Saturday 16 May 2020

नवगीत स्वयं में समकालीन है


कविता में विधाओं की दशा-दिशा को लेकर संघर्ष होता रहा है| जब कोई विधा उपेक्षित की जाती है तो हानि विधाओं की न होकर सम्वेदना की होती है| हम जिस भी स्थिति में रह रहे होते हैं, अचानक परिवर्तन होने से चौंकते भर नहीं हैं,परेशान होते हैं| बहुत कुछ टूटता-फूटता है लेकिन फिर भी जुड़ने की स्थिति होने में समय लग जाता है| यहाँ हम इस भावना की चिंता किये बगैर अपना झंडा और डंडालेकर मैदान में आ जाते हैं| कुछ भाड़े के अनुयायियों को लेकर शोरभर नहीं मचाते अपितु मान-सम्मान के लालच में नाम परिवर्तनका एक बड़ा खेल शुरू कर देते हैं| इस खेल में पाठकों का बंटवारा कम प्रवृत्ति का अधिक होता है| गीत विधा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ और आज भी हो रहा है|

काव्य-सम्वेदना में विधागत परिवर्तन और उपेक्षा का जो भाव है वह खतरनाक है| खतरनाक इस अर्थ में कि जिन विधाओं से पाठक गहरे में जुड़ा होता है उससे कटकर जाने के लिए तैयार नहीं होता| नयी विधा आने के बाद सबसे बड़ा संकट उसके सामने अपना पाठक-वर्ग तैयार करने को लेकर आता है| एक समय तक छन्द-मुक्त कविता के साथ यही होता है| गीत विधा का दीवाना पाठक एक समृद्ध विधा होने के बावजूद छंद मुक्त कविता को अभिव्यक्त करने और लम्बे समय तक याद रखने में नाकामयाब रहता है| यह नाकामयाबी अनपढ़ता अथवा नासमझी की वजह से नहीं आती, सम्बन्धित नए विधा के साथ सामंजस्य न बिठा पाने की वजह से आती है| इधर नाम परिवर्तन का खेलराजनीति में भी खूब खेला गया| अब नवगीत विधा को लेकर खेला जा रहा है| जनगीत, नवगीत के बाद अब समकालीन गीत का झन्डा उठाया जा रहा है|         

जाहिर सी बात है कि जो समकालीन गीत की बात कर रहे हैं वे अपने पूरे जीवन में नवगीत से नहीं जुड़ पाए| नवगीत के समानांतर जनगीत को खड़ा करने में ऐसे लोग अपना पूरा जीवन खपा दिए| जैसे इनकी जनधर्मिता रुपी लिबास उतरती है ये समकालीनता को अपने नारे का मुद्दा बनाते हैं| वही घिसा-पिटा तर्क है जो जनगीत के सन्दर्भ में था| ये यह नहीं समझते कि नवगीत स्वयं में समकालीन है| अभी इसका मूल्यांकन होना शेष है| अब तो ठीक से कुछ कहा और सुना जा रहा है| एक लम्बे समय तक अकादमिक बहसों से दूर रखकर इस विधा के रचनाकारों के साथ जो छल-छद्म किया गया, वह अब बेपर्दा हो रहा है| जिस चालाकी से नीरस कविताओं को पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाकर कविता से दूर किया गया उस चालाकी को अब पहचाना गया है| अकादमियों से लेकर अकादमिक जगत तक को अब यह एहसास होने लगा है कि नवगीत एक समृद्ध विधा है और उसे आलोचना जगत में कविता के समान मान-प्रतिष्ठा दिया जाए| 

यह सब होने के बावजूद कुछ स्थितियों में नवगीतकार भ्रमित हैं| यह उनकी दीनता है या लाचारी, कई बार समझ में नहीं आता| पहला भ्रम नवगीत विधा के बीज-रचनाकार को लेकर है| नवगीत के कई विद्वान निराला से इस विधा की शुरुआत मानते हैं| वे इसके पीछे तर्क नव गति, नव लय, ताल छंद नवका देते हैं| इसके बाद निराला धीरे-धीरे छंदमुक्त कविता की तरफ बढ़ते हैं लेकिन यह सीधी-सी बात नवगीत के पुरोधाओं को नहीं समझ आती| “बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु/ पूँछेगा सारा गाँव बन्धु!जैसी कविता को पढ़ते हुए जो इसमें नवगीत की परिकल्पना करते हैं उन पर हंसी भी आती है| हँसी इसलिए भी आती है कि कविता के विकासक्रम को भी लोग देखने का जोहमत नहीं उठाते और निराला को प्रथम समर्थ नवगीतकार घोषित करके मुक्तिकामना से संतुष्ट हो लेते हैं| कम से कम मैं निराला से नवगीत का विकास बिलकुल नहीं मान पा रहा हूँ|

