1.
छान्दस एवं गीतात्मक विधा होने की
वजह से अक्सर लोग नवगीत को समकालीन नहीं मानते| हालांकि यह तर्क अब पुराना हो गया
है लेकिन रह-रहकर अभी भी, एक झोंका, जभी जिसे याद आ जाए, मार दिया जाता है इस विधा
पर| समकालीन न मानने वाले छन्दमुक्त कविता में भले ही वैयक्तिक भावों को वैश्विक
मान लेंगे, लिजलिजी एवं कामुकता की हद तक जाकर लिखी गयी कविताओं का भाष्य यथार्थ
चित्रण (समाज में जैसा घटित हो रहा है) के कोण से कर बैठेंगे लेकिन सीधी, सरल और
समय-सापेक्ष नवगीत को यह कहकर ख़ारिज कर देंगे कि उसमें यथार्थ को कहने का साहस
नहीं है|
ऐसा क्यों कहा जाता है? या क्यों
ऐसा लोग सोचते हैं इस विधा के सम्बन्ध में? इसमें कुछ बातों को समझ लेना बहुत
जरूरी है| पहली बात तो ये है कि ऐसा कहने वाले बिलकुल इस विधा की गतिविधि से अनजान
होते हैं| उन्हें यह नहीं पता होता है कि इस विधा में क्या लिखा जा रहा है और
लिखने वाले हैं भी या नहीं| इस बात पर आपको विश्वास भी नहीं होगा| है यह
महत्त्वपूर्ण बात| कुछ बड़े नामों को छोड़कर उनके पास किसी का रचना-परिचय नहीं होता|
जब उनसे पूछेंगे तो बड़े गर्व से कहेंगे “इधर तो मैंने पढ़ा नहीं| यह भी पता नहीं है
कि कौन लोग हैं जो नवगीत वगैरह लिख रहे हैं| लेकिन पहले के नवगीतकारों को पढ़ा हूँ|
हालांकि उनमें वह चेतना है भी लेकिन इधर जो लिखा जा रहा है, उसे मैं समकालीन कैसे
मान लूँ?” यहाँ जगदीश पंकज का एक नवगीत अचानक मन में कौंध जाता है जो उन्होंने कहा
तो दूसरे सन्दर्भ में लेकिन नवगीत के सन्दर्भ में यह बात खूब लागू होती है-
सुनो मुझको/ इस समय/ मैं भी उपस्थित
हूँ/ सदन में
बिन सुने ही पक्ष मेरा/ हो रहा
निर्णय सदा अनुमान से/ हमदर्द बनकर
पर निरुत्तर प्रश्न सबके सामने/ अब
भी खड़े वाचाल-से हैं/ ढीठ तनकर
और कितनी बार/ दूँ विस्तार भर/ अपने कथन में
जो सुनाया या/ दिखाया जा रहा है/ वह
नहीं सब सत्य/ इस मेरे समय का
घुट रहे अवसाद में/ उल्लास के भी
क्षण/ कहाँ विस्तार/ पीढ़ी की विजय का
ऊब-उकताहट चुभोती/ नित्य पिन/ अनगिन
बदन में
कह रहा हूँ चीखकर/ वह टीस जो अब तक/
सुनी मैंने/ निरंतर चेतना की
अनसुने फिर भी रहे हैं/ शब्द जिनसे/
व्यक्त होती वेदनाएं/ यातना की
कब सुनोगे/ क्या मिलाऊँ क्रोध को/
अपने रुदन में|” (सुनो मुझे भी, पृष्ठ-112)
इस गीत के आलोक में आप यथार्थ जमीन
की सिनाख्त कर सकते हैं कि बगैर रचनाकारों और रचनाओं की परख के जो निर्णय सुनाया
जा रहा है, वह निर्णय कितना एकाकी और एक पक्षीय निर्णय है? एक तरफ तो यह कहते हैं
कि इधर के रचनाकारों का नहीं पता वे क्या लिख रहे हैं, पुराने के आधार पर एक
मान्यता बना लिए हैं, दूसरी तरफ कहते हैं कि इधर कुछ विशेष लिखा ही नहीं जा रहा
है| यह विरोधाभास है| यथार्थ है हमारे समय के उन बड़े नामों का जो ये गाँठ बाँध लिए
हैं कि उस विधा को न तो कभी पढेगे और न ही तो उसे समृद्ध मानेंगे| हिंदी साहित्य
का बड़ा से बड़ा आलोचक कुछ नामों के इर्द-गिर्द कैद होकर रह गया| क्यों? क्योंकि वह
उसी में अपना विकास देखने लगता है| जिस प्रकार एक कुँए में रहने वाला मेढक उसे ही
अपना सर्वस्व मान बैठता है वही स्थिति उनकी होती है| पिंजरे में कैद तोते को बाहर
की जानकारी होती ही क्या है? कभी मुक्त भी होता है तो फिर उसी में आकर बैठ जाता
है|
नवगीत को लेकर यही स्थिति है| आलोचक
कविता से होकर निकलता है और कविता में निर्वाण पाने की अंतिम इच्छा लिए मुक्ति की
कामना करने लगता है| यह भी सही है कि कविता के आलोचक गिनती के हैं | जितने हैं उन
पर एक हद तक छन्दमुक्त कविता का एकाधिकार है| उन्नति से लेकर पदोन्नति तक का
रास्ता वहीं से होकर जाता है, यह भी सही है| उन्हीं को पढ़ना और उन्हीं में रमकर रह
जाना एक तरह का शगल बन गया है| चिंता की कोई ऐसी बात नहीं है लेकिन यही लोग जब
बिना पढ़े और देखे किसी विधा को खारिज करते हैं तो आलोचना की दयनीयता और रचनाकार की
संकीर्णता पर क्षोभ होना स्वाभाविक हो जाता है|
2.
