वे जोश, उत्साह,खुशियाँ कहाँ खो जाती हैं? एक पल के लिए आती हैं| चेहरे पर रवानगी आ जाती है| जैसे ही जाती हैं वही चेहरा मनहूस-सी शक्ल में परिवर्तित होकर रह जाता है| सामने से सुन्दर दिखने वाला परिदृश्य कितना धुंधला और बदसूरत दिखाई देने लगता है| लोगबाग हमदर्द से गमदर्द का सफ़र कब तय करने लगते हैं पता ही नहीं चलता कुछ| आखिर ऐसा क्यों होता है? क्यों एक-सा दिखने वाला समय विभाजित होकर हमें विखंडित करने के प्रयास शुरू कर देता है?
मनुष्य है, बच निकलने का रास्ता वह खोज ही लेता है लेकिन जब रास्ते ही हर पल हर समय किसी विपरीत दिशा में मोड़ दिए जाएं फिर? समस्या तो है ये जिसे नियति का खेल कहकर टाला तो नहीं जा सकता? बहुत देर तक लड़ा भी नहीं जा सकता| समर्पण तो किया ही नहीं जा सकता है| जहाँ समर्पण होता है संघर्ष की संभावनाएं जाती रहती हैं| फिर समर्पण वह करता है जिसके पास दुसरे रास्ते पर चलने की क्षमता और साहस न हो| कितने के पास होती है क्षमता? कितने के पास होता है साहस? जो चलते हैं और दूसरे के लिए नवीन मार्ग का प्रणयन कर जाते हैं?
आगे बढ़ने वाले से सीख कोई क्यों ले आखिर? जो आगे बढे हैं कितने तिकड़म कितने जुगाड़ से आगे बढे हैं? यहाँ ये प्रश्न न चाहते हुए भी उपयोगी हो जाता है| भारतीय परिवेश में मी टू का प्रयोग कुछ इसी प्रकार का बढ़ना है| अभी कुछ दिन पहले जिन सिने स्टार को देखकर हम खुश होते थे आज अचानक उन्हें देखकर दुःख होता है और खीझ भी कि ये कौन-सा आदर्श देते रहे हैं समाज को? यहाँ बात पुरुष और स्त्री में से किसी एक की नहीं, सभी की है|
ठीक है कि पुरुष ने स्त्रियों का शोषण किया लेकिन क्या यह सच नहीं है कि स्त्रियों ने उन्हें बखूबी आमंत्रित किया? फिल्म जगत में अक्सर वही लोग पदार्पण करते हैं जो उम्र के पक्के और अनुभव के कहकहे सीख चुके होते हैं| फिर शोषण को चुपचाप सहने वाला क्या बड़ा अपराधी नहीं होता? मान-सम्मान और इज्जत से बढ़कर भी कुछ होता है क्या?
शोषित होना एक बात है और समझौता करते हुए शोषण करने का अधिकार देना एकदम दूसरी बात| क्या ये सच नहीं है कि नोकरी-चाकरी की जरूरत जीवन-यापन के लिए उतनी ही है जितनी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए? अपने सगे-सम्बन्धी और पर-परिवार के बीच ऊँचा दिखने के लिए? अगर है तो इस बात से इनकार कैसे किया जा सकता है कि कई-कई परिस्थितियों में व्यक्ति शोषित इसलिए भी होता है कि वह उसे सीढ़ी की तरह प्रयोग करे? जाहिर सी बात है कि कार्य हो जाने के बाद सीढ़ी की आवश्यकता नहीं रह जाती|
समझने के अलग-अलग पहलू हैं| सम्बन्ध समझौतों पर आधारित होते हैं| जरूरत के हिसाब से हर्ष-उल्लास-प्रेम-घृणा अपना-अपना स्थान लेते रहते हैं| किसी भी घटना पर आँख मूँद कर विश्वास नहीं किया जा सकता| किसी एक पक्ष के शोर मचाने से दूसरे पक्ष का विरोध करते हुए निर्णयात्मक भूमिका में आया भी नहीं जा सकता|
मी टू का इस्तेमाल दोनों तरफ से होना चाहिए| यह ऐसा देश है जहाँ निःसंदेह स्त्रियों के अधिकार, मान-सम्मान पर दिन-दहाड़े डकैती डाली जाती है| जितना सच ये है उतना ही सच ये भी है कि कई-कई मामले में अलानाहक पुरुषों को हथियार के रूप में स्तेमाल करते हुए बलि का बकरा बनाया जाता है|
खैर...पता नहीं क्यों अब सुबह हो जाती है तो पता नहीं चलता| दिन निकल आता है लेकिन न तो कौवे बोलते हैं और न ही तो मुर्गे बाग़ देते हैं| चिड़ियों ने तो इधर जैसे चहचहाना ही बंद कर दिया है| मौसम आज दो दिन से घनघोर है| ठण्डी जहाँ परिवेश में दस्तक दे रही है तो गर्मी के दिन जा रहे हैं| हम जैसे लोग यह निर्धारित नहीं कर पा रहे हैं कि किया क्या जाए?
