Saturday 22 August 2020

हमने अपने श्रम से इस धरा को सुंदर बनाया है (स्वप्निल श्रीवास्तव की कोरोजीवी कविताएँ)

  

त्रासदी के समय मन-मस्तिष्क में डर और भय का वातावरण बरकरार रहता है| मानसिक-दर्द और हृदयगत पीड़ा-बोध वर्तमान बनकर इस तरह बेधता है कि मनुष्य स्वयं से दूर होने की स्थिति में आ जाता है| जब व्यक्ति स्वयं से दूर होने की स्थिति में होगा तो ‘लोगों’ के सम्बन्ध में यथास्थिति क्या होगी, इस पर विचार करना चाहिए| यहीं से सामाजिक प्रक्रियाओं में अवरोध की स्थिति शुरू होती है तो दूर तक लेकर जाती है| मिलन, प्रेम, संवाद जैसी संभावनाएं स्वप्न होने लगती हैं तो विरोध, तिरस्कार, उपेक्षा और अवसाद हमारी प्रवृत्ति के स्थाई अंग होते जाते हैं| कवि स्वप्निल श्रीवास्तव कहते हैं “ऐसे दारूण समय में सर्वाधिक/ बाधित होता है प्रेम/ उसे व्यक्त होने के अवसर/ नही मिलते|” इधर के दिन ऐसा ही हुआ है| ये बदलाव बड़े सिद्दत से महसूस किये गए हैं| अनवरत किये भी जा रहे हैं| एक विशेष प्रकार की नकारात्मकता हमारे मस्तिष्क में छाती जा रही है| हम चाहते हुए भी सकारात्मक परिवेश के निर्माण में शामिल नहीं हो पा रहे हैं| इसमें बहुत हद तक हुक्मरानों का षड्यंत्र भी शामिल है| ‘प्रेम’ के दायरे में कवि उन षड्यंत्रों की पहचान भी करता है| उसके सामने दुनिया भर के हुक्मरानों का गेम-प्लान दिखाई देता है जहाँ जन और जीवन के बीच बड़ी विभेदक रेखा खींची जा रही है| वह देखता है कि-

“उन्होने हमारे बीच खीच दी है/ लक्ष्मण रेखा

हम एक दूसरे को तो देख तो

सकते हैं पर मिल नही सकते/ स्पर्श के बिना कहां हो पाती

है प्रेम की कल्पना/ इस निजाम ने हमे अछूत/ बना दिया है

 

कितने शातिर हैं वे लोग/ कितनी हिंसक हैं उनकी बंदिशे

 

सामने खिला हुआ फूल है/ हम उसे छू नही सकते

अगर तितिलियों और भौरों पर

प्रतिबंध लगाया गया तो फूल/ खिलने से इनकार कर देगे

तुम्हारे बाग  बगीचें वीरान/ हो जायेगे

क्या तुम्हें पता हैं कि खिलने / की क्रिया अकेले सभव नही होती?

संगठन से डर लगता है| सबको अकेला देखना चाहते हैं| धारा 144 का निर्माण इसीलिए हुआ है| इसीलिए सामाजिक दूरी का विधान किया गया था शुरू के कोरोना-दिनों में| जबकि होना शारीरिक दूरी था| ध्यान से देखें तो इस कविता में जिन ‘बाग़ बगीचें’ के वीरान होने की बात कवि कर रहा है वही वह चाहते हैं| प्रेम का गला घोंट कर अपराधों का सामान्यीकरण करना उनकी प्रवृत्ति है| जन प्रेम में रहेगा तो अधिक चैतन्य और जागरूक रहेगा जबकि भय, कुंठा, संत्रास के साथ-साथ अवसाद में रहना उन्हें दब्बू, मूढमति और हाथ की कठपुतली बनाए रखना है| स्वामित्व का लाभ ऐसे स्थितियों में अधिक मिलता है|

