मानव जीवन को जी ले जाना कितना कठिन कार्य
है यह उस जीवन को जीते हुए महसूस किया जा सकता है जिसे एक कवि या साहित्यकार जीता
है | कवि या साहित्यकार का जीना सामान्य जीवन को जीना तो विल्कुल भी नहीं कहा जा
सकता | यह इसलिए कि दुःख का, गम का, विपदा एवं आपदा का, स्थिति एवं परिस्थिति का
जैसा साक्षात् अनुभव वे करते हैं, वैसा अनुभव करना न तो किसी के वश की बात है और
ना ही तो किसी के पास उतना समय ही होता है | तो इसका मतलब क्या कवि या साहित्यकार
फ़ालतू होते हैं? व्यक्तिगत या अन्य कारणों से उन्हें कोई कार्य नहीं होता? या फिर
वे समस्त जिम्मेदारियों से विमुक्त होते हैं? अथवा ये मान लिया जाय कि एक ही काम होता
है उनके पास इस निस्सार जगत को देखना और उसका वर्णन करना? नहीं...ऐसा विल्कुल नहीं
होता | सच्चे अर्थों में कवि या साहित्यकार समाज के सबसे कुशल और जागरूक
व्यक्तित्व होते हैं | समय समाज में वर्तमान रहते हुए एक ईमानदार और सार्थक नागरिक
की भूमिका को एक कवि या साहित्यकार ही अदा करते हैं | जितने सरल तरीके से एक कवि
या साहित्यकार के विषय में हम सोच ले जाते हैं कविता का जन्म ऐसे नहीं होता और न
तो ऐसे कोई कवि ही हो जाता है | पन्त ने तो कहा भी था “वियोगी होगा पहला कवि” यानी
कवि होने का अर्थ है उसके अन्दर वियोगदशा का उत्पन्न होना | ऐसा होता किसे है?
क्या उसे जो आराम पसंद जीवन का निर्वहन करता है या फिर उसे जो सुविधाभोगी व्यसाय
को वरण करता है?
सही मायने में कहा जाय तो वियोग की
अन्तर्दशा उनमे परिलक्षित होती है जो समस्याओं की भट्ठी में अनवरत जलता रहता है | समस्याओं
के जाल में स्वयं को उलझा हुआ पाकर निकलने के लिए तड़पता रहता है | एक असमय, बगैर
किसी वजह के, अचानक आए भूकंप या प्राकृतिक आपदा के कारण मलबे के नीचे दबे, चीखते,
चिल्लाते अपनों को निकालने के प्रयास में अपना होशोहवास खो बैठता है | यह आशा लिए
और अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए स्वयं को तबाह कर देने की हिम्मत रखता है कि वह
उन्हें मरने न देगा, अंतिम स्थिति तक बचा कर छोड़ेगा | समय के अंतिम क्षण तक संघर्ष
करता है वह इसी आस के साथ | मिलता है तो अपना अन्यथा जीवन की नियति मानकर नए सृजन
की तरफ उन्मुख हो उठता है | समाज में वर्तमान रहते हुए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक
और सांस्कृतिक समस्याएँ किसी भी स्तर से एक आपदा से कम नहीं होती | इनमे उलझे आम
जनमानस के भावों एवं संभावनाओं को अभिव्यक्ति देना और उन्हें अपने सद्प्रयासों से
जीवन जीने के लिए प्रेरित करना एक अच्छे साहित्य और उसके सर्जक साहित्यकार का
अभीष्ट होता है |
यह स्पष्ट है कि कविता के केंद्र में यह
सम्पूर्ण समाज होता है | मानव समाज का सबसे सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है|
सर्वश्रेष्ठ प्राणी की रक्षा एक सर्वश्रेष्ठ माध्यम द्वारा ही किया जा सकता है, वह
माध्यम कविता है | मनुष्य यदि कविता का सृजन करता है तो कविता मनुष्य को मनुष्यता
प्रदान करती है | मनुष्य और कविता के इस अंतर्संबंध को स्वीकार करते हुए लीलाधर
जगूड़ी जी कहते हैं कि, “एक अच्छी कविता से साक्षात्कार के बाद कोई नहीं कह सकता कि
‘कोई फर्क नहीं पड़ता’ और कोई यह भी नहीं कह सकता कि ‘सबकुछ चलता है’ | कविता के
आसपास रहने वाले और कविता को अपने आसपास बनाए रखने वाले लोग कहीं न कहीं कविता से
जीवन में कोई न कोई काम ले रहे होते हैं और इस तरह कविता उनके जीवन में अपने जीवन
