Friday 6 May 2016

सामाजिक भावभूमि की सूक्ष्म अभिव्यक्ति-“एक ही जगह”

  
         समय का वर्तमान जीवन को जीने के लिए चुनौती देता है | समय का अतीत सीख देता है| समय का भविष्य संभावनाएं देता है| जीवन को जीने, संजोने और एक हद तक उसके साथ बने रहने के लिए अनुभव, अनुभूति और अनुकरण की क्षमता देता है| अतीत, वर्तमान, भविष्य ये समय मात्र के संकेत ही नहीं अपितु जीवन के यथार्थ भी हैं| इन्हीं के इर्द-गिर्द रहते, चलते और मंडराते हुए मनुष्य अपना पूरा जीवन जी ले जाता है| मनुष्य के वर्तमान में जो अनगढ़ता होती है, अतीत के घटनाओं से सीखते हुए वह परिपक्वता ग्रहण करता है| यही परिपक्वता उसके अन्दर संभावनाशील समय के साथ बने रहने के लिए स्वप्न देती है| संभावनाशील समय का स्वप्न रचनाकार के हृदय का स्वप्न होता है जिसके माध्यम से वह सुन्दर, सार्थक और समर्थ भविष्य-निर्माण की परिकल्पना करता है| ऐसा करते समय हालांकि उसका अपना कुछ नहीं होता लेकिन अपने ‘होने’ को लेकर जो संघर्ष, जो पीड़ा और जो वेदना होती है, कहीं वह युगीन सत्य का संचार करती है तो कहीं तात्कालिक परिस्थितियों से लड़ने की, जूझने की क्षमता का आविष्कार करती है|
           आविष्कार इसलिए क्योंकि कवि-हृदय से निकला सच एक तरह से आविष्कार ही होता है | इस आविष्कार में उसके समय का सम्पूर्ण युग तो व्यंजित होता ही है, समय-समाज में वर्तमान विसंगतियां भी परिभाषित होकर नए कलेवर में नवीन स्थापनाओं के साथ लोगों के अनुकरण और प्रेरणा का माध्यम बनती  हैं| कवि फूलचंद मानव द्वारा रचित काव्य-संग्रह ‘एक ही जगह’ अनुकरण और प्रेरणा के सशक्त माध्यम की साकार अभिव्यक्ति है| अनुकरण इसलिए क्योंकि कवि अपने समय के दो सशक्त देश-नायक, लाल बहादुर शास्त्री और लाला लाजपत राय, के व्यावहारिक सिद्धांतों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है| इन दोनों महापुरुषों के सिद्धांतों एवं व्यवहारों को अपने काव्य का विषय बनाकर कवि यह सन्देश देना चाहता है आज के युवाओं को भी कि – “अर्धाचेत पड़ी मानवता/जिसका संबल/मानो रूखा, मौन खड़ा है|”[1] रूखा और मौन ये दो शब्द अचंभित करते हैं| हमे अपने इतिहास में लौटने के लिए बाध्य करते हैं| विवश करते हैं यह सोचने के लिए भी कि क्या हम उसी भावभूमि पर उसी जीवन को जी रहे हैं, जिसे हमसे पहले के लोग जीकर जा चुके हैं? क्या हम उसी पथ का अनुसरण कर रहे हैं जिस पथ का निर्माण करने के बाद, बिना उसपर चले ही, हमारे इतिहास के निर्माता हमारी सुगमता के लिए सौंपकर बिना किसी स्वार्थ के आगे बढ़ गए| मानवता के पथ का निर्माण निःस्वार्थता की भावना से होता है |  
        मानवता का संबल कौन हो सकता है? क्या वह जो राजनीति के मुहाने पर खड़ा होकर सत्ता-सुख ले रहा है या फिर वह जो राजनीती के क्षेत्र में प्रस्तुत होने के बावजूद सत्ता-सुख के बनिस्बत देश-सुख को वरीयता देता है; जन-सुख और जन-संवेदना को समस्त सुखों का आधार मानता है? मानवता का सम्बल कौन हो सकता है? वह जिसने स्वार्थी राजनीति के आवरण में लोगों को एक दूसरे से अलग किया; झूठे आंसू दिखाकर, जनमत प्राप्त कर गरीब जनता का शोषण किया या फिर वह जिसने “हमको सिखलाया/नारा नया दिया/ कि जय जवान-/जय जय किसान|”[2] यह सच है कि “घटनाएँ और दुर्घटनाएँ/ अंकित कर जाती हैं