हिंदी कथा साहित्य के विकासात्मक पथ पर
सामाजिकता की पहचान कराती समय सन्दर्भ की कहानियों द्वारा साहित्य को बहुत हद तक
समृद्ध किया जा चुका है | दादा दादी के किस्सा-पहेली
से चलकर वर्तमान समय के यथार्थ तक निःसंदेह कहानियों को कई रूप प्रदान किया गया और
अनवरत आज भी इसे नित नवीन रूप में ढालकर विभिन्न स्वरूपों में फिट किया जा रहा है
| ध्यान देने की बात तो ये है कि यदि कहानी के प्रारंभिक स्वरुप पर चर्चा किया जाय
तो ये इसलिए सुनाई जाती थी कि व्यक्ति बहुत कुछ सीख सके | समझ सके, जान सके स्वयं
को, स्वयं के साथ साथ अपने समाज और परिवेश को, पर आज ये स्थितियां पूर्णतः ताक पर
रख दी गयी हैं | जो स्वाभाविकता, व्यावहारिकता और कथात्मक गतिशीलता हिन्दी-साहित्य
के उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की कहानियों में पायी जाती थी, वह इन दिनों की
कहानियों में जैसे मृत-प्राय सी हो उठी है | जो वाक्य-विन्यास, कथानक, देशकाल
वातावरण तब के कहानियों में प्रमुखता से अपनी उपस्थिति रखने में सफल हो पाते थे आज
वे प्रायः रचनात्मक प्रक्रिया से ही बाहर हो उठे हैं | परिणामतः नवीन और पुरातन के
मध्य का अंतराल अपना साकार रूप ले उठा है | वर्तमान समय-समाज को केंद्र में रखकर
लिखी जाने वाली कहानियों में नवीनता के नाम पर कई ऐसे विषयों का चयन किया जा रहा
है, पाठक प्रायः इस स्थिति को समझने में ही सम्पूर्ण कहानियों का पाठ कर ले जाता
है कि अब उसे कुछ मिलेगा कि तब उसे कुछ मिलेगा | यह बात बड़ी स्पष्टता के साथ
स्वीकार किया जा सकता है कि आज के रचनाकार कहानी के माध्यम से पूरे तिलिस्म को
मोड़ने के लिए उतावले हो उठे हैं | उनका यह उतावलापन निःसंकोच उनके साथ साथ एक पूरी
पीढ़ी को पाशुविकता की तरफ ले जा रही है |
वर्तमान समय सन्दर्भ में लिखी जाने और छापी
जाने वाली कुछ पत्रिकाओं को मैं विल्कुल भी शुद्ध और साहित्यिक पत्रिका मानने के
पक्ष में नहीं हूँ | यदि इनका स्तर यही है तो जिन्हें हम घासलेटी साहित्य कहते हैं
या फिर जिन्हें पोर्न साईट का दर्जा दिया जाता है, उन्हें हम क्या कहेंगें? विद्वत
मण्डली में उन्हें अब तक चर्चा परिचर्चा और अलोचना के केंद्र से दूर क्यों रखा जा
रहा है? जबकि सच्चे अर्थों में जाना जाय तो असली प्रगतिशीलता उन्हीं कहानियों में
दिखाई देती है | ढोंग-ढकोसले को बेपर्दा करने में इन कहानियों का कोई जवाब नहीं |
पितृ सत्ता को चुनौती और परम्पराओं का उन्मूलन जिन अर्थों में हम उन साइटों पर
अथवा पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों में पाते हैं अन्य किसी दूसरे स्थानों पर
ऐसी कहानियों का मिलना असंभव है | स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, समानता और समरसता के
भाव, वसुधैव कुटुम्बकम और सत्यम, शिवम, सुन्दरम की भावना इन कहानियों में सुन्दर
तरीके से प्राप्त किये जा सकते है (जिस तरीके की स्थिति की मांग आज के इस
उत्तराधुनिक समय में तमाम विमर्शों के माध्यम से की जा रही है) | अंतर बस यही होगा
कि उनमे वे मूल्य नहीं होंगे, वे विमर्श नहीं होंगे, वे संवेदनाएं नहीं होंगे,
जिन्हें भारतीय परिवेश के आवरण में अब तक किसी न किसी रूप में जीवित रखा जाता रहा
या जीवंत और साकार रूप देने के लिए संघर्ष किया जाता रहा | उनका रूप बहुत कुछ हद
तक वैसा ही होगा जैसा आज के समाज में घटित हो रहा है |
आज के सामाजिक वातावरण में स्वतंत्रता की
मांग को जिस हद तक व्यापकता देने का प्रयास किया गया है उससे अराजकता का ही फैलाव
हुआ है | समकालीन मानवीय स्थितियों को मूल्यांकित करने पर यही निष्कर्ष निकलता है
कि यह स्वतंत्रता स्वतंत्रता न होकर स्वच्छंदता में तब्दील हो चुकी है | कभी
विद्वानों द्वारा कल्पित यह धारणा “स्वतंत्रता वही है जो सदैव बंधनों से आच्छादित
हो” अपने मूल आधार को ही तिलांजलि दे चुकी है | बंधन के मायने बदल चुके हैं |
सामाजिक संबंधों में जिन बन्धनों को कभी अनिवार्य समझा जाता था आज वे गुलामी के
प्रतीक माने जाते हैं | छोटे-बड़े का भाव, स्त्री-पुरुष का भाव, पिता-पुत्र का भाव,
पति-पत्नी का भाव, भाई-भावज का भाव किस तरह से आज कुभाव बनकर असामाजिक वातावरण के
संचरण में सहभागी बन रहे हैं यह कहने की आवश्यकता नहीं है, देखने की है | साहित्य
