युद्ध
क्या है? इस पर लम्बे समय से या यूं कहें कि मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से चर्चाएँ
होती आई हैं, तो गलत न होगा| बावजूद इसके
आज भी यह एक बड़े विमर्श का विषय हो सकता है और है भी| शांति क्यों जरूरी है?
विमर्श इस पर भी हो सकता है और आज भी हो रहा है क्योंकि हर युद्ध के बाद शांति की
कोशिशें होती हैं| युद्ध होने या करने के बाद मनुष्य के मस्तिष्क का खुरापात शांत
हो भी जाता है| फिर, परिवेश शांत और समृद्ध रहे ऐसा कौन नहीं चाहेगा? इन सब के बाद
भी यह एक बड़ा सच है कि युद्ध और शांति के बीच सम्पूर्ण मानवीय सभ्यता अंतिम साँसें
ले रही होती है| गज़लकार माधव कौशिक यदि यह कहते हैं कि “ग़लत-सही के बीच हुई थी
शुरू कभी/ सदियों से वह जंग अभी तक जारी है” तो यह युद्ध और शांति के सम्बन्ध
में उनका संकेत था| युद्ध जरूरी भी है और न हो युद्ध किसी के बीच, ऐसी अपेक्षा भी
रहती है| जब भी हम युद्ध की उपयोगिता और अनुपयोगिता पर बात करें हमें उसके
पक्ष-विपक्ष दोनों विषयों पर अपना ध्यान बनाए रखना चाहिए|

आदमी
जब खड़ा होता है किसी के सामने तो आदमी के ही| युद्ध और युद्ध-संस्कृति के तह तक
पहुँच कर कवि दिविक रमेश पाते हैं कि “युद्ध--/ ज़मीन,/ आकाश/ या समुद्र का नहीं/ आदमी का है।/ हाँ, युद्ध/
ताक़त और अधिकार से/ अधिकार और शक्ति का है।/ युद्ध/ एक पहचान है/ ऎसी पहचान/ जो
कभी हिरोशिमा/ और कभी वियतनाम है,/ किन्तु जिसे/ झुठलाया
जाता है बार-बार|युद्ध/ एक प्रक्रिया है/ किसी के चेहरे से नकाब उतारने की/
हालाँकि वह चेहरा/ रहस्यमय/ ख़ूब ढोंग रचता है.../ ख़ूब जाना-पहचाना है.../ कभी
हिटलर/ कभी अमरीका/ और कभी गोरा है/ या फिर/ इसी घराने का बिगड़ैल छोरा है|”
प्रवृत्ति विशेष से तय होते हुए युद्ध कैसे शक्ति-प्रदर्शन का रूप लेता है और किस
तरह राष्ट्रों और राष्ट्राध्यक्षों से होते हुए बिगडैल छोरा तक प्रसारित होता है,
जिस दिन हम यह समझ लेंगे युद्ध की प्रकृति और स्वरूप समझ में आ जाएगी| युद्ध गाँव
से लेकर शहर और शहर से लेकर महानगर तक की मानसिकता में समाहित हो चुका है| व्यक्ति
न चाहते हुए भी इसकी गिरफ्त में आ जाता है|
समय
ऐसे भयानक दौर से गुजर रहा है कि हर कोई एक-दूसरे को मार देना चाहता है| शिकार-खोज
में हथियार उठाए प्रत्येक व्यक्ति घूम रह है; बचना कैसे है यह आपकी योग्यता पर
निर्भर करता है| वह जो मारने निकला है, बुद्धि-विवेक गिरवी रखकर निकला है| यही वजह
है कि सहनशीलता की थोड़ी भी गुंजाईस लोगों में नहीं बची है| बचे भी क्यों आखिर, कमतर होने का खतरा जो रहता है समाज में? व्यक्ति, परिवार, गाँव, क्षेत्र,
देश, राष्ट्र तक इसी मानसिकता के वशीभूत होकर घूम रहे हैं| कब किसको पायें और मसक
दें|
क्यों
न वे नष्ट हो जाएं, क्यों न उन्हीं के सामने उनके परिवार और सम्बन्धी की कत्लेआम
