Sunday 14 June 2020

नवगीत की समकालीनता के प्रश्न और ‘भूख’ का यथार्थ

छान्दस एवं गीतात्मक विधा होने की वजह से अक्सर लोग नवगीत को समकालीन नहीं मानते| हालांकि यह तर्क अब पुराना हो गया है लेकिन रह-रहकर अभी भी, एक झोंका, जभी जिसे याद आ जाए, मार दिया जाता है इस विधा पर| समकालीन न मानने वाले छन्दमुक्त कविता में भले ही वैयक्तिक भावों को वैश्विक मान लेंगे, लिजलिजी एवं कामुकता की हद तक जाकर लिखी गयी कविताओं का भाष्य यथार्थ चित्रण (समाज में जैसा घटित हो रहा है) के कोण से कर बैठेंगे लेकिन सीधी, सरल और समय-सापेक्ष नवगीत को यह कहकर ख़ारिज कर देंगे कि उसमें यथार्थ को कहने का साहस नहीं है|

समकालीनता की पहली शर्त यह है कि आपने आम आदमी के पक्ष में क्या कहा? आपके अपने समय में ‘भूख’ का जो यथार्थ है उसे कैसे और कितना अभिव्यक्त किया? रोजी-रोटी की तलाश में भटक रहे जन की यथा-व्यथा को किस तरह महसूस किया? ये ऐसे प्रश्न हैं जिसमें रचनाकारों की मनःस्थिति को परखा जाता है| यह देखा जाता है कि किस हद तक कवि समय वेदना और परिवेश की सच्चाई को अभिव्यक्त कर पा रहा है? कहीं वह अपने ही सुख-सुविधाओं-दुविधाओं में कैद होकर तो नहीं रह जा रहा है? 


जब हम ‘भूख’ की समस्या और उसके यथार्थ की बात करते हैं तो यह देखते हैं कि नवगीतकार उसे महज अभिव्यक्त मात्र न करके जी भी रहे हैं| जीना इस अर्थ में कि आम आदमी कैसे रोटी और रोजगार के बीच त्रिशंकु बनकर झूल रहा है और कैसे समय की क्रूरताएँ उन्हें छल रही हैं, आँखों के सामने घटित हुए ऐसे दृश्य को देखकर नवगीतकार आँखों से खून टपका रहे हैं| 60-70 के दशक से लेकर लगभग 2000 तक ये स्थिति थी कि आम आदमी को बहुत कम अन्न मिलते थे दिन भर मजूरी करने के बावजूद| इस पर भी तमाम प्रकार की अडचनें, तमाम प्रकार के गतिरोध उसे सहना पड़ता था| ऐसी स्थिति में हम रमेश रंजक के इस गीत में उठते प्रश्न को कैसे भूल सकते हैं “सच कहना कितना खाता है/ भूखा पेट गरीब का/ साँझ ढले तक अपनी काया/ झूठी सच्ची दया-दिलासा/ अधनंगी फटकर देह पर/ फिर भी रहता भूखा-प्यासा/ रात-रात भर पछताता है/ भूखा पेट गरीब का|”1 आज भी वह पछता रहा है| न विश्वास हो तो गाँव में एक चक्कर लगाकर आइये| एक चक्कर महानगरों में लगाकर आइये| मिलो फैक्ट्रियों में देखकर आइये|

राजेन्द्र प्रसाद सिंह का गीत-मन चिमनियों मीलों में पहुँचता है और देखता है कि “चटकल की चिमनी ने आज तरेरी आँखें/ मिल की भट्ठी आग-लहू का भेद मिटाती/ कारखाने या मजदूर/ इकट्ठे हिम्मत से भरपूर/ नशे में चूर|”2 देखिये तो कैसे खून और आग दोनों जल रहे हैं और किस तरह फिर भी ‘हिम्मत से भरपूर’ होकर वे कार्य कर रहे हैं| किसलिए महज रोटी के लिए| यह वही भूख थी जिसके लिए “दल-दल में धंस नदी समन्दर में भी डूबे/ दबे नींव में दीवारों में चुने गए हम/ छत से फिसले, गिरे/ पहाड़ों, खानों में फँस मरे/ कैद में सड़े-नाम पर श्रम के|”3 क्यों? क्योंकि घर-परिवार का पेट पालना था और जिन्दा रहना था|    

