Monday 10 April 2017

भाषा, मीडिया एवं समाज-संस्कृति का यथार्थ – हिंदी बदलता परिवेश


          भारतीय समाज के इतिहास में यदि सबसे बड़ा गृह युद्ध होने वाला है तो जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह भाषाई युद्ध है| सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि आज जिन्हें भाषा का वास्तविक अर्थ भी नहीं पता है वे भी उसके राष्ट्रीयकरण के लिए झंडेबाजी पर उतर आए हैं| झंडेबाजी कभी भी किसी भी दृष्टि से जन-समाज के लिए हितकर नहीं हुई| सामाजिक विद्वेष की कितनी ही खाइयां आज इन्हीं भाषाई मनमुटाव को लेकर तैयार कर दी गयी हैं, सीधे और सरल शब्दों के माध्यम से कह जाना बहुत कठिन है| ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी तक भाषा के सामाजिक सन्दर्भ को बहुत कम लोगों ने समझा और अभिव्यक्त किया है| पता नहीं क्यों यह अभाव रह रह कर खटकता है कि जितनी पैरवी लोगों ने भाषा के विकास के लिए, जबकि भाषाएँ पारिवेशिक विशेषता के अनुसार अपने स्वभावानुकूल परिवर्तित होती रहती हैं और स्वयं में नए आयाम प्रतिष्ठापित करती रहती हैं, किया और आज भी कर रहे हैं उतनी सिफारिस और पैरवी सामाजिक मानसिकता को बदलने के लिए क्यों नहीं किया?
        जड़ स्थाई हो चुके परिवेश में अभी कुछ ही दिन हुआ डॉ० गुरमीत सिंह की एक पुस्तक आई है हिन्दी बदलता परिवेश”| आज के इस बदलते भाषाई परिवेशमें यह इस समय की पहली ऐसी पुस्तक है जो ‘हिंदी का पक्ष’, ‘मीडिया का सच’ और ‘लोक की ताकत’ तीन महत्त्वपूर्ण सामयिक सामाजिक विमर्शों के माध्यम से अपने सम्पूर्ण अर्थों में भाषाई एवं सामाजिक संस्कारों में समन्यव स्थापित करने के लिए जूझती और एक हद तक लोगों की मानसिकता को पढ़ती-पढ़ाती प्रतीत हो रही है| लेखक द्वारा ‘हमारी हिंदी’, ‘हिंदी का आकाश’, ‘हिंदी का झंडा’, ‘हिंदी चालू आहे’, ‘हिंदी प्रेम व कम्प्युटर’, ‘दिल में हिंदी-हिंदी में दिल’, ‘मेरी हिंदी सबकी हिंदी’, जैसी अन्य कई महत्त्वपूर्ण भाषाई लेखों के जरिये भाषा के सामाजिक व्यवहार पर अपनी बात रखा गया है| लेखक कोई भी हो जब तक वह भाषा के साथ-साथ समाज और संस्कृति के पारस्परिक सम्बन्ध को व्याख्यायित करने का प्रयत्न नहीं करेगा, भाषा सम्बन्धी उसके सभी प्रयत्न नीरस और खोखले साबित होंगे| नीरसता और खोखलेपन के वातावरण में निराशा और अवसाद का प्रादुर्भाव होता है| भाषा की दशा-दुर्दशा को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले आज जितने भी नारेबाज लेखक, पाठक और सामाजिक आन्दोलन कर्ता हैं वे कहीं न कहीं निराशा और अवसाद के ही शिकार हैं| निराशा और अवसाद के क्षणों में व्यक्ति अपने परिवेश से तो कटा होता ही है एकहद तक समाज से भी विलग रहता है| यहाँ यह प्रयास होना चाहिए कि ऐसे लोगों का समाज के अन्य सदस्यों के साथ संवाद स्थापित हो सके| क्योंकि “भाषा हो या समाज उसकी बुनियाद आपस में लोगों को जोड़ने की है न कि तोड़ने की| हिंदी भाषी हम लोग जब किसी अहिन्दी भाषी को हिंदी बोलते देखते हैं तो उसे प्रोत्साहित करने के बजाय जाने-अनजाने अकसर उसके उचारण का मखौल उड़ाकर उसका दिल तोड़ने का काम करते हैं|” यह दिल तोड़ने की स्थिति के कारण ही कई बार व्यक्ति भाषाओं को व्यवहार में लाने से शर्म करता है| कई बार भाषा-ज्ञानी उच्चारण को लेकर दूसरे