Monday 25 April 2016

कबीर की समझ

                       
                                                 
         साहित्य मनुष्य को मनुष्य-रूप में ही देखने का हिमायती है | जितने वर्ष मनुष्य को मनुष्यता के मार्ग पर विकसित होने में लगे हैं उससे कहीं पहले से सक्रियता साहित्य की रही है उसे इस विचार-भूमि पर लाने के लिए | जब यह स्पष्ट है कि साहित्य का जन्म मनुष्य के ह्रदय में उठने वाले विचारों से होता है, विचार उसके अंतःकरण से उत्प्लावित होकर प्रस्फुटित होते हैं तो यह भी स्पष्ट है कि उसका अंतःकरण जिस विशेष स्थिति से प्रेरित होकर समय संदर्भित स्थितियों एवं परिस्थितियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है यह स्थिति भी कहीं न कहीं साहित्य से ही सृजित होकर उसके ह्रदय में प्रवेश पाती है | हालांकि यह प्रवेश साहित्य का सबके ह्रदय में समान रूप से होता है, किसी के प्रति इसका कोई दुराव नहीं होता पर इसके साकार अभिव्यक्ति का रूप उन्हीं में देखा जा सकता है जो एक समय विशेष में घटित होने वाली घटनाओं से कहीं अधिक द्रवित, वेदनित, तथा संदर्भित होते हैं |
       वाल्मीकि के अन्तःप्रज्ञा का जागृत हो उठना वेदना के प्रभाव का ही चरमोत्कर्ष था | तुलसी के ह्रदय का भक्ति के तरफ उन्मुख हो उठना उनकी द्रवीभूत स्थिति का प्रकटीकरण ही था | सूर का वात्सल्य या सृंगार की लौकिक भावभूमि पर रमना उनका मानवीय परिवेश से संदर्भित होना ही था | घनानन्द अपने समक्ष घटित होने वाली एवं उन पर स्वयं पड़ने वाली समस्याओं की ही उपज हैं | इन सबके व्यक्तिगत, अनुभवों, वेदनाओं एवं समय समाज में वर्तमान रहे इनके विभिन्न सरोकारों से समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग लाभान्वित या प्रेरित हो रहा है तो इन सबके पीछे साहित्य की ही भूमिका है | साहित्य सच्चे अर्थों में संस्कार देता है, व्यवहार देता है और देता है एक सुन्दर समन्वयात्मक धरातल जिससे मनुष्यता की समस्त स्थितियां प्रवाहमान वेग से संचारित होती है |
       जब बात हम कबीर और उनके अनुभवों की करते हैं तो निःसंदेह यह समझने पर बाध्य होना पड़ता है हमे कि उनका अपना व्यक्तिगत दुःख कुछ भी नहीं था, उनकी अपनी व्यक्तिगत पीड़ा भी कुछ नहीं थी जो कुछ थी वह समय, समाज और युग विशेष की दुःख और पीड़ा थी | समाज में रहते हुए समाज की दुःख और पीड़ा से अनभिज्ञ रहना एक सामाजिक व्यक्ति के लिए नितांत असंभव होता है | वह सम्पूर्ण समय, जिसमे कबीर वर्तमान थे, निःसंदेह मनुष्यता के विनाश और विकास का समय था | विनाश इसलिए कि आम जनमानस हाशिए पर धकेले जा रहे थे, उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों को उनसे छीने जा रहे थे | उन्हें सहना तो सिखाया जा रहा था, देना तो बताया जा रहा था पर उन्हें भी कुछ प्राप्त करना है, उनका भी कुछ है समाज में इस स्थिति से जहां तक संभव हो सकता था,  दूर ही रखा जाता था | विकास इसलिए कि सभी स्वच्छ, सुखी, सुसंस्कृति-संपन्न होने की आशाएं संजो रहे थे | जिनके पास तो सबकुछ था वे न होने की स्थिति पर स्वयं को प्रतिष्ठापित करने का अमानवीय, असंस्कारिक प्रयत्न कर रहे थे | मानव को मानव न मानकर उनको पाशुविकता की प्रतिमूर्ति समझते थे और पशुओं को साभ्यतिक संस्कार के आवरण में ईश्वरत्व का रूप मानते थे |
