Thursday, 20 October 2016

सामाजिक राजनीतिक प्रतिश्रुति : सुनो राधिका




        इतिहास अनुभव का दूसरा नाम है | जब व्यक्ति वर्तमान परिस्थितियों में स्वयं को अनुकूल बनाने में कामयाब न हो पाए और आने वाला भविष्य विरोधाभासी दिखाई दे; निश्चित ही उसे अपने अतीत को देखने, समझने तथा मूल्यांकित करने का प्रयास करना चाहिए | यह प्रयास उसे तो दृष्टि-बोध प्रदान करता ही है, कहीं न कहीं उसके सम्पूर्ण युग-परिवेश को एक विशिष्ट मार्ग तथा प्रेरणा देने का कार्य करता है | यह कार्य ही भविष्य में आने वाली पीढ़ी को मानवता के पथ पर चलने योग्य बनाती है |
    भारतीय समाज अपने बनावट तथा बुनावट में विशिष्ट है | यहाँ यदि एक साथ कई प्रकार के मूल्यों का संगठन होता है तो विघटन होने की संभावनाएं भी उससे कहीं अधिक दिखाई देती हैं | ये संभावनाएं अपने साकार रूप में वर्तमान न होने पायें इसलिए समाज-चिंतकों द्वारा सामाजिक स्थितियों एवं परिस्थितियों पर मंथन, शोधन तथा परिमार्जन का सिलसिला अनवरत वर्तमान रखा जाता है | यह इसलिए भी क्योंकि चिंतन की वर्तमानता किसी भी समाज के विकास के लिए आवश्यक होता है | जहाँ चिंतन नहीं होगा वहां चैतन्यता का अभाव होगा | जहाँ चैतन्यता नहीं होगी, सम्पन्नता का अकाल होगा | जहाँ सम्पन्नता नहीं होगी वहां दयनीयता तथा मृतप्राय मानसिकता की बहुलता अवश्य दिखाई देगी |
     मृतप्राय वही माने जाते हैं जिसे अपने हानि-लाभ की कोई चिंता न हो | जो स्वयं के जीवन-यापन हेतु अपना सम्पूर्ण समय व्यतीत करे | दयनीय वह होता है जो लाचार, दीन, हीन बनकर किसी तरह अपना जीवन काट रहा हो और जीवन की वर्तमान परिस्थितियों को ही अपनी नियति मान बैठा हो | इन दोनों स्थितियों में संगठन की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं और विघटन की प्रक्रिया नित-नवीन रूप में बलवती होने लगती हैं | बलवती हो रही विघटन की इस प्रक्रिया को समाप्त करने के लिए चिंतन की अनिवार्यता स्वयमेव दिखाई देने लगती है | कविता और कवि का कार्य यहीं से प्रारंभ होता है | यहीं से प्रारंभ होती है साहित्य-सृजन की अनिवार्यता ताकि विघटनकारी तत्वों को विकसित होने से पहले ही नष्ट किया जा सके |
     कवि तथा कविता का योगदान विघटन की प्रक्रिया को वर्तमान होने से बाधित करने में इसलिए भी सबसे अधिक है क्योंकि वह सृजन की विशेष तथा विशिष्ट कार्य-प्रणालियों से होकर अपनी श्रम-साधना को मानव-हित के निमित्त साधने की कोशिश में लगा रहता है | यह कोशिश कई बार उसे अपने समकालीन परिस्थितियों से समझौता करने पर विवश करती हैं तो कई बार वह सब कुछ सहन करने के लिए मजबूर करती हैं जो वह अपने पूरे जीवन में न करना चाहता हो | यह कवि की जनधर्मिता ही होती है जिसे वह चाहकर भी नहीं छोड़ पाता और उसे समय समाज की विघटित हो रही धारणाओं एवं संस्कारों को संगठित करने के लिए मजबूर होना पड़ता है |
       माधव कौशिक द्वारा सृजित ‘सुनो राधिका’ खंडकाव्य में संगठन और विघटन की इसी प्रक्रिया का समावेश दिखाई देता है | यहाँ इस कृति के कलेवर में मानवीय प्रेम, सत्य, अहिंसा, समरसता, बंधुता के साथ-साथ ईर्ष्या, द्वेष, भय, घृणा एवं आक्रोश की ऐसी सुन्दर समन्वयात्मक संरचना की गयी है कि प्राचीनता-नवीनता, मित्रता-शत्रुता, आस्था-अनास्था, जैसे मूल्य, जो आज सामाजिक परिवर्तन के केंद्र में हैं और न चाहते हुए भी मानव-मन को उलझने तथा विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं, एक साथ हमारे चिंतन-प्रक्रिया में वर्तमान हो उठते हैं |