हो जाए, परिवेश लूला-लंगड़ा हो जाए, उन्हें लड़ना है तो वे लड़ेंगे| यह उनका शौक नहीं
पेशा है| व्यापार करने वाला जिस तरीके से अपने ग्राहकों के प्रति ‘ईमानदारी’ को ताक
पर रखकर चलता है उसी तरह लड़ाई का शौक़ीन हर व्यक्ति नीति, नियम और समाज-धर्म को
हाशिये पर रखकर चलता है| इस तरह का चलना एक तरह के पागलपन में शामिल होना है|
युद्ध क्या है एक पागलपन ही तो है| जानते सभी हैं इसके परिणाम को लेकिन शामिल भी
सभी होते हैं किसी न किसी रूप में| पश्चाताप तब करते हैं जब पानी सिर से ऊपर गुजर
चुका होता है|
कविता
का समकाल युद्ध की कृति-प्रकृति से अच्छी तरह परिचित है| दिन-प्रतिदिन कवियों के
सामने ऐसी घटनाएँ घटित हो रही हैं| होती हैं| परिवेश ईर्ष्या और विद्वेष की आग में
जल रहा होता है| जलता रहता है| हम-आप जहाँ युद्ध के पक्ष-विपक्ष पर मुग्ध और निराश
हो रहे होते हैं, वहीं एक कवि सबकी दुआ की सलामती मांग रहा होता है| पक्ष तो खैर
उसका अपना होता ही है विपक्ष भी उसका अपना होता है| जीत के उल्लास में हार का गम सबसे अधिक उसे ही होता है
क्योंकि उसे पता होता है “युद्ध खेल नहीं होते/ युद्ध केवल युद्ध होते हैं/
युद्ध केवल युद्ध नहीं होते/ हार-जीत पर ख़त्म नहीं होते|” (राजवन्ती मान) युद्ध
से पीढ़ियाँ तबाह हो जाती हैं और भविष्य गहरे अंधकार के हाथों गिरवी रख दिया जाता
है| कवयित्री राजवन्तीमान का मानना है कि “जिनकी छातियों के लाल युद्ध में खपते
हैं/ वे जानते हैं युद्ध क्या होते हैं/ वहां पीढ़ियों तक त्यौहार आना भूल जाते
हैं|” परिवेश बंजर हो जाता है| समाज अपना अस्तित्व खो देता है| सभी प्रकार की
नैतिकताएं कोमा में चली जाती हैं|
युद्ध
जीवित काल-सा अट्टहास करता है| यह अट्टहास मनुष्यता के विकास पर एक प्रश्नचिह्न
है| यह अट्टहास विकसित संस्कृति को चिढ़ाता है और हमारी विनष्ट होती सामासिक
संस्कृति पर विचार करने के लिए विवश करता है| विचार प्रक्रिया में माधव कौशिक जैसे
समर्थ कवि युद्ध-संस्कृति को लेकर स्वयं को असमंजस में पाते हैं| हैरान से होते
हुए वे कहते हैं कि “क्या करें/ हर युद्ध का परिणाम/ बस विध्वंस ही है/ युद्ध
चाहे जब भी हो/ जैसे भी हो/ चाहे जिसके मध्य हो/ चाहे जो जीते या हारे/ युद्ध के
पश्चात चीखें/ और आहें/ करुणा की पुकारें/ सारी धरती इक बड़ा/ मरघट हो जैसे/ पेड़ों
की साखों से लिपटे/ जाने कितने/ सैनिकों के शव/ रातभर दुःस्वप्न बनकर काटते हैं/
और विधवा नारियों की/ कांपती आवाज सुनकर/ ऐसा लगता है/ हमारे हाथ/ शोणित से सने
है|” हर सम्वेदनशील व्यक्ति को ऐसा ही
लगता है| यही युद्ध की सच्चाई है|
युद्ध प्रायः
राजाओं और सैनिकों के मध्य होता है| यह सत्तासीनों द्वारा पोषित और सत्ता की चाहत
में जीने वाले षड्यंत्रकारियों द्वारा निर्देशित होता है| इन्हें कुछ हो ऐसा