समाज का दर्पण कभी हुआ करता था आज समाज साहित्य का दर्पण है | समाज के बदलते
प्रतिमानों से साहित्य काफी कुछ परिवर्तित हुआ है | कथा-संसार का वर्तमान परिदृश्य
उसी परिवर्तित स्वरुप का तकाजा है |
कितनी गजब की स्थिति है कि आज के वर्तमान
साहित्यिक विमर्शों में सुन्दर और सार्थक रिवाजों को रूढ़िवादिता की संज्ञा देकर
ख़ारिज किया जा रहा है और जो नवाचार की श्रेणी में परिभाषित होकर हमारे मन-मस्तिष्क
में नकारात्मकता का बीज बो रहे हैं, उनका स्वागत किया जा रहा है | दलित विमर्श,
स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, सिने विमर्श, युवा विमर्श, बुजुर्ग विमर्श ये
जितने विमर्श हैं, साहित्यिक विमर्शकारों की नजर में कुछ भी हों मुझे तो ये सामाजिकता
की नींव को कमजोर करने के ही विमर्श प्रतीत होते हैं | यदि समाज का अर्थ विभिन्न
प्रकार के समुदायों, समूहों, वर्गों आदि के संगठित्त एवं एकत्रित रूप से है
तो वर्तमान समय में यह स्थिति कितने हद तक
उस रूप में समाहित है, विचार करने का समय है | वास्तविक विमर्श का मुद्दा तो यही
है कि क्या हम आज उसी समाज में वर्तमान हैं जिसका निर्माण पशुविकता से बहुत दूर
होते हुए हम सबने मानवीय समाज के रूप में किया था | यहाँ यह भी विभिन्न पत्रिकाओं
एवं विमर्शों के आईने में छपने वाली हिन्दी कथा साहित्य के माध्यम से ही समझने का
विषय है कि हम जितने पढ़े-लिखे-समझदार, मन और मस्तिष्क से विकसित होते गए हैं, अपने
अधिकारों के प्रति उतने ही जागरूक और समर्पित होते गए हैं | लेकिन जितना समर्पण
हमारा अपने अधिकारों के प्रति बढ़ा क्या अपने कर्तव्यों के प्रति भी हम उतने ही
जागरूक और समर्पित दिखाई दिए हैं |
वर्तमान समय एक प्रकार के सांस्कृतिक
अंतर्द्वंद्व का समय है जहां प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में टूटा, विखरा एवं
दिग्भ्रमित है | समाज रुपी उन्नतिशील व्यावहारिक संस्था में रहते हुए मानवीयता के
विकास की बात करने वाला व्यक्ति आज सामाजिकता की छाया मात्र से सशंकित रहने लगा है
| सच यह भी है कि जिन आधारों पर समाज का निर्माण होता है उनके आवरण में जीवन यापन
करने के बजाय वह कहीं एकांत का अभिलाषी होता जा रहा है | घर-परिवार, रिश्ते-नाते,
गाँव-देश इन सबके सब सामाजिक उपकरणों पर नकार की एक सहज संभावित योजना के तहत हमला
किया जा रहा है | परिणामतः आचार, व्यवहार, संस्कार से कहीं ऊपर उठने की बात करने
वाली वर्तमान मानव सभ्यता छिपे हुए भविष्य के भवित्तव्यता से अनजान, परंपरा एवं
अतीत से पूर्णतः विलग रहने वाला, वर्तमान के प्रत्येक पल को समस्त मानवीय
संभावनाओं को ताक पर रखकर सम्पूर्णता के साथ जी लेने की इच्छा पालने वाला समसामयिक
मानव, विकास और समृद्धि के नाम पर इतना आगे बढ़ चुका है कि उसे समय समाज में
विद्यमान सम्पूर्ण सामाजिक स्थितियां ही हास्यास्पद सी लगने लगी हैं | यह बात ध्यान
देने की है कि ये वही मानव हैं जिसने अपनी आदिम प्रवृत्तियों का परित्याग करके
सभ्य मानव का लिबास धारण किया था | व्यक्तिगत इच्छाओं के स्थान पर सामूहिकता को
प्रश्रय दिया था | सामूहिकता को कुछ सबल बनाने की नियति से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’
का स्वप्न देखते हुए सामाजिकता का निर्माण किया था | सवाल ये है कि अब समाज को
दरकिनार करके वह किन नई संभावनाओं की तलाश में है | कहीं ऐसा तो नहीं है कि अब “समाज
का अंत हो गया” जैसी अवधारणायें हमारे जीवन में लागू होने जा रही है | यदि यह सत्य
है तो फिर उस मानवीयता का क्या होगा जिसके संरक्षण, विकास एवं संवर्धन के लिए मानव
ने सदियाँ गुजार दी? निःसंदेह यह एक चिंता का विषय है जिसपर गहरे अर्थों में विचार
करने की आवश्यकता है |
वर्तमान समय के सशक्त कवि एवं कथाकार डॉ०
जयशंकर शुक्ल की ‘वेवशी’ कहानी संग्रह निश्चित ही इन प्रश्नों के आवरण में समाधान
की जड़ तलाशते, इन्हीं आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति करते दिखाई देता है | यह इसलिए कि
शुक्ल जी वर्तमान समय समाज की समस्त विडम्बनाओं को न सिर्फ देख रहे हैं अपितु एक
रचनाकार होने के नाते उसे आये दिन जूझ भी रहे है | “सृजनशील साहित्य की सार्थकता