की कमजोरी पर ऊँगली उठाते हुए वाद-विवाद भी कर लेता है| जबकि भाषा में विवाद की स्थिति पर लेखक अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहता है “भाषा का मुख्य काम ही संवाद होता है और संवाद से लोग आपस में जुड़ते हैं, एक-दूसरे के नजदीक आते हैं| लेकिन अपने यहाँ उल्टा हुआ; भाषा के आधार पर लोग बटते गये, दूर होते गए|” भाषाई कट्टरता को लेकर हर समय उलझनों को बढ़ाने वाले शुभचिंतकों के शिकार होने की ऐसी स्थिति में विवाद को तो जन्म दिया जा सकता है लेकिन संवाद को नहीं|
         भाषाएँ कोई भी हों वे अपने साकार रूप में तभी विकसित हो सकती हैं जब उनके साथ चलने वाली अन्य भाषाएँ या बोलियाँ उस समय के परिवेश द्वारा अपनाई जाएँगी| उनका प्रयोग अपने व्यावहारिक जीवन में किया जाएगा| यह कम विडंबना की बात नहीं है कि हिंदी के प्रति तो हम ईमानदार होने की पूरी कोशिश में लगे रहते हैं लेकिन अन्य भाषाओँ के प्रति हम उदासीन रहते हैं, वह भी उन भाषाओं के प्रति जो हमारी अपनी हैं, बाहरी नहीं| दरअसल दूसरे को न देखने की प्रक्रिया में दोषी तो हम ही हुए जबकि सच्चाई जानने का प्रयत्न किया जाए तो “हम लोगों में से बहुत से लोग लम्बे समय तक ये मानकर चलते रहे हैं, हिंदी की सारी समस्याओं के जड़ में अंग्रेजी का प्रभुत्व या अंग्रेजियत की मानसिकता है| अब तो अंग्रेजी की लाइन को मिटाकर छोटा करने के बजाय हिंदी के लाइन को उससे बड़ी करके ही आगे निकलना होगा| यह काम तब तक नहीं होगा जब तक हम क्षेत्रीय भाषाओँ को गले नहीं लगाते| हमें यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हम गैर हिंदी भाषियों का विश्वास जीतने में विफल रहे हैं|” यह विफलता कहीं न कहीं हमारे अन्दर विद्यमान संवाद-व्यवस्था की विफलता है| इस विफलता के कई कारण हो सकते हैं जिनमें भाषाई कारण सबसे प्रमुख रहा है| एक सच यह भी है कि अन्य भाषाओं के जानकार भी हिंदी भाषी जनता को हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं| हालाँकि “अंग्रेजीपरस्त लोगों द्वारा हिंदी प्रेमियों को पिछड़ा समझे जाने की प्रवृत्ति में नया कुछ नहीं है|” लेकिन फिर भी नए नए तरीके उन्हें बदनाम करने के लिए ईजाद तो किए ही जाते रहे हैं| यह इसलिए भी हो सकता है क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने चार कदम आगे बढ़कर अंग्रेजी को विकसित किया है जबकि “यह एक कड़वी सच्चाई है कि अपने हिंदी समाज की छवि अरसे से तकनीक विरोधी या पुरातन पंथी रही है| इसके लिए हिंदी विरोधियों के प्रचार के साथ-साथ किसी सीमा तक हम खुद भी जिम्मेदार हैं” क्योंकि कई प्रकार की तकनीकियों का सहारा लेकर चलने के बजाय हम हर समय उससे बचकर निकलने का रास्ता खोजते रहे हैं| हम आज भी मोबाइल और कम्प्यूटर के प्रयोग से हिचकिचाते हैं और लगभग यह मानकर चलते हैं कि इसे अपनाने से पीढ़ी बर्बाद हो रही है जबकि लेखक का स्पष्ट कहना है कि “हिंदी प्रेमियों को हर हाल में कम्प्युटर से दोस्ती करनी ही पड़ेगी| आज के युग में सूचना प्रौद्योगिकी से कटकर हम न अपना भला कर सकते हैं न अपनी भाषा का|” कम्प्युटर से लोगों की दोस्ती करना इसलिए भी अनिवार्य हो जाती है क्योंकि समय बदलता है तो शक्तियां और संस्कृतियाँ दोनों बदलती हैं| आज के इस बदलाव को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई दूसरा रास्ता हमारे लिए नहीं बचता इसलिए भी और इसलिए भी कि आज के संचार माध्यमों के साथ हम गहरे रूप में जुड़ पाते हैं|  