प्रश्न ही नहीं उठता| ऐसे में प्रश्न उनका है जो किसी भी रूप में युद्ध-संस्कृति
के पक्ष में नहीं हैं| यह प्रश्न उनका है जो न तो युद्ध में भागीदार होते हैं और न
ही तो उनका इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी प्रकार का हस्तक्षेप होता है,
बावजूद इसके सबसे अधिक सजा उन्हें ही मिलती है और सबसे अधिक दुखद परिणाम उन्हें ही
भुगतने होते हैं| यहाँ कवि नीरज नीर की कविता के ये अंश यदि देखें तो मेरे कहने का
भाव कुछ अधिक स्पष्ट हो जाएगा- “युद्ध का अर्थ/ मत पूछो/ राजा से/ और न ही
सेनापति या सिपाही से/ युद्ध का अर्थ पूछो/ उस आदमी से/ जो रहता है/ सरहद पर बसे
गाँव में/ तोप के गोले का वजन/ मत पूछो तोपची से/ और न तोप बनाने वाले से/ गोले का
वजन पूछो/ उस आदमी से/ जिसके घर पर गिरा है/ तोप का गोला|”
इस कविता की भीतरी आवाज को पहचानें तो राजा का
कार्य है अपनी सत्ता को बचाए रखना| सत्ता बची रहेगी तभी उसका अस्तित्व बचा रहेगा|
सीमाओं की रक्षा के लिए सेना और सेनापतियों की तैनाती की जाती है तो उसका भी धर्म
है युद्ध में लड़ते हुए दिए गए निर्देशों की अनुपालना करना| जो हथियार बनाते हैं वे
व्यापारी होते हैं| युद्ध से होने वाली विध्वंश उनके मन-मस्तिष्क में न होकर
हानि-लाभ का गुणा-गणित होता है| आम आदमी न तो राजा होता है और न ही तो सैनिक| गोली
और बारूद कब कौन उस पर चला रहा है, यह भी उसको नहीं पता होता| सच यह भी है कि
युद्ध होने की स्थिति में हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते जो करने की शक्ति में
होते हैं वे युद्ध को छोड़ कर कुछ नहीं चाहते|
हमारे समय के
कवियों को युद्ध की इस प्रकृति और ऐसी प्रवृत्ति से नफरत है| वे न तो बारूदों से
प्रेम करते हैं और न ही तो बारूद बनाने वाले को अपनी दुनिया में कोई स्थान देना
चाहते हैं| घृणा और नफ़रत की दुनिया को तजकर वे प्रेम का बीज बोना चाहते हैं और
सामंजस्य का फसल तैयार करते हुए सौहार्द्र का वृक्ष तैयार करना चाहते हैं| कवि
अमित मनोज मानते हैं कि “यह वक्त हथियारों को फैंकने का है दोस्त/ और रात के
अँधेरे से बाहर आ/ ज़मीन में प्रेम के अंकुर उगाने का/ कि एक दिन फूटें कल्ले
हरे-हरे सबके दिलों में/ हो कल्पना एक सुन्दर दुनिया फिर से बसाने की/ और घर लौटने
के रास्ते हों बिलकुल सुरक्षित|” सुरक्षा के भाव जैसे-जैसे हममें पुख्ता होते
जाएंगे घृणा का साम्राज्य ढहता जाएगा और मनुष्य एक-दूसरे से जुड़ता जाएगा|
हम कुछ भी न करें
लेकिन नफ़रत की दीवारों को ढहाने के लिए सम्वेदना की भावभूमि को उर्वर बनाने का
श्रम करना ही होगा| कवि रवीन्द्र के दास की दृष्टि में इसके लिए यह जरूरी नहीं कि
लड़ने वाले के स्तर पर आकर लड़ाई ही की जाए| जो जरूरी है वह ये कि “आओ...हम तुम
नई दुनिया बनाएँ/ कुछ पुराने हर्फ़ों को मिटाएँ/ तुम उन्हें मिटाओ, जो मुझे खटकते
