1.
नवगीत विधा में सब कुछ होते हुए भी
एक अभाव ‘विद्वानों’ को खटकता है-वह है आलोचना की अनुपस्थिति| यह ‘अभाव’ का एक ऐसा
रूप है जिसके न होने मात्र से पूरी विधा के पहचान का संकट बढ़ गया है| आलोचक की
अनुपस्थिति में नवगीत के कई महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर सामने नहीं आ पाए तो बहुत-से
महत्त्वपूर्ण रचनाकार हाशिए पर धकेल दिए गए| इधर युवाओं में भी एक गहरी निराशा
बीच-बीच में देखने को मिली| जब आपके पास सब कुछ हो और उसका मूल्यांकन न हो पाए तो
निराशा का जन्म लेना सम्भव हो जाता है| हालांकि एक संतोष के लिए यह कह दिया जाता
है कि हमें आलोचकों की जरूरत नहीं है, समय उसका स्वयं मूल्यांकन करेगा लेकिन ऐसा
कौन है जो नहीं चाहेगा कि उसकी कृतियों और रचनाओं का संज्ञान आलोचकों, समीक्षकों
और पाठकों द्वारा लिया जाए? इस प्रश्न के दायरे में रहकर जब आप विचार करेंगे तो
नवगीत ही नहीं लगभग विधाओं की यही स्थिति है| पहले तो ठीक के रचनाकर नहीं हैं, और
यदि हैं भी तो उनकी रचनाओं को सामने लाने वाले आलोचक नहीं हैं|
इधर फेसबुक और व्हाट्सएप के दौर में
तो बहुत-से लोग आलोचक-फ्री कैम्पस का नारा भी दे दिए| कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कह
दिया कि अब आलोचकों की जरूरत साहित्य को नहीं है| एक-दो उत्साही और क्रांतिकारी
रचनाकारों ने यहाँ तक कह दिया कि आलोचना की वजह से कविताओं के पाठक घटे हैं| ये
देखने में बहुत आसान बात हो सकती है लेकिन है एक संकट का प्रश्न| एक साक्षात्कार
में इस बात को लेकर समकालीन कविता के ख्यात कवि एवं आलोचक प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल
से मेरी बातचीत हुई| उन्होंने रचनाकार, साहित्य (कविता) और आलोचना के अंतर्सम्बन्ध
को लेकर जो विचार दिया, मुझे लगता है उसे देखना चाहिए| उन्होंने कहा “रचनाकार और
रचना के बीच आलोचना एक सेतु का कार्य करती है जिसे सोशल मीडिया ने बड़ी चालाकी से
ख़त्म किया| और यह जान लो कि आलोचना का अवरुद्ध होना रचना की गुणवत्ता के मूल्यांकन
का अवरुद्ध हो जाना है|...इस बीच ध्यान से देखो तो दो ही तरह के विचार मिलेंगे;
एक-सारे महान हैं, दूसरे-सारे दो कौड़ी के हैं| फेसबुक ने बड़ी चालाकी से सारा मामला
पाठक केन्द्रित कर दिया| केवल पाठक किसी विधा की रचना की गुणवत्ता का मानक नहीं
है| यदि है तो ये बताओ कि इधर रचनाओं का काव्यशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय
मूल्यांकन कहाँ हो रहा है? आलोचक रचना और पाठक के बीच वह कड़ी है जो गंभीरता से
विषयों को विस्तार देता है| पाठक और रचनाकार के मध्य रचना को प्रस्तुत करता है|
इधर पाठक तो हैं लेकिन रचना का प्रस्तोता कौन है? किसी भी रचना को समझने के लिए दो
चीजें महत्त्वपूर्ण होती हैं-रचना की गुणवत्ता का प्रस्तोता और चयन का विवेक| रचना
की गुणवत्ता के आंकलन की समझ जिसमें होगी वही न प्रस्तोता होगा?”
कवि एवं आलोचक श्रीप्रकाश शुक्ल के
इस अभिमत में जो गंभीर प्रश्न निकलकर सामने आते हैं, वे हैं-‘सारे महान हैं,
दूसरे-सारे दो कौड़ी के हैं’ जैसी स्थिति का जन्म लेना| रचनाओं के ‘काव्यशास्त्रीय
और समाजशास्त्रीय मूल्यांकन’ का न होना और ‘रचना की गुणवत्ता का प्रस्तोता और चयन
का विवेक’ का गायब होना| सबसे भयंकर समस्या है रचनात्मक परिवेश में “सारे महान
हैं, दूसरे दो कौड़ी के हैं” जैसी स्थिति का उत्पन्न होना और यह नवगीत में खूब
फल-फूल रहा है| ‘गुटों’ और ‘मठों’ में बंटी इस विधा में यदि आप सम्बन्धित खेमे के
नहीं हैं तो बड़ी बारीकी से ‘दो कौड़ी के’ सिद्ध कर दिए जाएंगे| और यदि सम्बन्धित
खेमे के हैं तो ‘दो कौड़ी के’ होते हुए भी ‘सारे महान हैं’ की सूची में शामिल कर
लिए जाएंगे| इसको परखने और देखने की दृष्टि हो तो परिदृश्य साफ़ दिखाई देता है|
दूसरी भयानक समस्या जो है, वह है
“रचनाओं के काव्यशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय मूल्यांकन का न होना|” इधर लम्बे समय
से नवगीत की कुछ प्रकाशित आलोचना पुस्तकों पर नज़र दौड़ाएं तो यह कमी सिद्दत से नज़र
आती है| काव्यशास्त्रीय दृष्टि से तो खैर कोई क्या सिर खापाएगा समाजशास्त्रीय
दृष्टिकोण से भी देखने परखने की कोशिश नहीं की जा रही है| यही वजह है कि समकालीन
विमर्शों का लगभग अभाव इस विधा की रचनाओं में भी देखने को मिलता है| जहाँ है वहाँ
सामने लाने का प्रयास नहीं किया जाता है, यह पहले भी मैं कह चुका हूँ| समीक्षाएं
खूब लिखी गयीं और आज भी लिखी जा रही हैं| समीक्षाओं को आलोचना किस हद तक माना जाय?