का कोई न कोई काम कर रही होती है | जब भी जीवन में याद रखने लायक कोई छोटा-बड़ा
अनुभव घटित होता है या तो कोई पुरानी कविता आ धमकती है या फिर कोई नयी कविता जन्म
ले लेती है | दोनों में ही मनुष्य होने की सम्पूर्ण स्मृति का बहुत बड़ा हाथ है|”1
कविता में जीवन और जीवन में कविता का अभाव
होना दोनों के अस्तित्व को नकारना है | जब कविता अपने समय के हाशिए पर धकेली जा
रही हो तो मनुष्य के अंतरतम में विद्यमान उसके समस्याओं को जानने के लिए कोशिश की
जानी चाहिए और जब मनुष्य अपने समय के हाशिए पर धकेला जा रहा हो तो हमे कविता के
आवरण में स्वयं को देखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए | कविता और जीवन का
अंतर्संबंध इतना घनिष्ट और एक दूसरे का पूरक है कि एक को समझने के लिए दूसरे को
पढना आवश्यक हो जाता है | अर्थात कविता को पढना है तो मानव जीवन की सच्चाई को समझना
है और यदि मानव को पढ़ना है तो कविता उसके बारे में क्या सोचती है...यह समझने की
कोशिश करना है | ‘बोधिवृक्ष पर’ की भूमिका में अजय पाठक जी कहते हैं कि, “उसमे
मनुष्य जाति के वैयक्तिक अनुभवों की व्यथा-कथा, जड़-चेतन, स्थूल-सूक्ष्म,
दृश्य-अदृश्य सभी के शब्दचित्र उकेरे जा सकते हैं | मानव की पीड़ा उसका दुःख,
अवसाद, उल्लास, प्रकृति-विकृति सब कुछ कविता के विषय हो सकते हैं | हम कह सकते हैं
कि कविता, वर्तमान को सहेजने और मनुष्य की अस्मिता एवं उसकी आत्मा की आवाज को
संरक्षित रखने का उपक्रम भी है |”2
ऐसा सुन्दर और सार्थक माध्यम होते हुए भी
मनुष्य का स्वयं में विखर कर रह जाना थोडा व्यथित तो करता ही है | कवि समुदाय की
चिंता इस व्यथा को दरकिनार कर सुन्दर एवं सकारात्मक वातावरण की उपलब्धता को
दर्शाना है | देखने, परखने और समझने का विकल्प देने के लिए यह सत्य है कि कवि
इन्हीं हालातों में उत्पन्न होता है | साहित्यकार का उद्भव इन्हीं झंझावातों में
होता है | साहित्य को समाज का दर्पण इसीलिए कहा जाता है | कविता को मानवीय
संभावनाओं का संवाहक इसीलिए समझा जाता है | यह समझ ही साहित्य को समस्त संस्कारों
का मापदंड घोषित करता है | लेकिन यह तभी संभव है जब हम साहित्य के अंतिम स्थिति तक
जाकर उसके अध्ययन का जोखिम उठाएं | काव्य रस का आनंद सामाजिक सरोकार से जुड़कर तभी
लिया जा सकता है | अन्यथा संभव यह भी है कि न तो हम ठीक से समय और समाज को समझ
पाएँगे और न ही तो साहित्य को| अजय पाठक जी का मानना है, “मैं यह मानता हूँ कि कोई
भी कविता अनायास जन्म नहीं लेती | कोई घटना जब मन को बुरी तरह कचोटती है तब उसके
आन्दोलन से उपजे सापेक्ष विचार मन को मथने लगते हैं, विचारों के इसी मंथन से अनेक
प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं जो शब्दों का रूप ग्रहण कर बाहर निकल पड़ते हैं |
शब्दों के ताने-बाने से बने इस विन्यास को ही कविता कहते हैं |”3
यह अजय पाठक की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है, यथा-
इस पीड़ा के महाकाव्य को/ ऐसे
नहीं टटोलो
मुझको पढना है तो मेरा /पन्ना पन्ना खोलो
पुरोवाक् से उपसंहार तक /इसमें
कई कहानी
नैन फागुनी, रूप चांदनी /और
आँख का पानी
जीवन क्या है? समझ सकोगे /साथ
हमारे हो लो
कहीं कहीं हल्दी के छापे /कंचन
मधु की प्याली
और कहीं के गीत व्यथा के /गाती
हुई रुदाली
कितनी विस्मयकारी बातें, हैं
ना /सचमुच बोलो|”4
मानवीय जीवन की विसंगतियों और कविता के
विभिन्नताओं को विस्मयकारी ढंग से देखने की नजरिया को हमें बदलना होगा | यह