संकल्प”[3] लेकिन इस संकल्प के भाव को कितने ऐसे हैं जो जीवन के पड़ाव पर चलते हुए अपने अन्दर समाहित कर पाते हैं? जिन्होनें ऐसा कर पाने में सफलता पाई कवि उनको ‘युग का सलाम’ देता है, “प्रतिज्ञा, साहस, देश-प्रेम/कथनी करनी के नायक को युग का सलाम|”[4] जन-प्रतिनिधि होने की तो सब करते हैं पर ‘स्व’ प्रतिनिधि के अतिरिक्त होने के भाव को कुछ लोग ही सार्थक कर पाते हैं| इन कुछ लोगों में लाला लाजपतराय का स्थान बहुत ऊंचा है कवि उनको ‘सिंह-पुरुष’ और ‘नर महान’ कहते हुए अपने इन उद्गारों से श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है-
     “जय आजादी के अग्रदूत/जय चिरप्राची अभिलाषा
      जयजीवन के हे दीर्घ रूप/जय हे जन जन की आशा
      जय लौह लेख ! जय हे ललाम् !/युगपुरुष तुम्हें शत-शत प्रणाम|”[5] 
          कवि के हृदय में जहां महापुरुषों के प्रति अनुराग की भावना है वहीं दैनिक जीवन की विसंगतियों को लेकर विक्षोभ और वितृष्णा के भाव भी दिखाई देते हैं| कवि स्वयं समय में घटित हो रही घटनाओं का भुक्तभोगी है| उसके सामने जहां आराम-तलब जीवन को जीने वाले हैं तो वहीँ भूखे-प्यासे-विलखते हुए जीवन को काटने वाले भी हैं| जीवन को जीना एक बात है और जीवन को काटना विल्कुल एक दूसरी बात| जीता तो वह है जो सुविधा संपन्न होता है| काटता वह है जिसके लिए एक एक पाई की किल्लत होती है| एक एक पाई की किल्लत ही व्यक्ति को “रोजगारी / और रेजगारी की जिंदगी” जीने के लिए विवश करती है| इस प्रकार का जीवन जीने वालों के लिए इच्छाओं का दमन करना कोई बड़ी बात नहीं होती| यहाँ लालच प्राप्त करके संचित करने का नहीं है अपितू किसी भी प्रकार से ‘पूरा’ करने का होता है| पूरा करने की प्रक्रिया में कवि स्वीकार करता है कि-“जिंदगी के इस चलते-फिरते दफ्तर में/पी० यू० सी० की तरह/डील हो जाती हैं हमारी इच्छाएँ |”[6] जिसकी सारी इच्छाएँ ‘डील’ हो जाती हों उसका अस्तित्व उसकी जरूरत-मात्र तक सीमित होकर रह जाती है| यह जरूरत ‘भूख’ है| अधिकार के अन्य संसाधनों के मांग से पहले यह ‘भूख’ उसे रोकती है, लड़ने के लिए विवश करती है स्वयं से| व्यक्ति कोशिश भी करता है अपनी इस मजबूरी से निजात पाने की, नयी परंपरा के शुरुवात का स्वप्न भी संजोता है वह लेकिन भूख की स्मृति न तो उसे आगे बढ़ने देती है और न ही तो वह उससे आगे बढ़ने की हिम्मत ही जुटा पाटा है| दफ्तरों में नौकरी-पेशा जीवन के यथार्थ का और भूख के मध्य झूलते हसरतों का कितना सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है कवि ने-
“आप सब जानते हैं
अपने-अपने दफ्तर की
दोहरी राजनीति से बचना भी चाहते हैं
और रचना चाहते हैं-
एक स्वस्थ संसार |
लेकिन फिर
पेट के परंपरा में
दांत आगे आ जाते हैं-हंसने-हिचकने के लिए|”[7]
     यहाँ दांत का आगे आना शोषितों पर शोषक का हावी होने का संकेत है| जिस प्रकार जिह्वा के समस्त अस्तित्व पर दांत का पहरा होता है ठीक उसी प्रकार दफ्तरी जीवन को जीने वाले कर्मचारियों के अस्तित्व पर वहां के आला अफसरों का| अफसरशाही के विरुद्ध आवाज उठाना भी इनके लिए उतना आसान नहीं होता और न ही तो उनके यातनाओं को सह ले जाने की प्रवृत्ति ही उनमे स्थाई रूप से रह पाती है| अधिकार पाना जरूरी है, ऐसा प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है लेकिन जब वह अधिकार की चाहत में उनके प्रति विरोध-प्रदर्शन करता है तो यही ‘भूख’ भेष बदल-बदल कर उसके  सामने आती है| ‘भूख’ कविता के माध्यम से कवि ने हड़तालों के समय भूख के तांडव का सुन्दर चित्रण किया है-