अपने समकालीन जीवन और परिवेश से जुड़े हुए होने में ही है | वही साहित्य सार्थक है
जो जीवन और परिवेश की पूरी विविधता, व्यापकता और गहनता को, अपने तमाम संचालक
सूत्रों, अभिप्रायों, वर्तमान की छटपटाहटो और एक काम्य अनागत के प्रति उत्कंठा,
अकुलाहट, के साथ एक गहरी संवेदना संपन्न दृष्टि से अभिव्यक्त करता है | यही दृष्टि
तथा संवेदना सम्प्रेषण की सामर्थ्य ही अच्छे लेखन की पहचान है |”1 बेबसी
कहानी संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं लेकिन ये कहानियां समाज की प्रमुख समस्याओं
पर गहनता से विमर्श करने में पूर्ण रूप से सफल हैं | साहित्यिक आन्दोलनों से लेकर
सामाजिक समस्याओं तक के मुद्दे एवं समाधान इन कहानियों में पाए जा सकते हैं |
शिक्षा, बेगारी, बेरोजगारी, दहेज़-पीड़ा, छुआछूत, स्त्री-शोषण, स्त्री-चेतना,
दलित-चेतना, भ्रष्टाचार, बालमजदूरी, नशाखोरी, वैश्वीकरण, आर्थिक असमानता इन तमाम
सामाजिक स्थितियों एवं परिस्थितियों के माध्यम से उपजी बुराइयों एवं विमर्शों पर न
सिर्फ प्रकाश डाला गया है अपितु उसका तार्किक एवं विश्लेषणात्मक समाधान भी सुझाया
गया है | मेरे हिसाब से समकालीन रचनाधर्मिता में यह अकेले एक ऐसा कहानी-संग्रह है
जो समकालीन साहित्यिक गुटबंदियों से दूर रहते हुए प्रमुख मानवीय संकटों से जूझने
एवं सोचने के लिए विवश करता है |
जूझना इसलिए क्योंकि हम अपने संस्कार और
संस्कृति को छोड़ नहीं सकते | इसके बावजूद कि ये शदी इक्कीसवीं शदी चल रही है,
मध्यकालीन संस्कृति की संकीर्ण परिधि से बाहर निकलकर हम आधुनिकता की पराकाष्ठा और
उत्तरआधुनिकता की दहलीज पर कदम रख चुके हैं | अतीत के आवरण से मुक्त और भविष्य की
चिंताओं से बेखबर होने का दंभ भी कहीं न कहीं हमारे अन्दर विकसित होने लगा है | सच
यह भी है कि इसी दंभ में जीते हुए हम पूर्णरूप से वर्तमान के हिमायती हो चुके हैं
| जहां परम्पराओं एवं नैतिक मान्यताओं के लिए कहीं कोई अवकाश ही नहीं बचा है | अब
ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण मानव समाज परंपरा और नवीनता के आवरण में उलझा हुआ है | यह
वर्तमान समय-समाज की विसंगति और विडंबना ही कही जाएगी कि न तो वह विकसित हो पा रहा
है और न ही तो विकासशीलता के पैमाने को ही स्पर्श कर पा रहा है | ‘बेबसी’ कहानी
संग्रह की सभी कहानियों का यदि गहनता से अध्ययन किया जाय तो मानव-मन के
समय-संदर्भित सभी अंतर्द्वंद्व उभरकर सामने आ जाते हैं जो किसी भी रूप में, किसी
भी स्थिति अथवा परिस्थिति में सार्थक मानवीय स्थिति को सुरक्षित रखने के प्रति
प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं | यह प्रतिबद्धता कहानी के प्रत्येक पात्र में मौजूद है
| वे सभी कहीं न कहीं किसी न किसी परिस्थितियों की उपज है | सबसे बड़ी बात तो ये है
कि परिस्थितियों के विकरालतम घने अंधकार में उलझे होने के बावजूद अपनी परंपरा और
संस्कृति के प्रति उनका लगाव कहीं अधिक बढ़ता जाता है |
संग्रह की कहानी ‘नया सवेरा’ अपने कलेवर में
समकालीन समाज की यथार्थ स्थिति को पूर्णतः व्यावहारिक तरीके से व्यक्त करती है |
लेखक की दृष्टि में कहीं न कहीं शिक्षा के अभाव और लोगों में बढ़ रही असंतोष तथा
विघटन की स्थिति को लेकर अंतर्द्वंद्व दिखाई देता है| लेखक का यह अंतर्द्वंद उसके
मानसिक परिधि से विस्तार पाकर प्रत्येक घर और परिवार का एक प्रमुख हिस्सा बन गया
है | दरअसल अभी तक समाज में फ़ैल रही बुराईयों के पीछे हम अधिकतर जनसामान्य की
आर्थिक स्थिति और राजनीतिक अव्यवस्था को ही दोषी ठहराते रहे हैं पर आवश्यकता इस हकीकत
को समझने की है कि इन स्थितियों के साथ-साथ पारिवेशिक एवं पारिवारिक परिस्थितियां
भी इन समस्याओं को जन्म देने में बराबर की उत्तरदायी रही हैं| वर्तमान समय के
बच्चों में नशे के प्रति बढ़ रही लोकप्रियता के पीछे कहानीकार समाज या परिवेश को
उतने गहरे में नहीं दोषी ठहरता जितने यथार्थ दृष्टि से माता और पिता को | दरअसल
हमारे समाज में माता-पिता स्वयं में एक संस्था होते हैं | ये स्वयं में एक संस्कार
होते हैं | इनके जीवन से सम्बंधित प्रत्येक कार्य कहीं न कहीं बच्चों को प्रभावित
करता जरूर है | माता-पिता का यह सोचकर किसी भी स्थिति को दरकिनार कर देना, किसी पर