प्रसंग बहुत लम्बा न हो इसके लिए जब आगे बढ़ें तो देखें कि ‘भूख’ के सामने घर की छत और रोजगार की चिंता दोनों विकट समस्या हैं| हमें उस बेघर होते युवा की आँखों में घुसकर देखना होगा जो रोजगार के अभाव में ‘रोटी’ से महरूम हैं| अवध बिहारी श्रीवास्तव का एक नवगीत है ‘क. ख. ग.’| इस नवगीत में वह ऐसे ‘किशोर’ की तस्वीर उपलब्ध करवाते हैं जो रोजी, रोटी और घर तीनों से बेदखल है| कैसे रोटी की किल्लत सहने वाले आम आदमी के जीवन में आपदाओं का आगमन होता है और किस तरह इन समस्याओं के बीच उसकी नोकरी छूटती है, आप कल्पना करिए और इस नवगीत के अंश को देखिये-   

ताक रहा है आसमान में/ भौचक खड़ा किशोर

आग लगी रोटियाँ बचाने/ माँ भागी भीतर/ बाबू खोल रहे थे बकरी/ तभी गिरा छप्पर

गूँज रहा है कानों में तब से/ अनाथ का शोर

बचपन से सूती करघे पर/ खुद रोटी बुनकर/ पाल रहा था दादी को भी/ छोटा कारीगर

तभी अचानक काट दी गई/ रोजगार की डोर|”4

‘अनाथ हुए किशोर’ और ‘रोजगार की डोर’ जिसकी कटी उस’ छोटा कारीगर’ में आपको समकालीनता क्यों नहीं दिखाई देती? ध्यान से देखेंगे तो ये अभिव्यक्ति कोई समान्य अभिव्यक्ति नहीं है| पूरे परिवेश की भयानक यन्त्रणा की यथार्थ तस्वीर है| भूख का और भी भयानक तस्वीर देखनी हो तो अभी-अभी आए योगेन्द्र मौर्य की इन पंक्तियों को पढ़िए-“माँ बच्चों का/ मन बहलाने/ पाये कहाँ खिलौने!/ पीड़ा देती,/ भूख पेट को/ नहीं अन्न के दाने/ बूढी काकी/ ओसारे में/ कैसे गाए गाने/ उलझन और/ उनींदेपन में/ चुभते रहे बिछौने|”5 ‘बूढ़ी काकी’ में गाँव की असहाय माओं का दुःख क्यों नहीं दिखाई देता?  क्यों “चुभते रहे बिछौने” की मार्मिक अभिव्यक्ति आपको सालती नहीं? स्वयं से सोचिये तो कुछ पता चले क्योंकि यह मन की भावुकता नहीं है परिवेश का यथार्थ है|

भूख हमें मजबूर करती है, विवश करती है| जो वह चाहती है वही हम करते हैं| चोरी और डकैती के पीछे इसी भूख का हाथ रहता है तो तमाम अपराध भूख से विवश लोग ही करते हैं| अजय पाठक इस स्थिति को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं- “सडकों पर यह भूख निकलकर/ जब भी आती है रोटी-रोटी कहकर जनता/ शोर मचाती है/ निष्ठावानों को भी यह/ गद्दार बनाती है/ इसी भूख के कोलाहल में/ अपनी ताल मिलाकर देखें|”6 यह जो ताल मिलाकर देखने की बात है सही अर्थों में उस भूखी और विवश जनता से जुड़ने की अपील है| नवगीत-मन रोजी-रोटी दोनों की उपलब्धता के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन स्थिति न तन्त्र की स्पष्ट है और न ही तो इस देश के रहनुमाओं की| यश मालवीय जैसे समृद्ध नवगीतकार की दृष्टि में “पूरा कालखंड है रोज़ी-/ रोटी  का ही मारा/ हर दिन जीभ निकाले,/ कुत्ते सा फिरता आवारा/ रोज़गार में सिर्फ़ सियासत,/ हाथ कटे हैं सबके/ हिंदू-मुस्लिम, अगड़े-पिछड़े,/ ऊँचे-नीचे तबके|”7 भूख पर साम्प्रदायिकता और जातिवादिता की गोटी बिछाई जा रही है लेकिन रोजगार उपलब्ध करवाने का जोखिम नहीं उठाया जा रहा है| जब आप रोजगार की मांग करते हैं तो आपको ‘धर्म’ का पाठ और समर्पण की राजनीति सिखाई जाती है और जब आप ‘रोटी’ की मांग करते हैं तो हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर दंगे करवाए जाते हैं| शहर में जो दंगे होते हैं वह अचानक नहीं होते, स्वयं से नहीं होते| बहुत सुनियोजित तरीके से करवाए जाते हैं लेकिन समस्या क्या आती है? भूख से मरने का यथार्थ आँखों के सामने नाचने लगता है-जगदीश पंकज कहते हैं-“आज/ भूखे पेट ही/ सोना पड़ेगा/ शहर में दंगा हुआ है/ एक नत्थू/ दूसरा यामीन है/ आँख दोनों की/ मगर ग़मगीन है/ बिन मजूरी/ दर्द को ढोना पड़ेगा/ शहर में दंगा हुआ है|”8 शहर में दंगे होते हैं और आदमी भूखों सो जाता है| गांवों में दबंग होते हैं और आदमी भूखा रह जाता है|