नवगीत कितने हद तक समकालीन विधा है इसका
निर्धारण हवाई फायर करने से नहीं, पढ़ने-समझने से होगा| ऊपर यह कह चुका हूँ कि इधर
इस विधा को पढ़ने की कोशिश बिलकुल आलोचकों द्वारा नहीं की गयी| जहाँ पढ़ाया जाना
चाहिए वहां भी कोई ऐसा प्रयास नहीं हुआ, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है|
हिंदी आलोचना में अकादमिक जगत का हस्तक्षेप बहुत अधिक है और वह शुरू से हावी रहा
है| आज भी कोई रचनाकार तब तक रचनाकार नहीं माना जाता जब तक उस पर कोई
प्रोफेसर-आलोचक अपना अभिमत न प्रकट कर दे|
हिंदी के लगभग 80 प्रतिशत प्रोफेसर
जो विषय पढ़ाते हैं, वही नहीं पढ़ पाते हैं| तो नवगीत को लेकर क्या कुछ कहेंगे? यह
हम सभी को पता है| 10 प्रतिशत प्रोफ़ेसर आलोचक कम विमर्शकार-राजनीतिक अधिक हैं|
पांच प्रतिशत अन्य विधाओं में ताक-झाँक लगाए बैठे रहते हैं तो शेष पाँच प्रतिशत
महज स्मृतियों में कहीं सुरक्षित रहना उचित समझते हैं| यदि यह कहें कि बमुश्किलन एक-आध
प्रतिशत प्रोफ़ेसर-आलोचक ऐसे हैं जो नवगीत को जानते या समझते हैं तो इस पर विश्वास
आप कर सकते हैं|
नवगीत के साथ एक घटना बड़ी भयानक घटी
कि इसे चालाकी के साथ अकादमिक जगत से निष्काषित कर दिया गया| एम.ए. स्तर के
विद्यार्थियों में इस विधा की जानकारी इधर पंजाब के क्षेत्र में नहीं देखी जा रही
है| शोध-विषय के रूप में वह नवगीत को चुने, कहाँ सम्भव है? इने-गिने विश्वविद्यालय
में इने-गिने शोधार्थी का शोध-विषय नवगीत पर होता है| प्राध्यापक तक को नवगीत नाम
की विधा की कोई समृद्ध जानकारी नहीं है| अपवाद हो सकते हैं यह अलग बात है| कालेजों
में तो लगभग नहीं होता विश्वविद्यालयों में थोड़ा-बहुत हो तो हो| अब सवाल यह है कि
जहाँ से कुछ सीखा-सिखाया जाता है वहीं नवगीत को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखाई देती
तो समकालीनता का निर्धारण कौन करेगा? आंकड़ों में आपको अतिश्योक्ति भले लगे, सच कुछ
ऐसा ही है|
3.