सम्पूर्ण धरा जिसमे हम वर्तमान हैं, एक विशेष प्रकार के विस्मय का संसार है | यह
विस्मय आश्चर्य जनक रूप से और भी गहरा होता जाता है, जैसे जैसे हम जीवन की गहराई
में उतरते जाते हैं | पास में रहने वाले दो व्यक्ति स्वयं को दो भिन्न रूपों में
देखते हुए पाए जा सकते हैं | यह भी देखा गया है कि एक जगह शादी के मंडप सजाए जा
रहे हैं तो दूसरी तरफ कंधे पर रखकर अर्थी को श्मशान घाट तक पहुंचाया जा रहा है |
एक जगह शोक के गीत गाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ ख़ुशी और उल्लास के नगमे छेड़े जा
रहे हैं | कवि इन दोनों स्थितियों को जीने और भोगने के लिए विवश होता है | समाज
में रहने वाले दोनों तरह के लोग उसके अपने हैं क्योंकि वह सबका है | सामजिक होने
और सबके प्रति भूमिका निभाने में गीत और नवगीत विधा में अपनी भावनाओं को
अभिव्यक्ति करने में रचनाकार कुछ अधिक सफल हुए हैं | नचिकेता जी द्वारा कही गयी यह
बात आज के परिवेश में सार्थक सिद्ध होती है “आज की अति बौद्धिक, दुरूह, पहेलीनुमा
और लय-छंद विहीन निरा गद्यात्मक कविता जन-जीवन के विराट परिसर से जहां काफी हद तक
विस्थापित हो गयी है वहाँ सहजता, आत्मपरकता, रागात्मकता, सामूहिकता और लोकप्रियता
के विशेष गुण की वजह से तथा जनमन के अत्यधिक निकट होने के कारण गीत व्यापक जन
समुदाय में एक सीमा तक अपनी पैठ बनाए हुए हैं | असल में सामाजिक यथार्थ जैसे जैसे
बदलता जाता है वैसे वैसे उसकी अभिव्यक्ति के तरीके भी बदलते जाते है|”5
एक गीतकार के मनोभाव को अभिव्यक्त करते हुए कवि अजय जी कितनी सुन्दर बात कहते हैं-
जग हँसता है, मैं हँसता हूँ
रोता है जग, रो लेता हूँ
फूलों की दरकार नहीं है
कांटो पर भी सो लेता हूँ
मैं समाज का ताना-बाना
रेशा-रेशा, तार-तार हूँ
हाँ जी हाँ! मैं गीतकार हूँ |”6
फूलों की अभिलाषा क्या उसे हो
सकती है जो सबको फूल उपलब्ध कराने के लिए प्रयत्नशील होता है? फूल तो कबीर के समय
भी थे | उन्होंने उसका चयन न कर कंटीले पथ का वरण क्यों किया? क्या वे सुविधाभोगी
नहीं हो सकते थे? या फिर उन्हें वे साधन नहीं सुलभ थे कि उनके समय के सुविधापरस्त
लोगों द्वारा उन्हें वह अवसर नहीं दिया गया? यह सब था और इन सबके होने के बावजूद
यह सच है कि “सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवे | दुखिया दास कबीर है जागे अरु
रोवे |” ‘खाने’ और ‘सोने’ की प्रक्रिया को वही अपना सकता है जो स्वयं को संसार से
दूर रखता है | भारतीय परंपरा में संसार से दूर रहने वाला और एक दूसरे के सुख-दुःख,
विपदा-आपदा में सहयोग की भूमिका न निभाने वाला व्यक्ति भीरु और अकर्मण्य कहलाता है
| ‘जागे अरु रोवे’ पर विस्वास करने वाले परिवर्तन के आकांक्षी होते हैं और यह
आकांक्षा ही अजय पाठक जी के चिंतन का मूल आधार है | डॉ चंद्रशेखर सिंह जी के
शब्दों में कहें तो “हम जानते हैं कि समय किसी की बपौती नहीं, वह सबको बराबर मिला
है, पर जनसामान्य का समय भी आज उनका अपना नहीं | इस मर्म को लेखनी के धर्म से डॉ०
पाठक ने कर्म के अनुराग के माध्यम से प्रतिष्ठापित किया है | डॉ० पाठक का सृजन
समाज के अंतिम आदमी के मन की व्यथा तक को भी कहने का सामर्थ्य रखता है |”7
वे चाहते हैं कि ईश्वर भी अपने साकार स्वरुप में आकर मानव-लोक में विद्यमान इस
कथा-व्यथा को देखे और इस अनवरत हो रहे परिवर्तन का साक्षी बने | यथा-
“तुम कहाँ नेपथ्य में सोये पड़े
हो
किस विजन के पत्थरों में तुम
गड़े पड़े हो
सामने आओ /
सगुण आकर लो........