“हड़ताल के दिनों से
रंग-बिरंगे बिल्लों में
मातम मानती
तुम-
कभी सार्थक
लगती हो
कभी निरर्थक|”[8]
भूख ने मनुष्य को जितने माध्यम से, जितना सताया है, मनुष्य ने भी उससे निजात पाने के तरीके ढूंढें हैं| अस्तित्व और भूख की लड़ाई में जीत भूखे और प्यासों के अस्तित्व की ही होती आई है | कवि को भी इस बात की संभावना दिखाई देती है, जब एक दिन भूख के ज्वार को रोकने के लिए जनता की लहर उठेगी उस दिन परिवर्तन को कोई ताकत भला कैसे रोक पाएगी|   
मिट जाएँगे हाशिये,
उतर जाएंगे पोस्टर कि मालगोदाम खाली है
पर वह जो विपदा आज नहीं तो कल, आने ही वाली है
उसको कहो टालोगे कैसे
कैसे नकारोगे सत्य कि सलीबें इन्तजार में हैं|[9]
        कवि को दफ्तरी जीवन में समय के यथार्थ का जो बोध होता है वह प्रत्येक ऐसे व्यक्ति  का यथार्थ है, जिसे पहचानते हुए भी अभिव्यक्ति कर पाने की क्षमता बहुत ही कम लोगों में होती है| यह इसलिए भी होती है क्योंकि, किसी भी रूप में वह उसी परिवेश में जीने का अभ्यस्त हो जाता है और दूसरे अपने समय की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाता है| मुख्य धारा से जुड़ना तत्कालीन व्यवस्था-विशेष से जुड़ना है| व्यवस्था-विशेष से जुड़ना समय-समाज में वर्तमान उन सभी हथकंडों से साक्षात्कार करना है जो निजी स्वार्थों के केंद्र में हजारों हजारों मनुष्यों के आशाओं एवं आकांक्षाओं पर कुठाराघात करने से भी बाज नहीं आते| उनके लिए दूसरे किसी का मनुष्य होना इस हद तक अखरता है, मानवीय रिश्तों की जो थोड़ी-बहुत गुन्जाईस होती भी है, नितांत वैयक्तिक लाभ के निमित्त उसका भी गला घोंट दिया जाता है| यहाँ महत्व व्यक्ति का नहीं, संबंधों का नहीं, उस पद और प्रतिस्था का होता है जिसे प्राप्त करने के लिए वह किसी भी प्रकार के संगत-असंगत कार्यों को करने की क्षमता रखता है –
“कुर्सी का नमक अनुभव /
यहीं, और यहीं आकर आदमी आदमी से टूटने लगता है
बनने-बिगड़ने की भाषा में कहें तो सच यही है
कि कुर्सी का नमक प्यार के पवित्र जल से
बहुत पीछे छूटने लगता है|”[10]
     सामाजिक व्यवहार में ‘कुर्सी’ और ‘अनुभव’ का सम्बन्ध बड़ा पेचींदा होता है| अनुभवहीनता यथार्थ रूप में व्यक्ति को कुर्सी की तरफ बढ़ने के लिए प्रेरित करती है| प्रेरणा का यह रूप अमानवीय एवं असामाजिक-मार्ग पर बढ़ने के लिए मजबूर करता है| अनुभव जब अपने परिपक्व रूप में व्यक्ति-हृदय में वर्तमान होता है, कुर्सी का आकर्षण बहुत ही तुच्छ और छोटा प्रतीत होता है| वे समस्त आकर्षण, जो कभी एक अनुपम स्वप्न बनकर किसी भी प्रकार के मर्यादाओं का गला घोटने के लिए विवश करते हैं, उनसे विरक्ति का भाव जागृत होता है| यहाँ मनुष्य के हृदय में एक विशेष प्रकार का दर्शन जन्म लेता है जहां उसे “सत्य की दिशा से आगे का मार्ग/राजपथ नहीं/ मुक्ति-मार्ग नजर आने लगता है|”[11] यह बात और है कि इस मार्ग को प्राप्त करने की लालशा और उनका प्रयत्न कुछ अलग-अलग होता है| कोई सहज स्वाभाविक तरीके से प्राप्त करने की कोशिश करता है तो कोई विभिन्न प्रकार के हथकंडों का प्रयोग करता है| “आज के सन्दर्भों में/तरक्की के धंधों में धंसी दुनिया” के लोग इन हथकंडों के प्रयोग में विल्कुल भी पीछे नहीं रहना चाहते और ये सब किसी एक सत्य को, भले ही वह असत्य ही क्यों न हो, अपने तरीके से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं| इस प्रकार के प्रयत्न को अपनाने वाले लोगों को कवि मानता है कि
