चण्डीगढ़
में आकर्षण है| यह शहर एक ऐसा शहर है जो हर समय जवान दिखाई देता है| रोमानियत यहाँ
की खूबसूरती है तो रंग-मिजाजी प्रवृत्ति| एक बार आप किसी सेक्टर से गुजरिये तो
बार-बार गुजरने का मन करने लगता है| हर सेक्टर का अपना बाज़ार है और हर सेक्टर की
अपनी नीति| राजनीति तो खैर अंदरखाने हर हृदय में मौजूद दिखाई देगी यहाँ| एक बार
गिरफ्त में आए तो तभी छूटेंगे, जब या तो लुट चुके होंगे या टूट चुके होंगे|
इस
शहर की सड़कें खूबसूरत हैं| आपके कदम दो पग चले नहीं कि पूरा रास्ता पैदल ही तय कर
लेना चाहेंगे| सड़कों के दोनों तरफ घने और छायादार वृक्ष सुन्दर बयार के झोंके देते
रहते हैं| मदमस्त कर देने वाली ख़ूबसूरती यहाँ के रग-रग में बसी हुई है| सड़कों से
लेकर बाज़ार तक का सफ़र किसी अजूबे से कम नहीं है|
कैब
की व्यवस्था हर शहर से सस्ती है| ऊबर है तो ओला भी है| इनके द्वारा दिए जाने वाले
ऑफर अक्सर यात्रा करने के लिए विवश करते रहते हैं| मजे की बात यह है कि इस विवशता
में आप हताश न होकर, गर्व महसूस करते रहते हैं| हलांकि इस गर्व में ठगे जाने का
भाव स्थाई रहता है| इतना, कि जेब में रखे गए पैसे कब खर्च हो गए, यह घर जाने के
बाद ही पता चलता है|
बसों
की व्यवस्था अच्छी है इस शहर में, बावजूद इसके यहाँ रिक्शा, ई-रिक्शा और ऑटो
रिक्शा तीनों की उपलब्धता बड़ी मात्रा में है| रिक्शा वाले देखने में गरीब हैं
लेकिन हैसियत किसी से कम नहीं है| जितना एक बार बोल दिए उससे सस्ते में जाना
इन्हें बिलकुल पसंद नहीं| ऑटो रिक्शा वालों की अपनी नीति और राजनीति है| बाहर से
आने वाले लोग यदि इनके बाज़ार-भाव में उलझे तो यह भयानक अनुभव हो सकता है| इसलिए जब
भी आएं तो बसों से यात्रा करने का प्लान बनाएं, यह कहीं ज्यादा उचित होगा|
यह
शहर स्वभावतः व्यावहारिक है| अमीर हो कि गरीब सबके लिए यहाँ पूरा स्पेस है| गरीबों
के लिए जहाँ सेल लगते हैं तो अमीरों के लिए शोरूम बने हुए हैं| यह बात और है कि
अक्सर अमीरों को सेल लगे दुकानों पर सस्ते सामान खोजते देखा जा सकता है और गरीबों
को शोरूमों पर मोल-भाव करते हुए| हालांकि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कम दाम
में सब्जियों और फलों को देखते हुए कई बार अमीर लोग सड़े-गले भी खरीद लेते हैं|
जब
मैं मण्डियों की बात कर रहा हूँ तो हर तरह की मंडियां यहाँ सजती हैं| साजो-सामान
से लेकर जिस्म-बाज़ार तक के अलग-अलग अड्डे हैं| तैंतालीस बस अड्डे पर उतरें या
सत्रह बस अड्डे पर जिस्म के दलाल आपको मिलना शुरू हो जाएंगे| लगभग 80 प्रतिशत ऑटो
और रिक्शा वाले इस बाज़ार में सक्रिय हैं| सस्ते से सस्ते रूम की उपलब्धता के बाद
सबसे अधिक आकर्षण स्त्रियों की उपलब्धता पर दी जाती है|
कभी
भी ऑटो वाले आपसे सम्वाद करते नजर आएं तो यह जरूर पूछें उनसे कि-सुविधा क्या
होगी...? वे सुविधाओं की गिनती में या तो इशारे करेंगे प्रतीकों में या फिर सरेआम
बताएंगे| उनके बताने में आत्मविश्वास होता है| इतना, कि आप फंस भी सकते हैं और
निकल भी सकते हैं| निकलने के कम फंसने के अवसर अधिक होते हैं|
यह
शहर भौतिक रूप से जितना सक्षम और ऐश्वर्यपूर्ण है सांस्कृतिक दृष्टि से उतना ही
गिरा हुआ| इस शहर में रहने वाले लोग अक्सर संस्कृति का नाम सुनते ही भड़क जाएं तो
कोई आश्चर्य नहीं है| विलासिता में डूबे लोगों के लिए संस्कृति शब्द-मात्र ऐसे जहर
के समान है जिसका नाम सुनते ही लोग आपसे दूरी बनाने लगते हैं|
यह