यह विचार करने का विषय है| इधर तो एक नया ट्रेंड चल गया है समीक्षाओं का, जिसे
माधव कौशिक जैसे रचनाकार ‘प्रोफार्मा समीक्षा’ कहना पसंद करते हैं| एक फोर्मेट फिट
होता है और उसमें पहले वाले नाम और सन्दर्भ हटाकर दूसरे का भर दिया जाता है| ये खूब
हो रहा है और पूरी निर्लज्जता के साथ हो रहा है|
अब जो तीसरी समस्या है आलोचना जगत
की, वह है ‘रचना की गुणवत्ता का प्रस्तोता’ का न होना और ‘चयन का विवेक’ की
अनुपस्थिति| ‘चयन का विवेक’ जिसमें होगा सही अर्थों में वही ‘रचना की गुणवत्ता का
प्रस्तोता’ होगा| इधर नवगीत के कुछ आलोचक ऐसे निकलकर सामने आए जो फूल-पत्तियों,
पनघटों, पोखरों पर नवगीत लिखने वालों को जनधर्मी बना दिए और जो सही अर्थों में
जनधर्मी थे उन्हें पूर्वाग्रही, दुराग्रही और न जाने क्या-क्या बना दिए| जिनमें
संस्कृति और परम्परा की गंभीरता थी उनमें क्रांति और नारे ढूंढ लाए और जिनमें
क्रांति और नारे की समझ थी उन्हें परंपरा-पोषक और संस्कृति-उन्नायक घोषित कर दिए|
यह सब इसलिए हुआ क्योंकि ‘चयन का विवेक’ नहीं था उनमें| विवेकवान ही सही-गलत का
निर्णय कर सकता है| इधर सोशल मीडिया के आने से यह अराजकता और अधिक फैलती चली गयी|
हर कोई स्वयं को नवगीत का उन्नायक सिद्ध करने लगा| परिणाम यह हुआ कि ‘दुकानदारी’
और ‘धंधा’ चलाने के लिए ‘पाठशाला’ और ‘स्कूल’ तो खुले लेकिन एक ‘योग्य मास्टर’
खोजने की जोहमत ‘मैनेजरों’ ने नहीं उठाई| अब जैसे-जैसे विसंगतियां इन स्कूलों की
सामने आ रही हैं, वैसे-वैसे लोग एक स्कूल से दूसरे स्कूल में भागने की नूराकुश्ती
में दमखम लगा रहे हैं|
ध्यान रहे! रचनाकार होना स्कूलों
में ‘दीक्षित’ होकर पास का सर्टिफिकेट लेना कतई नहीं है| नवगीत जैसी अनुशासनबद्ध
विधाओं के लिए तो यह और महत्त्वपूर्ण बात है, जिस पर गंभीरता से विचार करने की
जरूरत है| नवगीत विधा में आलोचना के नाम पर अधिकांश लोग कहीं न कहीं, किसी न किसी
‘शिविर’ से निकले हुए लोग हैं जो सम्पूर्ण विधा को हाशिए के कगार पर लाकर खड़ा कर
दिए हैं| सही अर्थों में यदि देखा जाए तो आलोचकों में हैं बहुत कम लेकिन जितने भी
हैं एक हद तक 'संकोच' और 'संकीर्णता' से भरे हुए हैं| एक
छोटी-सी दुनिया है लेकिन इस दुनिया में भी अपने-अपने 'गुट'
और अपने-अपने 'लोग' हैं|
जरूरत है इस 'अपने-अपने' से बाहर होकर 'समग्र' मूल्यांकन
करने की| समीक्षा-सन्दर्भ पर जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा हूँ,
आलोचना का संकट साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है और मैं हतप्रभ और अवाक्
होता जा रहा हूँ| बहुत कुछ है जिसे दबाया गया और बहुत कुछ है
जिसे उठाया गया| जो दबाया गया उनमें बहुत कुछ था जो नहीं
लाया गया सामने| जो उठाया गया उनमें बहुत कुछ नहीं था जिसे
जबरजस्ती दिखाया गया| आलोचना का ऐसा हस्तक्षेप भी विधाओं को
कमजोर बनाती हैं, यह हमें स्वीकार करना होगा|
2.