       इस खंडकाव्य के विषय में डॉ० लालचंद गुप्त ‘मंगल’ के इस अभिमत को लिया जा सकता है “पांच सर्गों पर आधारित प्रस्तुत खंडकाव्य में माधव कौशिक ने कृष्ण की महान् सामाजिक दृष्टि और मौलिक विचारधारा के माध्यम से मानव जाति के इतिहास और प्राक् इतिहास को साक्षी मानकर, एक शास्वत सनातन, चिरंतन, मौलिक, प्रासंगिक सामयिक और सर्वथा अनुत्तरित प्रश्न उठाया है |”1 राधिका को संवाद में रखकर कृष्ण के माध्यम से सम्पूर्ण मानव त्रासदी और विसंगतियों को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास जहाँ हमें अतीत के कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं को मूल्यांकित करने का अवसर प्रदान करता है वहीं वर्तमान समय में सक्रिय विभाजनकारी षड्यन्त्रों के प्रतिरोध में खड़े होने का साहस भी प्रदान करता है |
     कवि-चिंतन की प्रमुख समस्या अतीत के संयमित मूल्यों का गुणगान करना नहीं वर्तमान के विघटित हो रहे जीवन-मूल्यों का परिमार्जन करना है | इस स्थिति पर वह कई बार स्वयं को उलझा हुआ भी पाता है लेकिन यह उलझाव उसके रचनात्मक धरातल पर न होकर  सामाजिक विसंगतियों पर अधिक आश्रित है | सामाजिक विसंगतियों पर इसलिए आश्रित है क्योंकि “जिस काल में जन्म लेते हैं हम/ उस काल के दोष/ उसके अंतर्विरोध/ उसकी जातीय कुंठाएं/ उसके सामायिक संत्रास/ सभी को झेलने पड़ते हैं |”2 जो स्थितियां ‘सभी को झेलने पड़ते हैं’ यदि कोई कवि-हृदय है तो स्वयं को उससे अछूता नहीं रख सकता | ‘बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा लूं लोचन, छोड़ अभी से इस जग को’ कहने के पीछे कविवर पन्त का यही भाव था |
      समाज की सामाजिकता उसके खुलेपन में है | खुलापन भी एक विशेष बन्धनों से आच्छादित होना चाहिए, कुशल सामाजिक नीतियों के निर्वहन के लिए ऐसा प्रायः अनिवार्य माना जाता है |3 जहाँ बंधन नहीं होंगे वहां अराजकता होगी | अराजकता से परिपूर्ण समय में संगति नाम की कोई चीज नहीं दिखाई देती; बनिस्बत विसंगतियों के | जहाँ विसंगतियां होगी वहां संकीर्णता का प्रभाव अवश्य दिखाई देगा | कवि संकीर्णता के इस प्रभाव को ‘समय-काल का ओछापन’ कहता है | “समय-काल का ओछापन/ हमारे कदों का निर्धारण करता है/ और करता है समायोजन |/ हमारी चाल को/ साँचे में ढालता है/ हमारे चलन को/ सीमाओं में बांधता है |”4 ‘चाल’ का साँचे में ढलना और चलन’ को सीमाओं में बाँधकर रखने की प्रतिबद्धता विस्तृत हो रहे सामाजिक-मूल्यों के विस्तार को रोकना है; और वह भी एक ऐसे समय में जब यह आभासित हो रहा हो कि “संकीर्णता की केंचुल ओढ़े/ रूढ़ियों का जाल/ जकड़ता जा रहा है उसे |”5
        ‘रूढ़ियों के जाल’ को तोड़ने का साहस कवि और कविता में ही दिखाई देता है| ऐसा इसलिए भी क्योंकि दोनों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है | दोनों समाज की निवर्तमान दशा में मूल-चूल परिवर्तन लाकर नवीनता का मार्ग प्रशस्त करने की प्रतिबद्धता लिए होते हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि कवि एवं कविता, दोनों ही उस समय के रूढ़िवादी समाज को खटक रहे होते हैं; क्योंकि वे, समाज जैसा है उसे उसी रूप में न लेकर विशिष्ट रूप तथा आकर्षण में देखने के हिमायती अधिक होते हैं | उनके लिए समाज द्वारा आरोपित ‘इतिहास’ और एक विशेष ढाँचे में फिट किए गए ‘जीवन के सच’ से अलग और विशिष्ट प्रकार का सच होता है ‘साहित्य का सच’ |