दूर हो तुम कुछ कठिन यह राह भी
है
पर तुम्हारे दर्शनों की चाह भी
है
छोड़ लघुता को ज़रा /विस्तार लो
|”8
ईश्वर का निराकार रहना
मानव-लोक से दूर रहना है | उसका लघु होना संसार में घटित हो रहे कई एक महत्वपूर्ण
घटनाओं से अनभिज्ञ रह जाना है | कवि की कोशिश उसका मानव के दुःख से सीधा
साक्षात्कार कराना है | वह इसीलिए निवेदित करता है ईश्वर के “साकार’’ और ‘‘विस्तार’’
रूप में उपस्थित होने के लिए | निश्चित ही यहाँ उसका साक्षात्कार मानव होने को
लेकर संघर्ष कर रहे सबसे गरीब आदमी से हो सकेगा | वैसे तो आज के इस कठिनतम समय में
आम आदमी का ईश्वर तक अपना सन्देश और अपना हाल कहने के लिए पहुँचना कठिन ही हो गया
है | तीजों-त्योहारों पर अपनी जो व्यथा-कथा वह लोक-रीतियों एवं परम्पराओं के
माध्यम से पहुंचा दिया करता था अब उस पर भी मंहगाई की मार पड़ने लगी है | दीपावली
हो या होली अथवा ईद हो या बकरीद, जितने भी त्यौहार ईश्वर को समर्पित हैं इन सभी अवसरों पर आम आदमी हाथ मसोस कर रह जाता
है | कभी यह समस्या मुंशी प्रेमचंद जी ने ईदगाह में उठाया था, और अब इसी समस्या को
अजय पाठक जी “कैसे मने दीवाली” गीत में उठाते दिखाई देते हैं – यथा –
तंग हाथ है, और साथ है /चिरकुट
सी बदहाली
लक्ष्मी देवी तुम्हीं बताओ /कैसे
मने दीवाली?
सौ सौ रुपया भाव दाल का /तीस
रुपैया आटा
दाम तेल का चपत लगाए /पड़े गाल
पर चांटा
साग-भात-रोटी का संगम /दुर्लभ
एक कहानी
अब हासिल है सूखी रोटी /और दाल
का पानी
कथा बांचते मंहगाई
के,/चूल्हा-चौका–थाली
देसी घी का हलुआ खाए /बीत गए हैं बरसों
बापू शायद बोल रहे थे /अम्मा
जी से परसों
इच्छाओं का घटा घोंटती /अपनी
हालत माली |”9
ध्यान देने की बात है, कि इच्छाओं का गला
घोटना मजबूरी ही नहीं जनसामान्य की नियति भी हो गयी है | ऐसा उनके जीवन में होना
एक दिन का नहीं रोज रोज की कहानी है | वर्तमान समय समाज में इस कहानी का अंत कहीं
नहीं है | विस्तार हर जगह से किया जा रहा है | जहाँ बड़े बड़े पूंजीपति-वर्ग के लोग
अपनी दिनचर्या में विकास और विनाश के उलटी गिनतियाँ गिनने में मशगूल होते हैं वहीँ
गरीब आदमी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में व्यस्त | जहां फैशन के नाम पर
हजारों-करोड़ों का वारा-न्यारा होटलों और मंहगे रेस्तराओं में हो रहा है वहीँ
घर-आँगन में चूल्हा और चौका जलने और चलने के लिए तरस रहा है | बड़े बड़े क्लबों और
खेल मैदानों में सट्टे लगाए जा रहे हैं | खनन और उत्खनन के नाम पर घपले और घोटाले
हो रहे हैं | इन सबसे दूर आम आदमी खटते-पिटते नंगे और भूखे रहने के लिए अभ्यास कर
रहा है | यह अभ्यास घर की चाहरदीवारी से लेकर बड़े-बड़े शहरों और महानगरों में निरंतर
जारी है | लेकिन देश के भाग्यविधाता सत्ता पर काबिज खद्दरधारी जन पर इनके इस
अभ्यास पर थोड़ा भी ध्यान नहीं जाता | वे इस विषम परिस्थितियों में भी अपने पक्ष का
अवसर ढूँढने में मशगूल हैं | ऐसी स्थिति में क्या यह समझा जा सकता है कि वह आम
आदमी जो दिन रात मजदूरी करके अपना और अपना परिवार चला रहा है, क्या इस समाज में
रहने लायक है? अजय पाठक जी आम आदमी का अनादिकाल
से तमाम प्रकार के शोषण को सहते हुए भी अधिकार और समानता को प्राप्त न कर पाने की
दशा में भूखा रहने और इस सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को तजकर वनवास लेने की बात
कहते हैं | विषम वातावरण में तो सांस लेना भी दुर्लभ होता है फिर जीवन जीने की तो
बात ही दूर है-यथा-
रूखी-सूखी दो रोटी जो / हम तुम खाते हैं
उस पर भी वह अपनी / तिरछी
दृष्टि गडाते हैं
सब्सिडी’ की छेड़ कहानी / बंद
करे हैं दाना पानी
ऐसे भाग्यविधाता पर / कब तक
विश्वास करें
आदिकाल से वर्तमान तक / छलते
