
युवा
कथा-दृष्टि में समाज का एक बड़ा भाग धुंधलके में ही सांस ले रहा है और किसी तरीके
से जीता जा रहा है| यह स्थिति नगर हो कि महानगर, गाँव हो कि शहर हर तरफ विद्यमान
है| घर हो कि गाँव, समाज हो कि समुदाय हर किसी में वर्तमान है| ऐसी वर्तमानता में
धर्म, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र, राष्ट्र के नाम पर हममें बिखराव अधिक हुआ है
बनिस्बत संगठित हो कर रहने के| यदि यह मान लिया जाए कि बिखराव ईश्वरीय स्वभाव में
उचित है तो फिर मनुष्यता की क्या परिभाषा हो सकती है इस बात पर विचार करने की
आवश्यकता है| ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ के माध्यम से सत्यनारायण पटेल की चिंता
इसी मनुष्यता की चिंता है जो बार-बार उन्हें ही नहीं इस संग्रह के माध्यम से हमें
भी अपने समकालीन प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों और मुद्दों से जूझने के लिए विवश करती
है| आलोच्य संग्रह में ‘पर पाज़ेब न भीगे’, ‘घट्टीवाली माई की पुलिया’, ‘एक था
चिका एक थी चिकी’, ‘ठग’, ‘न्याय’, ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ के रूप में कुल
छः कहानियां हैं| अभिव्यक्ति के लिए कथाकार किसी ख़ास प्रायोजित मानसिकता से प्रभाव
न ग्रहण कर सदियों से चली आ रही कथाओं को ही कहने का प्रयास करता है, “किस्सा उसी
किसी ज़माने में शुरू हुआ था यह| जाने कितने लोगों ने सुना-सुनाया| समय बदला| लोग
बदले| कहन का ढंग बदला| तो किस्से में भी आया ही होगा कुछ बदलाव|” इन्हीं ‘कुछ
बदलाव’ को आधार बनाकर वह अपने कथा-कहन की जमीन तैयार करता है और उसे समकालीन
विसंगतियों से खुराक लेकर उर्वर बनाता है|
समकालीन
परिवेश की यथार्थता को देखा जाए तो निश्चित ही यहाँ विश्वास का दमन हुआ है|
स्वार्थता और धोखे की नीयति मजबूत हुई है| जनसामान्य ठगा गया है और समाज का रक्षक
ही भक्षक बनकर हमारे सामने आया है| लोक में वर्तमान साधारण जनता जिन कार्यों को
स्नेह और प्रेम के माध्यम से कर दिया करती थी उसे आज बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ भी नहीं कर
पा रही हैं| जो कार्य उनके निहत्थे और साधन विहीन हाथों द्वारा हो जाया करता था आज
वही कार्य तमाम संसाधनों के होते हुए भी नहीं पूरे हो पा रहे हैं और यदि हो भी रहे
हैं तो असामयिक दुर्घटनाओं को जन्म मात्र देने के लिए| “पर पाज़ेब न बाजे” में लेखक
का यह कहना ““बाँध तो दुनिया भर की नदियों पर अब भी खूब बन रहे हैं, पर उन्हें
प्रेमी बंजारे नहीं, कम्पनियाँ बना रही हैं| अब पाजेब और उसकी घूंघरी के न भीगने
की बात छोड़ो, घर-खेत और गांव तक बचाना मुश्किल हो रहा है| वाकई समय बदल रहा| विकास
की गंगा बह रही दिन-रात| डूब रहा सुख-चैन|” मनुष्य की धंधेबाजी रवैये को उघाड़कर कर
जनता के सम्मुख रखना है|
आलोच्य
संग्रह को आधार मानकर कहा जाए तो “सुख-चैन” के डूबने की एक बड़ी वजह यह भी है कि
मनुष्य की जरूरत की सभी चीजों को व्यापार और लाभ की दृष्टि से देखा जाने लगा है|
रिश्ते और अपनत्व तक की भावना को व्यापार-मंडी में लाकर रख दिया गया है| सच यह भी
