Tuesday, 12 May 2020

साहित्य का मूल्यांकन जब भी हो रचना केन्द्रित हो



हिंदी साहित्य में आलोचना विधा हर समय संशय के घेरे में रही है| कल भी थी, आज भी है और भविष्य में भी बने रहने की सम्भावना है| संख्या में रचनाकार अधिक हैं आलोचक कम हैं, एक समस्या तो ये है, दूसरी समस्या ये है कि हर कोई रातों रात आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी या राजेन्द्र यादव, ओम प्रकाश वाल्मीकि बन जाना चाहता है| जिनके पास रचना का अधिकांश नहीं है वे भी, जिनके पास है वे तो बनना चाहेंगे ही| अब क्योंकि आलोचना के कुछ मापदंड हैं और कुछ सिद्धांत भी; उनकी अनुपालना में व्यावहारिक होने की लाख कोशिश करने के बावजूद भी आलोचक विवश हो जाता है और कई बार इस विवशता में अपनों से भी दूर हो लेता है| खैर यह तो उसकी अपनी समस्या है कि व्यावहारिकता और सैद्धांतिक पक्ष में से किसका चुनाव वह करता है| बात आलोचना में रचना और रचनाकार के व्यक्तिगत जीवन-मूल्यांकन की हो रही है तो उस पर केन्द्रित रहना जरूरी हो जाता है|
विचार मन में उठेंगे तो विमर्श होना तय है| विमर्श होगा तो विवाद भी सम्भव है| इधर विवाद का नया विषय सोशल मीडिया पर उठाया गया है| रचनाओं का मूल्यांकन रचना केन्द्रित न होकर व्यक्ति-केन्द्रित भी हो| उठाने वाले का यह मानना है कि रचनाओं की परख में रचनाकार का व्यक्तिगत जीवन भी शामिल हो, बगैर ऐसे मूल्यांकन के हम जनपक्षधरता को स्पष्ट नहीं कर सकते| जीवन से अलग रचना सम्भव है लेकिन उसकी सामाजिक उपादेयता में संशय बनी रहती है| ऐसा करते समय कहीं गहरे में वे आलोचना को व्यक्तिगत रंजिश का अड्डा बना रहे होते हैं, यह उन्हें आभास नहीं होता|
मेरा यह मानना है कि मूल्यांकन जब भी हो रचना केन्द्रित हो यह कहीं ज्यादा उचित होगा| रचनाकार क्या खा रहा है? क्या पहन रहा है? इस पर ध्यान देकर क्या करेंगे? ध्यान देना है तो इस पर दो कि वह लिख क्या रहा है या लिखा क्या है| उसके लेखन में हमारा समय और हमारा परिवेश किस तरह व्याख्यायित हुआ है, यह जरूरी है देखना, न कि यह देखना कि वह कितने बजे सो कर उठता था और कितने बजे रात में सोता था| यदि वह भ्रष्ट है तो उसके लेखन में वह आचरण प्रविष्ट होगा
 हम जब रचनात्मक होकर बात करते हैं तो रचनाकार वहां सर्वथा उपस्थित होता है, यह एक साधारण-सी समझ रखने वाला पाठक भी जानता है| रचनाकार जैसा होता है उसका लेखन उसी प्रकार का होता है| व्यक्ति से व्यक्तित्व अलग नहीं होता| लाख कोशिश करने के बावजूद भी| उदहारण के लिए आप अशोक वाजपेयी की कविताओं का एक चक्कर लगाइए और एक चक्कर उदय प्रकाश की कहानियों का| दोनों का बहुत कुछ रचनाओं में मिल जाता है| व्यक्तिगत जीवन में जाना जरूरी नहीं लगता| अशोक वाजपेयी "उत्तेजक दोपहर" में "केलि" की शिक्षा देते हैं और ‘सद्यःस्नाता’ के साथ 'रति' प्रयोग करते हुए विलासिता को प्रमुखता देते हैं| उदय प्रकाश अपने यहाँ बेंचों पर, ट्रकों के नीचे, अस्पतालों में, जंगलों में, रास्तों में होस्टलों में मैथुनरत युगल को दिखाने में आनंद महसूस करते हैं| मुझे नहीं लगता कि यहाँ अलग से अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के जीवन को देखने का प्रयास करेंगे आप? आप रचना की आलोचना करिए सब साफ़ हो जाएगा| कौन जनधर्मी है और कौन विधर्मी सब अलग और स्पष्ट हो जाएगा|