किसी कार्य का क्या प्रभाव पड़ता है, उनकी सबसे बड़ी भूल होती है |
कहानीकार ने पिता के रूप में रामू और माता
के रूप में राधिका का चित्रण करके यही दिखाना चाहा है | राधिका को दूसरो के दुःख
और गम को बाँटने की फुर्सत तो है पर अपने पुत्र राजेश के साथ दो पल संवाद करने के
लिए नहीं है | उसका हला-भला सोचने और यहाँ तक कि उसे खाना तक देने की फुर्सत नहीं
है | पिता हर समय नशे में चूर रहता है | उसे न तो पत्नी का फिक्र है और न तो पुत्र
की चिंता | उसके लिए नशे की पूर्ति ऐसी होनी चाहिए | कहाँ से हो इस बात से उसे कुछ
भी नहीं लेना-देना है | अधिकतर पति-पत्नी में होने वाले झगड़ों का मुख्य कारण यह
नशा ही बनता है | घर, घर न होकर अशांति और कलह का दूसरा रूप हो चुका है | ऐसी
स्थिति में राजेश का अपने मित्रों से ये कहना “यार अपनी किस्मत में घर की रोटी
कहाँ | बाप घर में नशे में धुत पड़ा है तथा मां को दूसरे लोगों का काम करने व
दूसरों की बातें सुनने से ही फुर्सत नहीं है |”2 सिर्फ एक राजेश के
आतंरिक पीड़ा और बेबसी को नहीं दर्शाता अपितु कितने ही ऐसे राजेश हैं जो नशे और
स्वच्छंदता की स्थिति के शिकार हैं |
ये स्थितियां बहुत हद तक बच्चों को
प्रभावित करती हैं और धीरे-धीरे उन्हें नशा, कुंठा, निराशापन तथा भ्रष्टाचार जैसी
स्थितियों में संलिप्त होने के लिए विवस करती हैं| बच्चों के साथ बैठकर थोड़ी सी
प्यार भरी बातें कर लेना और उन्हें अपने साथ होने का एहसास दिलाना, जीवन की तमाम
परिस्थितियों एवं विवशताओं से जूझने के लिए संबल प्रदान करना है | अब यदि इतना भी
समय इनके पास नहीं है तो फिर वे तो वहीँ जाएंगे जहाँ खाली दिमाग की शैतानी हरकतें
उसे ले जाना चाहेंगी | क्योंकि कुंठा और ईर्ष्या के आवरण में बुराइयां जल्द ही
बालमन पर प्रभाव डालती हैं | राजेश के मित्र अजय का राजेश के लिए पैसे के महत्व के
माध्यम से सबकुछ दिलाने के लिए प्रेरित करना, यह कहते हुए कि, “ये क्या बात कर रहे
हो यार मां, बाप, भाई, बहन सभी रिश्ते आज पैसे के हो गए हैं | जेब में पैसे हों तो
रिश्ते में पराए भी अपने हो जाते हैं जबकि जेब खाली हो तो अपने भी पराए हो जाते
हैं | यदि तुम्हारे पास पैसे हैं तो चलो मेरे साथ भर पेट भोजन के साथ जन्नत की सैर
भी कराऊंगा|”3 सैर कराने की इस चाहत का मुख्य वजह राजेश का बालकपन और
उसका वह परिवेश उस हद तक जिम्मेदार नहीं है जितना कि उसके घर का खालीपन |
कहानी का एक पात्र पुनीत कुछ इन्हीं
स्थितियों का शिकार है- “गुरु जी मेरी मां तो बचपन में ही मुझे छोड़कर चली गयी थी |
बाप ने दूसरी शादी कर ली | सौतेली तो सौतेली होती है...अतः मुझे केवल तिरस्कार
मिला | उपेक्षा, तिरस्कार व पीड़ा ने मुझे मवाली बना दिया | मुझे पालने वाली छमिया
जो मेरे लिए सब कुछ है | मैं उसके बराबर में उसका सहयोग करता हूँ | मां क्या होती
है मैं नहीं जानता |”4 यहाँ लेखक ने इसी स्थिति को दिखाने की कोशिश की
है कि “खाई मीठ होती है, माई नहीं |” यह दृश्य किसी एक की नहीं है अपितु सम्पूर्ण
समाज की एक कड़वी सच्चाई बनती जा रही है | इनसे उलझना सभी को है और सभी उलझे हुए भी
है|
संग्रह की ‘रिश्ते’ कहानी वर्तमान समय में
स्त्री सशक्तिकरण एवं स्त्री-विमर्श के नाम पर हो रहे अतिवाद को बेनकाब करती है |
स्त्री चेतना को जिन सही अर्थों में परिभाषित किया जाना चाहिए, वह न तो वर्तमान
लेखकों द्वारा किया जा रहा है और न ही तो उनके माध्यम से जो स्त्री-स्वतंत्रता के
प्रबल हिमायती होने का दंभ पाले बैठे हैं | स्वतंत्रता के जिन मूल्यों को लेकर
यौन-जनित स्वच्छंदता की तलाश आज के विमर्शकारों के माध्यम से किया जा रहा है सच
कहा जाए तो स्त्री वही नहीं है | कहीं भी किसी से भी अपना मन तृप्त कर लेना
अन्यत्र भले ही आदर्श माना जाता हो पर भारतीय परिवेश में ऐसा हो पाना अभी दूर की
बात है | यह इसलिए कि यहाँ के स्त्रियों में स्वाभिमान की स्थिति अब भी बरकरार है
| ये अब भी बाजार की वस्तु न बनकर स्वयं को मानवीय रूप में प्रतिष्ठापित होते
देखना चाहती हैं | जबकि पाश्चात्य संस्कृति हमे पूर्णतः बाजारू संस्कृति में रंग
देना चाहती है |
समस्त रिश्तों को ताक पर रखकर स्त्री को
स्त्री और पुरुष को पुरुष रूप मात्र में ही देखने वाला समसामयिक सामाजिक परिवेश