       समझने की बात तो ये है कि न होने की भावना से जहां मानव का एक बहुत बड़ा वर्ग शोषित, दमित और विस्थापित होने के दंश से आक्रांत था वहीँ होने की वजह से मुट्ठी भर लोग अमानवीयता का नंगा नाच नाचने में मशगूल | कबीर इन दोनों स्थितियों की उपज थे | इनके पास यदि कुछ भी नहीं था, स्वयं को अन्यों के अपेक्षा शोषित और छला हुआ महसूस करते थे, तो इनके पास था भी बहुत कुछ जिसके आधार पर ये दूसरों के बनिस्बत स्वयं को सबसे सबल और समर्थ घोषित करते थे | ‘हम न मरै मरिहैं संसारा’ कबीर की यह उक्ति उनकी सम्पनता का ही द्योतक है और इसी सम्पन्नता की वजह से ही कबीर जनसाधारण की पक्षधरता तथा जनश्रेष्ठ के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठापित करने का दंभ पाले उच्च वर्ग की नीतियों का कट्टरता के साथ विरोध करते हुए दिखाई देते हैं | इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी साहित्य और भारतीय पृष्ठभूमि के फलक पर श्रेष्ठता के विरोध में वास्तविकता का स्वर प्रथम द्रष्टया यदि कहीं से मुखरित हुआ है तो कबीर उसके प्रथम पुरस्कर्ता कहे जा सकते हैं| सहानुभूति के आधार पर स्वानुभूति के यथार्थ की बात यदि कहीं से की जाती है तो कबीर ही उसके प्रथम उद्घाटन कर्ता कहे जा सकते हैं | यह इसलिए कहे जा सकते हैं कि जितने यथार्थ में समय समाज की विसंगतियों को कबीर ने झेला है उतने गहरे में कबीर के समकालीन किसी कवि या विचारक ने नहीं झेला | और यदि झेला भी होगा तो जो साहस कबीर ने किया यथार्थ को कहने की, अपने सामाजिक परिवेश के संकीर्ण मनोवृत्ति को व्यापकता प्रदान करने के लिए, किसी अन्य ने वैसा कहने की हिम्मत नहीं दिखाई |
         शायद इसके पीछे कहीं न कहीं उस समय के कवियों या विचारकों में राज्याश्रित लोभों से भी वंचित होने का डर रहा हो, स्थापित होने की लालसा तथा सम्पूर्ण वंशज को सुरक्षित करने की परिकल्पना में विस्थापित होने की संभावना भी रही हो पर कबीर इन सभी स्थितियों से बेखबर थे | बहुत कुछ उस वृक्ष के मानिंद जो अपने ऊपर पड़ने वाले तमाम प्रकार के तुषारापात को, प्रकृति के आघात को चुपचाप सहता रहता है, पर अपने आवरण में आने वाले लोगों को छाया और सुरक्षा की-सी भावना का एहसास कराता है | यह बात भी गौर करने की है, वृक्ष की विशालता और कबीर-ह्रदय की प्रगाढ़ता के सम्बन्ध में कि जिस प्रकार वृक्ष ने कभी भी जाति-पांति, ऊंच-नीच की भावना का ध्यान नहीं दिया ठीक उसी प्रकार कबीर का भी अपना व्यक्तित्व था जो कभी किसी को विभेदता की दृष्टि से देखने का हिमायती नहीं था | उनकी नजर में क्या मुसलमान, क्या हिन्दू, क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र सब एक सामान थे| सबके हित में ही वे मानव हित की बात करते थे | कबीर-व्यक्तित्व के सम्बन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कुछ सत्य ही कहा है “वे मुसलमान होकर भी मुसलमान नहीं थे, हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे, वे साधु होकर भी साधु (गृहस्थ) नहीं थे, वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे, योगी होकर भी योगी नहीं थे | वे कुछ भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गए थे |”1 द्विवेदी जी के ही शब्दों में कहें तो उनका होना और एक हद तक होकर भी न होना निहायत ही उनके कवि-ह्रदय की व्यापकता को दर्शाता है|