नवगीत समकालीन है या नहीं इसके
निर्धारण के लिए आप वर्तमान पत्रिकाओं की तरफ ध्यान दौड़ा सकते हैं| वाद-सम्वाद की
प्रक्रिया वहीं से शुरू होती है| वहीं से विचारों की दशा-दिशा तय होती है| कितने
ही चेहरों को इस रास्ते बड़ा नाम बनते देखा है मैंने| लेकिन जब आप पत्रिकाओं की तरफ
रुख करते हैं तो इन्हीं संकीर्णताओं की धमक वहां भी मिलती है, जो आलोचना और
अकादमिक जगत का यथार्थ है|
विश्वास तो आपको नहीं होगा लेकिन सच
यही है कि, इक्के-दुक्के नवगीतकार छप जाएं यह बड़ी बात है, चर्चा-परिचर्चा इस विधा
को लेकर आपको नहीं मिल सकती| यहाँ विधाओं के भविष्य से कहीं अधिक चर्चा गुटों को
गिराने और उठाने की रहती है| अमुक गुट का रचनाकार ब्राह्मणवादी है अमुक गुट का
रचनाकार जनवादी, बहस-मुबाहिसे में यही चिंता सबसे अधिक होती है| अमुक गुट के
रचनाकार के सम्बन्ध अमुक गुट की रचनाकार के साथ हैं इस प्रकार की सस्ती सक्रियता
भी भरपूर मिलती है| विडंबना की बात तो यह है कि इस घटिया किस्म की राजनीति में भी
नवगीतकारों का नाम लेने वाला कोई नहीं है|
नवगीतकार भला इतने भोले कैसे हो गए
कि एक-दो विवाद भी नहीं करा सके? जबकि यह स्थाई रूप से उन्हें पता है कि भारतीय
मीडिया और हिंदी साहित्य दोनों विवादों के जरिये जिन्दा हैं और इसीलिए जाने जाते
हैं| आम आदमी तब नामवर सिंह को जानने लगा जब उनके विवादित वक्तव्य लोगों के बीच
पहुंचे| विमर्शकारों की तो पूरी-की-पूरी वैचारिकी ही विवादों से अटी पड़ी है| इधर
कुछ पुरस्कार ऐसे हैं जो दिए ही उनको जाते हैं जो विवादित बोलकर या तो भारतीय जनता
को आकर्षित कर सकें या फिर उन्हें आक्रामक बना सकें|
गीत की भावुकता और कविता की
तार्किकता को लेकर पहले कुछ हो-हल्ला हो भी जाता था लेकिन इधर तो एकदम शांति है|
कोई मुद्दा नहीं| नवगीत वाले भी कविता वालों को पता नहीं क्या-क्या कहते फिरते थे,
इधर सब शांत हैं| उनके लिए जरूरी है देश में शांति और सामंजस्य को बनाए रखना| इसीलिए
इस विधा में विख्यात, ख्यात, कुख्यात की अपेक्षा गीत ऋषि और गीत कुमार अधिक पाए
जाते हैं| सच कहूँ तो गीत ऋषि, गीत कुमार के नाम से कुख्यात्त यही लोगों ने नवगीत
को एकदम कोमा में लाकर छोड़ा है अन्यथा तो इस जैसी विधा शायद ही कोई हो?
तो नवगीत की समकालीनता की परख कहाँ
हो? कहाँ यह निर्धारित हो कि नवगीतकार हमारे समय की विसंगतियों को अपनी रचनात्मक
अभिव्यक्ति का माध्यम बना रहे हैं? परिवेश की संकीर्णता से लेकर वैश्विक-संकीर्णता
तक को देख-परख रहे हैं, किस लैब में इसका परीक्षण किया जाए? ये ऐसे प्रश्न हैं जो
नवगीतकारों के मन-मस्तिष्क में बार-बार उठते हैं और मैं भी इस पर लगातार सोचता
रहता हूँ| यह सब महज सोच और चिंता का विषय बनकर रह जाता है, इसमें भी कोई दो राय
नहीं है| कारण कि, कोई सार्थक कार्य नहीं हो रहा है और न ही तो कोई सार्थक
उपस्थिति अपनी दर्ज करवा रहा है|
4.
नवगीत में समकालीनता कितनी है यह मात्र
पढ़कर समझा जा सकता है| रचनाओं का विश्लेषण करके समझा जा सकता है| हवा-हवाई बातें
करने से कोई मतलब नहीं है| युग-सच को हर रचनाकार अपनी दृष्टि से देखता है, वह किसी
विधा का क्यों न हो| नवगीतकारों ने अपने समय की विसंगतियों, परिवेश की क्रूरताओं,
वैश्विक षड्यंत्रों, सामाजिक विभेद्ताओं, हृदयगत दुर्बलताओं को ज़िम्मेदारी के साथ
देखा-परखा और उन्हें अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया| हर विधा की अपनी
सीमाएं होती हैं तो नवगीत की भी अपनी सीमाएं हो सकती हैं| जब हर विधाओं में आप एक
विशेष छूट के साथ आते हैं तो नवगीत में उसी छूट को लेकर आने में क्या दिक्कत है?
