यदि
‘एक ही स्थान पर रहने वाला अथवा एक ही प्रकार का व्यवसाय आदि करने वाले वे लोग जो
मिलकर अपना एक अलग समूह बनाते हैं’1 को समाज कहते हैं तो फिर उसे क्या
कहते हैं जहां एक स्थान पर रहते हुए भी और एक समूह विशेष और उद्देश्य विशेष से
सम्बद्ध होते हुए भी एक न हो पाने की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का सामना आए दिन
मनुष्य को करना पड़ता है? एक पल के लिए यह भी माना जा सकता है कि विभिन्नता और
विषमता होना सामाजिक अवस्था का विकसित होना होता है फिर उस उद्देश्य का क्या होगा
जिसके तहत एक-दूसरे पर विश्वास और सहमति जताते हुए लोगों द्वारा आपसी समझ से एक
संस्था-विशेष का निर्माण किया जाता है (वह संस्था जो बहुत से लोगों ने एक साथ
मिलकर किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्थापित की हो)?2 शायद
यहाँ असामाजिकता का बोध हमें हो जाए या फिर हम यह भी आसानी से कह सकते हैं या एक
हद तक सोचने की स्थिति तक आ सकते हैं कि यह समाज न होकर पूर्ण रूप से जंगल होता
है; पर क्या यह समझने की जरूरत हम विकसित मनुष्यों को अब भी है कि जंगल का भी एक
नियम और एक विशेष कायदा होता है जिसके इतर होकर चलने वालों को वहाँ (जंगल के
नियमों के खिलाफ चलने वालों को) से भी बहिस्कृत कर दिया जाता है | यानि जंगल का भी
अपना समाज होता है; फिर तो वहाँ भी असामाजिकता होती होगी; यदि सामाजिकता के विकसित
होने के लिए विभिन्नता और विषमता का होना अनिवार्य है तो?
अराजकता और स्वच्छंदता की जैसी स्थितियां
वहाँ भी वर्तमान होती होंगी क्योंकि मानव समाज में ऐसी स्थिति के उत्पन्न हो जाने
के बाद हम अक्सर यह कहते या सुनते हुए पाए जाते हैं कि जंगल राज मचा रखा है; आज के
समय में यह सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न है कि जंगल राज होता कहाँ है? मनुष्य के राज
में-जिसे विकसित मस्तिष्क का जीव या फिर सामाजिक पशु3 के रूप में
परिभाषित करने की प्रथा मनुष्य राज के प्रारंभ से ही होता आया है या फिर उन
जानवरों या पशुओं के राज में जहाँ मानव-जाति की पहुँच तो होती है लेकिन आधिपत्य लगभग
न के बराबर होती है? यह एक विमर्श और व्यापक चिंतन का विषय है जिस पर समय समय पर
विकसित मनुष्यो की मानसिकता द्वारा ही वाद-संवाद होता आया है; परन्तु ये कम
दुर्भाग्य का विषय नहीं है कि इस वाद-संवाद में पशुओं एवं जानवरों को बाहर रखा गया
| यदि उनकी उपस्थिति में इस प्रकार की गोष्ठी या फिर विचार-विमर्श का आयोजन सभ्य
मानव समाज द्वारा किया जाता तो संभव है कि मनुष्य को, जो स्वयं को और अपने आने
वाली जाति-प्रजाति को भी अभी तक खुद से ही संसार और सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी
घोषित करता आया है, अपनी सर्वश्रेष्ठता को त्यागकर उनकी अधीनता स्वीकारना पड़ता |
इसका प्रमाण हमें हिन्दी संत साहित्य में
मिलता है; यदि हम अध्ययन करने की कोशिश करें तो | संतों ने पशुओं एवं मनुष्यों पर
लगभग एक सामान रूप से अध्ययन किया है और कई जगह मनुष्य को पशुओं की अपेक्षा हेय
दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है | यह जरूर अपने समय में उनका एक साहस का कार्य
था क्योंकि ऐसा प्रयत्न उनके द्वारा स्वयं मनुष्य की स्थिति में रहते हुए किया गया
है | पशु, जो जंगलों में निवास करते हैं और जिनके विषय में यह माना जाता है कि ये
हिंसक होते हैं और इनमे शुभ-अशुभ का विवेक नहीं पाया जाता | मनुष्य, जो सभ्य समाज