       ‘बदलता परिवेश’ के माध्यम से देखने का प्रयत्न करें तो यह तो निश्चित है कि जितनी तल्लीनता से हम भाषा को सुरक्षित रखने के उपक्रम में स्वयं को व्यस्त रखे हुए हैं भाषा कहीं न कहीं उतनी ही तीव्रता से मृतप्राय हो रही है| हिंदी की समृद्धता उसके परीक्षेत्र में निवास करने वाले जन की समृद्धता है| जन की समृद्धता तभी संभव है जब उसके पास अधुनातन  हथियार से लैस भाषा हो| भाषा, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि उसके लिए भाषाई समन्वय आवश्यक है| अंग्रेजी भाषा के व्यवहार और उसके प्रयोग करने से उत्पन्न होने वाली भाषाई कटुता पर लेखक का तो स्पष्ट मानना है कि “चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया—दोनों में ही हिन्दी के आगे अंग्रेजी दूर-दूर तक नहीं है| हिंदी जानने वालों का न्यू मीडिया में भी हिंदी का दखल तेजी से बढ़ रहा है| फिर भी बहुत से हिंदी प्रेमी ही मीडिया पर भाषा को बिगाड़ने या हिंदी का नुक्सान करने का आरोप लगाने में हिचकते नहीं हैं| मुझे कई बार लगता है कि असल में एसएमएस भाषा या नई प्रौद्योगिकी में सबसे ज्यादा तो अंग्रेजी भाषा बिगड़ रही है पर अंग्रेजी भाषी ऐसे आक्रांत नहीं दीखते जैसे हम लोग|”
        हममे से बहुत से लोग, जो भाषाई शुद्धता के पक्षधर हैं, हिंदी के बढ़ते कदम को अवरुद्ध करने का बड़ा संकीर्ण कार्य किया है| आज जिस भाषा को मीडिया और फिल्मों में तरजीह दी जा रही है, और जिसे लोग बराबर कोसते आ रहे हैं, यह उसी भाषा का परिणाम है कि संसार अन्यानेक स्थानों पर, जहाँ न तो हिंदी के झंडेबाज हैं और न ही तो सरकारी मशीनरियां, हिंदी ने उन परिवेशों में अपनी जगह तलाशने और समृद्ध करने में महारत हाशिल की है | यह लेखक का भी दो टूक मानना है कि “यदि हिंदी के झंडे को बुलंद करने का श्रेय किसी को दिया जाना चाहिए तो वे हिंदी फ़िल्में, हिंदी मीडिया ही हैं|”  
          भाषाई समन्यवय के जिस कार्य को साकार करना विद्वानों के लिए आज सबसे अधिक कठिन प्रतीत हो रहा है लेखक ने उसे बड़े ही शालीनता से छोटे-छोटे उद्धरणों, गीतों, मुहावरों एवं अनायास प्रवाहित होती संवादात्मक भाषा के जरिये हमें समझाने और संस्कारित करने का बड़ा उद्योग किया है| समन्वय के धरातल पर एक सच्चाई वह ये भी स्वीकार करता है और लगभग इसी बहाने सचेत भी करना चाहता है युवा पीढ़ी को, जो बराबर भाषाई अस्मिता के नाम पर बलि के बेदी पर बिठाए जा रहे हैं, वह सच्चाई ये है कि भाषाएँ तो सदैव परस्परता में विकसित होती आई हैं, उनमें विरोध का तो प्रश्न ही नहीं होना चाहिए| हिंदी का तो भारतीय भाषाओं के साथ तो विरोध कभी था ही नहीं बल्कि राजनीति ने ही उनके बीच लाइन खींचने का काम किया है|” यह काम सत्ता-लोलुपता, वोटगत राजनीति और इन सबके बीच सस्ती लोकप्रियता बटोरने की भूख मात्र है और कुछ भी नहीं|            