पहले यदि सीमाओं की बात करें तो
‘गुदा विमर्श’ (अम्बर पाण्डेय और मोनिका कुमार) अभी तक इस विधा का हिस्सा नहीं बन
सका| रोमालियुक्त योनि वाली माँ’ (शुभमश्री) भी इस विधा का हिस्सा नहीं है| इस
विधा के रचनाकार उत्तेजक दोपहर की खोज नहीं कर रहे हैं| ऐसा नहीं है कि इनके यहाँ
श्रृंगार, रोमांस और प्रेम-प्रूम नहीं है, है सब लेकिन उनका एक दायरा है| इसके
बाहर वे नहीं जा पा रहे हैं| एक बड़ा कारण इसका जो मैं मानता हूँ वह है रचनाकारों
का मानसिक रूप से गाँव जैसे बहुत सांस्कृतिक क्षेत्र से अधिक सम्बद्धता होना| मैं
गाँव का कहकर आपको किसी भी रूप में सीमित नहीं कर रहा हूँ इसे स्वाभाविक रूप से
मानसिक निर्मिति के रूप में देखा जाए|
समकालीनता की पहली शर्त यह है कि
आपने आम आदमी के पक्ष में क्या कहा? आपके अपने समय में ‘भूख’ का जो यथार्थ है उसे कैसे
और कितना अभिव्यक्त किया? रोजी-रोटी की तलाश में भटक रहे जन की यथा-व्यथा को किस
तरह महसूस किया? ये ऐसे प्रश्न हैं जिसमें रचनाकारों की मनःस्थिति को परखा जाता
है| यह देखा जाता है कि किस हद तक कवि समय वेदना और परिवेश की सच्चाई को अभिव्यक्त
कर पा रहा है? कहीं वह अपने ही सुख-सुविधाओं-दुविधाओं में कैद होकर तो नहीं रह जा
रहा है?
जब हम ‘भूख’ की समस्या और उसके
यथार्थ की बात करते हैं तो यह देखते हैं कि नवगीतकार उसे महज अभिव्यक्त मात्र न
करके जी भी रहे हैं| जीना इस अर्थ में कि आम आदमी कैसे रोटी और रोजगार के बीच
त्रिशंकु बनकर झूल रहा है और कैसे समय की क्रूरताएँ उन्हें छल रही हैं, आँखों के
सामने घटित हुए ऐसे दृश्य को देखकर नवगीतकार आँखों से खून टपका रहे हैं| 60-70 के
दशक से लेकर लगभग 2000 तक ये स्थिति थी कि आम आदमी को बहुत कम अन्न मिलते थे दिन
भर मजूरी करने के बावजूद| इस पर भी तमाम प्रकार की अडचनें, तमाम प्रकार के गतिरोध
उसे सहना पड़ता था| ऐसी स्थिति में हम रमेश रंजक के इस गीत में उठते प्रश्न को कैसे
भूल सकते हैं “सच कहना कितना खाता है/ भूखा पेट गरीब का/ साँझ ढले तक अपनी
काया/ झूठी सच्ची दया-दिलासा/ अधनंगी फटकर देह पर/ फिर भी रहता भूखा-प्यासा/
रात-रात भर पछताता है/ भूखा पेट गरीब का|”[1]
आज भी वह पछता रहा है| न विश्वास हो तो गाँव में एक चक्कर लगाकर आइये| एक चक्कर
महानगरों में लगाकर आइये| मिलो फैक्ट्रियों में देखकर आइये|
राजेन्द्र प्रसाद सिंह का गीत-मन
चिमनियों मीलों में पहुँचता है और देखता है कि “चटकल की चिमनी ने आज तरेरी आँखें/
मिल की भट्ठी आग-लहू का भेद मिटाती/ कारखाने या मजदूर/ इकट्ठे हिम्मत से भरपूर/
नशे में चूर|”[2]
देखिये तो कैसे खून और आग दोनों जल रहे हैं और किस तरह फिर भी ‘हिम्मत से भरपूर’
होकर वे कार्य कर रहे हैं| किसलिए महज रोटी के लिए| यह वही भूख थी जिसके लिए
“दल-दल में धंस नदी समन्दर में भी डूबे/ दबे नींव में दीवारों में चुने गए हम/ छत
से फिसले, गिरे/ पहाड़ों, खानों में फँस मरे/ कैद में सड़े-नाम पर श्रम के|”[3]
क्यों? क्योंकि घर-परिवार का पेट पालना था और जिन्दा रहना था|