नवगीत-आलोचना के और भी संकट हैं
जिसका समय-समय पर मूल्यांकन होता रहा है और होता रहेगा| इस बीच डॉ. इन्दीवर नवगीत
के लिए एक आशा की किरण बनकर आतें हैं| नवगीत-सन्दर्भ पर मजबूत बात रखते हैं और जो
प्रश्न उठते रहे नवगीत की कमियों और खामियों को लेकर उसका खुलकर जवाब देते हैं|
‘खुलकर’ कहने से तात्पर्य यह है कि बगैर डर और संकोच के अपनी बात रखा उन्होंने| यह
प्रवृत्ति आलोचना और समीक्षा में बहुत जरूरी मानी जाती है| नाम-इनाम के लोभ से दूर
रहते हुए एक लम्बे समय तक उपेक्षित विधा पर सक्रिय रहना मामूली बात नहीं है|
नवगीत किस तरह उपेक्षित रही और आज
भी है, यह बार-बार कहने की जरूरत नहीं है| पिछले सन्दर्भों में कहा भी जा चुका है|
रचना-परिवेश से इतर देखें तो नवगीत आलोचना में सक्रिय रहते हुए कई हस्ताक्षर ऐसे
भी हुए जो स्वयं को जिन्दा रखने के लिए या तो नवगीत को बदनाम कर उसके अन्य
नाम-आन्दोलन पर बल देते रहे या फिर नाम-इनाम के आकर्षण में अन्य विधाओं का दामन
पकड़ लिए| यह भी सच है कि इधर कई ऐसे हैं जो यह निर्धारित करने में लगे हुए हैं कि
‘इधर’ जाएं या ‘उधर’| इस इधर-उधर की राजनीति में चर्चा-परिचर्चा का जो माहौल बनना
था वह नहीं बना इधर| समीक्षा सन्दर्भ को लेकर इन्दीवर ने बड़ा उपक्रम यह किया कि एक
नए परिवेश के निर्माण का जोखिम उठाया| इस जोखिम में हालांकि वे स्वयं भी उपेक्षित
हुए लेकिन परवाह नहीं की और एकदम समर्पण भाव से मुकम्मल आलोचना की नींव रखी|
नवगीत आलोचना पर इन्दीवर का समर्पण
आप इस दृष्टि से भी देख सकते हैं कि उन्होंने “नवगीत में लोक चेतना (समीक्षा),
गीत नवगीत और शम्भुनाथ सिंह (समीक्षा), अपनी सदी के स्थविर : अज्ञेय और शम्भुनाथ
सिंह (समीक्षा), नवगीत का दस्तावेज (समीक्षा), सार्थक कविता की तलाश और नवगीतनामा
(समीक्षा), ‘नए बिम्ब नए प्रतीक और नवगीत (समीक्षा)” जैसी महत्त्वपूर्ण
पुस्तकें लिखकर एक स्पष्ट और तार्किक वातावरण निर्मित किया| शम्भुनाथ सिंह की
सम्पूर्ण रचनाधर्मिता पर केन्द्रित होकर रचनावली के रूप में “डॉ. शम्भुनाथ सिंह
साहित्य समग्र (सात खण्ड)” सात खण्डों में सम्पादित की| इन्दीवर के आलोचना-कर्म पर
विचार करते हुए यह ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि गिनती के लिए आलोचना-पुस्तकों
का लिख देना अलग बात है और एक आन्दोलन बनाकर समीक्षा-सन्दर्भ में सक्रिय रहना एकदम
अलग बात है|
‘नवगीत का दस्तावेज’ तथा ‘सार्थक कविता की तलाश और नवगीतनामा’ ये दो
पुस्तकें ऐसी हैं जिन्हें नवगीत-अध्येताओं को पढ़ना चाहिए| इन्हें पढने से नवगीत के
इतिहास की समझ विकसित होने के साथ-साथ वर्तमान समय में नवगीत की दशा-दिशा क्या है
यह भी स्पष्ट होगी| आलोचना को इतहास नहीं कहा जा सकता लेकिन इतिहासबोध की समझ
आलोचना के रास्ते होती है इससे इनकार नहीं किया जा सकता| नवगीत का दस्तावेज की बात
करें तो 332 पृष्ठों की इस पुस्तक में नवगीत के उद्भव से लेकर वर्तमान स्थिति तक
पर विमर्श किया गया है| शम्भुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित नवगीत दशकों का गंभीर
विवेचन-विश्लेषण तो इस ग्रन्थ में किया ही गया है ‘नवगीत : आधी सदी’ शीर्षक पाठ
में नवगीत के अतीत और अंत के दो प्रमुख पाठों “नवगीत इक्कीसवीं सदी में’, और
‘इक्कीसवीं सदी के प्रतिनिधि नवगीतकार’ में नवगीत के वर्तमान और भविष्य पर गम्भीरता
से विचार किया गया है| हालांकि ‘इक्कीसवीं सदी के प्रतिनिधि नवगीतकार’ पाठ में
संकुचित विचार के साथ आते हैं और लगभग बड़ी संख्या में रचनाकारों पर विचार करने से
या तो चूक जाते हैं या मना कर देते हैं, बावजूद इसके इस पुस्तक की संकल्पना पर खरे
उतरते हैं| जिनका नाम इन्होने शामिल किया वे हैं-“ओम प्रकाश सिंह, माधव कौशिक, मधु