ही आए
उनकी बातों का मतलब हम / समझ
नहीं पाए
भूख रही अपनी कमजोरी / वह तो
अपनी भरें तिजोरी
उनको सौंपे राज-सिंहासन / हम
वनवास करें”10
ये सभी विसंगतियां आज हमारे सामने हम सबके
संज्ञान में वर्तमान हैं | इन विसंगतियों के खात्मे की बात कहीं न कहीं हम सब के
द्वारा की जा रही है | सच यह भी है कि ऐसा कहा भर जा रहा है किया नहीं | सवाल ये
है कि कहने को तो सब कह रहे हैं पर करने के लिए किससे कहा जाय | कहने वालों में भी
वही शामिल हैं जो इस प्रकार के परिवेश निर्माण में बराबर के सहभागी हैं | यानि
न्यायकरता स्वयं अपराधी है और जब न्यायकर्ता अपराधी हो तो न्याय की आशा करना कहाँ
तक जायज है? “पानी में रहकर मगर से बैर” करना क्या उचित हो सकता है? ‘क्या करें’
गीत में अजय पाठक जी वर्तमान समाज-व्यवस्था की क्या सुन्दर विवेचन करते हैं- यथा
“देवता व्यसनी हुए
हैं / मुक्त सब गंधर्व हैं
किन्नरों के दिन फिरे हैं /
दानवों के पर्व हैं
इंद्र क्या हैं ? बात ऐसी /
अप्सरा से क्या करें
राम को बनवास भेजा / जा रहा है
हर कहीं
सूखती संवेदना है / टूटते हैं
घर कहीं
न्याय की कोई अपेक्षा / मंथरा
से क्या करें
चक्रव्यूहों में घिरा अभिमन्यु
/ मारा जा रहा है
पुत्र, भाई या किसी घर का /
सहारा जा रहा है
अश्वस्थामा का बयाँ हम /
उत्तरा से क्या करें?”11
परिस्थितियों के अम्बार में
चरित्र का निर्माण होता है | ऐसा शास्त्रों में लिखा गया है | जहां परिस्थितियाँ
नहीं होती वहाँ अक्सर जंगल राज होता है | यह परंपरा से प्राप्त अनुभव से देखा गया
है | जंगलराज में मनुष्य से लेकर जीव, वनस्पति तक की दुर्गति होती है | सभी एक
दूसरे को दोषी ठहराते हैं | सभी एक दूसरे पर लांछन लगाते हैं | यह पता है कि अमुक
व्यक्ति दोषी है द्रोह या विद्रोह की चिंगारी उसी के नेतृत्व से उपजाते हुए एक
विकराल अग्नि ज्वाला का रूप धारण कर चुका है | इस अग्नि की ज्वाला में सभी जल रहे
हैं, सभी मर रहे हैं | मरने या जलने वाला तो गति पा रहा है | दुर्गति बचाने वाले
की हो रही है | यह दुर्गति आज के समाज में कुछ अधिक विकराल रूप धारण किए हुए है |
सुधार कहाँ से हो | किससे हो, यह विकल्प अनवरत तलाशा जा रहा है | सवाल यह भी है कि
गति या दुर्गति की स्थिति कहा किससे जाय?
यह स्थिति तब भी थी जब देश स्वतंत्र हुआ था |
विकास-पथ पर अग्रसर होने के लिए संघर्ष रत था | यह स्थिति आज भी अपने उसी रूप में
विद्यमान है जब देश काफी हद तक विकास कर चुका है और विश्व-महाशक्ति के पथ पर स्वयं
को बढ़ते हुए पा रहा है | देश समृद्ध हुआ है | वह शक्ति से महाशक्ति तक का सफ़र तय
करने के लिए पूर्ण रूप से तैयार भी है | पर इस देश में निवास करने वाला आम आदमी
वहीँ है जहां अपने प्रारंभिक क्षणों, स्वतंत्रता पूर्व की स्थिति में था | अभी तक
वह ये तो समझ ही नहीं पाया या समझने का उसे अवसर ही नहीं दिया गया कि स्वतंत्रता
भी कोई चीज है | ‘भूंख’ से शुरू हुआ उसका कारवा आज भी भूंख’ में ही उलझा है |
“किस्मत नमक हराम” में कवि इन्हीं स्थितियों को अभिव्यक्त करता है | यथा-
“खुली पीठ पर कोड़े मारे
जेठ माह का घाम
खरी दुपहरी और बचा है
कितना सारा काम
छाती पर है खड़ा मुकद्दम
बोले ‘हाथ चलाओ’
‘लकवा मार गया है तुमको
पूरा जोर लगाओ’
जितना काम करोगे
उतना ही पाओगे दाम|”12
इन
काव्य पंक्तियों के हवाले से यदि समाज का मुआयना किया जाय तो क्या कहीं से भी यह
आभाष होने की उम्मीद है कि हम आज के स्वतंत्र भारत में जीवन-यापन कर रहे हैं? क्या
हम सबके बीच यह कयास लगाए जाने की संभावना है कि स्वतंत्रता और समानता के धरातल पर
आच्छादित उस समय समज में वर्तमान हैं जिसका संविधान ही इन्हीं भावों पर आधारित हो?