है कि व्यापार और लाभ की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा ने जन-जमीन को एक-दूसरे की पहुँच से
दूर किया है| प्रेम और संवाद जैसी प्रक्रियाएं बाधित हुई हैं| समर्पण और सहयोग
जैसी प्रवृत्ति पर बट्टा लगा है| “ठग” की प्रवृत्ति में ऐसे अमानवीय चरित्र की उपज
समाज में दिनोंदिन हो रही है जो अपने फायदे के लिए कुछ भी दाँव पर लगाने के लिए
तैयार हैं| “ये सेठ, ये व्यापारी और ये सब के सब बहुत बड़े और क्रूर ठग हैं| ये
गाँव के भोले-भाले लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी से ठगते चले आए हैं| इनके मन में कोई दया
भाव नी है| एक आना की चीज के दस मोहरें लेते हैं| गरीब का गला काटते हैं| उसे
रोज़-रोज़ ठगते हैं| कभी-कभी तो राजाओं, मंत्रियों के साथ सांठ-गाँठ कर गाँव के गाँव
और देश के देश ठग लेते हैं|” यह इनके ठगी का ही नतीजा है कि जिन गाँवों में पानी,
हवा, लकड़ी जैसी सुविधाएँ मुफ्त में सुलभ हो जाया करती थीं आज वे सब धीरे-धीरे स्वप्न
होती जा रही हैं| जरूरत यह भी है कि हर एक स्थिति को नफे और मुनाफे की दृष्टि से
ही न देखकर उपलब्धता की नीयति से भी परखा जाए| “आप नफे के लालच में किसानों के
घर-बार, खेती-बाड़ी बिकवा दो| लकड़ी, कोयला, पानी, नदी, जंगल और हवा बेचने लगो तो
सेठ, यह लालच कहाँ जा कर रुकेगा—इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है|
कथाकार
समकालीन परिस्थितियों से गहरे में व्यथित है| वह शोषितों के समर्थन में खड़े होकर
शोषकों का प्रतिरोध करता है| वह पाता है कि इस विसंगति भरे दौर में जहाँ अपनी सारी
कोशिशें एक-दूसरे की संवेदनाएं जोड़ने के लिए प्रयुक्त होनी चाहिए, वहां
मनुष्य-मनुष्य को खा जाने के लिए तत्पर हो उठा है| ‘न्याय’ की आशा-आकांक्षा संजोए
आमिर और फ़हीम जैसे हज़ारों-हज़ारों युवा स्वप्नों को मरते और जीवन को पंगु होते
देखते हैं| जवानी को लाचारी में तपाने के लिए अभिशप्त जैसे ये बनाए गये होते हैं, उद्यत
होते हैं| ऐसे समर्थ पर मानवीय न्याय द्वारा बनाए गये दीन-हीन पात्र “न घर के न
घाट के” जैसी स्थिति के शिकार होते हैं| आतंक और नक्सल के नाम पर जीवन-तर्पण करने
के लिए बनाए गये ऐसे पात्र इसी लोक के हैं, यह आखिर हमारे सामाजिक बौद्धिकों को
क्यों नहीं समझ आता? क्यों नहीं समझ आता कि पूरा उम्र जेल में गुजारने के बाद वे
उसी समाज में उपस्थित हो भी सकेंगे जहाँ खेले-कूदे-पले और बड़े हुए हैं? फ़हीम की यह
दुविधा और एक हद तक इच्छा भी, निश्चित ही आँख खोलने वाली है “अगर छूटा तो ताऊजी के
यहाँ नहीं जाऊंगा| अपने वतन जाऊंगा, पर अपने शहर, अपने घर कभी नहीं जाऊँगा| मैं
कहाँ जाऊंगा—क्या किसी आतंकी समूह में शरीक हो जाऊं! क्या अल्लाह की राह में शहीद
हो जाऊं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा| तो फिर क्या करूँगा?” ऐसी दुविधा
और असमंजस से भरा भविष्य यदि हमारे समय में वर्तमान है तो फिर यह सोचने की जरूरत
है कि क्या वाकई हम मानवीय समाज में वर्तमान हैं? क्या वाकई इस संसार (देश) का
सांस्कृतिक आदर्श व्यावहारिक जीवन में यथार्थ है?