में अपने द्वारा निर्मित बंदिशों में निवास करते हैं और यह प्रायः स्वीकार किया
जाता है कि हानि-लाभ, शुभ-अशुभ का विवेक उनमें होता है | वे वही करते हैं जो समाज
की उन्नति के लिए आवश्यक होता है | जिन कार्यों में समाज की अवनति होती दिखाई देती
है उसका परित्याग स्वविवेक से कर देते हैं | न तो समाज के बिना उनका अस्तित्त्व है
और न ही उनके बिना समाज का |4 फिर समस्या आखिर कहाँ पर है? समस्या मानव
के दिन-प्रतिदिन कम होती मानवीयता से है और अनवरत तीव्र हो रही जंगली मानसिकता के
प्रति उसके झुकाव का है |5 जाहिर सी बात है जंगली पशुओं से बचाव के लिए
जिस मानव ने संगठित होकर सभ्य समाज का निर्माण किया, उसी मानव द्वारा पशुता की
प्रवृत्ति को अपनाते हुए, जितना भयानक कार्य जानवरों द्वारा भी नहीं किया गया था,
इन मनुष्यों द्वारा किया जा रहा है | जंगली मानसिकता के प्रति तीव्र हो रही
प्रवृत्तियों पर संत रविदास ने यह कहते हुए तथाकथित सभ्य मनुष्य-जाति को अपना
निशाना बनाया था—यथा
दया
भाव हिरदै नहीं, भखहिं पराया मास |
ते
नर नरक मंह जाइहि सत्त भाषे ‘रविदास’||
प्रानी
बध नहिं कीजियहि जीवहि ब्रह्म सामान |
‘रविदास’
पाप नंह छूटइ, करोर गउन करि दान ||”6
‘पराया
मास’ भखने की प्रथा आज मानव समाज में ही पाया जाता है इसकी विद्यमानता अब पशुओं या जंगली जानवर कहे जाने वाले जीवों
में लगभग नहीं रही | हालाँकि यह उनका कर्म है और एक हद तक धर्म भी क्योंकि उनके
जीवन-यापन का साधन यही है | पर पराए मांस को खाना न तो मनुष्य का धर्म है और न ही तो
उसका कर्म ही है | विडम्बना की स्थिति तो
ये है कि जिस जीव को ब्रह्म की संज्ञा दी गयी है भारतीय शास्त्र में और यहाँ संत
रविदास भी जिसमे ब्रह्म का अस्तित्त्व देखते हैं, वह तो बड़ी दूर की बात रही, आज
मनुष्य-मनुष्य का वध करता फिर रहा है | अपनी बढ़ती हुई आकांक्षा, विकराल होती तीव्र
भौतिकतावादी प्रवृत्ति, उपभोग की अदम्य लालसा से हताश, कुंठित और लगभग हाशिए पर आ
चुका मानव अपने ही घर, पड़ोस, परिवेश के लोगों को खाता, नोचता हुआ अपने अमानुषिक
प्रवृत्ति को शांत करने का प्रयास करता दिखाई दे रहा है | क्या मनुष्य के बदलते इस
तेवर से यह नहीं परिभाषित होता कि अन्य प्रकार के जीवों के स्वभाव में स्व-हित की
परिकल्पना उतनी अधिक तीव्र नहीं है जितनी मनुष्य में | भोगमयी समय के इस वर्तमान
मनुष्य को यह समझने की आवश्यकता है कि जीव तो जीव होता है; क्या मनुष्य का जीव और
क्या संसार-सागर में निवास करने वाला अन्य प्रकार का जीव?7 संत रविदास
यहाँ यही समझाते और मानव अस्तित्त्व का बोध कराते हुए उसे सचेत करना चाहते हैं—यथा,
‘रविदास’
जीव मत मारहिं, इक साहिब सब माहिं |
सब
मांहिं एकउ आतमा, दूसरह कोउ नांहि ||”8
विभिन्न
प्रकार के रीति-रिवाजों के आवरण में उत्सवों का सृजन मनुष्य द्वारा किया गया है |
निश्चित ही ये उत्सव उनके समाज के विकास में सहायक हुए हैं; लेकिन यही उत्सव
उन्हें मानव होने को लेकर संदेह भी पैदा करते हैं | यह कहना या फिर ऐसा समझना कि
त्यौहार विशेष पर कुछ विशेष जीवों को मारने से ईश्वर खुश होता है निःसंदेह उसके दानवी
प्रवृत्ति का परिचायक है | फिर यदि जीवों को मारने के बजाय, उनका बलि चढ़ाने के
बजाय यदि स्वयं को बलि-बेदी पर अर्पित करते हुए ईश्वर को सौंपना हो तो क्या यह
मानव ऐसा करने के लिए खुद को प्रस्तुत कर सकेगा?