       किसी भी स्थिति की व्यापकता बहुत हद तक लोगों को खलती है, खासकर उन्हें जो व्यवस्था को अपने हाथों की कठपुतली बनाए रखना चाहते हैं और येन केन प्रकारेण से  अपने सामानांतर किसी अन्य को नहीं देखना चाहते | यही नहीं वे एक हद तक तो विचलित भी होते हैं, कि यह जो यकायक प्रासंगिक हो उठा है, दिनों दिन बढ़ रहा है यदि इसी तरह अनवरत सक्रिय रहा तो आगे चलकर हमारी अपनी प्रतिबद्धता को धूल-धूसरित कर देगा | व्यक्ति-मन की यह आशंका मानव समूह के एक बड़े भाग को वैचारिक और बौद्धिक दृष्टि से पंगु बनाने तथा एक सीमित दायरे में ही सिमिटकर संकुचित रहने के लिए बाध्य करती है| कबीर के समय में भी जनसामान्य को इन्हीं विचारों के केंद्र में रखकर शोषित किया जाता रहा | हालांकि जनता के पास उनका प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं थी, जो कहीं न कहीं आज भी वर्तमान है, ऐसे परिदृश्य में कबीर सीधे तौर पर उन्हें प्रेरित करते हैं वाद, संवाद और प्रतिवाद के क्षेत्र में जूझने और लड़ने के लिए | कबीर और अन्य संतों के हवाले से कही गयी बलदेव वंशी जी की ये उक्तियाँ कितनी सच प्रतीत होती हैं, “कबीर, रैदास, दादू, मलूक, नानक, तुकाराम, सधना, सेन आदि निम्न उपेक्षित जातियों से दलित वर्ग से आते हैं और इन्होंनें सभी दलितों को तथाकथित धनिकों, उच्चवर्ग, श्रेष्ठ वर्ण के लोगों पर हँसना सिखाया, अपनी जाति का सगर्व उल्लेख किया अपनी वाणी में और कहा कि निम्न वे हैं जो निर्दयी हैं, मानवीय संवेदना से रहित हैं | अतः कबीर ने जाति भेद, वर्णभेद, वर्गभेद के दंश को मिटाने के लिए लोगों को धनवान नहीं, आत्मवान बनाकर खड़ा किया |”2 धन तो कभी भी आ सकता है, किसी भी रूप में प्राप्त किया जा सकता है पर आत्मिक शक्ति ऐसे नहीं प्राप्त हो जाती | इसके लिए निज प्रयत्नों के साथ-साथ एक मार्गदर्शक की भी आवश्यकता होती है | कबीर की वाणियों में हम इन आवश्यकताओं की सम्पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं पर सत्य यह भी है कि इन्हें व्यावहारिक जीवन में मूर्त रूप देने के लिए हमे अपने वर्तमान को कष्टमय बनाना होगा | घर-बार छोड़कर सड़कों और चौराहों पर अलख जगाना होगा | सवाल ये है कि ऐसा करने के लिए तैयार कौन होगा ?कबीर तो खुले आम कहते हैं “लिए लुकाठी हाथ, जो घर उजारे आपना चले हमारे साथ ||”
     घर उजारने और घर से बहार रहने की क्षमता रखने वाले को एक समय तो समाज भी बर्दास्त नहीं करता | कबीर को भला कब और किसने बर्दास्त किया है | आज भी कबीर की बात करना कबीर के सिद्धांतों पर चलना नहीं अपितु उनके नाम पर रोटियां सेकना है | बात चाहे जातिवादिता की हो या फिर सम्प्रदायवादिता की, ढोंग, ढकोसला बनावटीपन की हो अथवा रूढ़िवादिता की कबीर इन सब सथियों के विरोध में थे और आज ये सभी अपने पूर्व स्वरुप में वर्तमान हैं | आए दिन हिन्दू मुस्लिम के नाम पर होने वाले नरसंहार से कौन नहीं परिचित है | मंदिरों या मस्जिदों के खड़ा करने और ढहाने को लेकर होने वाली कसाकसी आखिर किससे अनभिज्ञ है ? सभी जानते हैं यही नहीं कबीर द्वारा कही गयी इन बातों को भी तो लोग जानते हैं कि उन्होंने किस तरह से हिन्दू और मुसलमान को एक ही ईश्वर का अंश बताते हुए मंदिर-मस्जिद का विरोध किया था, यथा-