नवगीत का प्रारंभ नई कविता के साथ-साथ होता है| जिस समय नई कविता में यथार्थ परिदृश्य का सृजन शुरू होता है आलोचक एकाएक गीत विधा पर आक्रामक होते हैं| एक तरफ जहाँ अपने समकाल को सही तरीके से अभिव्यक्त न कर पाने का आरोप गीत पर लगता है वहीं दूसरी तरफ गीतकारों को आउटडेटेड घोषित किया जाने लगता है| हालांकि यह सब बड़े षड्यंत्रों के साथ होता है लेकिन यह भी सच है कि ऐसा होने से गीतों की दशा-दिशा नए सिरे से निर्धारित होती है| यहीं से गीत को नव लिबास में ढालने की प्रक्रिया शुरू होती है और यहीं से गीत नवगीतकहने की परिपाटी शुरू होती है| अब इसके पीछे आकर निराला से नवगीत का उद्घोष करने के पीछे कौन-सा इतिहासबोध काम कर रहा है? समझ से परे है| कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि निराला से ही नवगीत विधा का आहट सुनाई देता है| अब विधा का आहट सुनाई देना एक अलग बात है लेकिन विधा का शुरू होना अलग बात है| आप निराला में आहट पा सकते हैं नवगीत की लेकिन वहां से प्रारंभ नहीं कह सकते हैं| नवगीत का प्रारंभ नई कविता की तर्ज पर होता है और समकालीनता में परिवर्तित होते हुए आज भी बनी हुई है यह विधा|

यहाँ सबसे बड़ा भ्रम कविताकारों ने फैलाया है| ये मानते हैं कि गीत या ग़ज़ल में कोई बड़ा कवि हो ही नहीं सकता| ऐसा कहते हुए अपनी अज्ञानता पर उन्हें तरस नहीं आता| वे दिनकर और बच्चन जैसे समर्थ कवि को भूल जाते हैं| वे यह भी भूल जाते हैं कि कबीर, सूर, तुलसी, जायसी जैसे बड़े कवि छान्दसिक विधा से ही निकलकर आए हैं| ऐसे समय में जब छंदमुक्त कविता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था| गीत विधा में नीरज बड़े कवि हैं, लोगों ने नहीं माना, यही तो विसंगति है हिंदी साहित्य की| जो लोग उनके बड़े होने पर शक करते हैं वे मानते किसको हैं बड़ा? ये प्रश्न तो बनता ही है| फिर ये न मानने वाले कौन हैं? यह किसी से छिपा नहीं है|

गीत की बात करते हुए उसकी सीमाओं को लोग व्याख्यायित करने लगते हैं| यह तर्क लगभग लोग देते हैं कि छान्दसिकता, सुर, लय आदि को साधने में यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती| वे यह मानते हैं कि ऐसे कवि महज तुकबंदी करते हैं| जिस सीमा की बात ऐसे लोग गीत में करते हैं उन्हीं सीमाओं का अतिक्रमण करने के लिए नवगीत विधा केन्द्र में आई, वे यह देखने की कोशिश नहीं करते| नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ नवगीतकार और गीतकार भी सक्रिय थे यदि वे आपकी निगाह में नहीं हैं तो इसका सीधा सा मतलब है कि आपने उन्हें देखने की कोशिश नहीं की| जिस यथार्थ को आप छूटते रहने की बात कर रहे हैं उस यथार्थ को इधर के नवगीत और ग़ज़ल सिद्दत से पूरी कर रहे हैं| मुक्तछंद के मापदंडों को नवगीत विधा ने खूब अपनाया है| अभिव्यक्ति की स्पष्टता/ सरलता से लेकर विषय की वैविध्यता तक को विस्तार दिया है नवगीतकारों ने| जब मैं यह कह रहा हूँ तो यह कतई न समझें कि मैं मुक्तछंद को नकार रहा हूँ, लेकिन जिस तरीके से नवगीत को चर्चा-परिचर्चा से दूर रखा गया वह क्या है?