नहीं, विल्कुल नहीं | ऐसा कहने, करने और देखने का अधिकार हमे नहीं है| अधिकार तो
सच पूछा जाय तो सोचने का भी नहीं है | क्योंकि हमारी समस्त चिंतन प्रक्रिया
भ्रष्ट-व्यवस्था के हाथ की कठपुतली बन चुकी है | सच यह भी है कि कवि या साहित्यकार
प्राथमिकता तो सत्य को ही देता आया है | व्यवस्था से अकेले लड़ने का जैसा दम-ख़म
कवि-रचनाकारों ने दिखाया है वैसा अभी तक किसी ने भी नहीं दिखा पाया | हालांकि इसके
एवज में उसे कई प्रकार के उपेक्षाओं एवं प्रताडनाओं का शिकार भी होना पड़ा पर न तो
वह कभी स्वयं झुका और न तो अपने विचारों एवं आदर्शों को झुकने दिया | यथा-
“मैंने जब जब मुंह खोला
सच्चा बोला है
क्रांति हुई है तब-तब
सिंहासन डोला है
दबा नहीं मैं ताकत के
लोभी-अंधों से
मेरी वाणी मुखर हुई है
प्रतिबंधों से
मेरे यह लक्षण हैं बन्धु
प्रतिरोधों के
कवि हूँ मैं, दरबारी या मसखरा
नहीं हूँ |”13
सच्चे अर्थों में जन-प्रतिनिधि
तो इसे कहते हैं | बदलाव का जो आक्रोश आज जन-सामान्य के हृदय में दिखाई दे रहा है
वही आक्रोश कहीं न कहीं अजय पाठक जी के चिंतन प्रक्रिया में भी वर्तमान है | यह
आक्रोश आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर पूर्ण परिवर्तन का आकांक्षी है | यह
इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम है कि यथार्थ के प्रति आग्रह का स्वर आज के कवियों
में पहले से भी अधिक दिखाई देने लगा है | अजय पाठक जी कवियों के उस समूह को भी
यथार्थ अभिव्यक्ति के लिए निवेदित होते हैं जो शांति और भक्ति के गीत गाने में
मशगूल हैं | उनके आनुसार आज का यह समय मीरा, सूर, तुलसी की परंपरा का निर्वहन करने
का समय नहीं है यह समय आज के बदलते जीवन-परिवेश और मानव-मूल्यों को बदले हुए
प्रतिमानों के अनुसार प्रस्तुत करने का समय है | वे स्पष्टतः कहते हैं-
सुनो कवि जी!/ बंद करो यह /
मीरा तुलसीदास /
अर्थशास्त्र के विद्यालय में /
कौन पढ़े इतिहास
सुनो! जमाना जो कहता है / वैसी
भाषा बोलो /
दुनियादारी से कुछ सीखो /
आँखें अपनी खोलो /
लोग चाहते ‘मेडोना’ को / तुम
भजते रैदास/
धन दौलत सब लोग चाहते / तुम
कहते हो माया /
ज्ञान-ध्यान की बात तुम्हारी /
कौन समझ है पाया?
सुनो ! आजकल ऐसी कविता / कहलाती बकवास /...
