हम उस समय में जी रहे हैं जहाँ सच के न जाने कितने झूठ हैं| आपकी आँखों के सामने घटित घटना को इतनी दूर का बता दिया जाएगा कि यकीन नहीं कर पाएंगे कि वह आपके सामने ही घटित हुआ था| आप उसके गवाह ही नहीं भुक्तभोगी भी रहे हों फिर भी ऐसा प्रदर्शित करेगा सामने वाला जैसे वह उस घटना का यथार्थ हो न कि आप|
बहुत दिन से यह समझते-समझते जैसे अब स्पष्ट-सा होने लगा है कि आम आदमी तो जैसे पैदा ही हुआ है मारे जाने के लिए| कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति के नाम पर| मजे लेने वाले हर तरफ हैं| सही पक्ष तो होते ही हैं हर गलत के भी अपने पक्ष हैं| अपना एंगल निकालने वाले हर तरफ हैं| आपका यथार्थ कोई सुनने वाला नहीं है| जैसे सारा दोष सिर्फ और सिर्फ आपका है क्योंकि आप एक ऐसे देश में जन्म लिए हैं जहाँ की व्यवस्था से लेकर समाज तक की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है|
मैं नहीं चाहता कि ऐसे मुद्दों पर बोलूँ... न जाने किसका मन दुःख जाए और मैं दोषी करार दे दिया जाऊँ? सोचता हूँ और फिर शांत हो जाता हूँ| चीजें साफ़-साफ़ दिखती हैं फिर भी नहीं कुछ कहता-लिखता| दलितों पर लिखो तो वे नाराज़ हो जाते हैं सवर्णों पर लिखो तो वे नाराज़ हो जाते हैं| पिछले दिनों अनुराग कश्यप ने सरेआम ब्राह्मण समुदाय को गाली दी, अपशब्द कहे, बतौर ब्राह्मण भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं रख पाया क्योंकि बहुत से दलित क्रांतिकारियों को लगा कि मनुवाद अब यहीं समाप्त हो जाएगा? अब कह और बोल कर भी क्या ही मिल जाता? उस बंदे ने अपना एजेंडा सक्सेज होते ही माफ़ी मांग ली| अब न मनुवाद गायब हुआ और न ही तो दलितवाद पुष्पित और पल्लवित|
पश्चिम बंगाल में क्या नहीं हुआ? घर जलाए गये, लोग मारे गये, लोग भाग गये और भगाए गये लेकिन मजाल क्या है कि कुछ लिख दूँ| मुझे पता है लोग हमें न जाने क्या कह देंगे? बोल कर कर भी क्या देता सिवाय चार अच्छे मित्रों को दुश्मन बना देने के? हमारे दोस्त मुस्लिम हैं तो क्या जो गलत हैं उन्हें गलत कहना छोड़ दूँ? मैं हिन्दू हूँ तो इसका मतलब यह कैसे कि जो गलत है वह जस्टिफाई कर दूँ? फिर भी कुछ नहीं कर सकता हूँ क्योंकि सर्टिफिकेट देने वालों की कमी नहीं है अब|
अब पहलगाम पर ही मेरे बोलने का क्या ही फर्क पड़ने वाला है? बुद्धिमान लोग मोर्चा सम्भाल लिये हैं| अपने-अपने एंगल निकाल लिए हैं और वे उसे सिद्ध भी कर लेंगे| जैसा चाहेंगे वैसा रूप-शक्ल भी दे देंगे| क्या फ़र्क पड़ता है कि मारने वाले कौन थे और मरने वाले कौन थे? यहाँ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की राजनीति भी कम भयानक नहीं है अब| सोचता हूँ तो सिहर जाता हूँ| अभी एक सज्जन के वाल पर अल्पसंख्यक को बचाओ लोकतंत्र बचाओ आन्दोलन का पोस्टर देखा अवाक रह गया| बहुसंख्यक सरेराह उडाए जा रहे हैं और बचा अल्पसंख्यक को रहे हैं|
इस्लाम
और हिंदुत्व के नाम पर कम खून नहीं बहे हैं| अभी भी मौका पड़ने पर कोई चूकने वाला नहीं है|
लेकिन सब जानते हुए भी इतनी हिम्मत कहाँ से लाते हैं कि अनहोनी घट
ही जाती है? क्या विचार करें? क्या
सोचें? सोच कर ही क्या मिलेगा? विचार
कर कर ही क्या लेंगे? अपना खून जलाने और दिमाग को प्रदूषित
करने के अतिरिक्त हमें कुछ न मिलेगा| इस देश की जनता सच में
दिग्भ्रमित है| वह धर्मनिरपेक्ष रहे तो धार्मिक उन्मादी मार
देंगे और यदि धार्मिक रहे तो धर्मनिरपेक्षी जीने नहीं देंगे|