इधर एक लकीर और खींची गयी जन के बीच| आमजन और ख़ासजन में उनका विभाजन किया गया| मूल निवासी और प्रवासी में उन्हें अलग किया गया| अपने ही देश में रहने वालों को प्रवासी कह दिया गया और उन्हीं में से कुछ को मूलनिवासी के विशेषण से उपमित कर दिया गया| हुआ यह कि जिस जन को हुक्मरानों के खिलाफ होना था वह अपने साथी जन के खिलाफ खड़ा हो गया| “हम

प्रवासी नही” की रट साधारण जनता लगाती रही, न तो मूलनिवासी होने के गुमान में उसके अपने भाई-दोस्त समझे और न ही तो सत्ता के मद में चूर तानाशाही प्रवृत्ति के शासक| ऐसे समय में जब नेता-अभिनेता से लेकर कवि-कलाकार तक प्रवासी-प्रवासी चिल्ला रहे थे, स्वप्निल श्रीवास्तव सीधे और स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि “तुम  हमें प्रवासी कह कर अपमानित/ मत करो/  हम भी तुम्हारी देस- दुनिया/ के लोग हैं/ जीवन – यापन के लिये गांव/ छोड कर शहर में आ गये हैं/ तुमने हमारे गांवो को इस लायक/ नही छोड़ा कि हम रह सके|” यह कहना शालीन जरूर था लेकिन चुनौती भी कम नहीं थी| यह उस कवि की चुनौती थी जिसकी श्रमशील सांस्कृतिक परमपरा ने “...तुम्हारे शहरों को अपना/ खून देकर चमकाया है/ तुम्हारे कल कारखानों के लिये/ अपनी जान दी है|” फैक्ट्रियों और मिलों को अपना घर समझा तो फुटपाथों से लेकर सडक के रैन बसेरों को अपनी बस्ती| ये जहाँ सब चीजों के मालिक होकर भी लावारिस रहे वहीं लावारिस होकर भी ऐसे लोग वारिस हो गये, जिन्होंने निर्माण का नहीं, हर समय विध्वंश का कारोबार किया| स्वप्निल श्रीवास्तव प्रवासी और मूल के बीच का अंतर एकदम सीधे तौर पर स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

तुम हमासे किसी तरह अलग/ नही हो/ हमारे तुम्हारे रक्त का रंग/ एक सा है

तुम भी मेरी तरह अपने फेफडे से/ सांस लेते हो

हां तुम्हारी दुनिया चकाचौध से भरी/ हुई है और हमारी दुनिया का रंग/ घूसर है

हमारी एक कोठरी में दस लोग/ रहते है और तुम्हारे पांच लोगो के

रहने के लिये कई मंजिला इमारते है

तुम जिन शानदार महलों में तुम/ रहते हो , वह हम लोगो की/ बनाई हुई है

हम प्रवासी नही कामगार हैं/ हमने अपने श्रम से इस धरा को/ सुंदर बनाया है

श्रम करने वाला जानता है सुन्दरता की परिभाषा| वह यह भी जानता है कि परिवेश की सुन्दरता जोड़ने में है न कि तोड़ने में| बहते पसीने और उबलते रक्त की ईमानदारी को एक बार नहीं हज़ारों बार रखा गया है कवियों द्वारा| यदि उन्हें समझा गया होता तो शायद कोरोना की ऐसी भयावह तस्वीर न होती| विपत्ति के क्षण में भी हम हँसते-खेलते रहते| नफरत की जगह प्रेम बाँटते रहते|