प्रसाद, रविशंकर पाण्डेय, ओम धीरज, ओम निश्चल, जय चक्रवर्ती, यश मालवीय, अजय पाठक,
जयकृष्ण राय तुषार|” जहाँ तक रचनाकारों पर बात करने का है तो राधेश्याम शुक्ल, मधुकर
अष्ठाना, गणेश गम्भीर, अवध बिहारी श्रीवास्तव, बृजजनाथ श्रीवास्तव, शैलेन्द्र
शर्मा के साथ-साथ नए रचनाकारों पर भी बात कर सकते थे जो अभी हाल में पदार्पण किये
और अपनी युवा सोच, सृजन क्षमता से न सिर्फ प्रभावित किये अपितु नवगीत की संकल्पना
को आगे बढाए| ऐसा करने से वे चूक जाते हैं लेकिन जहाँ तक बात इस ग्रन्थ के
‘दस्तावेज’ होने की है तो वह इसलिए है क्योंकि इस ग्रन्थ में अतीत से लेकर वर्तमान
तक पर एक सार्थक विवेचन-विश्लेषण मिलता है, जो अन्यत्र मुश्किल है|
‘सार्थक कविता की तलाश और
नवगीतनामा’ में इन्दीवर पाण्डेय और विस्तार के साथ उपस्थित होते हैं और ‘सार्थक
कविता’ की सूक्ष्मता से तलाश करते हुए समकालीन कविता की उपस्थिति पर न सिर्फ
गंभीरता से विचार-विश्लेषण करते हैं अपितु उसके परिप्रेक्ष्य में नवगीत के पक्ष को
मजबूती के साथ रखते हैं| सकालीन कविता के प्रतिरोध में अपनी उपस्थिति रखते हुए
उनका मानना है कि “इस विचारधारा के कवियों और समीक्षकों की सबसे बड़ी कठिनाई यह है
कि वे भारतीय जनता और उसकी परम्पराओं से बिलकुल कटे हुए हैं| भारत की जीवन-विधि और
परम्पराएं आज भी अपने मूल रूप से विच्छिन्न नहीं हुए हैं| इसीलिए भारतीय जनता अपने
मूल छांदस काव्य-परंपरा से अविच्छिन्न रूप से जुडी हुई है| छांदस रचना उसके जीवन
का अंग है| धर्म, दर्शन, आध्यात्म, नैतिकता, इतिहास पुराण, सामाजिक उत्सव, पर्व,
त्यौहार, मनोरंज, ज्ञान-विज्ञान सबकी अभिव्यक्ति यहाँ छांदस रूप में होती रही है|
भारतीय जनता ऐसे रचनाओं को अपनी स्मृति में यथाशक्ति संचित करती है| आवश्यकतानुसार
उसका उपयोग करती रही है और अब भी करती है|”[1] डॉ.
इन्दीवर जहाँ छांदस विधा को इस देश की संस्कृति की मूल आत्मा मानते हैं वहीं गद्य
कविता या समकालीन कविता को ‘बेहया’ और ‘जलकुम्भी’ की उपमा देते हैं| जिसका अपना
कोई अस्तित्व नहीं होता और बार-बार समाज द्वारा काटे-छाँटे जाने के बाद भी वे उपज
आते हैं|
ध्यान देने की बात यह भी है कि यहाँ
समकालीन कवियों ने जिस विचारधारा का हाथ पकड़कर स्वयं को उठाना चाहा निःसंदेह उस
विचारधारा में वह शक्ति नहीं थी कि भारतीय लोक में पदार्पण कर सके| लोक-हृदय में
स्थाई स्थान बनाने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि उसके रीति-रिवाजों,
परम्पराओ-संस्कृतियों से संगति बिठाया जाए, ऐसा करने में इस विचारधारा के लोग असफल
रहे| ये एक नकारात्मक स्वर के साथ पदार्पण किये और उसी वेश में जनता द्वारा नकार
दिए गए| इस नकार और असफलता की खीझ में एक संक्रमण उन्होंने जरूर फैलाया-वह है हर
गली कूचे से कवि एवं साहित्यकारों का उत्पादन| ऐसा करने के लिए कविता की जड़ों को
काटकर उसे गद्य से जोड़ा गया और यह प्रचारित किया गया कि गद्य कविता ही असली कविता
है बाकी सब रुदनगान मात्र है| इस पर इन्दीवर की अभिव्यक्ति ध्यान आकर्षित करती है-“वे
मनसा, यूरोप और अमेरिका में रहते हैं और शरीर से भारत के उन महानगरों में रहते हैं
जिनकी संस्कृति पाश्चात्य में सांचे में ढल चुकी है| भारतीय जनता और भारतीय
संस्कृति से उनका कोई सरोकार नहीं है| वे सोचते हैं कि वे जो कहेंगे या लिखेंगे
उसे समस्त भरतीय जनता आँख मूंदकर स्वीकार कर लेगी| किन्तु ऐसे लोग भ्रम में
हैं...|...आज दिल्ली, भोपाल, लखनऊ या पटना में रहकर जो साहित्यकार देश की जनता को
विदेशी माल बेचना चाहते हैं उनकी बात को जनता सुनती भी नहीं है|...इसलिए कि उनकी
बात न तो जनता की समझ में आती है, न वह याद की जा सकती है और न उसे किसी भी अवसर
पर गाया, या दुहराया जा सकता है, क्योंकि वह गद्य कविता है|”[2] डॉ.
