Sunday, 25 September 2016

मंच और वक्ता, मन नहीं करता, यह जरूरी नहीं कि


मंच और वक्ता
1.
मंच एक अखाड़ा है  
वक्ता एक पहलवान है
मंच है यदि धरती
तो वक्ता आसमान है
मंच का चस्का
नशा का सबसे बड़ा पर्याय है
नशा है यदि लत तो
मंच उसका उपाय है

2.
भीड़ से ही निकलकर
कोई आता है बाहर
पहचानने की कोशिश में स्वयं को
भीड़ का हिस्सा बनने से इंकार करता है  
हिलाते हुए हाथ अपना   
चढ़ता है मंच पर
समझकर विशिष्ट अपनी भूमिका  
भीड़ से अलग अपना संसार रचता है

3.
एक विशेष विरोधाभासी
चेहरे के नकाब से स्वयं को उघाड़ते हुए
देखता है चारों दिशाओं में
अपने विरोधियों और
अपने समर्थकों के नजरिये का
आकलन करता है
अवलोकन करता है
हृदय गति का अपने और
फिर धीरे धीरे सावधान होता है

आकलन और अवलोकन के मध्य
दाँव आजमाता है
जनता को देखता है
देखते जाता है
पकड़ता है माइक और फिर
सदमे में मुस्कुराता है
कुछ कहना नहीं चाहता
और न ही बताना चाहता है अपने विषय में  
उसका मुस्कराना ही सब कुछ कह जाता है
यह कि, वह क्या चाहता है
यह कि, वह क्या कहना चाहता है और
यह भी कि, जनता उसके सन्देश से अर्थ क्या निकाले |

मन नहीं करता

मन नहीं करता
कि अब मैं
लोगों से बात करूँ
उपस्थित होऊं
लोगों के बीच
और फिर 
उनसे मुलाकात करूँ

अक्सर लोग मिलते हैं
अनजाने के भाव को मेटकर
अपने परिवेश से बहिस्कृत कर स्वयं को  
दूसरे परिवेश के दीखते हैं 
जमते हैं अपने स्थिति के अनुसार
स्वभाव में धीरे-धीरे,
एक-दूसरे के निकट आते हैं
और फिर उसके बाद
अक्सर लोग
जमकर उबलना शुरू कर देते हैं

अपने परिवेश से निकलकर
दूसरे परिवेश में
उनका जमना’
अपने अस्तित्व को भुलाकर
दूसरे को महत्व देना है,
और उबलना
दोनों के अस्तित्व से
खिलवाड़ करना है
न उनका
न अपना अपितु
सम्पूर्ण प्रक्रियाओं को नकारते हुए
किसी और का बनकर रहना है  


यह जरूरी नहीं कि

यह जरूरी नहीं कि
मेरा विस्तार कितना है इस जमी पर और
कितने लोग ऐसे हैं जो जानते हैं मुझको
जरूरी यह है कि
मेरी उपस्थिति कितनी है लोगों के बीच
और कितने लोग हैं ऐसे जो मानते हैं मुझको


2 comments:

डॉ जय शंकर शुक्ल said...

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

शुक्रिया सर! आपका आशीर्वाद है