रविदास
मूंडह काटि करि, मुरख कहत हलाल |
गला
कटावहि आपना, तउ का होइहि हाल ||”9
यहाँ, जो ऐसा करने के लिए फरमान सुनाते हैं क्या
उन्हें इस बात का आभाष है कि वे भी मरने के लिए ही पैदा हुए हैं, कहीं न कहीं उनकी
यह प्रवृत्ति है तो ईश्वर के नाम पर खुद का पेट भरने की ही प्रथा |10
और क्या पता उससे भी कठिन सजा इस कार्य के लिए उनको प्राप्त हो;11 यह
बात समाज के बुद्धिजीवियों और धार्मिक ठेकेदारों को समझने की आवश्यकता है और साथ
ही साथ दूसरों को भी उन्हें यह समझाने की जरूरत है क्योंकि इनके कहे गए बातों का
असर जन समुदाय पर पड़ सकता है और पड़ता भी है | ये भले ही ढोंग और रूढ़ियों के
प्रचारक होते हैं; और क्योंकि असत्य तथा झूठ में एक विशेष प्रकार का आकर्षण पाया
जाता है; उस आकर्षण में जनता का एक बहुत बड़ा अंश स्वयमेव खिंचा चला आता है और
समय-समाज के परिवर्तन का कारण बनता है | संत रविदास अपने इस भाव को व्यक्त करते
हुए कहते हैं--
रविदास
जो आपन हेत ही, पर कूं मारन जाई |
मालिक
के दर जाइ करि, भोगहिं कड़ी सजाई ||”12
‘रविदास’
जीव कूं मारि कर कैसो मिलहिं खुदाय |
पीर
पैगम्बर औलिया, कोउ न कहै समुझाय ||”13
संत
रविदास का यह प्रयास मनुष्य को मनुष्यता के मार्ग पर बने रहने के लिए ही किया गया
और वह भी उस मनुष्य के लिए जो कभी वर्ण-विवाद, जाति-विवाद, संप्रदायवाद की
संकीर्णता में रहते हुए अपने मनुष्य होने के पहचान को खोता जा रहा था | हालाँकि यह
प्रयत्न आज भी उसी वेग से और उससे भी अधिक तीव्र रूप में अपने साकार स्वरुप में हम
सबके सामने फल और फूल रहा है लेकिन इस अमानवीय प्रवृत्ति पर रोक लगाया जा सकता है;
लेकिन इसके लिए हमें संत साहित्य की तरफ रुख करना होगा; मनुष्य को मनुष्य बनाए
रखने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयत्नों को अपने जीवन का उद्देश्य बनाना होगा |
क्योंकि उन्होंने कभी ऐसे मानव-लोक की परिकल्पना नहीं की थी जिसमें एक-दूसरे के
जीवन जीने के अधिकार पर ही किसी और का पहरा हो; उन्होंने ऐसे समय और समाज का
स्वप्न देखा था जहां सभी जीने, रहने और आत्ममंथन करने की स्वतंत्रता और अधिकार
प्राप्त हों—यथा,
ऐसा
चाहौं राज मैं, जहां मिलै सबन काउ अन्न
छोट
बड़ो सभ सम बसैं, ‘रविदास’ रहैं प्रसन्न ||14
प्रसन्नत
का बोध वहीं हो सकता है जहां मनुष्यता हो और मनुष्यता वहीं संभव है जहां समानता हो
| असमानता के वातावरण में रहना और जीवन यापन किसी भी जंगली परिवेश में निवास करने
के बराबर होता है | सवाल ये है कि क्या हम समान-परिवेश में जीवन यापन करने के लिए
स्वयं को समर्थ बनाने में कामयाब हो पा रहे हैं? संत रविदास का व्यक्तित्त्व और
उनका साहित्य हमारे लिए इस दिशा में बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है; क्योंकि
“संत रविदास एक ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने अनेक सांप्रदायिक मतों के वातावरण में
सामाजिक दुर्व्यवस्था से विचलित हुए बिना, समाज से ऊपर उठकर आध्यात्मिक शक्ति के
द्वारा आत्मचिंतन करके अपने सरल उपदेशों के बल पर अरकजकता के वातावरण को समाप्त
करने का अथक प्रयास किया और मानव कल्याण के लिए मार्ग प्रशस्त किया जो आज भी मानव
कल्याण के लिए प्रासंगिक है | चमार परिवार में जन्म होने से उनके समुदाय को, लोग
जाति की सीमा में बाँधना चाहें तो उनका प्रयास मिथ्या होगा | उनकी वाणियाँ किसी एक
जाति, संप्रदाय की न होकर समस्त मानव जाति
के समस्त देश काल के लिए कल्याणकारी हैं|”15
सन्दर्भ-संकेत
1.