न जाने तेरा साहब कैसा
मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे क्या साहब तेरा बहरा है |
हिन्दू कहे मोहि राम पियारा तुरक कहै रहमाना |
आपस में दोउ लडि-लड़ीं मुए मरम काहू न जाना ||3
हिन्दू-तुरक की एक राह है, सतगुरु इहै बताई |
कहै कबीर सुनहु रे संतो राम न कहेउ खुदाई ||4
      कबीर का हिन्दू-मुस्लिम के बीच फैली मजहबी विभेदता के प्रति ऐसा तर्कसंगत खण्डन समय-समाज की नज़रों में जहां एक तरफ विद्रोही व्यक्तित्व में परिभाषित होना था वहीँ दूसरी तरफ भविष्य की संभावनाओं को अपनी सम्पूर्णता के साथ जीवित रखने का एक सार्थक प्रयत्न भी था | उनका यह प्रयत्न भारतीय छवि को जीवित रखने में आज भी सूत्र रूप में प्रयोग किया जाता है खासकर तब जब कहीं हिंसा होती है, मानव समुदयों पर, जीवों एवं जंतुओं पर | रोचक बात तो ये है कि तब भी कबीर पढ़े जाते हैं जब ‘बकरीद’ और ‘रोजा’ जैसे पवित्र पर्वों के नाम पर अहिंसात्मक रवैये से मानवता की भावभूमि पर मानवीय धर्म का क़त्ल किया जाता है और उस समय भी जब मानव को मानवता से जोड़ने वाली धर्म की संज्ञा देने वाले लोगों द्वारा एक वर्ग-विशेष को छूने मात्र से स्वयं को अपवित्र समझने की परिकल्पना कर ली जाती है | कबीर व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि “हिन्दू और मुसलमान दोनों जातियों के अंधविश्वासों पर कठोर प्रहार करते समय उनको यह स्मरण नहीं राहता था कि कोमलता के स्पर्ष की इक्षा रखने वाली जाति इस प्रकार से तिलमिला उठेगी | वह तो जानबूझकर ऐसा प्रहार करते थे, किन्तु दोनों जातियां उन्हें कठोर कर्कश जानते हुए भी प्यार से अपनाना चाहती थीं | यही कबीर की सबसे बड़ी विजय है | यह मानवता की ही विजय समझी जानी चाहिए |”5 कबीर ने वर्तमान समाज के धार्मिक परिस्थिति मात्र को ही संतुलित करने का प्रयास नहीं किया अपितु सामाजिक संकीर्णताओं को भी मेटकर समानता की अलख जगाया | छुआ-छूत की भावना पर कबीर के प्रभावी व्यक्तित्व का शंखनाद सुनते ही बनता है-उनके अनुसार-
ऐसा भेष बिगूचनि भारी |
बेद कतेब दीन अरु दुनियाँ कौन पुरिख कौन नारी ||
एक रुधिर एकै मल मूतर एक चाम एक गूदा |
एक बूँद तै सृष्टि रची है कौन बांह्मन कौन सूदा ||
रज गुन ब्रहमां तम गुन संकर सतगुन हरि है सोई |
कहै कबीर एक राम जपहुं रे हिन्दू तुरक न कोई ||6
 दरअसल, ये ऐसी विकराल समस्याएँ हैं कि इनपर बात करना भी किसी विशेष खतरे को व्यक्तिगत हित से समझौता करते हुए आमंत्रित करने जैसा है | पर कबीर ऐसा करते हैं, इसलिए कि उन्हें मानव-समूहों से डर नहीं हैं डर है तो इस बात मात्र से कि कहीं इन तथाकथित रूढ़िवादियों एवं ढोंगियों द्वारा मानवता का ही गला न घोंट दिया जाए | हिन्दू-मुस्लिम दोनों में व्याप्त विभेदता और असांस्कृतिक रिवाजों के परिप्रेक्ष्य में कबीर ने हर समय मध्यस्थता करने की कोशिश की | मानव-मानव के ह्रदय में व्याप्त विभिन्न मतान्तरों को ख़त्म करने की इन्होनें पूर्ण कोशिश ही नहीं की अपितु कई मायनों में इनको सफलता भी मिली | इसके बावजूद यदि लोगों को न समझ में आये तो यह उनकी अज्ञानता ही हो सकती है, जिसे अंततः कबीर ने एक जगह अभिव्यक्त भी किया है | उनके अनुसार-