कवि को यह भी पता है कि हज़ारों “महाविपत्ति के समय” हमने इसी प्रेम और सौहार्द्र से इस धरती का सौन्दर्य बचाया है| आसमान की जो आसमानियत है वह अकेले की नहीं सामूहिक संघर्ष का परिणाम है| आज भी जो कुछ लहलहा रहा है वह उसी सामूहिकता का प्रयास है| शक्ति और सत्ता दोनों ऐसे समय में अनुपस्थित हो जाते हैं| जन और जीवन केन्द्र में रहता है| वही करता है संघर्ष और वही बिखेरता है रोशनी| कवि के शब्दों में कहें तो “महाविपत्ति के समय अनुपस्थित/ हो जाता है ईश्वर/ तैतीस करोड़ देवता कूंच/ कर जाते हैं/ विफल हो जाती हैं प्रार्थनायें. सुल्तान अपनी सियासत में मशगूल/ हो जाते हैं/ किसी पर यकीन करना मुश्किल/ हो जाता है|” फिर, उसके बाद जन के लिए क्या बचता है? कवि कहता है “ऐसे दुर्दांत समय में हमें सबसे/ ज्यादा भरोसा/ अपने साहस और जिजीविषा पर/ करनी चाहिये/ इस कायनात को हमारे जीने की/ जिद्द ही बचा सकती है|” जब रोजगार से लेकर जीने के सामान्य साधन तक हमसे छीन लिए गए हैं तो क्या वही साहस नहीं है जिससे हम जी रहे हैं और कविता की बात कर रहे हैं? जीवन को सुंदर बनाने के श्रम में लगे हुए हैं? हम सबको कवि के इस संदेश पर विचार करना चाहिए|  

          कोरोजीवी कविता महज अवायाव्स्थाओं का चित्रण नहीं करती अपितु व्यवस्था-परिवर्तन में सकारात्मक पहलुओं पर भी बराबर दृष्टि बनाए रखती है| समस्याओं के केन्द्र में संवाद का स्पेस ढूँढना कविता के लिए मुश्किल रहा है| देखा यह भी गया है कि मनुष्यता के परिप्रेक्ष्य में जितनी भी मुश्किलें होती हैं, कविता उनका स्थाई समाधान ढूंढती है| समकालीन हिंदी कविता के विस्तृत कैनवास में कुछ कवि ऐसे भी है जिन्होंने तमाम निराशाओं के बीच भी ‘प्रेम’ और ‘संवाद’ को बढ़ावा देने का कार्य किया है| उन कवियों में स्वप्निल श्रीवास्तव एक उदहारण के रूप में लिए जा सकते हैं| वैसे तो तन्त्र के सन्दर्भ में लोक-प्रतिरोध का सौन्दर्य इनकी कविताओं का स्थाई भाव है लेकिन इस कोरोना-समय में जो कविताएँ लिखी है इन्होने उनमें प्रेम के लिए एक कवि की तड़प और परिवेश निर्माण की जिम्मेदारी गहरे में दिखाई दी है|

कोरोना-त्रासदी के बीच जिस तरह लाशों का व्यापार किया गया, संवेदना को सरेआम नीलाम किया गया, तन्त्र द्वारा जन को निराशा और हताशा के खोह-खंदक में भटकने के लिए छोड़ दिया गया, एक कवि के लिए इससे बड़ी त्रासदी कुछ और नहीं हो सकती| यहाँ स्वप्निल श्रीवास्तव कोरोना वायरस की जगह “प्रेम का वायरस” की परिकल्पना करते हैं| वह कल्पना करते हैं कि “कितना अच्छा हो प्रेम का/ कोई वायरस हो और उससे/ सारी दुनिया सक्रमित हो जाय/ तानाशाह मनुष्य बन जाय/ और मनुष्य पहले से श्रेष्ठ मनुष्य|” प्रेम का ऐसा सीधा और सरल स्वप्न यदि कोरोना का स्थान ले लेता है तो सोचो परिवेश कैसा होगा?