दूरी मानसिकता की दूरी हो सकती है, सुख-सम्पन्नता का प्रदर्शन भी| ऐसा भी नहीं है
कि लोग चिंतित नहीं हैं ऐसे परिवेश की भयावहता से लेकिन बाज़ार संस्कृति ने उन्हें
भी दिग्भ्रमित कर रखा है| जब तक वे बचने की कोशिश में रहते हैं बाज़ार का नया कोना
उनके इंतज़ार में खड़ा होता है|
साहित्य
की बात क्या करें? एक से एक महारथी हैं यहाँ पर| सब महारथियों के कुछ रथी हैं और
कुछ सारथी| रथियों और सारथियों के सहारे किसी तरह रणक्षेत्र में उपस्थिति बनी हुई
है| रणक्षेत्र का नाम सुनकर आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन सही मानिए तो यहाँ के
अधिकांश साहित्यकार स्वयं को योद्धा मानते हैं| कार्यक्रमों के आयोजन से लेकर
अपनों के आमंत्रण तक युद्धस्तर पर सक्रिय रहते हैं| इनकी सक्रियता से ही हिंदी
साहित्य की दुनिया गुल-ए-गुलजार रहती है|
इस
शहर में साहित्यिक संस्थाओं का बनना-बिगड़ना कोई बड़ी बात नहीं है| किसी चौराहे पर
सब्जी की दुकान खोलना और चंडीगढ़ में साहित्य-संस्था का निर्माण करना, कभी-कभी मुझे
दोनों एक जैसे लगते हैं| फर्क बस यही है कि सब्जी की दुकानों से जहाँ लोगों को
सुविधाएँ मिलती हैं वहीं साहित्य-संस्थाओं के निर्माण से वैमनस्य बढ़ता है|
मुझे
पता है ‘वैमनस्य’ शब्द आपको अच्छा नहीं लगेगा| यहाँ कुछ दिन रहिये| चुपचाप आयोजनों
में जाना शुरू कीजिए| कुछ मिले या न मिले यह जरूर देखेंगे कि एक संस्था के लोग
दूसरे लोगों को देखना नहीं चाहते| आप एक से जुड़ते हैं दूसरा निकाल देता है| आप एक
के साथ चलते हैं दूसरा आपको बदनाम करने लगता है|
आयोजनों
का कोई स्तर होता है...यह तो खैर आज के समय में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है| ‘तू
मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी’ वाली स्थिति है| कविता के नाम पर
प्रेमी नायक और नायिकाओं की तरह चुटकुलेबाजी करना एक शगल है यहाँ की| विमर्श के
नाम गंभीरता इतनी है कि कोई ठोस मुद्दे रख दो तो कहेंगे “हम तो सीख रहे हैं भैया
इतनी माथापच्ची कौन करे|”
विभिन्न
अखबारों, समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन के मंचों पर बोलने वाले कितने ही बड़े
रचनाकार यहाँ हैं जिन्हें वर्तामान समय में निकलने वाली पत्रिकाओं की छोटी संख्या
भी मालूम नहीं है| आपको लग रहा है कि मैं कुछ अधिक बोल रहा हूँ लेकिन सच यही है कि
कौन-सा विमर्श, कौन-से मुद्दे वर्तमान साहित्य की दुनिया में चल रहे हैं, नहीं पता
है यहाँ के बहुत-से बड़े रचनाकारों को|
यहाँ
मंच-माला और पद के बड़े लोभी हैं| अध्यक्ष और मुख्य अतिथि बनने और बनाने की भी गज़ब
रवायत है यहाँ| स्वयं ही आयोजक और स्वयं ही अध्यक्ष होने की उत्कंठा हास्यास्पद
नहीं लगती आपको? स्वयं संयोजक और स्वयं ही मुख्य-अतिथि होने की लोभी-प्रवृत्ति
असमंजस में नहीं डालती आपको? हो सकता है, लेकिन किसी भी ‘सही’ साहित्यकार को ये
प्रवृत्तियाँ विचलित जरूर करती हैं| विचलन और फिसलन की स्थिति पर सवार यहाँ का
साहित्यिक परिवेश कैसा होगा यह तो समय बताएगा, वर्तमान दुखद है, यह कहने में मुझे कोई
संकोच नहीं है|
2 comments:
बेहद कड़ुवे घूंट हलक में उतरें तो सत्य सम्मुख आते देर नहीं लगती। चंडीगढ़ की खूबसूरती का बयान तो बहुत तबीयत से किया है आपने पांडे जी! लेकिन वहां क्या-क्या चीज बिकती है यह तो हमारे लिए नई बातें हैं इनको हमसे से सांझा करने के लिए बेहद शुक्रिया।
आपको अच्छा लगा, इसके लिये बहुत आभार आपका।
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