..जड़ को चेतन करने की तुम /
नाहक ठान रहे हो /
युग परिवर्तन कर लोगे तुम / ऐसा मान रहे हो /
मरा हुआ हो जहां सभी के /भीतर
का एहसास|”14
आज के समय में ‘भीतर का एहसास’ सिर्फ लोगों का
ही नहीं, जनता का सबसे प्रबल पक्षधरता कहलाने वाले कवियों एवं साहित्यकारों का भी
मरा हुआ है | उन्हें क्या लिखना है और क्या कहना है वे स्वयं नहीं समझ पा रहे हैं
| कभी जिनके लिखने से या बोलने मात्र से एक बड़े सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन की
सुनहरी किरण दिखाई देने लगती थी आज उनके लिखने या बोलने से एक नए प्रकार के
सामाजिक संकट और सांस्कृतिक अंतर्द्वंद्व आ खड़े होते हैं | यह इसलिए भी होता है कि
हम समय सापेक्ष रचना न करके समय के विपरीत सोचने और लिखने का प्रयत्न करते रहते
हैं | आज के सामयिक आलोक में यह विल्कुल विचार करने का विषय है कि जब हमारे
दार्शनिको एवं साहित्यकारों की ये दशा है फिर आम जनमानस की क्या दशा होगी | पर कवि
अजय पाठक की रचनाधर्मिता यथार्थ परक है और उनकी लेखनी इन सबसे अलग एक नए परिवेश को
आवाज देती चलती है | स्वयं उनके ही शब्दों में “आधुनिकता की अंधी दौड़ में सदियों
से स्थापित हमारे नैतिक मूल्य और आदर्शों को हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं, फलस्वरूप
तमाम तरह की विकृतियाँ उत्पन्न हो रही हैं | इस भौतिकतावादी परिवेश में बहुसंख्यजन
मन से आहत हैं, पीड़ित और व्यथित हैं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं | उनकी व्यथा को
व्यापक कैनवास पर उतारकर दुनिया के सम्मुख रखने वाले चंद लोग हैं, जो उनकी व्यथा
के सहभागी हैं, मेरे भीतर का कवि भी उन लोगों में से एक है | यही वजह है कि मेरी
कविताओं के केंद्र में वह आदमी है, जिसकी पीड़ा के हम प्रतिपल साक्षी हैं, और जिसकी
करुणार्द्र पुकार प्रतिदिन हमारे कानों से टकराती है |”15 अजय पाठक के गीत/नवगीत एक नए तरह का रुख अख्तियार करते हैं | ये जब लिखने
बैठते हैं तो समास्याएं खड़ी नहीं होती अपितु सुलझने लगती हैं | यह इसलिए कि
इन्होनें अपने कवि जीवन में विरोध के नहीं प्रेम के गीत लिखे हैं | विखराव के नहीं
समन्वय के गीत लिखे हैं | असमानता के नहीं समानता के गीत लिखे हैं | इनका कवि हृदय
नितांत सांस्कृतिक होते हुए भी यथार्थ के धरातल पर विचरण करता है | उनका स्पष्ट
कहना है कि-
“हम दुनिया के मकड़जाल में /
कभी नहीं उलझे
हमने जब जब कलम उठाई / प्रश्न
कई सुलझे
पत्थर में हम मानवता की / मूरत
गढ़ते हैं
सब इश्वर के बन्दे सबको / अपना
ही माने
हर चेहरे का दर्द पकड़ लें /
भाषा पहचानें
सबको लेकर साथ निरंतर / आगे
बढ़ते हैं”16
‘पत्थर में मानवता की’ मूरत
गढ़ना साहित्य के निहितार्थ को तो स्पष्ट करता ही है, कवि एवं साहित्यकार के
उत्तरदायित्व को भी लक्षित करता है | आधुनिक हिंदी साहित्य के कितने ही कवि ऐसे
हैं जिनके कविताओं को पढ़कर एक नवीन चेतना का आभाष होता है | यह आभाष अब धीरे धीरे कम
से कमतर होता जा रहा है | इसकी एक वजह जहां लोगों का साहित्य के प्रति रुझान कम
होना है वहीँ कवियों या साहित्यकारों द्वारा सार्थक विषयों पर अपनी लेखनी का
स्तेमाल ठीक तरीके से न कर पाना भी है | यानि एक गहरे विमर्श के दौरान निष्कर्ष यह
निकाला जा सकता है कि समय समाज में वर्तमान जितने भी समस्याएँ हैं कहीं न कहीं
उसके उत्तरदायी हम स्वयं हैं | जरूरत आज इस ‘हम’ की सार्थक भावना को समझना है |
क्योंकि समाज में उतने विस्तार के साथ ‘मैं’ की भूमिका नहीं काम कर सकती जितने सही
अर्थों में ‘हम’ की भावना | हम कभी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर तो कभी ऊंच-नीच,
जाति-पांति के नाम पर एक दूसरे के विरोध-प्रतिरोध में आग उगलते रहते हैं | यह आग
का उगलना मात्र हमारे लिए ही नहीं हमारी परंपरा और हमारी संस्कृति के लिए भी घातक
है | इसी संस्कृति और इसी परंपरा को बचने के लिए कितने ऐसे रहे हैं जिन्होनें मौत
तक को गले लगाया है | एक हम हैं कि बांटने और तोड़ने में ही मशगूल हैं | ‘प्रेम के
दो गीत पढ़े’ में कवि सामाजिक सद्भाव के माध्यम से अमरत्व को प्राप्त करने की बात
करते हुए कहता है कि-
आँख बोझिल है भरी सांस में
भट्ठी की जलन
तोडती जिस्म को दिन-रात के मेहनत
की थकन