हों/ मैं उन्हें मिटाऊँ, जो तुम्हें खटकते हों/ इतना ही बस चलता है कि/ कोई अपनी
डायरी का पन्ना/ अपनी मर्जी से लिखे” और जिस दिन अपनी मर्जी से लिखने, समझने
और सोचने की प्रक्रिया हर इंसान के अन्दर घर कर जाएगी उसी दिन युद्ध जैसी
स्थितियां अप्रासंगिक होकर रह जाएंगी| युद्ध की अप्रासंगिकता मनुष्य के होने और
मनुष्यता के जिन्दा रहने का प्रमाण हैं| जिस परिवेश में युद्ध के स्थान पर शांति,
घृणा के स्थान पर प्रेम, ईर्ष्या के स्थान पर सामंजस्यता होगी वहां का परिवेश और
वहां का समाज सही अर्थों में विकसित मनुष्यता का परिवेश और समाज होगा| कवि प्रभात मिलिंद की भावनाओं का क़द्र करें तो
विश्वास मानिए-
“इसी
रेत और मिट्टी में एक रोज़
फिर
से बसेंगे
तंबुओं
के जगमग और धड़कते डेरे
बच्चे
बेफ़िक्र खेलेंगे नींद में परियों के साथ
और
भागते-फिरेंगे अपने मेमनों के पीछे
औरतें
पकाएंगी खुशबूदार मुर्ग रिज़ला
और
खुबानी मकलुबा मेहमानों की ख़िदमत में
सर्दियों
की रात काम से थके लौटे मर्द
अलाव
जलाए बैठ कर गाएंगे अपने पसंद के गाने
बुज़ुक
और रबाब की दिलफरेब धुनों पर
एक
दिन लौट आएंगे कबूतरों के परदेशी झुंड
बचे
हुए गुम्बदों और मीनारों पर ...
फिर
से अपने-अपने बसेरों में|”
भले
ही ये भाव कवि के स्वप्न हों, भले ही कोई इसे कोरी कल्पना कहे या कहने की कोशिश
करे लेकिन सार्थक विचारों और समर्थ वैचारिकता की सक्रियता में ऐसा होना सम्भव है|
जीवन संघर्षों की मर्यादा पर जिया जाता है| मर्यादाओं के निर्वहन में कई बार उलझाव
आता है| संघर्ष में अडचनें आती हैं| युद्धों के माध्यम से बार-बार जीवन-प्रक्रिया
को बाधित करने की कोशिश की गयी है लेकिन जीने के तरीके उससे कहीं अधिक प्रौढ़ रूप में
हमें प्राप्त हुए हैं| हर युद्ध के बाद शांति की सम्भावनाओं में वृद्धि होती है|
कई बार शांति की सम्भावनाएं भी युद्ध की भूमिका तैयार करती हैं| विचारणीय यह भी है
कि युद्ध को चाहने वाला तो एक तरह का खतरा होता ही है लेकिन कभी-कभी शांति का
अपेक्षी भी युद्ध की अग्नि को हवा देता है| हवा का ये रूप मानवता की समृद्धि के
लिए जरूरी होता है| जिस दिन इस जरूरत को पहचानने की कोशिश की जाएगी उस दिन मनुष्य
एक होंगे| जहाँ मनुष्यों की एकता होगी वहां युद्ध कोई विकल्प नहीं होगा| फ़िलहाल
युद्ध की जिन आशंकाओं के बीच जिस समय में हम जी रहे हैं उस समय के परिप्रेक्ष्य
में कवि प्रमोद बेड़िया का यह कहना कितना सार्थक है कि “यह भयंकर समय है/ यह मनुष्य
का समय नहीं है/ अपराधियों ठगों जुआरियों/ और व्यापारियों की/ एकता का समय है/ अब
मनुष्य की एकता की जरूरत है|” यह जरूरत सही अर्थों में युद्ध की संस्कृति पर विराम
लगाने और शांति की दुनिया को समृद्ध करने की जरूरत है|
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