बड़ा कवि कविता से ही बनता है......यहाँ जो अर्थ ध्वनित हो रहा है वह यही कि-मुक्तछंद की कविता| इस बात पर भी मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूँ| गीत वालों को लोगों ने स्वीकार ही नहीं किया, इसके पीछे कारण कविताई नहीं, गुटबंदी और दलबंदी है आलोचकों की| मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि कविता में मेडबंदी क्यों की जा रही है? कविता में ग़ज़ल और नवगीत की बात क्यों नहीं की जा रही है? जब मैं इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए सोचता हूँ तो मुझे कविता को एक ख़ास टारगेटमें फिट कर देने की जिद दिखाई देती है| इधर ये जिद टूट रही है और टूटेगी भी| जब कोई यह कहता है कि नवगीत में कितने रचनाकारों ने किसानों पर लिखा, मजदूरों और हाशिये पर धकेले गए जीवन पर लिखा तो मेरा सिर्फ इतना कहना है कि पहले वे नवगीत को पढ़ कर आएं| इस विधा में रच रहे रचनाकारों के विषय में जानकार आएं| यदि कोई यह भ्रम पालता है कि बड़ा कवि मात्र गद्य कविता में ही सम्भव है तो मुझे उससे बड़ा दुराग्रही कोई दिखाई नहीं देता| ‘बड़ा’ का मानक यदि आप पाठकों से लेते हैं तो नवगीतकार 20 ठहरते हैं और यदि शिल्प को लेते हैं तो 21 ठहरते हैं| जबकि कविता अपने कहन से लेकर प्रस्तुति तक इस विधा के समक्ष 19 ही मिलेगी|

जब मैं ऐसा कह रहा हूँ तो यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आंकड़ों के खेल में काव्य-विधाओं को घसीटने का एक ही परिणाम होता है और वह है, पाठकों के हृदय में भ्रम और विचलन की स्थिति का जन्म लेना| यह खेल बहुत दिन तक नहीं चलता है| ऐसे बहुत से कविताकार हैं जिन्होंने एक रात में ही कविताएँ लिखकर संग्रह प्रकाशित करवा लिए| बाद में वरीयता के आधार पुरस्कृत भी किया गया ऐसे लोगों को| नाम-इनाम के बाद मीडिया में भी खूब छाए| समीक्षाकारों को पैसे देकर समीक्षाएं भी प्रकाशित हो लीं| इसके बाद न तो समीक्षक ने उस समीक्षा को कभी देखा और न ही तो कवि ने अपने कविता संग्रह को देखने का कष्ट उठाया| ईडिया-मीडिया वाले भी ऐसे लोगों से नजरें बचाते हुए दिखाई दिए| पाठक तो खैर पहले भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं इन लोगों के लिए| कम-से-कम गंभीर छान्दसिक विधा में आप ऐसे काले कारनामें नहीं कर सकते| यहाँ सम्वेदना को शिल्प की कसौटी पर रखना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए रचनाकार मेहनत करता है और साधनारत रहता है|   

कुछ विधाओं को उपेक्षित किया गया और आज भी किया जा रहा है| रचनाकार अपने तरीके से समय और परिवेश को देख रहे हैं| यहाँ यह कहने मुझे कोई संकोच नहीं है कि नवगीत विधा बिना किसी के द्वारपूजा किये बगैर अपनी संघर्षधर्मी परम्परा से बढ़ रही है और बढती रहेगी| जो इस विधा के शक्ति और सामर्थ्य पर शक कर रहे हैं वे प्रचारक बन एक दिन ख़तम हो जाएँगे लेकिन ये विधाएँ ही भारतीय लोक का प्रतिनिधित्व करेंगी| यहाँ ध्यान देने की बात जो है वह ये कि मैं छंदमुक्त कविता को नकार नहीं रहा हूँ लेकिन जब ग़ज़ल को मनोरंजन और गीत को आउटडेटेड करार दिया जाएगा तो उसके प्रतिरोध में मेरा यह बयान नोट किया जाए|