         लेखक भाषाई कटुता और संकीर्णता को समाप्त कर के समन्वय पूर्ण संस्कृति की प्रतिष्ठापना को लेकर जितना सजग है सामाजिक समस्याओं एवं विसंगतियों को लेकर उससे कहीं ज्यादा व्यथित है| उसकी व्यथा का सामाजिक होना इसलिए भी उचित है क्योंकि अपने जीवन का लम्बा समय उसने लोक और समाज में रहते हुए एक पत्रकार के रूप में गुजारा है| ‘विश्वसनीयता का सवाल’, ‘पीपली लाइव के बाद’ ‘संभलने का वक्त’, ‘ऐसी दीवानगी’, ‘खुद कीजिए सच का सामना’, ‘नियम बनाम नैतिकता’, ‘कानून पर बहस आदि और कई अन्य महत्त्वपूर्ण लेख लेखके जीवन-सन्दर्भ के यथार्थ को दर्शाते हैं| यथार्थतः कहा जाए तो पत्रकार और पत्रकारिता के दाँव-पेंच में भिड़ते-भिड़ाते हुए उसने सामाजिक जरूरतों को महसूसा है| मीडिया की संगतियों और विसंगतियों से प्रत्यक्षतः मुखातिब हुआ है| मीडिया और मीडियाकार के रूप में समाज द्वारा मीडिया पर लगाए जा रहे उन तमाम आरोपों को उसने सहा भी है जिसके घेरे में लाख बचने के बावजूद पत्रकारों को आना पड़ता है और उनसे दो-चार भी होता रहा है, जिसके सन्दर्भ में उसे बराबर कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है| यह तो वह मानता है कि इस लगभग परिवर्तित होते मूल्य-बोध के साथ “आज समाज में पत्रकार किसी लुटे-पिटे या आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि हर दृष्टि से सक्षम वर्ग के रूप में उभर चुके हैं जिनसे कई अन्य वर्ग रश्क भी रखते हैं|” बावजूद इसके वह यह भी मानता है कि पत्रकार को अपने दायित्वों का निर्वहन ठीक और ईमानदारीपूर्ण तरीके से करते रहना चाहिए क्योंकि “आम जन का जुड़ाव व विश्वास हमेशा से ही शासन व्यवस्था के अन्य अंगों से ज्यादा पत्रकारिता पर रहा है| यदि किसी इलाके में बिजली भी चली जाए तो वहां के लोग बिजली दफ्तर के बजाय अख़बार के दफ्तर में फ़ोन करते हैं| आमजन का यही जुड़ाव तो पत्रकारिता की सबसे बड़ी ताकत है और उसी के कारण ही तो शासन व्यवस्था के बाकी अंग भी पत्रकारिता को हाशिए पर धकेलने में देर नहीं करेंगे| इसीलिए आमजन के विश्वास को टूटने के देना पत्रकारिता के लिए आत्मघाती कदम होगा|”
          यह भी निश्चित है कि ऐसे कई दौर आए होंगे जब एक सामाजिक व्यक्ति होने के नाते और एक जिम्मेदार स्तंभकार की भूमिका में रहते हुए मीडिया की ज्यदातियों से रूबरू होने के अवसर उसे मिले हों और क्योंकि सामाजिकता का एक पहलू स्वच्छंद प्रवृत्ति के बढ़ते प्रभाव को सीमित करते हुए सामाजिक-बोध से जुड़ने के लिए उसका परिष्कार करना भी होता है, मीडिया की बढ़ती निरंकुशता लेखक को खली हो, इसलिए वह सामाजिक नीतियों के दायरे में ही मीडिया को रहने के लिए सचेत भी करता है और जागरूक भी| यह बात कहीं गहरे यथार्थ के साथ लेखकीय सरोकार में वर्तमान है कि मीडिया अपनी हदों तक ही रहे| उसके लिए मानव-मूल्य के साथ-साथ राष्ट्रीय-दायित्व भी बहुत मायने रखते हैं इसलिए मीडिया को भी कानून के दायरे में लाने के लिए प्रावधान हो; ऐसा तर्क लेखक का है| उसका स्पस्ट मानना है कि “एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए उतना ही मजबूत और स्वतंत्र मीडिया भी होना बहुत जरूरी है| लोकतंत्र और मीडिया की मजबूती सीधे-सीधे जुड़ी हुई है| अगर हम मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला करते हैं तो उसे लोकतंत्र पर ही हमले के रूप में देखा जाना चाहिए| लेकिन क्या लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों की ही तरह चौथे स्तम्भ यानि मीडिया की जिम्मेदारी भी उसी लोक के प्रति नहीं है? क्या बाकी तीन स्तंभों को