“ब्लैक मार्किट की कालिख में
कुढ़ते कुकर्मी
अतीत के अनुभवों से झांकते
सत्य को खुला अर्थ देने लगते हैं|”[12]
          सांस्कृतिक परिवर्तन के आवरण में आ चुका वर्तमान मानव किस तरह सम्पूर्ण व्यक्तित्व और अपने परिवेश के वातावरण को कुंठित कर रहा है, यह देखकर कवि को चिंता भी होती है, आश्चर्य और अफ़सोस भी | महानगरीय जीवन स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्छंदता की जिन दहलीजों को पार करके अपने सभ्य होने का दंभ भरता है वहाँ कवि पाता है कि “थोथी आस्थाओं में/कोरा दिग्दर्शन है/नैतिकता नंगी है/ शर्मीला दर्पण है|”[13] कितनी गहरी अनुभूति है, कितना गहरा रोष है इस बदलते और दिन-ब-दिन परिवर्तित होते सामाजिक परिवेश के प्रति कवि का, जिस दर्पण को देखने के बाद कभी आँखें शर्म से झुक जाया करती थी आज के समय में उन आँखों को देखकर दर्पण शर्म खा रहे हैं| कवि महानगरीय परिवेश के  उन सभ्य स्थानों पर भी पहुंचता है “जहाँ सपाट सीधी सड़कों पर दौड़ता/जन-जीवन कितना खुशहाल/कितना खुला है” लेकिन खुले और खुशहाल होने के बावजूद एक दूसरे से संवाद का माध्यम न के बराबर है | कवि की माने तो ऐसा इसलिए है क्योंकि “इधर आदमी आदमी को देखता नहीं/घूरता है/साथी-पड़ोसी के बगल से/बतियाता नहीं, बिसूरता है|”[14] ‘विसूरना’ और ‘घूरना’ यही इस शहरी सभ्यता की सच्चाई है| सामने वाला व्यक्ति संभव है कि अपने बगल वाले व्यक्ति को जनता हो? उसके दुःख-सुख से परिचित होने की बात तो बहुत दूर की है, उसके चहरे से भी परिचित हो यह भी बड़ी बात है| यह सब सभ्य मानव के सभ्य समाज की स्थिति है जिसके नियति में मात्र और मात्र विकास है| समाज की इस विकसित सभ्यता  को कवि ‘अंधी गुफा’ कहता है और स्वीकार करता है कि-“तेज रोशनी की यह सभ्यता/अंधी गुफाओं में हामी भरने चली है|”[15]
      कवि को इस संस्कृति से वितृष्णा है| वह नहीं चाहता कि उजाले की चाहत रखने वाली यह भारतीय सभ्यता अँधेरी गुफाओं के जंजाल में उलझती जाए| जिस हृदय में बाल-सुलभ लावण्यता निवास करती हो उसमे असहज और अप्रिय लगने वाली प्रौढ़ता का प्रवेश हो जाए| सवाल यही है कि कवि के चाहने या न चाहने का कितना फर्क समाज में रहने वाले लोगों को होता है| जबकि लुट सभी रहे हैं| टूट भी सभी रहे हैं इसके बावजूद कोई किसी को यह नहीं कहने की हिम्मत कर पा रहा है कि भाई अब और बस भी करो क्योंकि कहीं न कहीं सभी एक ही नियति के शिकार हैं|
हम, विवश इतने
कि किसको न कहें
यह वेश्या
वह
वेहया है
न सही तन से
यहाँ मन से सभी अस्वस्थ, सब पथ-भ्रष्ट हैं|”[16]
कवि को इसकी पहचान सहज ही हो जाती है और चिंता भी होती है कि आखिर परिवर्तन के इस दौर में, वे जो सही हैं या जो सही बने रहना चाहते हैं उनको किस श्रेणी में रखा जाए या उनके पहचान का ऐसा कौन सा पैमाना सुनिश्चित किया जाए कि लोग यह समझ सकें कि विजड़ित होती परिवर्तन शील संस्कृति का असर इस पर नहीं पड़ सकता, वह अपने स्वभाव में, व्यवहार में वैसा ही रहेगा जैसा पहले था-आज के दौर में जिन्हें न तो समय का पहचान है और न तो स्थिति का, वे उजड़ रहे हैं, बर्बाद हो रहे हैं| समय-समाज की उजड़ती और बर्बाद होती सभ्यता की पहचान के लिए उत्तरदायी किसे माना जाए? कवि यह जानना चाहता है-