आप यह सोच सकते हैं कि ऐसा नहीं होगा/ नहीं हो सकता लेकिन यदि चमकी बुखार आकर बच्चों को बेसमय मौत की त्रासदी में झोंक सकता है, कोरोना जैसा वायरस सम्पूर्ण विश्व को घरों में कैद कर सकता है तो इस तरह का वायरस क्यों नहीं आ सकता कि “शेर अपनी हिंसा और शिकारी/ अपना अहंकार छोड़ दे/ शेर और मेमने नदी के एक घाट पर/ अपनी प्यास बुझायें/ कही कोई डर और संदेह न हो/ परिंदों के समूह गान में हमें/ संगीत के स्वर सुनाई दे/ हरे – भरे होने लगे जंगल/ उत्ताल लहरों से भर जाये नदिया?” यहाँ ‘प्रेम का वायरस’ में जब आप इन भावों को देख रहे हों तो आश्चर्य नहीं कि

संत रविदास के ‘बेगमपुरा नगर’ की संकल्पना और तुलसी के ‘रामराज्य’ के करीब पहुँच जाएं| मध्यकालीन हिंदी कविता के ये दो उदाहरण इसलिए यहाँ रख रहा हूँ कि उस समय के घोर अँधेरे और भयंकर उजाड़ के बीच ‘लोक’ की रक्षा और ‘जन’ अधिकार की चिंता व्यक्त की गयी थी| राजा को सभी दोषों से मुक्त रखते हुए यह परिकल्पना की गयी थी कि सबको सम्मान और सबकी देखभाल की जाएगी| भेदभाव जैसा कुछ नहीं रह सकेगा| ‘प्रेम का वायरस’ में तानाशाह के प्रेम में होने की जो परिकल्पना की गयी है वह सही अर्थों लोककल्याणकारी राज्य की परिकल्पना से कमतर नहीं है| पूरे विश्व की जो भी सरकारें और उन सरकारों के इर्द-गिर्द जो भी शागिर्द हैं, उन सबकी वजह से “दुनिया में नफरत के विषाणु फैल/ चुके हैं – उन्हें हमारा प्रेम ही/ नष्ट कर सकता है/ कितना अच्छा हो कि दुनिया की/ सारी भाषाएँ खत्म हो जाय/ और प्रेम ही हमारे सम्वाद की/ भाषा बन जाय|” जहाँ प्रेम की भाषा होगी वहां स्थायित्व होगी| भटकन नहीं होगी|

          इधर का जो परिवेश निर्मित हुआ, दरअसल, हमने उसके सन्दर्भ में कल्पना तक नहीं की थी| हमने कहाँ सोचा था कि “हमारे हाथ एक दूसरे को छूने/ के लिये तरसेगे/ मिलने की क्रियायें स्थगित/ हो जायेगी/ हमारी योजनायें और गतिविधियां/ यकाएक थम जायेगी/ नींद में ही रह जायेगे सपने|” सुबह होगी तो शाम जैसी और शाम होगी तो अँधेरी रात जैसी, हमने बिलकुल नहीं सोचा था| यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जब सब कुछ विपरीत होता रहा तो प्रेम की अवधारणा ही ऐसी अंतिम औषधि बची कि हम एक-दूसरे के सुख-दुःख जान और समझ पा रहे हैं| सब कुछ नष्ट होने की प्रतिक्रिया में कवि भी कहता है कि “बस हमारे पास बचे हुये हैं शब्द/ जिसके भीतर हम सांस ले रहे हैं|” हमारा सांस लेना हमारे होने की पहचान है| हम हैं तो प्रेम है और प्रेम है तो दुनिया की कोई भी आपदा हमारे होने पर प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकती|

          कोरोजीवी कविता में जब भी बात जन-उत्साह की होगी स्वप्निल की कविताएँ हमारे आस-पास गूँजती प्रतीत होंगी| ये कविताएँ निराशा के घोर क्षणों में आशा का संचार करती हैं| कवि की यही व्यावहारिकता होती है जो उसे ईमानदार ज़िम्मेदारी के तहत सचेत और जागरूक रखती है| इस कोरोना-समय में जब अधिकांश माध्यम शासन-सत्ता के खेवनहार हुए तो कवि और कविता ने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन बड़ी गंभीरता से किया है| यह कहने में मुझे कोई संदेह नहीं है कि घोर निराशाओं के क्षण में आशाओं का दीप जलाना ही कोरोजीवी कविता का स्थापत्य है|

 

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