कहीं जज्बात से खिलवाड़ है
अवसाद कहीं
कहीं ग़ुरबत, वहीँ नफरत, वहीँ
फ़रियाद कहीं
कहीं नफरत का जहर घोल के पीने
के लिए
लोग सौ बार मरे जिन्दगी जीने
के लिए
यहीं अमरत्व की दो बूँद को
पाने के लिए
अपने अन्दर छिपे दुर्घष के
रावण से लड़ें”17
विविधताओं से परिपूर्ण इस देश
का वातावरण वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से सदैव आच्छादित रहा है | हालांकि लोग इसे
बिगाड़ने और दूषित करने में अपनी पूरी जोर आजमाइस भी समय समय पर करते रहे हैं | सफल
नहीं हो पाए | सफल इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि एक तो मानव-जीवन मिलता ही है बड़ी
दुर्लभता से और दूसरे इस देश की जमी पर पैदा होना और भी दुर्लभ रहा है | यहाँ की
समन्वयात्मक संस्कृति में जो एक बार जीने और उत्पन्न होने का सौभाग्य पा गया, वह
बार बार यहीं उत्पन्न होने की परिकल्पना करता है | ऐसा संभव होना कोई विशेष जादू
नहीं है | ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि यहाँ के समय, समाज, संस्कृति और इन सबको
अभिव्यक्त करने वाले साहित्य में मानव जीवन की यथार्थ स्थिति निवास करती रही है |
व्यक्ति कितना भी कोशिश कर ले व्यक्तिगत-हित मात्र को साधने के लिए और एक हद तक वह
करता भी है, पर यहाँ का साहित्य यहाँ के कवि एवं साहित्यकार उसे सामाजिकता की
भावना से ओतप्रोत मानवता के पथ पर वापसी करने के लिए मजबूर कर ही देते हैं | डॉ०
अजय पाठक जी के इस बेहद दिलचस्प गीत संग्रह ‘बोधिबृक्ष पर’ में इसी मानवता के पथ
का दिग्दर्शन होता है| यहाँ प्रकृति का सुन्दर साहचर्य तो है ही, धरती का रागात्मक
सम्बन्ध भी अपने साकार रूप में व्यंजित हुआ है | समय समाज का वर्णन जितने सिद्दत
के साथ हुआ उतने ही सिद्दत के साथ इस समय समाज की विडम्बनाओं को घुट-घुट कर जीते
और फिर भी अपनी जिंदगी खुश रहते आम आदमी का चित्रण हुआ है | एक सफल काव्य रचना के
लिए जितने अधिक बधाई के पात्र डॉ० अजय पाठक जी हैं उससे भी कहीं ज्यादा इस देश का
वह आम आदमी जो इनके कवि-ह्रदय का प्रमुख पात्र बनकर जन-संवेदना और जनचेतना का आधार
बना है | निश्चित ही इस संग्रह में लिखित जितने भी गीत/नवगीत हैं वे समय-सन्दर्भ
को व्याख्यायित करते गीत हैं | इनको पढ़ते हुए कहीं से भी यह आभाष नहीं होता कि हम
आज के सबसे उपेक्षित विधा गीत को पढ़ रहे हैं | दरअसल गीत/नवगीत की सार्थकता एक बार
फिर से यदि बलवती हुई है तो ऐसे ही जनधर्मी रचनाकारों की वजह से | ये आज भी न तो
अपनी ज़मीन को भूल पाए और न ही तो अपने उस पारंपरिक भावभूमि में पिरोए हुए गाँव को
जहां आज शहरीकरण हावी होता जा रहा है | गाँव के समाप्त हो रहे अस्तित्व में आदमीयत
का अस्तित्व तेजी से हाशिए पर धकेला जा रहा है | यही इस संग्रह की विशेष पहचान है
कि इसमें गाँव, प्रकृति और आम आदमी अपने सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ दिखाई देते हैं
|
सन्दर्भ-संकेत
1.
जगूड़ी, लीलाधर, ईश्वर की अध्यक्षता में, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, 1999, पृष्ठ-8
2.
पाठक, अजय, बोधिवृक्ष पर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), श्री प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-
3.
पाठक, अजय, बोधिवृक्ष पर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), श्री प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-5
4.
वही, पृष्ठ-92
5.
शुक्ल, डॉ० जयशंकर, तम भाने लगा, दिल्ली, पूनम प्रकाशन, 2014, पृष्ठ-13
6.
पाठक, अजय, बोधिबृक्ष पर, पृष्ठ-70
7.
संकल्प रथ, जून, 2014, (डॉ० चंद्रशेखर सिंह का लेख : डॉ० अजय पाठक के सृजन में
सामाजिक सरोकार) पृष्ठ-55
8.
वही, पृष्ठ-10
9.
वही, पृष्ठ-11-12
10.
वही, पृष्ठ-16
11.
वही, पृष्ठ-18-19
12.
वही, पृष्ठ-59
13.
वही, पृष्ठ-53
14.
वही पृष्ठ-26-27
15.
पाठक, अजय, बूढ़े हुए कबीर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), श्री प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-5-6
16.
पाठक, अजय, बोधिवृक्ष पर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), श्री प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-28
17. वही, पृष्ठ-17
No comments:
Post a Comment