         ‘लौट आओ पार्थ’ खंडकाव्य की भूमिका में माधव कौशिक ने इसी ‘साहित्य के सच’ को स्पष्ट करते हुए लिखा है “ऐतिहासिक तथ्यों तथा जीवन के सत्यों की तरह साहित्य का भी अपना सच होता है | साहित्य का सच सबसे अधिक मार्मिक, आत्मीय तथा मानवीय होता है | साहित्य के इस सच का अंतिम लक्ष्य तथा ध्येय लोक कल्याण तथा लोक मंगल की भावना से जुड़ा है | इसलिए साहित्य का सत्य जीवन के सत्य से विपरीत भी चला जाये तो  भी अपनी सृजनात्मक संरचना में यह विराट तथा उदात्त रहता है |”6 साहित्य के इसी विराटता और उदात्तता में समाज की कुशलता और विस्तार की प्रवृत्ति फलती-फूलती और बलवती होती है |
          विस्तार को संकीर्ण करने की प्रतिबद्धता एक सामाजिक व्यक्ति द्वारा कभी नहीं व्यक्त की जा सकती | ऐसा वही कर सकता है जिसे ‘असामाजिकता की भावना’ से लगाव हो; असामाजिक प्रवृत्तियों में संलिप्त ऐसी सोच को पोषने वाला व्यक्ति निश्चित ही स्वार्थता की अति से ग्रसित होता है  | उसके मन-मस्तिष्क में यह बात लगभग घर कर जाती है, जो हो बस उसका हो, अन्य भूखे भी मरें तो उसका क्या जाता है? इस तरह की संकीर्णता में उलझा व्यक्ति मात्र स्वयं का और अधिक से अधिक परिवार मात्र का ख्याल ही रख पाता है | देश और समाज के प्रति उसकी क्या जिम्वारी है इस बात को वह भूल उठता है | ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि “मानव कल्याण इन्हें नहीं सुहाता/ इनका धर्म/ स्वार्थ से परिभाषित होता है/ इनकी परम्परा/ परिवार पोषण पर/ आ ठहरती है |’’7 जो व्यक्ति स्वयं से उठकर मात्र पारिवारिक जिम्मेदारियों में ही सिमटकर रह जाता है वह अपने सम्पूर्ण जीवन में सामाजिक मर्यादाओं का न तो निर्वहन कर पाता है और न ही तो दूसरे के लिए अनुकरण की प्रेरणा ही बन पाता है |
      कवि की दृष्टि में जो मनुष्य है और जिसमें रंच मात्र भी मनुष्यता की गुन्जाईस है, वह कभी न तो अकेला रहा है और न ही तो अकेला रह सकता है | उसकी दृष्टि में “मानव कभी नहीं रहा समूह में/ जब भी, जहाँ पर भी/ एकत्र हुआ/ समाज की रचना की/ समुदाय का सृजन किया |”8 रचना और सृजन में कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरना होता है | कई प्रकार की विडम्बनाओं से दो-चार होना पड़ता है | दो-चार होने का तात्पर्य संघर्ष से है | अभी तक का विकसित मानवीय परिक्षेत्र मनुष्य के संघर्ष की भावना का ही परिणाम है |
      संघर्ष अकेले नहीं होते उसके लिए जन-सहयोग की आवश्यकता होती है | जन-सहयोग की भावना से जुटे और लगे हुए सभी मनुष्य एक बराबर होते हैं उनमें कोई छोटा या कोई बड़ा नहीं होता | समता की भावना ही समाज का निर्माण करती है | कवि भी इस बात को मानता है—“समाज का अर्थ ही यही है/ कि सभी समान हैं आज/ कोई छोटा-बड़ा/ ऊँचा-नीचा, लघु-गुरु/ दास-स्वामी, निर्बल-सबल/ कोई नहीं |”9 यदि ऐसा है और मान भी लिया जाए तो फिर अलगाव की भावना का जन्म आखिर होता कहाँ से है?