आईना दिखाने वाले मीडिया के पास अपने लिए कोई आईना नहीं होना चाहिए? क्या यह सही नहीं है कि देश में तीन सौ चैनलों के साथ तेजी से फैले इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए आज तक देश में कोई प्रसारण कानून नहीं बन पाया है? क्या यह सही नहीं है कि मुम्बैई के ताज होटल पर हमले के बाद इलैक्ट्रानिक मीडिया के लिए आचार संहिता की सख्त जरूरत महसूस की गयी थी?” निश्चित तौर पर कोई भी शक्ति जब समाज और सामाजिक हित से बड़ी हो जाती है तो वह सम्पूर्ण परिवेश के लिए खतरनाक साबित हो जाती है| इलैक्ट्रानिक मीडिया ने कई बार ऐसा साहस किया है जब उसके कारण से सम्पूर्ण परिवेश अँधेरे में खोते-खोते बचा है| ऐसा इसलिए भी क्योंकि दृश्य माध्यम हृदय पर सीधा प्रहार करते हैं और उसके इस प्रहार का परिणाम है कि समाज में न चाहते हुए भी गहरे शोक और बड़े डर में जीने के लिए मजबूर हुआ है| युद्ध जैसी भयावह स्थितियों को लाइव करने की जरूरत तो शायद नहीं होनी चाहिए समाज में बावजूद इसके “कारगिल युद्ध के समय जैसे इलैक्ट्रानिक मीडिया ने युद्ध को पहली बार हमारे घरों तक पहुंचा दिया था उसी तरह अब मुम्बई के हमले के वक्त आतंक की तस्वीरें हमारे देश के घर-घर में पहुंची हैं|....देश पर अब तक के इस सबसे बड़े आतंकी हमले को लगातार 60 घंटों तक घर-घर पहुँचाने वाले टीवी चैनलों के लिए भी यह किसी रिएलिटी शो नहीं बल्कि एक खतरनाक रिएलिटी थी|” इस प्रकार के रिएलिटी में कई बार अर्थ-से-अनर्थ होते देखा गया है|
          मीडिया की नजर से ‘लोक की ताकत’ को समझने की कला तो कोई गुरमीत से सीखे| लोक में रामकर लोक की बात करना इन्हें खूब सुहाता है| यह इस पुस्तक का सबसे उजला पक्ष है जिसे बड़े न्यायप्रिय तरीके से लेखक ने जिया है| उनके लेखकीय दृष्टि से बात करने का प्रयास करें तो यह वही लोक है जहाँ भ्रूण हत्याएं होती हैं, जहाँ राजनीतिक षड़यंत्र के शिकार में जनता फांसी जाती है, जहाँ छोटी-छोटी रश्में विवादित रूप धारण करके व्यक्ति की मानसिकता को संकीर्ण बना देती हैं, यह वही लोक है जहाँ एक ही पल में कोई बड़े नायक की पदवी से विभूषित हो जाता है तो कोई अपने बने-बनाए साख को भी गंवा देता है| लेखक ने ‘लोक की ताकत’ को ‘नई रीति, नया सन्देश’, ‘पहनावा और चरित्र’, ‘बड़े लोगों की छोटी बातें’,  ‘जीने का हक़’, ‘हक़ और त्याग’, ‘जीवन में विश्वास’, ‘चक दे हरियाणा’, के साथ कई अन्य स्वतंत्र और प्रेरक लेखों के जरिये देखने, समझने और उनका स्वतंत्र मूल्यांकन करने की कोशिश की है|
          लोक सही अर्थों में सामाजिक रूढ़ियों को आत्मसात करने और उसे पालने-पोषने के वाले प्लेटफ़ॉर्म के रूप में आज भी जाना जाता है| इक्कीसवीं सदी में पहुँचने के बावजूद  मध्यकालीन रीतियाँ अपनी जड़ें मजबूत कर के रखी हैं| यहाँ के निवासियों में कहीं न कहीं अब भी अपने पारंपरिक मूल्य पूज्य हैं| उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले उनकी नजर में या तो मूर्ख होते हैं या फिर बदचलन अथवा आवारा| बदचलन और आवारा की संज्ञा से नई सोच को लेकर आगे बढ़ने वाली लड़कियों को बड़ी जल्दी विभूषित कर देने की परंपरा आज भी भारतीय परिवेश में यथार्थ है जो ‘लोक की ताकत’ न होकर कमजोरी अधिक है| इस कमजोरी का ताकत के रूप में फलने-फूलने की बड़ी वजह लेखक शिक्षा के अभाव को कम और प्रगतिशील सोच के अभाव को अधिक मानता है| उसके अनुसार “प्रगतिशील विचार और साहस के लिए ज्यादा पढ़ा लिखा होना ही जरूरी नहीं है|....