अब यदि रचना को छोड़ कर व्यक्तिगत जीवन में जाकर छींटाकसी करेंगे, उनके खाए-पिए, घूमने टहलने का हिसाब किताब रखेंगे तो निश्चित तौर पर आप आलोचना नहीं कर रहे हैं बल्कि व्यक्तिगत रंजिश निकाल रहे हैं| लेकिन ऐसा करेंगे कैसे? पढना पड़ेगा, सोचना पड़ेगा, सन्दर्भ देना पड़ेगा, सो आलोचना में इतनी जोहमत उठाए कौन? जब सीधे-सीधे कहने भर से लाइक और कमेन्ट मिले तब तो और भी| यहाँ रचनकार का समाज-समर्पण जरूर अपेक्षित होता है| हालांकि यह भी सच है कि सही रचनाकार वही होगा जो जन-जीवन-परिवेश और समाज के प्रति समर्पित और संघर्षधर्मी होगा|
सोशल मीडिया के वाह-आह से कहीं दूर की स्थिति है आलोचना| वाह-आह में यदि रमकर रहने की कोशिश करेंगे तो न तो रचनाकार को समझ पायेंगे और न ही तो रचना को| हो भी यही रहा है इधर| एक तो अधिकांश रचनाकारों को यह नहीं पता है कि वह लिख क्या रहे हैं? उनकी कविता का कहन क्या है और उसका प्रभाव क्या पड़ने वाला है जन-समाज पर दूसरी आपकी हल्की टिप्पणी उसे सातवें आसमान चढ़ा देगी, मात्र इसलिए कि वह जीवन बहुत तंगहाली में जिया है| तो क्या गरीब होना और गरीब रहते हुए मर जाना ही रचना-श्रेष्ठ होने का पैमाना रह गया है? इस पर विचार करने की जरूरत है|
इधर एक लम्बी भीड़ सक्रिय है| रचनाकारों की भी और आलोचकों की भी| इस भीड़ के पास प्रतिभा की कमी भले हो लेकिन ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो गाली-गलौज कर सकें| तो यहाँ रचना केन्द्रित होने की ज्यादा जरूरत है| आज यह बात पूरी तरह सच है कि यदि आलोचना व्यक्ति को छोड़कर रचना केन्द्रित हो तो विश्वास मानिये 80 प्रतिशत कवि गायब हो जाएंगे। कथाकारों की भी यही स्थिति है| कितने तो रचनाकार ऐसे हैं जिन्हें यही नहीं पता है कि वे रच क्या रहे हैं? रचना क्या चाह रहे हैं?
सच यह भी है कि जब आलोचक में रचना से टकराने का साहस नहीं होता तभी वह व्यक्ति-चरित्र पर छापा मारता है| हालांकि इससे कुछ हाशिल भी होने वाला नहीं होता क्योंकि रचनाएँ शिला की तरह अडिग होकर अपने होने का प्रमाण देती हैं| वह सिर्फ प्रमाण ही नहीं देतीं बल्कि रचनाकार की गंभीरता और सजगता का गवाह भी होती हैं| आज कितना भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल को आउटडेटेड और सामंतवादी कह लें लेकिन उनकी रचनाधर्मिता को कोई हानि नहीं पहुँचती| मुंशी प्रेमचंद से लेकर नागार्जुन तक पर कीचड़ उछाले गए लेकिन वे बने रहे अपने उसी रूप में| यदि आपको चर्चा-परिचर्चा में आना है तो उसके लिए कार्य-श्रम और समर्पण लेकर आइये| विवादों को बगैर किसी वजह तूल देने से न तो आपका हित होना है और न ही तो हिंदी साहित्य का|


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