        कवि की दृष्टि में अलगाव की भावना का बीजारोपण सत्ता के लोभियों द्वारा होता है जो सामाजिक समरसता के कम और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन के हिमायती अधिक होते हैं | हालाँकि अपने वास्तविक अर्थ में राजनीति का कार्य है समाज की रक्षा और सुरक्षा करना लेकिन शासकों की चापलूसी, व्यक्तिगत स्वार्थमयता और उनकी अधिक से अधिक हड़प कर जाने की अवैधानिक मान्यताओं की वजह से भ्रष्ट शासकों द्वारा ‘रक्षा और सुरक्षा’ के बजाय समाज को तोड़ने-फोड़ने एवं असंगठित करने का खेल अधिक खेला जाता है | वे समाज को ख़ुशी और समृद्ध देखकर नहीं उसे नित-प्रतिदिन अवनति के मार्ग पर गिरते देखकर प्रसन्न होते हैं | ऐसे लोगों के विषय में कवि का ये कहना कि “उन्हें समाज से क्या लेना/ क्या लेना उन्हें/ भोले-भाले मानवों की/ अमूल्य जीवन थाती से’’ उनकी उस विशेष प्रवृत्ति का ही दर्शन कराता है |
        सच यह भी है कि समय-विशेष की विडम्बनाओं को सहते-झेलते समाज उनके सामने अपंग होता है, प्रतिभाएं कुंठित होती हैं लेकिन उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता वे सत्ता के मद में डूबकर समस्त सामाजिक मान्यताओं एवं विशिष्ट जीवन-शैलियों को मृतप्राय करने के लिए आप्लावित दिखाई देते हैं | सच तो कवि का यह कहना भी है—“आततायी कहाँ झुकते हैं/ न्याय की, धर्म की/ नैतिकता और नीतिशास्त्र की/ आचार और आचार-संहिता की/ सबकी धज्जियाँ उड़ाते/ निस्संकोच विचरते हैं/ निर्लज्ज”10 होकर मानव और मानवीयता को दोषित करने के निमित्त राजनीति का गंदा खेल खेलते हैं |
    भारतीय समाज एवं संस्कृति को अब तक की विकास यात्रा में इस खेल का सबसे अधिक शिकार होना पड़ा है | माधव कौशिक की दृष्टि में “हमारी संस्कृति/ कभी नहीं रही जड़/ कभी नहीं रही सीमित/ कभी नहीं रही अभिशप्त/ हाँ इसे बना दिया ऐसा/ अनाचारी शासन व्यवस्था ने/ इसके सत्वों को सोख कर/ नष्ट कर डाला इसे |”11 विभिन्न प्रकार के विभेदाताओं में यहाँ के जनमानस को यदि जीवन-यापन करने के लिए विवश होना पड़ा है तो उसके पीछे कहीं न कहीं यही राजनीति रही है | यही राजनीतिज्ञ रहे हैं जिन्हें रीति-नीति-परंपरा से कोई लेना देना नहीं है ये उनमे भी, जो मान्यताएं और नियम-कायदे ठीक और सुदृढ़ तरीके संचालित हो रही होती हैं, असंतुलित, अमानवीय और अधिक से अधिक असामाजिक बनाने का असफल प्रयत्न करते रहते हैं |   
      भारतीय सांस्कृतिक परंपरा और सामाजिक विशिष्टता की व्यावहारिकता आज भी विश्व में विख्यात और प्रशंसनीय है | भारत की ‘गुटनिरपेक्षता की भावना’ और ‘पंचशील सिद्धांत’ की परिकल्पना आधुनिक समय में भी इसके समाज और सामाजिकता के प्रति किए गए व्यवहार को दर्शाता है | यह यही देश है जहाँ राजा को भी उसके गलत और अमर्यादित कार्यों के लिए दण्ड देने का प्रावधान है; जिसको स्पष्ट करते हुए कभी तुलसीदास ने कहा था “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी | सो नृप अवसि नरक अधिकारी |” माधव कौशिक द्वारा इसी भावना का विस्तार देते हुए कहा गया है—यथा