कहूं रे जे कहिबे की होइ |
नां को जानै नां को माने ताकैं अचिरज मोहि ||
अपने अपने रंग के राजा मानत नांही कोई |
अति अभिमान लोभ के घाले चले अपुनपौ खोई ||
मै मेरी करि यहु तन खोयो, समझत नहीं गंवार |
भौजलि अधफर थाकि रहे हैं बूड़े बहुत अपार ||
मोहि आग्या दई दया करि काहूँ कूँ समझाइ |
कहै कबीर में कहि कहि हारयो अब मोहि दोस न लाइ ||”7
      जाति-पांति और छुआ-छूत के सम्बन्ध में कबीर के द्वारा किए गए विरोधों से भला कौन नहीं परिचित है | ऐसा वे बराबर कहते रहते कि जातियों का निर्धारण कर्म के आधार पर हो न कि वंश और कुल के आधार पर | पाखंडों एवं रूढ़ियों से समृद्ध समाज ने इनकी एक न सुनी | हालांकि इनकी परंपरा में कई विद्वान वर्तमान हुए पर या तो उन्हें ताउम्र भूखे, प्यासे जीने के लिए विवश किया गया या फिर गुमनाम कर दिया गया | कबीर-ह्रदय की सबसे बड़ी चिंता आज भी उन कबीरों में विद्यमान है जो कहीं न कहीं इस वैषम्यता मय कोढ़ को ख़त्म करने के लिए संकल्पित हैं पर न तो उनके हाथ में व्यवस्था है और न ही तो उनके बस में यह समाज | सम्पूर्ण सामाजिकता आज भी कहीं अँधेरे में अपनी विकासगाथा पर आंसू बहा रहा है | इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि आमजन मानस को नए सिरे से नए हथकंडों में बाँधने की कोशिश की की जा रही हो | कहीं धर्म उत्थान के नाम पर तो कहीं जाति संगठन के मुद्दों पर उन्हें भ्रमित करने की कोशिश की जा रही हो | यह आश्चर्य की ही बात है कि कबीर जिस आम आदमी के समानता एवं अधिकारों के लिए अनवरत समाज के एक बड़े वर्ग से वैचारिक द्वंद्व मचाए रखे, वही कबीर आज उनके खेमे से ही बाहर कर दिए गए हैं | उनके नाम और शिक्षाओं पर बढ़ने समुदायों ने ही कहीं न कहीं उनके सिद्धांतों पर चलने से मना कर दिया है | इससे बड़ी विसंगति की बात और क्या होगी कि जिस कबीर ने अपना पूरा जीवन मठों, मंदिरों, मस्जिदों, जातियों आदि का विरोध करते गुजार दिया उसी कबीर या अन्य संतों के नाम पर अपने अपने मठ चलाए जा रहे हैं | कबीर ने तो यह भी कहा था-
जब मैं आतम तत्त बिचारा |
तब निरबैर भया सबहिन थैं काम क्रोध गहि डारा ||
व्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै, को पंडित को जोगी |
राजा रंक कवन सूं कहिए कवन बैद को रोगी |
इनमे आप आप सबहिन में आप आपसूं खेले |
नाना भांति घड़े सबभाड़े रूप धरे धरि मेले ||8       
     इसके बावजूद भी लोगों के अपने धड़े और अपने खेमे बन रहे हैं | कहीं न कहीं सभी अपनी ढपली अपने राग में व्यस्त हैं | सच यह भी है कि “वर्तमान युग के व्यक्ति का जीवन पहिले से भी अधिक कठिन होता गया है | दुःख, कष्ट, क्लेश भी पहले की अपेक्षा अधिक एवं सालने वाले | सभी चाहते सुख हैं किन्तु दुर्दांत दुखों में घिरते जाते हैं | ऐसा क्यों? क्योंकि पहले की अपेक्षा अधिक स्वार्थी, निर्दयी, भावनाहीन, संवेदनशून्य, नास्तिक होते जा रहे हैं |”9 तो क्या यह समय की विडंबना ही कही जा सकती है या फिर इसके पीछे मानव की अपनी सोच भी उत्तरदायी है? इन प्रश्नों के उत्तर सहज ही हमें कबीर काव्य में प्राप्त हो सकते हैं |