लेखक द्वारा चयनित पात्र अविनाश के इस बात पर अधिक सहमत होता नजर आता है, “ये
रिश्ते नाते तो यहीं हम मनुष्यों ने बनाया है | ऊपर वाले ने तो सिर्फ स्त्री पुरुष
ही बनाए हैं, और जिसमे इन दोनों की संभावनाएं न हों वह किन्नर हो जाता है | आप
स्त्री हैं और मैं पुरुष सर्वप्रमुख रिश्ता तो यही है |”5 लेकिन समाज
यही तो नहीं है | स्त्री और पुरुष के अतिरिक्त भी कुछ है जो सदियों के संघर्ष और
मेहनत के बाद मनुष्य ने प्राप्त किया है | स्त्री की बात करें तो पत्नी, बहन,
माता, भाभी, ये सभी उसी के रूप हैं | पुरुष की बात करें तो पति, भाई, पिता, बेटा
उसी के रूप में हैं | अब पुत्र भी यदि माता के साथ......भाई भी यदि बहन के
साथ......पिता भी यदि पुत्री के साथ......तो फिर इस समाज का क्या होगा जिसके कुछ
मूल्य और कुछ मान्यताएं हैं? इन दिनों समाज में कुछ ऐसी ही बयार चल रही है जिसमे
इन सभी सामाजिक प्रतिमानों को ध्वस्त करने का षड़यंत्र-सा रचा जा रहा है | कहानी की
नायिका का यह कथन भी कितना प्रासंगिक है कि “आज के समय तो औरतें भी तुम्हारे जैसे
लड़के ढूँढती हैं, जो उनकी जायज, नाजायज मांगों को पूरा करता रहे और इस तरह अपने घर
परिवार समाज से दूर होता चला जाए |...इस खेल में कभी कभी वह औरत ही नहीं वरन उसका
पति भी लगा होता है | और इसका अंत बड़ा ही क्रूरतम होता है अविनाश | अधिकतर यह किसी
न किसी की जान लेकर ही मानता है |”6 विडंबना की स्थिति तो ये है कि आज
के कथा, उपन्यास से लेकर आलोचकीय दृष्टियों में भी इन मांगों को जायज ठहराया जा
रहा है | स्त्री-पुरुष के नैतिक मापदंडों के आधार पर जिन स्थितियों एवं समस्याओं
पर कभी सार्वजनिक स्थलों पर बात करने से भी परहेज किया जाता था, खुलेआम
बहस-मुबाहिसे में भी शामिल किया जा रहा है और लोगों पर थोपा भी जा रहा है | परिणाम
हमारे सामने है | लाख जागरूकता के बावजूद भी स्त्रियों पर बर्बरता, शोषण, हवस और
बलात्कार की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है |
‘रिश्ते’ कहानी जहां वर्तमान समाज को रिश्ते
की अहमियत बतलाती है, स्त्री की शीलता को पुरस्कृत और पुरुष के षड़यंत्र को
उद्घाटित करते हुए रिश्तों की मर्यादा में रहने की प्रेरणा प्रदान करती है वहीँ
‘बदला’ कहानी बेटे और बेटी में फर्क करने वाली मानसिकता पर कुठाराघात करती है |
हालांकि बेटियों के सम्बन्ध में अब यह एक पुराना मुहावरा हो गया है और लड़के-लड़की
में फर्क को लेकर आज के समय में काफी कुछ परिवर्तन भी हो चुका है | समाज में अब
लोग बेटा ही नहीं बेटियाँ भी चाहने लगे हैं | पर सत्य यह भी है कि सामाजिक सुरक्षा
की दृष्टि से और कुछ अन्य विशेष कारणों से पुत्री की चाह कम ही लोग कर रहे हैं |
लेखक का यह मंतव्य विल्कुल सार्थक है कि जरूरी यह नहीं है कि लड़का ही हो और वही
नाम रोशन करे समाज में अपने माता-पिता का | जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लड़कियों
ने लड़कों से कुछ अधिक ही करके दिखाया है | ‘बदला’ कहानी की मुख्य पात्र दिव्या,
ऐसी ही बेटी है जो परिवार में बेटे को अधिक अहमियत देने की वजह से उपेक्षित हुई
है, उसके मां को इसलिए घर से बेघर होने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि उसने
बेटियों को ही जन्म दिया किसी बेटे को नहीं | बेटे की चाहत में उसका पिता दिनेश
दूसरी औरत से शादी करता है और उससे एक पुत्र होता है जिसे घर में अधिक प्यार और
दुलार मिलने की वजह से दिनों दिन बिगड़ता ही जाता है | वहीँ दिव्या हालांकि घर से
बेघर है पर इसके बावजूद अनुसाशन में रहते हुए उपेक्षाओं से उपजे घृणा भाव की तरफ न
ध्यान देकर अपने कार्यों को अहमियत देती है | दिन प्रतिदिन नई ऊंचाइयों को छूते
हुए वह देश के सबसे सम्मानित पद ‘जज’ को सुशोभित करती है | यह कहानी इस सम्पूर्ण
वर्तमान परिदृश्य के लिए आइना है जिसके आवरण में समाज के सभी समझदार लोगों को
पुत्रियों के जीवन और संघर्ष को महत्व देने के लिए प्रेरित होना चाहिए |
‘परिणाम’ कहानी अपने कलेवर में वर्तमान समय
के विसंगतिपूर्ण यथार्थ को जनसामान्य के समक्ष पेश करते दिखाई देती है | यह यथार्थ
आधुनिक ही नहीं अपितु उसके भी सीमाओं का अतिक्रमण कर बैठी है | आज के समय में किसी