किसी व्यक्ति, किसी राजा
किसी सेनापति को भी
यह अधिकार नहीं है कि
वह व्यक्तिगत सम्मानार्थ
व्यक्तिगत शौर्य के झूठे,
असंगत प्रदर्शनार्थ
अपनी प्रजा को कष्ट दे
उनकी जान को जोखिम में डाले |”12
         राज्य का निर्माण प्रजा की सुरक्षा के लिए हुआ है और प्रजा अपने सुरक्षा के निमित्त ही राज्य और राजा के प्रति अपना समर्पण रखती है | राज्य का अस्तित्व प्रजा की वर्तमानता में है | इसीलिए कवि कहता है “प्रजा से बड़ा न राजा है/ न राजा का सिंहासन/ न सत्ता है/ न सत्ता का शौर्य |” यह बात वर्तमान समय के उन राजनीतिज्ञों को भली-प्रकार समझ और सोच लेना चाहिए जो जनता द्वारा निर्वाचित होने के बाद जनता की भावनाओं का ख्याल न करके अपने ऐशो-आराम में समय और समाज का अपव्यय करते रहते हैं | अपव्यय करने की कुप्रवृत्ति मात्र राजनयिकों में ही देखी जाती है “साधारण जन तो सदैव/ सुसंस्कृत, सुसभ्य/ सुविचारित मार्ग का/ अनुगामी रहा है/ आज भी उसकी देह में/ क्षमा, दया, तप, त्याग/ रक्त और मज्जा के साथ/ शिराओं में दौड़ते फिरते हैं |”13
      व्यावहारिक जीवन में यह देखा गया है और लगभग सत्य भी है कि जब कोई भी स्थिति आसानी से नहीं सुलभ हो पाती तो उसके लिए ‘छल और कपट’ का सहारा लेना पड़ता है | सहारे की प्रवृत्ति लोककल्याण की भावना पर आश्रित हो तो एक समाज के लिए इससे सुदर और सार्थक कार्य शायद ही कोई दूसरा हो; लेकिन इस प्रकार के प्रवृत्ति का प्रयोग अक्सर जन-समुदाय को बांटने, असंगठित करने और इन सबके बीच स्वयं को समृद्ध करने के निमित्त किया जाता है | ‘छल-कपट’ की ऐसी प्रवृत्तियां ही राजनीती का केंद्र-बिन्दु मानी जाती हैं | राजनीति के विषय में कवि का कहना है “राजनीति अजीब/ दुमुंही वस्तु है/ एक मुँह से ‘हाँ’/ करती है/ तो दूसरे से उसी क्षण/ ना कहकर नाक काट डालती है |/ एक मुँह दुंदुभीं बजाता है/ तो दूसरा/ मुँह पर थूक कर/ उसी क्षण, हाथों हाथ/ बदला चुका भी लेता है |”14 राजनीतिक संस्कार का सदुपयोग यदि देश और समाज को उन्नति के शिखर पर ले जाता है तो उसका दुरूपयोग जीवन-जगत को नर्क के गर्त में झोंकने का भी उपक्रम करता दिखाई देता है | इस उपक्रम की सार्थकता को विनष्ट करने के लिए ही समकालीन कवि आज के राजनीतिक सवालों से सीधे तौर पर टक्कर लेने लगा है |