वामन, शिवराम
आप्टे, संस्कृत हिंदी कोश, दिल्ली : नाग प्रकाशन, पुनः मुद्रित संस्करण-१९८८,
पृष्ठ-३८६
2.
वही,
पृष्ठ-386
3.
man is a social animal-aristotle
4.
“जब अनेक मानव एक
साथ रहते हैं तब उनके पारस्परिक संबंधों से समाज बनता है। मानव समाज की इकाई है और
समाज के बिना वह पूरा विकसित मनुष्य नहीं हो सकता।”
वर्मा,
डॉ० विश्वनाथ प्रसाद, राजनीति और दर्शन, सम्मलेन भवन, बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद,
सं.1956, पृष्ठ-107
5.
वर्तमान युग के
व्यक्ति का जीवन पहले से अधिक कठिन होता गया है | दुःख, कष्ट, क्लेश भी पहले की
अपेक्षा अधिक और सालने वाले | सभी चाहते सुख हैं किन्तु दुर्दांत दुखों में घिरते
जाते हैं | ऐसा क्यों? क्योंकि पहले की अपेक्षा अधिक लोग अधिकाधिक स्वार्थी,
निर्दयी, भावनाहीन, संवेदनाशून्य, नास्तिक होते जा रहे हैं |
वंशी, डॉ० बलदेव (सं.), दादू
ग्रंथावली, नई दिल्ली : प्रकाशन संस्थान, 2005
(भूमिका), पृष्ठ-15
6.
आजाद, आचार्य श्री
पृथ्वीसिंह, रविदास दर्शन, चण्डीगढ़ : श्री गुरु रविदास संस्थान, 1973, पृष्ठ-186
7.
क्या बकरी क्या
गाय है, क्या अपना जाया,
सबका लोहू एक है, साहिब फरमाया |
मलूकदास
हरि, वियोगी, संतवाणी, पृष्ठ-90
8.
आजाद, आचार्य श्री
पृथ्वीसिंह, रविदास दर्शन, चण्डीगढ़ : श्री गुरु रविदास संस्थान, 1973, पृष्ठ-186
9.
आजाद, आचार्य श्री
पृथ्वीसिंह, रविदास दर्शन, चण्डीगढ़ : श्री गुरु रविदास संस्थान, 1973, पृष्ठ-183
10. पीर
पैगम्बर औलिया, सब मरने आया,
नाहक
जीव न मारिये, पोषण की काया |मलूकदास
हरि,
वियोगी, संतवाणी, पृष्ठ-90
11. 1.
संत रविदास ने एक अन्य दोहे में इस बात को अभिव्यक्त करते हुए कहा भी है कि—
‘रविदास’
जिभ्या स्वाद बस, जउ मांस मछरिया खाय|
नाहक
जीव मारन बदल, आपन सीस कटाय||
आजाद, आचार्य श्री पृथ्वीसिंह, रविदास दर्शन,
चण्डीगढ़ : श्री गुरु रविदास
संस्थान, 1973, पृष्ठ-185
2. मालिक मुहम्मद जायसी ने भी
कहा है-
जिन्ह
जस माँसू भखा पराया, तस तिन्हकर लेइ औरन खाया ||
द्रष्टव्य-आजाद, आचार्य श्री पृथ्वीसिंह, रविदास
दर्शन, चण्डीगढ़ : श्री गुरु
रविदास संस्थान, 1973, पृष्ठ-186
12. वही,
पृष्ठ-184
13. वही,
पृष्ठ-182
14. आजाद,
आचार्य श्री पृथ्वीसिंह, रविदास दर्शन, चण्डीगढ़ : श्री गुरु रविदास
सस्थान, 1973, पृष्ठ-192
15. अहिरवार,
डॉ० रामकुमार, संत रविदास : जीवन और दर्शन, दिल्ली : गौतम
बुक सेंटर, पृष्ठ-100
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