एक
तरफ व्यक्ति के लिए प्राणों को सुरक्षित रखना चुनौती दिखाई देता है दूसरी तरफ अन्य
को स्व-संग्रह और स्व-संरक्षण महत्त्वपूर्ण लगता है| ऐसी स्वार्थ मानसिकताएं
समन्वयशील परिवेश के समर्थन में लोगों को ऐसा सोचने के लिए भी लगभग बाधित करती है,
कि अगले की भी कुछ मजबूरियाँ हो सकती हैं| संस्कृति-रक्षकों और धर्म-नियंताओं के
लिए सभी प्रकार की समस्याएँ वहीं यथार्थ दिखाई देती हैं जहाँ जीवन ठीक ढर्रे पर
चलते हुए परिलक्षित होता है| इन दिनों ‘लव जिहाद’, ‘प्रेम-पाप’ के केन्द्र में कुछ
अमानवीय परिदृश्य ऐसा ही उभर कर सामने आ रहा है| ऐसे परिदृश्य पर खीझ तब उठती है
जब संस्कृति और धर्म का दुहाई देने वाले स्वयं व्यभिचार और विलासिता के मुहाने पर
औंधे मुंह गिरे पाए जाते हैं| “एक था चिका एक थी चिकी” में कथाकार इस बात कुछ इस
तरह स्पष्ट करता है—“गुनाह तो नहीं था चिका-चिकी का प्रेम करना| एक ही बबूल पर एक
ही घोसले में रहना| पर उससे रश्क करने वाले अड़ोस-पड़ोस जे चिके, कई छिछोरे और
छिनाले टाइप के चिके, ऐसा अहसास कराते मानो वे गुनाह कर रहे हों| वे गंदे और भद्दे
तानों से भी नहीं चूकते और लार भी टपकाते| वे चित और पट दोनों चाहते थे|” कहानी का
यह संवाद अपने सम्पूर्ण अर्थों में उन भारतीय गांवों की कहानी है जहाँ प्रेमिकाओं
की चाहत में अपराध बढ़ रहे हैं| प्रेमी और प्रेमिकाओं की गिनती में बलात्कार और
छेड़छाड़ परवान चढ़ रहे हैं| इस यथार्थ स्थिति पर ध्यान दिए बगैर हम आज भी इस विषय को
चर्चा का सबसे वर्जित विषय माने हुए हैं|
आश्चर्य
का विषय ये भी है कि मानवता सबसे मातहत यही पर हुई है| संस्कृति सबसे अधिक पराजित
यहीं पर हुई है| यहीं पर धर्म अधर्मता का वरण करता हुआ दिखाई दिया है| मनुष्य की
मनुष्यता यहीं पंगु हुई है| जिस स्त्री को देवी की उपमा से विभूषित किया जाता है
उसी को वेश्या और रंडी का खिताब यहीं दिया जाता है| यहीं सरेआम प्रेमी युगलों को
नंगा कर के घुमाया जाता है| सर मुडवाकर वीडियो बनाया जाता है| ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़
इब्लीस’ की पात्र प्रकृति द्वारा यह ख्याल मन में आना “देश और दुनिया में कई जगहों
पर औरतें ख़रीदी-बेचीं जाती हैं| खुद शौहर द्वारा शरीके-हयात के साथ संसर्ग का
वीडियो बनाना, सास ससुर से धन की मांग करना, पैसा न देने पर फुटेज को नेट पर डालने
की धमकी देना| खुद शौहर द्वारा जिना का धंधा करवाना, बुर्का, पोर्न फिल्म व्यवसाय
और अभी अभी मिश्र की संसद में पेश बिल फेयरवेल इंटरकोर्स(पत्नी के लाश के साथ