बहरहाल कविवर जगन्नाथदास रत्नाकर ये काव्य-पंक्तियाँ-
कहहि प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बांधि
ऊधौ सांच मन की हिये की अरु जी की हैं ।
वे तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ
हम उनहीं की उनहीं की उनहीं की हैं ।।
मनुष्य है, बच निकलने का रास्ता वह खोज ही लेता है लेकिन जब रास्ते ही हर पल हर समय किसी विपरीत दिशा में मोड़ दिए जाएं फिर? समस्या तो है ये जिसे नियति का खेल कहकर टाला तो नहीं जा सकता? बहुत देर तक लड़ा भी नहीं जा सकता| समर्पण तो किया ही नहीं जा सकता है| जहाँ समर्पण होता है संघर्ष की संभावनाएं जाती रहती हैं| फिर समर्पण वह करता है जिसके पास दुसरे रास्ते पर चलने की क्षमता और साहस न हो| कितने के पास होती है क्षमता? कितने के पास होता है साहस? जो चलते हैं और दूसरे के लिए नवीन मार्ग का प्रणयन कर जाते हैं?
आगे बढ़ने वाले से सीख कोई क्यों ले आखिर? जो आगे बढे हैं कितने तिकड़म कितने जुगाड़ से आगे बढे हैं? यहाँ ये प्रश्न न चाहते हुए भी उपयोगी हो जाता है| भारतीय परिवेश में मी टू का प्रयोग कुछ इसी प्रकार का बढ़ना है| अभी कुछ दिन पहले जिन सिने स्टार को देखकर हम खुश होते थे आज अचानक उन्हें देखकर दुःख होता है और खीझ भी कि ये कौन-सा आदर्श देते रहे हैं समाज को? यहाँ बात पुरुष और स्त्री में से किसी एक की नहीं, सभी की है|
ठीक है कि पुरुष ने स्त्रियों का शोषण किया लेकिन क्या यह सच नहीं है कि स्त्रियों ने उन्हें बखूबी आमंत्रित किया? फिल्म जगत में अक्सर वही लोग पदार्पण करते हैं जो उम्र के पक्के और अनुभव के कहकहे सीख चुके होते हैं| फिर शोषण को चुपचाप सहने वाला क्या बड़ा अपराधी नहीं होता? मान-सम्मान और इज्जत से बढ़कर भी कुछ होता है क्या?
शोषित होना एक बात है और समझौता करते हुए शोषण करने का अधिकार देना एकदम दूसरी बात| क्या ये सच नहीं है कि नोकरी-चाकरी की जरूरत जीवन-यापन के लिए उतनी ही है जितनी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए? अपने सगे-सम्बन्धी और पर-परिवार के बीच ऊँचा दिखने के लिए? अगर है तो इस बात से इनकार कैसे किया जा सकता है कि कई-कई परिस्थितियों में व्यक्ति शोषित इसलिए भी होता है कि वह उसे सीढ़ी की तरह प्रयोग करे? जाहिर सी बात है कि कार्य हो जाने के बाद सीढ़ी की आवश्यकता नहीं रह जाती|
समझने के अलग-अलग पहलू हैं| सम्बन्ध समझौतों पर आधारित होते हैं| जरूरत के हिसाब से हर्ष-उल्लास-प्रेम-घृणा अपना-अपना स्थान लेते रहते हैं| किसी भी घटना पर आँख मूँद कर विश्वास नहीं किया जा सकता| किसी एक पक्ष के शोर मचाने से दूसरे पक्ष का विरोध करते हुए निर्णयात्मक भूमिका में आया भी नहीं जा सकता|
मी टू का इस्तेमाल दोनों तरफ से होना चाहिए| यह ऐसा देश है जहाँ निःसंदेह स्त्रियों के अधिकार, मान-सम्मान पर दिन-दहाड़े डकैती डाली जाती है| जितना सच ये है उतना ही सच ये भी है कि कई-कई मामले में अलानाहक पुरुषों को हथियार के रूप में स्तेमाल करते हुए बलि का बकरा बनाया जाता है|
खैर...पता नहीं क्यों अब सुबह हो जाती है तो पता नहीं चलता| दिन निकल आता है लेकिन न तो कौवे बोलते हैं और न ही तो मुर्गे बाग़ देते हैं| चिड़ियों ने तो इधर जैसे चहचहाना ही बंद कर दिया है| मौसम आज दो दिन से घनघोर है| ठण्डी जहाँ परिवेश में दस्तक दे रही है तो गर्मी के दिन जा रहे हैं| हम जैसे लोग यह निर्धारित नहीं कर पा रहे हैं कि किया क्या जाए?
बहरहाल कविवर जगन्नाथदास रत्नाकर ये काव्य-पंक्तियाँ-
कहहि प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बांधि
ऊधौ सांच मन की हिये की अरु जी की हैं ।
वे तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ
हम उनहीं की उनहीं की उनहीं की हैं ।।
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