की परिस्थिति को देखकर, भले ही वह अपना क्यों न हो, उसकी सहायता करना स्वयं को
विपत्तियों के जंजाल में डालने के बराबर है | दरअसल समय समाज में विद्यमान यह
यथार्थ प्रवृत्तिगत ही नहीं अपितु चरित्रगत भी है | हमे यह स्वीकार करने में कोई
संकोच नहीं होना चाहिए कि चारित्रिक दृष्टि से हमारा परिवेश जितने गहरे और जितने
यथार्थ में आज प्रदूषित हुआ है वैसा पहले कभी शायद हुआ हो | माधवी माता और पिता के
असामयिक मृत्यु हो जाने के वजह से जिस छोटी बहन विद्या को अपने स्नेह और प्रेम का
संरक्षण प्रदान करती है, पाल-पोषकर बड़ा करती है और बुरे दिनों में परछाहीं की तरह
साथ निभाती है, वही विद्या माधवी के फलते फूलते घर को उजारने में अपनी महत्वपूर्ण
भूमिका निभाती है | यहाँ समाज के उस मुख्य विचार-विन्दु को विल्कुल नहीं नाकारा जा
सकता जिसके तहत परिवार में किसी दूसरे जवान औरत को घर में पनाह देना गलत ठहराया
गया है | विडंबना आज की यह है कि इस प्रवृत्ति को ढोंग और रूढीवादी प्रवृत्ति कहकर
प्रचारित किया जा रहा है | परिणाम आज सबके सामने है, ठीक ‘परिणाम’ कहानी की तरह
“माधवेन्द्र मर कर व कमल फांसी चढ़ कर दूसरी दुनिया में जा चुके थे; बची दोनों बहने
माधवी और विद्या अपने शेष परिवार को संवारने में लग गयी |”7 बने घर उजड़
रहे हैं और भरा पूरा समाज जंगल के रूप में परिवर्तित होकर मानव को भी पशुता के रूप
में परिवर्तित होने के लिए बाध्य कर रहे हैं |
देश और समाज को विकसित करने में शिक्षा और
शिक्षक का बहुत बड़ा योगदान रहा है | अपने प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक के
परिवर्तित, विकसित तथा सभ्य होते समाज में यही एक व्यवस्था ऐसी है जहां योग्यता की
पूजा होती है न कि किसी व्यक्ति विशेष की | हाँ योग्यता के निर्धारण के जो आधारभूत
सिद्धांत थे वे आज परिवर्तित जरूर हुए हैं | अब हर कोई चाहता है कि उसका सगा
सम्बन्धी ही आधिकारिक तौर पर संस्था-विशेष में मौजूद हो, उसे भले न कुछ आता हो | सगे-सम्बन्धी
के आ जाने से संकोच और शीलता का जो वातावरण तैयार किया गया वह हर एक दृष्टि से
व्यवस्था-विशेष के लिए गलत साबित हुआ | यही स्थिति आज के शिक्षा-जगत की हो रखी है
| भाई-भतीजेवाद के बढ़ाते प्रभाव में लोगों द्वारा शिक्षा व्यवस्था निजी संपत्ति
समझी जाने लगी | परिणामतः यहाँ विकास की जगह विनाश को आमंत्रित किया जाने लगा |
‘अधिकार’ कहानी इन्हीं स्थितियों को व्यंजित करती है तथा वर्तमान शिक्षा व्यवस्था
किस हद तक दूषित हो गयी है इस बात से पाठक वर्ग को परिचित कराने में सफल होती है |
विवेच्य कहानी के माध्यम से यह बात आज के सन्दर्भ में समझने लायक है कि बालमन बहुत
ही संवेदनशील होता है | इसे कुरेदने के बजाय यदि पुचकारने का कार्य किया जाय तो एक
सुन्दर और ईमानदार नागरिक को पैदा किया जा सकता है | सारी आदर्षता और समस्त
नैतिकता को ताक पर रखकर कुछ लोग इस हद तक आम जन के आशाओं एवं आकांक्षाओं पर
कुठाराघात कर रहे हैं कि आम आदमी के लिए दिया गया भारत सरकार का नारा ‘सब पढ़ें, सब
बढ़ें’ एक प्रकार का स्वप्न बनकर रह गया है | कथाकार का यह कहना विल्कुल सच है कि
“जो लोग पीड़ित हैं, वो तो बेजुबान हैं तथा जुर्म की चक्की में पिस रहे हैं, जबकि
जो जबरा है वो देश व समाज को अपने अनुसार चला रहे हैं | शासन तथा तंत्र उनके अपने
हिसाब से चलते हैं |” इन मुट्ठी भर लोगों को यह नहीं पता कि “जिस दिन देश का गरीब
मजदूर तबका अपने पैरों पर खड़ा जाग जाएगा, देश के रक्षकों व सरकारी नुमाइंदों का जो
हस्र होगा वह देखने लायक होगा |”8 समस्त समस्याओं का जड़ तो आम आदमी का
जागरूक न होना ही है |
मनुष्य तो मनुष्य न हो सका, लेकिन जिनमे
मनुष्यता के गुण बढ़ने की संभावनाएं कुछ अधिक रूप में दिखनी थी उसे भी वह अपनी
अज्ञानता वश ले डूबने की पूरी कोशिश करने लगा | मनुष्यता के गुण जितनी हद तक एक
पशु या जानवर में विकसित हुए पाए जा सकते हैं, यह सच है कि मनुष्य अपने कुछ
प्रवृत्तियों की वजह से चाहकर भी वैसा नहीं बन सका | ‘बेजुबान’ कहानी मनुष्य और
जानवर के इसी प्रवृत्तिगत विशेषताओं पर सोचने के लिए मजबूर करती है | टॉमी एक
बेजुबान वफादार पालतू ‘कुत्ता’ है जो अपने व्यवहार और सिद्धांत को प्राथमिकता देते