सम्भोग करने के अधिकार की मांग)”—औरतों की सामयिक सामाजिक विसंगतियों को खोल कर रख
देना है| यह भी समझ से परे है कि यदि यह सब इस समाज का ही हिस्सा है तो फिर
सामाजिक बदलाव के लिए रास्ते की तलाश क्यों संभव नहीं? धार्मिक मान्यताओं एवं
सामाजिक हठधर्मिता पर बात करने से कतराया क्यों जा रहा है? क्या सभी अव्यवस्थाओं
के लिए स्त्री ही दोषी है जो उस पर पत्थर और गालियों की बौछारें की जाती हैं? “अगर स्टोनिंग ही करना है तो फिर स्त्री पर
क्यों? व्यवस्था पर क्यों नहीं?” ऐसे मुद्दे पर जो बात करने के लिए हुंकार भरता है
ऐसे युवाओं को विमर्श की सार्थक जमीन मुहैया न कराकर कभी संप्रदाय के लिए तो कभी
प्रेम-विलास के नाटकीय प्रारूप को लेकर उन्हें कठघरे में खड़ा किया गया है|
मनुष्यता
के लिए संवाद को आवश्यक माना गया है और संवाद के लिए खुले परिवेश का होना बहुत
जरूरी है| ऐसा परिवेश, जहाँ समानधर्मा लोग खुलकर अपनी बात रख सकें| एक दूसरे की
विचारधारा से जुड़कर समान-संस्कृति का आदान-प्रदान कर सकें| यह विडंबना इस देश की
यथावत है कि संवाद की प्रत्येक प्रक्रिया के मध्य ‘धर्म’ को लाकर खड़ा कर दिया जाता
है| उसकी पवित्रता को बचाए रखने के लिए हर उस साहस और माध्यम को नेश्तनाबूत करने का
षड्यंत्र किया जाता है, जो मानवीयता के पक्ष में होती है| जहाँ ढोंग-ढकोसले को
त्यागकर वैज्ञानिक दृष्टि के विमर्श की आवश्यकता महसूस होती हैं वहां ऐसे धार्मिक
नियंताओं के ये तर्क हर जगह सुरक्षा-कवच के रूप में आजमाए जाते हैं “दुनिया में जो
कुछ भी भला-बुरा हुआ और होगा—वह अल्लाह के फज़ल से हुआ और होगा| कुछ भी होने-न होने
में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था का कोई दोष नहीं, क्योंकि वह व्यवस्था
भी तो अल्लाह के फ़ज़ल से ही कायम है|” यानी यह भी कि अल्लाह ने, ईश्वर ने, भगवान्
ने, गुरु ने जो कुछ भी कहा-अनकहा हमारे परिवेश में छोड़ा है वही सब कुछ यथार्थ और
आदर्श है? सृष्टि का अंतिम वाक्य है? उसके अनंतर कुछ भी सोचा और विचारा नहीं जा
सकता? उसके हानि-लाभ, घात-प्रतिघात पर कोई विमर्श कोई बात नहीं हो सकती| यहाँ
कथाकार के ये प्रश्न कितने स्वाभाविक हो गये हैं—“क्यों नहीं हो सकती बात? जब
ब्रह्माण्ड में प्रकट-अप्रकट हर चीज पर की जा सकती है बात, तो फिर किसी फिल्म,
किताब, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहिब, गीता, रामायण या फिर हो तथाकथित पवित्र
पुस्तक...उस पर क्यों नहीं की जा सकती बात? जिस पर बात न हो, फिर उसका जीवन में
दखल भी क्यों न हो?”