इन्दीवर का ये अभिमत कहीं न कहीं सही भी है| आज हजारों की संख्या में आलोचना
ग्रन्थ लिखे गए हैं गद्य कवियों पर लेकिन लिखने वाले ही मुश्किल से उन कवियों की
रचनाओं का पाठ कर पाते हैं|
साफ़ दृष्टि और निष्पक्ष विचार से
जिस तरह समकालीन कविता की परख इस पुस्तक में की गयी है और जिस तरह नवगीत के पक्ष
को रखने का साहस किया गया है, निःसंदेह वह महत्त्वपूर्ण है और कई स्थानों पर
समकालीन कविता के आलोचकों को प्रतिरोध करने का विकल्प भी देता है| ‘नवगीतनामा’ पाठ
में गीत के उद्भव से लेकर नवगीत के वर्तमान तक के सफर की अच्छी और समृद्ध चर्चा की
गयी है| एक महत्त्वपूर्ण पाठ है इस पुस्तक का “नवगीत : पहचान और परख|” इस पाठ में
गंभीरता से नवगीत लक्षणों पर विचार किया गया है और परख के लिए समीक्षकों को सचेत
रहने के लिए निर्देशित किया गया है| इस पुस्तक के दो पाठ ‘ताकि सनद रहे’...और ‘नई
सदी : नई कड़ी’ ऐसे हैं जो नवगीत सम्बन्धी वर्तमान और भविष्य के चिंतन-बिंदु को भी
स्पष्ट करते चलते हैं| ‘ताकि सनद रहे...’ में उन रचनाकारों के काव्य-दृष्टि का
विवेचन-विश्लेषण है जो किन्हीं कारणों से नवगीत दशकों का हिस्सा नहीं हो सके लेकिन
नवगीत की विकास और समृद्धि में अपूर्व योगदान दिए| जिन रचनाकारों पर चर्चा किया
गया है वे हैं-राजेन्द्र प्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, रमेश रंजक,
शांति सुमन, घनश्याम अस्थाना, सत्यनारायण, श्याम निर्मम, किशन सरोज, हरीश निगम|”
‘नई सदी : नई कड़ी’ में कुछ वर्तमान रचनाकारों पर विचार किया गया है लेकिन वह विचार
परिचयात्मक है विश्लेष्णात्मक नहीं| ‘नवगीत का दस्तावेज’ इस पुस्तक में भी
रचनाकारों के चयन पर वही संकोच वर्तमान है| यहाँ भी नवगीत के कई महत्त्वपूर्ण
हस्ताक्षरों पर बात करने से बचा गया है| जब इस दृष्टि से विचार करते हैं तो
इन्दीवर एक तरह घिरते हुए दिखाई देते हैं जिस पर चर्चा होनी चाहिए|
इन पुस्तकों से आगे देखें तो डॉ
इन्दीवर अपने समकालीन रचनाकरों से वैचारिक स्तर पर भी मुठभेड़ करते हैं| जाहिर सी
बात है कि नवगीत की महत्ता को देखते हुए बहुत से गीतकारों ने जहाँ स्वयं को नवगीत
का चोला पहनाया वहीं बहुत से गद्य कविता वाले नवगीत में घुसपैठ करने में कामयाब
हुए| जिन्होंने कभी नवगीत का समर्थन नहीं किया वे इधर आकर समवेत संकलनों का
प्रकाशन किये| इसके दायरे में उन्होंने भले न नवगीत को दशा-दिशा दिया लेकिन अपनी
दशा और दिशा दोनों सुधार लिया| पिछले कई वर्षों से कई संकलन आए जिसमें से अधिकाँश
को देखेंगे तो पता चलेगा कि “ऐसे संकलन कर्ताओं ने स्वयं को नवगीत का मठाधीश घोषित
करना प्रारंभ कर दिया और स्वयंभू पुरोधा बन बैठने का दम भरने लगे| ये लोग न तो
नवगीत का इतिहास पकड़ पाते हैं और न उसकी परंपरा से साक्षात्कार कर पाते हैं|”[3] यह सब
भले न कर पाते हों लेकिन पैसा, नाम और शोहरत तो मिलता ही है, इसमें तो कोई संदेह
नहीं है
जनगीतकार के रूप में सिद्ध और
प्रसिद्ध नचिकेता नवगीत जैसी कोई विधा स्वीकार नहीं करते| नवगीत के प्रतिरोध में
पहले जनगीत का झंडा बुलंद करने की चाह लिए नचिकेता पूरा दम ख़म लगाते हैं और जब
उसमें असफल होते हैं तब समकालीन गीत की वकालत करने लगते हैं| राजेन्द्र प्रसाद
सिंह और शम्भुनाथ सिंह के बीच नवगीत विधा की जो उठापटक चलती है वह कोई नई बात नहीं
है| नवगीत के नामकरण को लेकर नचिकेता इस पूरी कोशिश में रहे कि तर्क उनका सब को
आकर्षित करने में कामयाब रहे| नचिकेता की इस कोशिश पर इन्दीवर का स्पष्टीकरण
महत्त्वपूर्ण है- वे कहते हैं “नचिकेता का मूल उद्देश्य स्वयं को नवगीत का