       यह समय एक बार फिर से कबीर को समझने का समय है | सच्चे अर्थों में जाना जाय तो कबीर का पूरा जीवन ही जन-जीवन को सहेजने में बीता | अतीत को कबीर उन अर्थों में नहीं स्वीकार करते थे, जैसा हिन्दू समुदाय, वर्तमान में ये उस तरह नहीं रहना चाहते थे जैसा मुस्लिम और भविष्य को वे उस तरह नहीं बनाना चाहते थे जैसा विभिन्न सम्प्रदायों में बंटे हुए लोग परिकल्पना करते थे | सच कहा जाय तो इनके समाज निर्माण का ढांचा ही कुछ और था | एक दम से अलग और सबसे निराला ठीक उसी तरह जैसे कबीर स्वयं थे | इनके इसी निराले व्यक्तित्व की बात करते हुए डॉ० कान्तिकुमार भट्ट जी कहते हैं, “हिंदी काव्य मनीषा के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्ति दूसरा नहीं हुआ है | उनके व्यक्तित्व को किसी भी प्रचलित अभिव्यक्ति के माध्यम से उद्घाटित नहीं किया जा सकता | वे जिस युग में हुए, उस युग से बहुत आगे की बातें कर रहे थे, इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि कबीर के समसामयिकों ने कबीर का विरोध किया | वास्तव में महान व्यक्तित्व का लक्षण यही है कि वह काल को लांघकर भविष्य का पदचाप सुन सकता है और वर्तमान व्यवस्था की दरारों को उघार देता है और उन्हें भरने का उपाय भी बताता है |”10 कबीर की शिक्षाओं और उनके आदर्शों का जितने अधिक मात्रा में आज अनुसरण किया जा रहा है उससे कहीं अधिक विरोध भी किया जा रहा है | इसके बावजूद यदि कबीर जैसे कुछ और विचारक इस वर्तमान समय में भी उपलब्ध हो सकें तो वर्तमान जीवन की सार्थकता और समय समाज का कल्याण सुनिश्चित है | अंततः यदि डॉ० आर्या प्रसाद जी के शब्दों में कबीर की समझ और उनके साहित्य को समझने का प्रयत्न करे तो आज भी “कबीर की तपःपूत साधना पद्धति और दिव्यवाणी भारत की धरती और मानवों की धमनियों में अनुगुंजित और स्पंदित है | वह जन-जीवन का साहित्य है, मानवीय जीवन का चित्रफलक है | इन चित्रों की ताजगी कभी वासी नहीं हो सकती | इस शाश्वतसर्वयुगीन विराट कबीर साहित्य एवं उसकी साधना पद्धति की महत्ता निर्विवाद है | शोषण और उत्पीड़न की पतनोंन्मुखी संस्कृति के ध्वंसावशेषों पर जब-जब युग की जनवादी संस्कृति का निर्माण होगा तब उस नवीन मुक्त समाज की रचना प्रक्रिया में कबीर साहित्य का प्रदेय और भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगा |”11
       
सन्दर्भ-सूची - 
1.   द्विवेदी, हजारी प्रसाद, कबीर, पृष्ठ-157
2.   वंशी, डॉ० बलदेव, कबीर : एक पुनर्मूल्यांकन, पृष्ठ-16
3.   दास, डॉ० श्यामसुंदर, (सं.) कबीर ग्रंथावली, नई दिल्ली, प्रकाशन संस्थान, संस्करण-2013  
4.   वही,
5.   स्नातक, डॉ० विजयेन्द्र (सं.), कबीर, पृष्ठ-247
6.   दास, डॉ० श्यामसुंदर, (सं.) कबीर ग्रंथावली, नई दिल्ली, प्रकाशन संस्थान, संस्करण-2013 
7.    गुप्त, डॉ० हरिहर प्रसाद, कबीर-काव्य : प्रतिभा और संरचना, इलाहबाद, भाषा साहित्य संस्थान, 1983, पृष्ठ-168
8.    दास, डॉ० श्यामसुंदर, (सं.) कबीर ग्रंथावली, नई दिल्ली, प्रकाशन संस्थान, संस्करण-2013, पृष्ठ-179   
9.   वंशी, डॉ० बलदेव (सं.), दादू ग्रंथावली, नई दिल्ली, प्रकाशन संस्थान, 2005, पृष्ठ-(भूमिका)-xv
10.               भट्ट, डॉ० कान्तिकुमार, कबीरदास, पृष्ठ-83
11.               त्रिपाठी, डॉ० आर्या प्रसाद, कबीर साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन, पृष्ठ-480 


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