‘‘धूल विजवाड़ा बराबर
मेंह कण, वर्षांत-जीवन,
बत्तखों-सी तन रही गरदन
सभी बगुले जहाँ हों
हंस की पहचान किसके सिर मढेगी|”[17]
    कवि फूलचंद मानव सहज और संभावना के कवि हैं| समकालीन कविता के दौर में, जब अधिकांश कवि प्रसिद्धि प्राप्ति के मोह में भारतीय संस्कृति एवं पारंपरिक मूल्यों को तिलांजलि देने में थोडा भी संकोच नहीं कर रहे ऐसे समय में फूलचंद मानव का उसे स्थापित करने के लिए संघर्ष करना सुखद एहसास कराता है| इसमें कोई शक नहीं कि अपने समय के यथार्थ से टकराता है, जूझता है, संघर्ष करता है, इसके बावजूद वह विचलित न होकर सुधार और परिष्कार का मार्ग वरण करता है| समकालीन आन्दोलन में उभरे कई स्थापित कवियों की तरह राजनीती के नीरस प्रसंगों से कागद को काले करने का साहस यह कवि भी कर सकता था पर एक मात्र राजनीति ही समाज परिवर्तन के लिए उत्तरदायी नहीं है, इसलिए कवि समय-समाज में वर्तमान सभी समस्याओं की तरफ अपनी दृष्टि फैलता है| युद्ध और प्रेम, वाद और संवाद, संस्कृति और विकृति, सभ्यता और असभ्यता इन सभी विषयों पर जितनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति क्षमता  मानव के कवि-हृदय में देखने को मिलती है, अन्यत्र दुर्लभ दिखाई देता है| इनकी इसी अभिव्यक्ति क्षमता पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्रनाथ मदान ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा है-“मानव की कविताओं में मोहभंग की अनुभूति है, विसंगति का बोध है, आस्था का स्वर है, टकराहट की झनझनाहट है, अनिश्चय का बोध है, संतुलन की समस्या है, सार्थकता-निरर्थकता का बोध है, विश्वासों का गिरना, जिंदगी और मौत का अहसास है; लेकिन प्रेम का अभाव है जो इनकी कविता को समकालीन बनाता है|”[18]
                     


[1] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, दिल्ली, पराग प्रकाशन, 1977, पृष्ठ-43     
[2] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-44
[3] वही, पृष्ठ-66
[4] वही, पृष्ठ-66
[5] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-68
[6] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-
[7] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-13  
[8] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-51
[9]मानव, फूलचन्द, एक ही जगह,  पृष्ठ-11
[10] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-12  
[11] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-57
[12] वही, पृष्ठ-57
[13] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-28
[14] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-
[15] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-56
[16] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, पृष्ठ-48
[17] वही, पृष्ठ-52
[18] मानव, फूलचन्द, एक ही जगह, (भूमिका से)

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