ध्वजवाहक सिद्ध करना है| इसलिए स्थापित प्रतिमान को मिटाने का प्रयास करना आवश्यक
है| नवगीत की प्रथम प्रयोक्ता की खोज के विषय में सिद्ध है कि मौखिक रूप से
सर्वप्रथम शम्भुनाथ सिंह और लिखित रूप से राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने इस शब्द का
प्रयोग किया|”[4]
नवगीत के विकास में किसी एक हस्ताक्षर का योगदान नहीं रहा, यह भी इन्दीवर ने अपनी
पुस्तकों में स्पष्ट किया है| ऐसी स्थिति में नाम प्रयोग पर राजनीति करना इतने
लम्बे समय के बाद एक हद तक उचित नहीं है|
शब्द-प्रयोग की राजनीति के बाद
प्रवृत्ति विशेष को लेकर जब नचिकेता नवगीत पर आक्रमण करते हैं तब इन्दीवर के जो
जवाब होते हैं वो जवाब एक हद तक आलोचना की ईमानदारी और सार्थक हस्ताक्षेप की नींव
रखते हैं—“कहाँ फंस गए नचिकेता जी जनगीत खेमे के झंडाबरदार आप रहे हैं, रहिए| नवगीत
पर कृपा करिए...| वह आप के क्षेत्र की चीज नहीं| एक राय बड़ी विनम्रता से...समीक्षा
और शोध गीत या कविता लिखने वाला नहीं कर सकता| क्योंकि उसकी तटस्थ दृष्टि नहीं हो
सकती| निज कवित्त केहिं लाग न नीका...|”[5] इन्दीवर
के इस विचार पर ठहरकर सोचने की जरूरत है| इसमें कोई दो राय नहीं है कि नचिकेता
नवगीत जैसी किसी विधा को नहीं मानते| इस क्षेत्र में उनका हस्ताक्षेप महज श्रेय
लूटने का हस्ताक्षेप रहा है| आलोचना में जिस निरपेक्ष और तटस्थ दृष्टि की आवश्यकता
होती है, उसके लिए कवि के पास न तो उतना स्पेस होता है और न ही तो ऐसी दृष्टिबोध,
जिसके माध्यम से वह निरपेक्ष मूल्यांकन कर सके| कवि स्वभावतः भावुक होता है और
आलोचना भावुकता की नहीं तार्किकता का विषय है|
डॉ. इन्दीवर का योगदान नवगीत आलोचना
में इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक सकारात्मक दृष्टिकोण से नवगीत विधा की
शक्ति और सामर्थ्य पर उन्होंने चिंतन किया है| कई लोग नवगीत में समकालीन साहित्यिक
विमर्शों पर न बात करने का आरोप लगाते हैं| ऐसे लोगों की मंशा पर पानी फेरते हुए
इन्दीवर कहते हैं कि “नई सदी के नवगीतकार ने अपने कथ्य में स्त्री-विमर्श,
अल्पसंख्यक विमर्श और दलित तथा पिछड़ों के विमर्श पर भी ध्यान दिया है किन्तु उनका
स्वर विखण्डनवादी न होकर समन्वयवादी है|”[6] जब
इन्दीवर समन्वयवादी कहते हैं तो यह कहना चाहते हैं कि इधर जो भी विमर्श लेकर आए
हैं वे जन-सम्वेदना को बांटने के उद्देश्य से नहीं अपितु जोड़ने के उद्देश्य से आए
हैं| जबकि यह अपनी तरह का यथार्थ है कि दलित, आदिवासी क्षेत्र से बहुत कम रचनाकार
इधर सक्रिय हैं| स्त्रियों में बहुत तो ऐसी हैं जो महज अपने अतीत-गान और
वर्तमान-सुख में ही डूबी हुई हैं, कुछ हैं जो स्त्री अधिकारों और कर्तव्यों को
लेकर मुखर हैं| सच यह भी है कि इधर के नवगीतकार उत्तर आधुनिक विमर्शों पर नजर गड़ाए
हुए हैं और लगातार यथार्थ-चित्रण पर बल दे रहे हैं, लेकिन एक सीमाओं के दायरे में
रहते हुए| इस बात को यदि इन्दीवर के विचारों में समझने का प्रयास किया जाए तो यह
प्रतीत होता है कि “इक्कीसवीं सदी का नवगीतकार आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता को
स्वीकार भी करता है और चुनौती भी देता है| अर्थात वह नवगीत में युग सापेक्ष
अनुभूति और सम्वेदना को अभिव्यक्ति देने के लिए किसी भी विचार-बोध, प्रत्यय अथवा
दर्शन को उसी सीमा तक ग्रहण करता है जिस सीमा तक उसका मेल और सामंजस्य भारतीय
चेतना से हो जाए|”[7]
अब भारतीय चेतना में कितना विस्तार है इन्दीवर के, यह एक अलग विमर्श का विषय है
जिस पर चर्चा होनी चाहिए|
3
यह सच है कि इधर बहुत कम काम हुआ
