“बात में
बात" प्रोजेक्ट के तहत चर्चा करते हुए एक दिन कवि व आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल
ने कहा "फेसबुक और सोशल मीडिया जैसे माध्यम ने आलोचना की सत्ता को अपदस्थ कर
दिया|
साहित्य में इधर जो अराजकता है,
उसी के जरिये है|" मैं इस बात से एकदम सहमत हुआ| आज भी हूँ और बहुत दिन बाद भी,
जब-जब आज के साहित्य का मूल्यांकन होगा,
चयन के विवेक और प्रस्तुति के साहस का आंकलन होगा, असहमत
नहीं हो सकता| यह अकारण नहीं है| इसके अपने कारण और वजहें हैं|
यह सोशल मीडिया की ही मेहरबानी है कि जिन्हें साहित्य और
कविता की समझ तक नहीं है, उन्हें आलोचक बनाकर ऐसा उछाला गया कि जैसे वे न होते तो
आज के साहित्य का मूल्यांकन ही न होता| हल्की-से-हल्की टिप्पणी करने वाले को युवा आलोचक और एक-दो
पेज लिखने वाले को वरिष्ठ आलोचक बनाने का परिणाम यह हुआ है कि ऊल-जलूल जो भी लिखा
गया,
अनुपम, असाधारण करार दे दिया गया| इन अनुपमेय और असाधारण लोगों ने ऐसे-ऐसे प्रतिमान स्थापित
किये कि साहित्य विसंगतियों और अव्यवस्थाओं का मकड़जाल बनता चला गया| परिदृश्य तो
यहाँ तक धुंधला हो गया है कि सही और उचित रचना अथवा रचनाकार तक पहुंचना एक चुनौती
बनती जा रही है| हर किसी को हीरा बताने की मूर्खता ने तांबे की पहचान को ही
संशयग्रस्त बना दिया है| बगुले को हीरा समझने की भूल ने पाठकों को साहित्य से दूर
रखते हुए वेब सीरीज आदि की तरफ उन्मुख कर दिया है|
कथा साहित्य को बहुत दिन तक कोई जिम्मेदार आलोचक नहीं मिला|
यह अभाव आज भी बना हुआ है अपने उसी रूप में|
सही और ज़िम्मेदार आलोचना का न हो पाना यहाँ समझा जा सकता है|
तमाम प्रकार की असंगतियों का होना और उसमे अराजकता का रहना
माना जा सकता है| कविता जैसी विधा में हर समय सशक्त आलोचक रहे|
आज भी बड़े आलोचकों की कमी तो नहीं है इस क्षेत्र में|
इस विधा में तथाकथित ‘युवा’ और ‘वरिष्ठ’ तथा ‘गरिष्ठ’ के
द्वारा जो भी छीछालेदर की गयी, उसके लिए साहित्य के चौकीदारों को कभी माफ़ नहीं
किया जाएगा| यहाँ यह भी जोड़ देना अप्रासंगिक न होगा कि संपादक, प्रकाशक से लेकर साहित्यिक
खेवनहार तक के लोग इस प्रक्रिया के बराबर के दोषी हैं|
प्रकाशकों का तो व्यापार होता है, वे कुछ भी बनाकर बेच सकते
हैं| उनका स्वभाव और सिद्धांत सब व्यापार पर आधारित होता है लेकिन आलोचक, समीक्षक,
संपादक आदि की अपनी जिम्मेदारी होती है जो वे नहीं निभा पा रहे हैं या नहीं निभा
पाए| सच यह भी है कि जिन्हें अपने मन-मर्जी से लिखना-पढ़ना था वे प्रकाशकों और
लेखकों मिज़ाज पर अध्यवसायी होने का उपक्रम करने लगे| डेस्क पर जिन्हें सम्पूर्ण
तनाव या मुक्त मानसिकता के साथ अकेला होना चाहिए वे सम्बन्ध, साहचर्य और सामंजस्य
जैसे भावों के साथ विचरण करने लगे| जज या तो सम्बन्धों की रखवाली करेगा या फिर
फैसला सुनाएगा| पंच परमेश्वर कहानी का पाठ भी यदि आज के आलोचक करें तो बहुत कुछ सार्थक
प्राप्त कर सकते हैं और बहुत कुछ सार्थक तथा सही किया जा सकता है|
यह कम विडंबना की बात नहीं है कि जिनको कविता के वाक्य
लिखने नहीं आते उन्हें बड़ा कवि इसी फेसबुक ने बनाया| जो न तो समाज से जुड़े हैं और न ही तो स्वयं से उन्हें अनुपम
कवि के रूप में इसी फेसबुक ने निर्मित किया| इसी फेसबुक के कहने पर तथाकथित आलोचकों ने उन्हें सिर पर
बिठाया|
सिर पर बैठे हुए लोगों ने आलोचकों की आँखों पर पट्टी बांधकर
लुका-छिपी खेला| यह सच है कि लुका-छिपी के खेल में अभ्यस्त ऐसे आलोचकों ने नग्नता
को सभ्यता का उच्छवास घोषित किया| मूर्खता को बुद्धिमानी का पैमाना बताया|
पोर्नोग्राफी को कहन-शैली के रूप में बताते हुए,
बिस्तर तक के दृश्य को अभिव्यक्ति-साहस के रूप में दिखाया| जिन चीजों को खोजने के लिए लोग सस्ती पत्रिकाओं के चक्कर
लगाते थे, फुटपाथों से लेकर छिपे हुए ठिकानों तक को छान मारते थे, वह सब चीजें सहज
और अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ हर जगह उपलब्ध होने लगीं| ध्यान रहे पोर्नोग्राफी
सौंदर्य नहीं है जबकि सौंदर्य-अभिव्यक्ति के लिए नग्नता को ही सिद्ध-मन्त्र के रूप
में दिखाया गया इधर के दिन कविता में|
जिस कविता ने कल्पना का परित्याग करके यथार्थ परिदृश्य की
अभिव्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी माना, उसी कविता को ‘नग्नता’ का लिबास ओढ़ाकर ‘कोठे’
की विषय वस्तु के रूप में चित्रित करने का आवारा-प्रयास हुआ| जिस कविता ने ‘चाँद
के पार जाने की इच्छा’ को त्यागकर जन-संघर्ष की ज़मीन को मजबूत करने का वीणा उठाया,
उसी कविता को देह-मर्दन के हथियार के रूप में इधर तराशा गया| भूख’ के विकल्प में
चेतना-निर्माण का स्वप्न जिस कविता ने देखा उसी कविता को ‘योनि’ और ‘गुदा’ में
उलझाकर पहाड़ और सुरंग की बारीकियों में भटकने के लिए छोड़ दिया गया|
वेब सीरीज आदि देखकर आने वाले कवि/कवयित्रियों की युवा पीढ़ी
रति-क्रिया को दिखाने में व्यस्त है और आलोचक उस क्रिया के आस्वाद को मिर्च-मशाला
लगाकर पाठकों के सामने परोसने का अभ्यास कर रहा है| दिखाने की व्यस्तता और परोसने
का अभ्यास उर्वर भूमि को बंजर बनाने का कुप्रयास है| इस कुप्रयास में उसे आप एक
‘ठिकाने’ के रूप में भी चिह्नित कर सकते हैं| कौन-सा प्रोडक्ट किस कवयित्री के पास
है और कौन-सा प्रोडक्ट किस कवि के पास, यह आलोचक नाम के गढ़े हुए पुतले को अच्छी
तरह से पता है| गढ़ा हुआ पुतला इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि वह स्व-विवेक से कार्य
न करके ‘पालकों’ और ‘पोषकों’ के इशारे पर नृत्य कर रहा है| नृत्य करने वाले के लिए
हर स्थिति महज मनोरंजन होती है| कविता उसके लिए किसी चेतना का निर्माण-साधन नहीं
अपितु मनोरंजन की वस्तु-मात्र है|
आदिकाल में हर राजाओं के अपने कवि हुआ करते थे| उनकी
अनुशंसा-प्रशंसा वे बगैर किसी साहस के किया करते थे, क्योंकि इसके अतिरिक्त उनके
पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं होता था| आज हर रचनाकार के अपने सिद्ध आलोचक हैं| यह
ऐसा आलोचक है कि या तो पक्ष में है या तो विपक्ष में| इधर लेख की जरूरत हुई नहीं
कि उधर कई पृष्ठों का लेख छपकर प्रकाशित हुआ नहीं| ऐसे आलोचकों ने न तो कविता को
पढ़ा और न ही तो समझने का प्रयास किया| ‘गुट’ और ‘गैंग’ को देखकर आलोचना का समीकरण
निर्धारित करने वाले ऐसे आलोचक ‘सच’ को गिरवी रखकर ‘झूठ’ वास्तविकता का लिबास
दिया| जिनके यहाँ शब्द शक्ति और सामर्थ्य है उनकी बात ये पालतू आलोचक नहीं कर रहे
हैं| जिनके यहाँ नग्नता है, न्यूडिटी है, निर्लज्जता है उन्हें क्रांतिकारी,
उद्धारकर्ता के रूप में दिखा रहे हैं| ये वह लोग हैं जो पढने और लिखने से कहीं
अधिक ‘छपने और पाने’ लालसा और वेबसी के साथ आए हैं|
इतने भयंकर समय में ऐसे कवि-कवयित्री हैं जो ‘योनि’ और
‘गुदा’ की उपेक्षा से संकुचित होते जा रहे हैं| जबकि आदमी भूख के तांडव से इतना
दुखी है कि दो वक्त की रोटी भी स्वप्न होता जा रहा है| बेरोजगारी का डर सर पर सवार
है और ऐसे लोग ‘योनि को ममता का स्पर्ष” दिलाने के लिए सूखे जा रहे हैं? उन
आलोचकों को यहाँ क्या कहें जो उन्हें कठघरे में खड़ा करने के बजाय ‘साहस’, ‘अदम्य
जिजीविषा’ ‘भूतो न भविष्यत’ एकमात्र क्रांतिकारी आदि आदि उपमाओं से विभूषित करते
जा रहे हैं? उनकी जड़ता पर खीझ तो उठती ही है अंधेपन पर भी तरस आता है|
इतना पंगु और लाचार साहित्य-आलोचक पहले तो नहीं था? इतना जड़
और पिछलग्गू होने का उदाहरण पहले तो नहीं सुना? तो क्या यही है साहित्य का समकाल?
सोचिए, विचारिये और तर्क कीजिये| मुझसे नहीं अपने पाठकीय हृदय से और आज के समय में
लिखे जा रहे साहित्य की दृष्टि-क्षमता से| मैं तो यही कहूँगा कि यह सब जो कुछ भी
हो रहा है-“यह आलोचना के नालायक और निकम्मा होने का परिणाम है|”
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