       यदि यह कहा जाए कि राजनीतिक षड़यंत्र को समझने और उसका बोध करने का प्रयास जितना अधिक समकालीन समय-परिवेश में आज के कवियों द्वारा किया गया है, पहले कभी नहीं हुआ, तो गलत न होगा | अशोक वाजपेयी के शब्दों में कहें तो “समकालीन सचाई राजनैतिक कर्म, इच्छा और तथ्यों से उलझी सचाई है, और बिना राजनीति से दो-चार हुए उसका साक्षात्कार अधूरा और अप्रमाणिक रहेगा | राजनीति से सुरक्षित संसार इच्छित संसार है, अतीत जीवी या भविष्यत संसार है, समकालीन संसार नहीं |...राजनीति से अछूता काव्य-संसार कलात्मक ढंग से सार्थक हो सकता है, स्वायत्त भी, पर मानवीय ढंग से समृद्ध और तात्कालिक नहीं |”15 यहाँ माधव काशिक अपने काव्यात्मक प्रतिमान में राजनीति से सीधे तौर पर उलझते हैं, टकराते हैं |
       इनकी टकराहट जितनी अधिक वर्तमान राजनीतिज्ञों के झूठे एवं बनावटी वसूलों से है उससे कहीं अधिक इनके द्वारा पोषित कुत्सित मानसिकताओं से भी है | मानव समुदायों के आपसी अंतर्द्वंद्व से दुखित कवि-हृदय संकीर्ण मनोवृत्ति के प्रभावों से आच्छादित ‘दानव’ और विस्तृत तथा स्वाभाविक संवेदनात्मक अनुभूतियों से समृद्ध ‘मानव’ को एक दूसरे की विरोधी प्रतीत होती ‘दो जातियां नहीं’ ‘दो मानसिकताएं’ बताता है | कवि का स्पष्ट मानना है कि “कंस, कर्ण, दुर्योधन/ अश्वत्थामा, द्रोण, क्रिपाचार्य/ शिशुपाल, जयद्रथ,/ ये सब मात्र व्यक्ति नहीं/ मानसिकताएं हैं |”16 शुभ-अशुभ, अच्छाई-बुराई, पाप-पुण्य जैसे मूल्य-अमूल्य इन्हीं मानसिकताओं के रूप में परिभाषित होते हैं | यही मानसिकताएं जब धीरे-धीरे विकसित और समृद्ध होती चली जाती हैं तो उनके अनुसरणक और प्रचारक भी एक बड़ी संख्या में बढ़ते चले जाते हैं और बाद में उन सबकी परिणति एक विचारधारा के रूप में होती है |
       विभिन्न प्रकार के दलों में बंटा भारतीय समाज और सामाजिक संरचना कहीं न कहीं इन्हीं विचारधाराओं का परिणाम हैं | जो विचारधाराएँ भारतीय मूल्य एवं संस्कृति को प्रचारित-प्रसारित करने में सक्रिय हैं; समाज उनकी देख-रेख में सक्रिय तथा गतिशील है जो विचारधाराएँ इसके विपरीत कार्यों में संलग्न हैं कहीं न कहीं नैतिक एवं सामाजिक अवमूल्यन की स्थिति वहीँ से प्रारंभ होती हैं | कवि की दृष्टि में ऐसी विचारधारा को जन्म देने वाले ‘व्यक्ति का वध करना’ ‘उसका अस्तित्व मिटाना’ आसान है, आसान है उसके संसर्ग में रहने वाली भौतिक वस्तुओं का विनाश कर उसके स्थान पर नए वस्तुओं के पुनः र्सृजन और स्थापन की प्रक्रिया को अपनाना भी लेकिन उसके द्वारा प्रचारित-प्रसारित होने वाली विचारधारा को ख़त्म करना विल्कुल भी आसान बात नहीं है | वे नष्ट और मृतप्राय होकर भी अपने अस्तित्व के पोषक-पदार्थ को प्राप्त करने में सफल हो जाती हैं—
व्यक्ति का वध करना
कितना सरल है
कितना आसान है
उसका अस्तित्व मिटाना
किन्तु मानसिकता को मिटाना
बहुत ही कठिन
उसे समूल नष्ट करना
उससे भी दुष्कर
और कुत्सित विचारधारा
वह तो मरती ही नहीं
मर कर भी
युगों युगों तक
भयंकर व्याल सी
श्वास लेती रहती है
धीरे-धीरे