नवगीत आलोचना पर| अधिकांश विचार और दृष्टि का निर्माण जब भी किया गया नवगीत
संकलनों और सम्पादित ग्रंथों के आधार पर किया गया| ये आधार अपने-अपने गुट और
अपनी-अपनी मान्यताओं पर सीमित होकर रह जाते हैं, इससे कहाँ तक इनकार किया जा सकता
है? ऐसा मूल्यांकन हम जब भी करेंगे इन्दीवर की आलोचना-दृष्टि पर प्रश्न उठेगा|
प्रश्न इसलिए भी उठेगा कि नवगीत दशकों में शामिल कितने ऐसे नवगीतकार हैं जिनमें न
तो उस समय कोई नवगीत-सम्वेदना थी और न तो उसके बाद भी विकसित हो पाई| वहीं नवगीत
दशकों में न शामिल होने वाले कई रचनाकार इतने योग्य थे कि उनका पक्ष रखा जाना
चाहिए था| हालांकि ‘ताकि सनद रहे...’ पाठ में इन्दीवर ने ऐसा किया भी लेकिन नवगीत
में शामिल रचनाकारों पर उनकी प्रशंसात्मक अनुशंसा और आक्रामक चुप्पी सवाल खड़ा करती
है|
‘नवगीत दशक’ अपने ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में नवगीत की आधारशिला है, यह सम्भव है| इससे किसी रूप में इनकार
नहीं किया जा सकता| जब आप जिम्मेदारी से इस ‘महत्त्वपूर्ण संकलन’ का निरीक्षण करते
हैं तो कुछ ‘विशेष कमियां’ दिखाई देती हैं जिनका आलोचकों द्वारा उसी रूप में अभी
तक अनुसरण होता आया जैसा कि उसके संस्थापक-सम्पादक शम्भुनाथ सिंह ने ‘दिखाया’
‘रखा’ या ‘बताया’| कहने को यह नवगीत का प्रारंभिक दौर था लेकिन यह भी ध्यान रखना
होगा कि इस दौर में तीन दशकों का ‘बड़ा दौर’ शामिल है| इतने में समकालीन हिंदी
कविता के कई आन्दोलन शुरू हुए और समाप्त हो गए|
नवगीत विधा अपनी जमीन उर्वर बनाने
की प्रक्रिया में इन तीन दशकों तक ‘समर्थ’ रचनाकारों की पहचान में सक्रिय थी
जिसमें कई अच्छे रचनाकार ‘राजनीति’ का शिकार होकर बाहर हो गए जबकि कई ऐसे रचनाकार
नवगीत दशकों में घुसपैठ करने में सक्षम हुए जिनमें आज तक वह गंभीरता और परिपक्वता
नहीं दिखाई दिया, जिसकी अपेक्षा स्वयं शम्भुनाथ सिंह ने की थी| साहित्यिक संकलनों
में कितनी राजनीति होती है, यह नवगीत दशक को देखकर आसानी से समझा जा सकता है|
खैर...
जब मैं नवगीत दशक की यात्रा से
गुजरते हुए आज के परिदृश्य पर विचार करता हूँ तो यह नजर आता है कि कितने नवगीतकार
ऐसे हैं जो महज वरिष्ठों की कृपा-दृष्टि पर आज तक ‘नवगीत’ के शहंशाह बने हुए हैं|
यह हो सकता है कि पूर्वजों की कुछ मजबूरियां रही हों ‘नवगीत’ की विकास प्रक्रिया
में उन्हें शामिल करने की और यह भी हो सकता है कि कुछ ऐसे लक्षण दिखाई दिए हों जो
भविष्य में और अधिक मजबूत होते, इसी को आधार बनाकर उन्हें शामिल किया गया हो;
लेकिन यह कतई नहीं हो सकता कि सम्बन्धित रचनकार अपनी योग्यता को सिद्ध ही करे? तो
इसे परखेगा कौन? जाहिर-सी बात है कि आने वाला समय उसका मूल्यांकन स्वयं करेगा|
हम किसी को इस आधार पर ईमानदार मान
लें कि ‘अमुक’ व्यक्ति ने ‘अमुक’ को ईमानदार कहा था, यह हमारी दयनीता हो सकती है,
विवशता हो सकती है लेकिन निरपेक्षता नहीं| निरपेक्षता के लिए आपके पास दृष्टि होती
है जिसका प्रयोग करना चाहिए| आलोचना कतई सुनी-सुनाई बातों की रस्म-अदायगी नहीं है|
न ही तो यह परम्परा-निर्वहन की भक्ति-पद्धति है| हो सकता है कि आपके प्रश्न से लोग
आहत हों? यह भी हो सकता है कि आधार-स्तम्भों को ख़ारिज करने का आरोप आप पर लगाया
जाए? लेकिन यह जरूरी है कि एक ईमानदार कोशिश ‘सही’ को ‘सही’ और ‘गलत’ को ‘गलत’
कहने की होनी चाहिए|
जब मैं इस ‘कोशिश’ को नवगीत दशकों
पर विचार करते हुए मूर्त रूप देना चाहता हूँ तो सबसे पहले रचनाकार के तौर पर
बुद्धिनाथ मिश्र सामने आते हैं जिन्हें मेरी दृष्टि में, महज इसलिए शामिल किया गया