हुए अपनी जान की परवाह किए बगैर जूझने के लिए तत्पर रहता है | अपने मालिक की रक्षा
करते हुए वह एक अन्य पागल कुत्ते के काटने से घायल भी होता है | उसकी दवा भी होती
है पर वह ठीक नहीं हो पाता | उसका ठीक न होना कहानी की मुख्य पात्र ‘सुदर्सना’ को
अच्छा नहीं लगता और वह उसको फेंकवा देती है | यही टोमी बाद में यश के रूप में उसी
कुल में जन्म लेता है और सुदर्सना को उसके किए की सजा देता है | यह अक्सर लोग कहते
हैं कि पूर्वजन्मों का कोई अस्तित्व नहीं होता है लेकिन शुक्ल जी अपनी कलापूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम
से यह सिद्ध कर देते हैं कि पूर्व जन्मों का प्रभाव वर्तमान जन्म में किसी न किसी
रूप में जरूर पड़ता है | दूसरी बात प्राणी चाहे पशु हो या मानव यदि वह परिवार में
है तो बहुत गहरे में परिवार का एक सदस्य है | उनके आपदा एवं विपदा के समय में उनके
देखभाल में सक्रिय होना हमारी पहली प्राथमिकता है | पर होता उल्टा है | जो असमर्थ
होते हैं हम उन्हें कूड़ा समझकर फेंकने के फेर में पड़ जाते हैं और यही स्थिति बाद
में हमारे साथ घटित होती है | हम भी उसी कूड़े में फेंके जाते हैं |
मानव जीवन में गरीबी कई एक समस्याएँ साथ में
लेकर आती है | व्यक्ति कुछ भी हो पर गरीब न हो | आज के इस बदलते परिवेश में इस
गरीबी को भी कई तरह से देखने और समझने की आवश्यकता है | कई लोग धन के गरीब होते
हैं तो कई लोग दिल के गरीब होते हैं | धन का गरीब होना एक हद तक तो चल जाता है |
दिल का गरीब होना व्यक्ति को पशुता के एकदम करीब लाकर छोड़ता है | आज के समाज में
धन के महत्व पर रिश्तों का चयन किया जा रहा है | लड़की कितनी भी पढ़ी-लिखी होनहार
क्यों न हो पर यदि उसके पास धन नहीं है तो वह लगभग परिवार और समाज में उपेक्षित ही
रहती है | धन की चाहत रखने वाले ये नहीं समझते कि यही दिन उन पर भी आनी है |
विडंबना की स्थिति तो ये है कि पैसे के अभावों में पल कर बड़े होते हैं और उन्हीं
अभावों में अपना पूरा जीवन गुजार देते हैं, धन के लालच में अपने पुराने दिनों को
भूल जाते हैं | इसमें दोष किसका है? परिवार का? समाज का? या फिर हम सबका? दोष तो
सबका ही है | एहसास कहानी अपने कलेवर में इन्हीं समस्याओं को केंद्र में रखकर आगे
बढ़ती है | दहेज़ की समस्या इस कहानी की मुख्य समस्या है | इसका शिकार सबसे अधिक औरत
को ही होना होता है, शारीरिक और मानशिक दोनों रूप से | कहानी की मुख्य पात्र
‘पारो’ पढ़ी-लिखी जिम्मेदार और समझदार लड़की है | उसकी शादी विनय के साथ उसके गुरु
के संपर्क से होती है | वह गरीब परिवार की लड़की है | पारो की गरीबी पारो के सास को
सबसे ज्यादा इसलिए खटकती है क्योंकि उसका मानना था कि विनय की शादी किसी बड़े घर की
लड़की के साथ किया जाता | धन भी आता और बहु भी | ऐसा न होने से वह पारो और विनय के
जीवन में जहर घोरने का कार्य शुरू कर देती है | अपने योजना में वह सफल भी होती है
|
मनुष्य लाख कोशिश कर ले लेकिन अंततः
परिस्थितियों के सामाने उसे घुटने टेकने पड़ते ही हैं | यह विडंबना कहीं और नहीं
भारतीय परिवेश में कुछ अधिक साकार रूप लिए हुए हैं | दो वक्त की रोटी के जुवाड में
निकला आम जनमानस कई एक स्वप्न लिए देश से परदेश में प्रवास करता है | प्रवास भी एक
ऐसे जगह न तो पानी की पहुँच हो सकती है और न ही तो ठीक तरीके से ऐसे वातावरण की
सुलभता जहां वह आराम से रहकर जीवन यापन कर सके | कई अवसर पर जब व्यक्ति उसे रहने
लायक बनाता भी है तो सरकार विकास के नाम पर उसे हाशिए पर खड़ी कर देती है | फिर
शहरों का जीवन होता भी बहुत व्यस्त और व्यक्तिगत होता है | यहाँ एक दूसरे के लिए
कोई सहायता और कोई पैरोकारी नहीं होती | “नगर में रहने वाला व्यक्ति दूसरे के बारे
में सोचता भी नहीं | नगरीय जीवन यंत्रवत हो गया है | नगरों में स्पष्टतः चीन वर्ग
दृष्टिगोचर होते हैं | एक और तो सर्वसाधन संपन्न उच्च वर्ग है जो वैभव विलास कर
रहा है दूसरे और माध्यम वर्ग है जो अर्थाभाव से पीड़ित है फिर भ नकली बड़प्पन ओढ़े
हुए है | तीसरा वर्ग साधारण व्यापारियों, बाबुवों श्रमिकों और निम्न वर्ग के लोगों
का है |”9 यही निम्न वर्ग के लोग हाशिए पर धकेले जाते हैं | ‘‘बेबसी’