जीवन
में तो अनुकरणीय वही होगा जिस पर मनुष्य का विश्वास होगा| विश्वास उसी पर होगा जिस
पर खुला संवाद होगा| संवाद की प्रक्रिया पर बात करना देशद्रोही होना है, भक्त होना
है, चरित्रहीन होना है इन सब के साथ-साथ आदिकालीन मनुष्य के रूप में परिभाषित होते
हुए पशुवत प्रमाणित होना है| प्रमाणिकता के नाम पर आज चरित्रहीनता का ठप्पा बड़ी
जल्दी से लगा दिया जाता है परिवेश में| “आज जो राह इंसान को तरक्की और गुमनामी की
मंजिल पर पहुंचाती है, जिसमें रोजी-रोटी छीनती और मिलती है, जिससे जीडीपी का ग्राफ
उछलता और गिरता है, जिसके दम पर वाल स्ट्रीट का सांड डुकराता और घिघियाता है, जिस व्यवस्था में
चरित्र की रक्षा करना संभव न रह गया है, उससे ज्यादा चरित्रहीन कौन हो सकता है?”
यह वही व्यवस्था है जो जाती और संप्रदाय के नाम पर युवा मानसिकता को दमित करके
लांछित करती है| यह वही व्यवस्था है जहाँ जन्म लेने से पहले ही व्यक्ति अपने भाग्य
और जाति का सर्टिफिकेट लेकर अवतरित होता है| यह वही व्यवस्था जहाँ की सफलता भाई,
परिवार या समाज की सफलता न मानकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, हिन्दू, मुस्लिम,
सिक्ख, ईसाई की सफलता मानी जाती है| “अब कोई हिन्दू को तरक्कीपसंद हिन्दू, ईसाई को
तरक्कीपसंद ईसाई, और मुस्लिम को तरक्कीपसंद मुस्लिम समझता रहे तो किसी का क्या
दोष? भई फंडा क्लीयर होना चाहिए—इंसान या तो तरक्कीपसंद है या नहीं| अगर
तरक्कीपसंद इंसान है तो फिर सिक्ख, ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम जैसा कुछ नहीं|” यह
समझ बरकरार रखना आज के युवाओं की ज़िम्मेदारी है|
ख़ुशी
की बात है कि कथाकारों के पास चिंतन की अपनी जमीन और अपनी दृष्टि है जिसका प्रयोग
वे प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने में खूब कर रहे हैं| समन्वयशील संस्कृति
को फलने-फूलने के लिए खुला आकाश और उर्वर भूमि मुहैया करा रहे हैं| कहना होगा
सत्यनारायण पटेल के पास एक व्यापक सामाजिक अनुभव है जिसे वे अपने लोक से ग्रहण
करते हुए वैशिवक विस्तार देते हैं| कथा-कहन में ‘कथ्य और शिल्प की निरंतरता को
बनाए रखना यदि तलवार की धार पर चलने के बराबर’ होता है सत्य उस पर न मात्र चले हैं
अपितु बड़ी तत्परता से दौड़ लगाए हैं| देशकाल वातावरण के निर्माण में प्राकृतिक
उपादानों के साथ-साथ सामाजिक व्यवहारों का प्रयोग करना इन्हें सुहाता तो है लेकिन
यथार्थ को कुछ इस तरह दृष्टिगत करते हुए बढ़ते हैं जैसे उनके पात्र हमारे सम्मुख
आकर हमसे संवाद कर रहे हों| इनके कहन की एक विशिष्टता यह भी है कि इनके
संवाद-योजना में भाषिक उलझाव न होकर एक प्रवाह दिखाई देता है| इसका एक कारण तो
ग्रामीण परिवेश के पात्रों को कथाभूमि का आधार बनाना हो ही सकता है, स्वयं उस
पृष्ठभूमि से उठकर आना भी है|
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