क्योंकि शम्भुनाथ सिंह के साथ इनके रिश्ते अच्छे थे| इनके गीतों में उस समय भी वह
गम्भीरता नहीं थी जो पूर्व के दशक में अन्य नवगीतकारों में दिखाई देती है|
पारंपरिक गीत विधा की वही भावुकता, वायावी उड़ान, काल्पनिकता, रोमानियत और वैयक्तिक
आत्ममुग्धता हावी है इन पर जिससे किनारा करते हुए नवगीत की जमीन को विकसित करने की
कोशिश हो रही थी| नवगीत का ऐसा कोई हस्ताक्षर नहीं है जो इस सच्चाई को न जानता हो
बावजूद इसके जब-जब नवगीत दशकों की प्रशंसा होती तब-तब बुद्धिनाथ मिश्र के पक्ष में
प्रशंसा के पुल बांधे जाते हैं| क्यों? यह प्रश्न आपको नवगीत आलोचना के तह तक लेकर
जाएगा|
महेश्वर तिवारी पर इसी पुस्तक के एक
अंश “जिनसे नवगीत पर प्रश्न लगे” में मैं चर्चा कर चुका हूँ, यहाँ अलग से चर्चा
करना उचित नहीं मानता| इतना जरूर यहाँ कहना चाहता हूँ कि जिस अपेक्षा से इन्हें
शामिल किया गया था उस अपेक्षा पर पूरे जीवन खरे नहीं उतर सके| आज भी नहीं उतर रहे
हैं| अपने वैयक्तिक घेरे और सीमाओं में कैद होकर रह गये| माहेश्वर तिवारी एक ‘नाम’
बनकर रह गया जिसका फायदा वह भी उठा रहे हैं और वे भी उठा रहे हैं जो इनके छत्रछाया
में रह रहे हैं|
देवेन्द्र शर्मा इंद्र से अपेक्षाएं
अधिक थीं शम्भुनाथ सिंह की| यह सभी मानते हैं| मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है
कि ऐसा कुछ विशेष देवेन्द्र के माध्यम से न किया जा सका नवगीत-रचनाधर्मिता पर, जो
उस अपेक्षा को खरा साबित कर सके| छायावादी शाब्दिक जाल से बुने गीतों में
वैयक्तिकता हावी रही| कभी स्वयं के दुःख और संकट से बाहर निकले भी तो महज
सांस्कृतिक सन्दर्भों तक सीमित होकर रह गए| जिस सामाजिक और राजनीतिक
सम्वेदना-अभिव्यक्ति की अपेक्षा उनसे थी, वह निखरकर सामने न आ सकी| आड़े-छिपे सब यह
बात स्वीकारते भी हैं लेकिन लिखित रूप में ऐसा कहने से सबको संकोच होता रहा|
क्यों? यह प्रश्न ही नवगीत विधा की आलोचना न हो पाने का उत्तर है| अब सवाल यह है
कि इसका उत्तर कौन दे और प्रश्न कौन पूछे?
निश्चित तौर पर ये नवगीत के आइकॉन
थे जिनका समृद्ध होना विधा का समृद्ध होना था| न तो ये नवगीत की संकल्पनाओं पर
गंभीर हो सके कभी और न ही तो गंभीर होने के लिए इन पर कभी कोई दबाव बनाया गया| ऐसा
होने के पीछे आलोचना-दृष्टि का अभाव होना तो है ही आलोचकों का भी अभाव होना है|
नवगीतकारों ने नवगीतकारों को बढ़ाया-चढ़ाया, यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है| लेकिन
अब जब इस विधा को लेकर सभी गंभीर हो रहे हैं तो एक स्वस्थ मूल्यांकन परम्परा का
विकास इस विधा में होना चाहिए, ये प्रयास करना होगा|
[1]
डॉ. इन्दीवर, सार्थक कविता की तलाश और
नवगीतनामा, आकृति प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृष्ठ-37
[2]
डॉ. इन्दीवर, सार्थक कविता की तलाश और नवगीतनामा, आकृति प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृष्ठ-38
[3]
डॉ. इन्दीवर, नवगीत का दस्तावेज, विजय प्रकाशन प्रा.लि. वाराणसी, 2017, पृष्ठ-294
[4]
डॉ. शम्भुनाथ
सिंह साहित्य समग्र (प्रथम खण्ड), के. एल. पचौरी प्रकाशन, गजियाबाद, 2017, पृष्ठ-52
[5]
डॉ. शम्भुनाथ
सिंह साहित्य समग्र (प्रथम खण्ड), के एल पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद, 2017, पृष्ठ-53
[6]
डॉ. इन्दीवर, नवगीत का दस्तावेज, विजय प्रकाशन प्रा.लि. वाराणसी, 2017, पृष्ठ-299
[7] डॉ. इन्दीवर, नवगीत का दस्तावेज, विजय प्रकाशन प्रा.लि. वाराणसी, 2017, पृष्ठ-299
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