कहानी कुछ इन्हीं परिस्थितियों को दर्शाती है | इस कहानी को पढने के बाद यह आभाष
होता है कि परिस्थितियाँ कभी भी निमंत्रण देकर नहीं आती और जब आती हैं तो हमे उसका
स्वागत करना पड़ता है | यह हमारी मजबूरी होती है | हम लाख चाहने के बावजूद उन
परिस्थितियों से स्वयं को नहीं बचा पाते |
शिव प्रसाद और शोभा मूल रूप से इन्हीं
समस्याओं के उपज हैं | शिव प्रसाद जो नौकरी की तलाश में अपनी पत्नी के साथ गाँव से
आया एक नौयुवक है | वह एक फैक्टरी में सेल्स एग्जक्यूटिव है | शिव प्रसाद कभी 1500
रुपये सैलरी पाता था | और अब उसकी सैलरी 10,000 रुपये तक हो चुकी थी | शहर में आये
मास्टर प्लान के तहत एक नहीं कई शिवप्रसाद को घर से बेघर, रोजगार से बेरोजगार होना
पड़ा | यह सब विकास की नाम पर राजनीति ही होती जिसमे सबसे अधिक क्षति आम आदमी को
होता है | कथाकार के अनुसार “सीलिंग कोई जादूगरी वाला शब्द नहीं है | किन्तु जो
इसके संपर्क में आ गया उसकी पलंग तोड़ नींद भी बियाबान में लावारिस घूमने लगती |
मंत्री संतरी आज यहाँ कल वहाँ परसों जाने कहाँ...| किन्तु उनका किया धरा कुछ लोगों
की जिंदगी में तिल का ताड तोड़ जाती है|”10 यह कहना विल्कुल गलत न होगा
कि “आज की कहानी अधिक यथार्थ-दृष्टि, प्रमाणिकता और अधिक ईमानदारी से अपने आसपास
के परिचित परिवेश में ही किसी ऐसे सत्य को पाने का प्रयत्न करती है जो टूटा हुआ,
कटा-छंटा हुआ या आरोपित नहीं-बल्कि व्यापक सामाजिक सत्य का एक अंग है |”11
शुक्ल जी की कथा दृष्टि इसी व्यापक सत्य के भावभूमि पर आधारित और निर्मित है |
समय समाज में वर्तमान अन्य कहानीकारों की
अपेक्षा डॉ० जयशंकर शुक्ल की कहानियाँ भारतीय मानसिकता में कुछ अधिक रची-बसी दिखाई
देती हैं | इनकी कहानियों में जहां एक तरफ ग्रामीण संस्कृति का दर्शन होता है वहीँ
शहरीकरण की विभीषिका भी विधिवत सुन्दर तरीके से परिलक्षित होती है | जहां बड़े
घरानों में दिन प्रति दिन संस्कृति अंतिम सांस लेते दिखाई देती है, वहीँ इनसे ऊबकर
गाँव की तरफ लौटने की ललक भी उठती प्रतीत होती है | डॉ० जयशंकर शुक्ल जी की
सम्पूर्ण कथा-दृष्टि पर विचार करते हुए सुरेन्द्र चौधरी जी के शब्दों में कहा जा
सकता है “कहानियाँ अभी और फैलाव की अपेक्षा रखती हैं | यह फैलाव मात्र ऊपरी न
होगा, गहरी भी पैदा करेगा | अन्य संघर्षरत समुदायों, वर्गों और जातियों से जुड़कर
उसका स्वरूप एक संघर्षशील राष्ट्रजाति का बनेगा | कल्पित पीडाओं और व्यक्तिगत भाव
संसार से बाहर आकर उसमे जो कठोरता और संपुंजन आएगा वही सामाजिक अनुभव को मूर्त
करने में समर्थ भी होगा | सामाजिक प्रक्रिया की तेजी के साथ साथ कई संभावनाएं एक
साथ उजागर हो गयी हैं | आवश्यकता महज इस बात की है कि कहानीकार अपनी रचनात्मक
संभावनाओं को इनके भीतर और तीव्रता से महसूस करे | जन-जातियों, कृषक-मजदूरों, और
मध्यवर्ग के एक अग्रगामी हिस्से की भावनात्मक और अनुभवगत एकता को दृढ करने के लिए
कहानियों की भूमिका बड़ी और निर्णायक हो सकती हैं, इसे हिंदी का कहानी लेखक अनुभव
करे तो निश्चित रूप से उसका महत्व अलग से पहचाना जाएगा |”12 शुक्ल जी
की कहानियाँ इन भावनाओं एवं संभावनाओं पर पूर्णतः सार्थक प्रयत्न करते दिखाई देती
हैं |
सन्दर्भ-सूची
1.
दिविक, रमेश,
हिंदी कहानी का समकालीन परिवेश, विनोद विहारी लाल का लेख “आठवां दशक और हिंदी
कहानी का प्रिज्म”, दिल्ली, ग्रंथकेतन, 2006, पृष्ठ-115
2.
शुक्ल, डॉ० जयशंकर
, बेबसी, (नया सवेरा), नई दिल्ली, शिवांक प्रकाशन, पृष्ठ-19, 2014
3.
वही, (नया सवेरा),
पृष्ठ-19
4.
वही, (नया सवेरा),
पृष्ठ-27
5.
वही, (रिश्ते),
पृष्ठ-36-37
6.
वही, (रिश्ते),
पृष्ठ-37
7.
वही, (परिणाम), पृष्ठ-62
8.
वही, (अधिकार)
पृष्ठ-67
9.
राय, डॉ० सूबेदार,
स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी का विकास, कानपुर, अनुभव प्रकाशन, 1981, पृष्ठ-61
10.
वही, (बेबसी)
पृष्ठ-120
11.
यादव, राजेंद्र,
कहानी : स्वरुप और संवेदना, नई दिल्ली, नॅशनल पब्लिशिंग हाउस, 1968, पृष्ठ-79
12.
शुक्ल, विद्याधर
(सं.) हिंदी आलोचना और आज की कहानी, (सुरेन्द्र चौधरी का लेख – कहानियाँ और
सामाजिक अनुभव) इलाहबाद, चित्रलेखा प्रकाशन, 1978, पृष्ठ-69
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