कितनी तो विडंबना है कि रोजगार के अभाव में शहर हो कि गांव दोनों जगह भूख से पीड़ित है आम आदमी| एक जगह अभाव है तो दूसरी जगह शोषण| अभाव को ख़त्म करने के लिए जो आम आदमी गाँव से शहर जाता है वह शोषित होता है और होकर वापिस गाँव आता है| यह कितनी विडंबना है कि गांव की भुखमरी, अभाव और संकीर्णताओं से दूर शहरों में रहने वाला मजबूर मजदूर अंततः उसी भुखमरी, अभाव और संकीर्णताओं को लेकर वापस आता है? सोचिए तो कुछ पता चले...| राहुल शिवाय का एक गीत है “तब क्या थे, अब क्या हैं”- इस गीत में शहरों के दकियानूसी स्वभाव, मजदूरों के पलायन की तस्वीर और ऊपर से देश के प्रधानमन्त्री द्वारा दिए गए ‘आत्मनिर्भर होने’ के संदेश को बड़ी गहराई और यथार्थ में प्रस्तुत किया गया है-यथा   

नहीं जरूरत रही/ शहर को मजदूरों की/ अब लौटे हैं गाँव, वहां पर/ क्या पाएंगे

छोड़ गांव की खेती-बाड़ी/ शहर गए थे/ दिन भर की मजदूरी में/ दिन ठहर गए थे

सपनों से कैसे/ सच्चाई झुठलायेंगे

शहरी जीवन के/ शहरी अफ़साने लेकर/ त्यौहारों में आते थे/ नजराने लेकर

तब क्या थे/ अब क्या हैं/ कैसे समझाएंगे

टीस रहे हैं कब से/ उम्मीदों के छाले/ पूछ रहे हैं प्रश्न भूख/ से रोज निवाले   

कहाँ आत्मनिर्भर होंगे/ कैसे खाएंगे|”9

आपके पेट में दाने न हों तो आत्मनिर्भर होने के सम्बल और दावे कितने अच्छे लगेंगे बताइए जरा? भूख के मामले में यह जो हमारे समय का यथार्थ है, आज का, क्या इसने हमें 60-70 वर्ष पहले ले जाकर नहीं छोड़ा है? ये हज़ारों मील पैदल चलने वाली जो जनता है वह कौन है? भूखा, नंगा, शोषित और दमित आम आदमी, जिसके लिए न तन्त्र है न मन्त्र, यह बात और है कि ये दोनों के बनकर रहे, उनकी जवाबदेही कौन लेगा? गीता पंडित की मानें तो “भूल गयी संसद जन का/ लेखा-जोखा/ नहीं जानती उसने क्या-क्या/ देखा भोगा” तो फिर जानता कौन है? ईश्वर भी तो कोरोना से बचने के लिए मौन है? सोचेंगे तो उत्तर नहीं सूझेगा सिहर कर रह जायेंगे|

जो लोग नवगीत की समकालीनता पर प्रश्न-चिह्न लगाते हैं उनके सामने ‘भूख’ को लेकर ये बहुत थोड़े उदहारण हैं नवगीत के| भूख के भयावह परिदृश्य के ऐसे चित्र क्या आपको विचलित नहीं करते? क्या आपके समाज को सोचने के लिए विवश नहीं करते? यदि करते हैं तो फिर समकालीनता के लिए और क्या चाहिए आपको? यह प्रश्न आपके लिए है सोचिए और फिर से चिंतन कीजिए|

 

सन्दर्भ सूची

1.   रमेश रंजक, इतिहास दुबारा लिखो, पृष्ठ-6

2.   राजेन्द्र प्रसाद सिंह, भरी सड़क पर, पृष्ठ-7

3.   राजेन्द्र प्रसाद सिंह, भरी सड़क पर, पृष्ठ-7

4.   अवध बिहारी सिंह, मंडी चले कबीर, पृष्ठ-20

5.   योगेन्द्र मौर्या, चुप्पियों को तोड़ते हैं, पृष्ठ-23

6.   अजय पाठक, मन बंजारा (पृष्ठ-67)

7.   यश मालवीय, कविता कोश

8.   जगदीश पंकज, सुनो मुझे भी-पृष्ठ-76

9.   राहुल शिवाय, https://www.hastaksher.com/rachna.php?id=2391


1 comment:

Surender Pal said...

मान्यवर अनिल पांडे जी, आपका उक्त शोध-पत्र साहित्य के विद्यार्थियों एवं साहित्यकारों के लिए दिशा सूचक की तरह साबित होगा।