ गुलछर्रे उड़ाने के बजाय कवि के
हृदय का “पानी उदास है”| सम्भव है कि जब समय और समाज खुशहाल और संतुलित हो तो कवि-मन
भी लहरों का संस्पर्श पाकर जीवन-सरिता से छेड़छाड़ करे| ऐसा इसलिए क्योंकि वह अपने
धर्म और कर्म में प्रतिबद्ध और सक्रिय है| उसका यह उद्घोस इस स्थिति को और भी
सुन्दर तरीके से सुस्पष्ट करती है “आओ/ हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें/ आओ,
क्योंकि/ छिछला निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन/ हमें स्वीकार नहीं/ हम, ऊँघते कलम
घिसते हुए/ उत्पीड़न/ और लाचारी में नहीं जियेंगे/ हम आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और/
अभिमान में जियेंगे/ असली इंसान की तरह जियेंगे|”