गर्त में पड़ी
ढूंढती रहती है
अपने पोषक पदार्थ को |”17
       सही अर्थों में देखा जाए तो यह कवि के चिंतन प्रक्रिया का उलझाव ही है जो उसे प्राचीन-नवीन प्रतिमानों से जूझने और अतीत के सहारे वर्तमान विसंगतियों को दृष्टिगत करते हुए भविष्य के लिए एक विशेष चिंतन-प्रक्रिया को जन्म देने के लिए प्रतिबद्ध करता है| सामयिक सन्दर्भों से एकरूपता की अपेक्षा करना इस विशेष चिंतन-प्रक्रिया की प्रतिबद्धता ही है | इस कृति की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि आस्था एवं अनास्था के प्रश्न जड़-परम्पराओं द्वारा परिभाषित न होकर युग की समस्याओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप  व्याख्यायित हुए हैं | ये व्याख्याएं बहुत हद तक हमें अपने आचारों-विचारों एवं व्यवहारों के अन्दर पैठकर मूल्यांकन का अवसर प्रदान करती है | मूल्यांकन का अवसर इसलिए क्योंकि युग पुरुषों के चरित्र के अनेक ऐसे पहलू हैं जिन पर विचार तो किया गया पर अभी तक उनके चिंतन-बिंदु पर पड़ने वाले कई स्थाई पड़ावों का पूर्ण विचार नहीं किया गया |प्रत्येक युग-पुरुष के विराट व्यक्तित्व तथा चिंतन के अनेकानेक पहलू होते हैं | उनको पूरी तरह से समझना और समग्र रूप से अभिव्यक्ति करना यदि असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य होता है|’18 दुष्कर कार्य पर सुलभता का प्रयास करते हुए रचनाकार का इस कृति के माध्यम से  सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक एवं मानवीय स्थितियों की पूर्ण परख की कोशिश निश्चित ही इस कृति को समकालीन रचनाधर्मिता पर एक श्रेष्ठ और जिम्मेदार कृति के रूप में प्रतिष्ठापित करती है |








सन्दर्भ-संकेत
      1.      कुमार, डॉ० सुरेन्द्र, माधव कौशिक का रचना संसार, नई दिल्ली : ज्ञानोदय, पृष्ठ-175
      2.      कौशिक, माधव, सुनो राधिका, अम्बाला कैंट : आईबीए पब्लिकेशन, 2009, पृष्ठ-3
      3.      पृष्ठ-
      4.      वही, पृष्ठ-3-4
      5.      वही, पृष्ठ-11
      6.      कौशिक, माधव, लौट आओ पार्थ, पृष्ठ-8
      7.      कौशिक, माधव, सुनो राधिका, अम्बाला कैंट : आई बी ए पुब्लिकेशन, 2009, पृष्ठ-28
      8.      वही, पृष्ठ-58
      9.      वही, पृष्ठ-58
    10.    वही, पृष्ठ-25
    11.    वही, पृष्ठ-44-45
    12.    वही, पृष्ठ-59
    13.    वही, पृष्ठ-45
    14.    वही, पृष्ठ-2-3
    15.    वाजपेयी, अशोक, कवि कह गया है, नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1998, पृष्ठ-155 
    16.    कौशिक, माधव, सुनो राधिका, अम्बाला कैंट : आईबीए पब्लिकेशन, 2009, पृष्ठ-26
    17.    वही, पृष्ठ-26-27
    18.    वही, प्रथम संस्करण की भूमिका से |


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