नवगीत में बात करें तो इधर वर्तमान समय में राधेश्याम शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, मधुकर अष्ठाना, राजेन्द्र गौतम, गणेश गंभीर, गुलाब सिंह, यश मालवीय, ओमप्रकाश सिंह, बृजनाथ श्रीवास्तव, शैलेन्द्र शर्मा, जय शंकर शुक्ल, निर्मल शुक्ल, अवनीश सिंह चौहान, अवनीश त्रिपाठी, चित्रांस वाघमारे, राहुल शिवाय, गीता पण्डित, मालिनी गौतम, सीमा अग्रवाल, गरिमा सक्सेना (क्रम को लेकर विवाद न हो) और अनेक ऐसे कवि/ कवयित्री हैं जिनको पढना चाहिए| अच्छी और खराब रचनाओं का आंकलन पढ़ने से ही सम्भव है| बगैर पढ़े किसी को खारिज कर देना या यूँ कहें कि आउटडेटेड करार दे देना किसी तरह से उचित नहीं है| समस्या यही है कि हम 'अच्छे' को मनोरंजन मानते रहे और जो 'मनोरंजन' हैं उन्हें क्रांतिकारी बताते रहे| विधाओं की शक्ति को परखते हुए यह नहीं होना चाहिए| समर्पित रचनाकार को कोई पहचान देने से कतराता है तो यह उसकी कमजोरी या स्वार्थ हो सकती है विधाओं की नहीं| यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि विश्वकविता के पैमाइश करने वाले निरा बौद्धिक कवि/आलोचक भारतीय विधाओं से कितने अनभिज्ञ हैं, यह पिछले कई दिनों से गहरे में जानने को मिल रहा है|

सही समय है कि नवगीत की शक्ति और सामर्थ्य को बड़े पैमाने पर लोगों के सामने रखा जाए| युवा पीढ़ी का अधिकांश यह नहीं जानता कि नवगीत क्या है| बहुत से लोगों को यह भी नहीं पता है कि नवगीतकार भी इस देश-दुनिया में हैं| यह हमारी कमजोरी है| यह सच है कि नवगीत का इतिहास नवगीत लिखने वालों तक सीमित है| जो नवगीत नहीं लिखते उनके लिए नवगीत का विकासक्रम पता करना थोड़ा कठिन है| हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास तक, डॉ नागेन्द्र जी द्वारा सम्पादित इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य का सरल इतिहास तक जितनी गंभीरता से कविता के विषय में चर्चा हुई नवगीत पर उतना ध्यान नहीं दिया गया| यही स्थिति हिंदी ग़ज़ल की भी है| यह ऐसे नहीं सम्भव हुआ| विधिवत षड्यंत्र करके उपेक्षित किया गया है| यह षड्यंत्र किनके द्वारा किया गया...यह सभी को पता है|

सही अर्थों में कहूं तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद जिस साहित्य के इतिहास को मैं अधिक पसंद करता हूँ वह है 'हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास'| अफ़सोस कि इधर यह विश्वास घटता जा रहा है| यह क्या विडंबना की स्थिति है कि इतिहासकार ने एक पृष्ठ भी गीत/नवगीत को देना उचित नहीं समझा| खैर...यह इतिहास की पुस्तक अकादमिक जगत में खूब प्रसिद्ध है| मैं खुद पसंद करता हूँ| लेखन में कहन और भाषा का प्रवाह गज़ब का है| नवगीत और गीत के प्रति उपेक्षा भाव हतप्रभ करता है| यह नहीं समझ में आ रहा है कि ऐसा क्यों हुआ...लेकिन क्या यह नवगीत के जो स्कूल चल रहे हैं...उन्हें कुछ पता है इसके विषय में? यदि पता है तो उनके समय आवाज और प्रतीरोध क्यों नहीं किया गया|  कई संस्करण आ चुके हैं इस साहित्य के इतिहास का| शायद गलतियों का संज्ञान लिया जाता और नवगीत को जगह दिया जाता| लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नहीं हो रहा है| सब अपने-अपने कुनबे बचाने में लगे हैं|

नवगीत के ‘नाम’ पर शोर मचाने वाले लोग यह जान लें कि नवगीत स्वयं में समकालीन है| उसे ‘समकालीन गीत’ कहना या किसी और नाम से विभूषित कर देना पाठकों के साथ-साथ अध्येताओं को भ्रमित करना है| इधर बड़े स्तर पर शोध कार्य चल रहे हैं| आप नाम परिवर्तन से उन्हें भी भटकाने का खेल खलेंगे इसके सिवाय और कुछ नहीं होगा| फायदा मात्र उन्हें होगा जो इसके नाम के एवज में अपना व्यापार चलाना चाहते हैं| फिर संकलनों की बाढ़ आएगी| सम्पादकों द्वारा रचनाकार ठगे जायेंगे| दो-दो तीन-तीन रचनाओं के आधार पर बड़े घोषित करने के एवज में अच्छा-ख़ासा पैसा कमाया जाएगा| तथाकथित आलोचक लाइम-लाईट में आएँगे| अभी बहुत से लोग यह कहते हुए अपना पल्ला झाड लेते हैं कि मैंने नवगीत पढ़ा नहीं तब उनको एक बहाना और मिल जाएगा कि समकालीन गीत से वे परिचित नहीं है|  

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