शिक्षा चीजों को समझने में आपकी मदद तो कर सकती है लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात आपके अन्दर की सोच है| अगर वह नहीं बदलती तो शिक्षा का भी कोई मतलब नहीं है| दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा प्रणाली पढ़े-लिखों की फ़ौज तो पैदा कर रही है लेकिन उनमे बदलाव की आग जलाने में विफल रही है| वह बदलाव की आग जो अपने छोटे-छोटे गांवों में भी जलती नजर आ जाती है और एक नई उम्मीद बँधाती रहती है| वह आग हमारे स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं जलती? यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है|”
           लोक में प्रगतिशीलता के बजाय पारंपरिकता इस कदर हावी है कि हम पहनावे से कई बार चरित्र का आकलन भी करने लगते हैं और कई बार संस्कृति की दुहाई देते हुए यह तुगलकी फरमान भी जारी करते हुए पाए जाते हैं कि अमुक स्त्री को अमुक तरीके का कपड़ा नहीं पहनना चाहिए| लेखक के मतों पर विचार किया जाय तो वह इस प्रकार के सोच के खिलाफ है| वह कहता है “ये ठीक है कि कुछ परिधान ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध हमारी संस्कृति या परंपरा से रहा है या कुछ परिधानों को विशेष अवसरों पर पहनने की रवायत रही है लेकिन दैनिक या रोजमर्रा के जीवन में परिधानों के चयन का आधार ये नहीं हो सकता और वहां सुविधा और व्यक्तिगत पसंद ही निर्णायक आधार हो सकती है| उस पर नुक्ताचीनी करना और वो भी लिंग के आधार पर, कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता|” लेकिन समाज के कुछ विशेष नियम और कायदे होदे हैं| स्त्री हो या पुरुष उस नियम विशेष के साथ बंधकर चलना सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक मर्यादा के लिए हितकर होता है| कई बार अधिक स्वतंत्रता के आकांक्षी नंगे होकर भी रहना चाहते हैं| वे चाहते हैं कि मर्यादाएं मर्यादाएं टूटें और वे जंगल राज का फायदा उठा सकें| यह भावना न तो वैयक्तिक निजता की दृष्टि से ठीक है और न ही तो सामाजिकता की दृष्टि से उचित| हाँ लेखक की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि “यह कहना बहुत ही मूर्खतापूर्ण होगा कि महिलाओं या लड़कियों के कपड़े पुरुषों को बलात्कार करने के लिए उकसाते हैं| असल में तो उनकी सोच और अपराधी प्रवृत्ति ही इसके लिए जिम्मेदार है|” लेकिन साथ ही यह भी कह देना जरूरी है कि बलात्कार आदि के लिए मात्र पुरुष की कुठाएं या मानसिक, आपराधिक प्रवृत्ति ही दोषी नहीं है महिलाएं भी कहीं न कहीं बराबर की दोषी जरूर हैं|
          इन दिनों के समय में लोक समझदार तो हुआ है, अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को लेकर जागरूक भी हुआ है| वह आशा करने के बजाय अब स्व-इच्छा से प्रेरित होकर प्राप्त करने के लिए उद्यत भी हुआ है; इनकार इस बात से भी बिलकुल नहीं किया जा सकता| ऐसा नहीं है कि इतने बड़े परिवर्तन स्वयमेव हो गए इन दिनों के परिवेश में घटी कई सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं ने लोक को इस परिवर्तन के लिए तैयार भी किया है| मीडिया और टेलीविजन की भूमिका जनसामान्य को परिवर्तन के लिए तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है| देश-समाज में बढ़ रही समस्याओं से अवगत होने में जनता ने अपनी अभिरुचि दिखाना शुरू कर दिया है तो इसके पीछे भी कहीं न कहीं मीडिया का ही हाथ है| राजनीतिक एवं प्रशासनिक महकमें तो पहले से ही अपनी ज्यादतियों एवं बदनाम छवि के कारण चर्चा में रहे हैं लेकिन इन दिनों देश के हालत और हालात कुछ ऐसे रहे कि जनता के सामने अप्रत्याशित रूप से कई घोटाले-दर-घोटाले सामने आए| ‘लोक की ताकत’ में अन्ना हजारे के सन्दर्भ में बोलते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि “हमारे राजनीतिक व प्रशासनिक तंत्र में संवेदनहीनता और सिद्धांतहीनता भी है लेकिन देश का जनमानस सबसे ज्यादा आक्रांत इस तंत्र में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार को लेकर रहा है|” आक्रांत जनता की मानसिक स्थिति का जायजा डॉ० गुरमीत सिंह ने खूब लिया है| लोक के प्रति लेखक का यह विश्वास कहीं गहरा बना हुआ है कि जागरूकता और प्राप्ति की इस स्थिति को वह आने वाले दिनों में भी बनाकर चलने के साथ-साथ उसे और भी समृद्ध करता रहेगा|
           सम्पूर्ण पुस्तक में लेखक का नजरिया समन्वयपूर्ण संस्कृति को हर हाल में बनाए रखने का रहा है| बात चाहे भाषा की हो, समाज का हो या फिर हो लोक-संस्कृति का, यह कोशिश उसके लेखकीय व्यवहार में बराबर बनी रही है कि सात्विक और सद्भावपूर्ण तरीके से अपनी-अपनी भूमिका निभाते रहें| वह नहीं चाहता कि किसी प्रकार की अति समाज-संस्कृति का हिस्सा बनकर रहे| मनुष्य की मनुष्यता तभी अपनी सार्थकता को अभिव्यक्ति कर सकेगी यदि उसमें अतिवाद के लिए कोई स्पेस नहीं होगा| दुर्भाग्य से कुछ संस्कृतियाँ अब भी समाज में यथार्थ हैं जिनकी वजह से सम्पूर्ण मानवीयता तार-तार होती रहती है| युद्ध की संस्कृति उनमें से एक है| ‘कारगिल युद्ध की स्मृति में’ लेखक इस यथार्थ सामाजिक-संस्कृति से जुड़ी युद्ध-संस्कृति का बड़ा दिलचस्प नजारा पेश करता है| इस नज़ारे में जहाँ एक तरफ पत्रकार-जीवन का यथार्थ लेखक जैसे प्रत्यक्ष रिपोर्टर की जिन्दादिली पर सोचने के लिए विवश करता है तो सैनिकों के जीवन का यथार्थ बहुत गहरे में हृदय को वेदना से सराबोर कर जाता है| वहां रहने वाली जनता की क्या स्थिति होती होगी युद्ध से सम्बंधित स्थानों पर इस विषय में तो लेखक स्मृति के साथ चलते हुए कल्पना भी नहीं की जा सकती|

           अंततः यह कहा जा सकता है कि यह पुस्तक भाषा, मीडिया और समाज-संस्कृति का सुन्दर और यथार्थ परिदृश्य उकेरती है| हालांकि कई लेखों में विषयों का दोहराव स्पष्ट नजर आता है जिसे कम करने या सम्पादित किए जाने का कार्य किया भी जा सकता था| भाषा संवादात्मक होने के साथ-साथ व्यावहारिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली जनता की हिंदी है जिसकी सम्प्रेषण की अपनी शक्ति और विशिष्टता है| कई लोगों को पुस्तक की भाषा-सम्प्रेषण की सरलता और सहजता खटक सकती है लेकिन यही ‘हिंदी का पक्ष’, ‘मीडिया का सच’ और ‘लोक की ताकत’ है जो पाठक को बांधकर रखती है| इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक-लेखन के लिए डॉ० गुरमीत सिंह को हृदय से बधाई देता हूँ|

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