प्रसंग बहुत लम्बा न हो इसके लिए जब
आगे बढ़ें तो देखें कि ‘भूख’ के सामने घर की छत और रोजगार की चिंता दोनों विकट
समस्या हैं| हमें उस बेघर होते युवा की आँखों में घुसकर देखना होगा जो रोजगार के
अभाव में ‘रोटी’ से महरूम हैं| अवध बिहारी श्रीवास्तव का एक नवगीत है ‘क. ख. ग.’|
इस नवगीत में वह ऐसे ‘किशोर’ की तस्वीर उपलब्ध करवाते हैं जो रोजी, रोटी और घर
तीनों से बेदखल है| कैसे रोटी की किल्लत सहने वाले आम आदमी के जीवन में आपदाओं का
आगमन होता है और किस तरह इन समस्याओं के बीच उसकी नोकरी छूटती है, आप कल्पना करिए
और इस नवगीत के अंश को देखिये-
ताक रहा है आसमान में/ भौचक खड़ा
किशोर
आग लगी रोटियाँ बचाने/ माँ भागी
भीतर/ बाबू खोल रहे थे बकरी/ तभी गिरा छप्पर
गूँज रहा है कानों में तब से/ अनाथ
का शोर
बचपन से सूती करघे पर/ खुद रोटी
बुनकर/ पाल रहा था दादी को भी/ छोटा कारीगर
तभी अचानक काट दी गई/ रोजगार की
डोर|”[4]
‘अनाथ हुए किशोर’ और ‘रोजगार की
डोर’ जिसकी कटी उस’ छोटा कारीगर’ में आपको समकालीनता क्यों नहीं दिखाई देती? ध्यान
से देखेंगे तो ये अभिव्यक्ति कोई समान्य अभिव्यक्ति नहीं है| पूरे परिवेश की भयानक
यन्त्रणा की यथार्थ तस्वीर है| भूख का और भी भयानक तस्वीर देखनी हो तो अभी-अभी आए
योगेन्द्र मौर्य की इन पंक्तियों को पढ़िए-“माँ बच्चों का/ मन बहलाने/ पाये कहाँ
खिलौने!/ पीड़ा देती,/ भूख पेट को/ नहीं अन्न के दाने/ बूढी काकी/ ओसारे में/ कैसे
गाए गाने/ उलझन और/ उनींदेपन में/ चुभते रहे बिछौने|”[5] ‘बूढ़ी
काकी’ में गाँव की असहाय माओं का दुःख क्यों नहीं दिखाई देता? क्यों “चुभते रहे बिछौने” की मार्मिक
अभिव्यक्ति आपको सालती नहीं? स्वयं से सोचिये तो कुछ पता चले क्योंकि यह मन की
भावुकता नहीं है परिवेश का यथार्थ है|
भूख हमें मजबूर करती है, विवश करती
है| जो वह चाहती है वही हम करते हैं| चोरी और डकैती के पीछे इसी भूख का हाथ रहता
है तो तमाम अपराध भूख से विवश लोग ही करते हैं| अजय पाठक इस स्थिति को अभिव्यक्त
करते हुए कहते हैं- “सडकों पर यह भूख निकलकर/ जब भी आती है रोटी-रोटी कहकर जनता/
शोर मचाती है/ निष्ठावानों को भी यह/ गद्दार बनाती है/ इसी भूख के कोलाहल में/
अपनी ताल मिलाकर देखें|”[6] यह जो
ताल मिलाकर देखने की बात है सही अर्थों में उस भूखी और विवश जनता से जुड़ने की अपील
है| नवगीत-मन रोजी-रोटी दोनों की उपलब्धता के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन स्थिति न
तन्त्र की स्पष्ट है और न ही तो इस देश के रहनुमाओं की| यश मालवीय जैसे समृद्ध
नवगीतकार की दृष्टि में “पूरा कालखंड है रोज़ी-/ रोटी का ही मारा/ हर दिन जीभ निकाले,/ कुत्ते सा फिरता आवारा/ रोज़गार में सिर्फ़ सियासत,/
हाथ कटे हैं सबके/ हिंदू-मुस्लिम, अगड़े-पिछड़े,/ ऊँचे-नीचे तबके|”[7] भूख
पर साम्प्रदायिकता और जातिवादिता की गोटी बिछाई जा रही है लेकिन रोजगार उपलब्ध
करवाने का जोखिम नहीं उठाया जा रहा है|
जब आप रोजगार की मांग करते हैं तो
आपको ‘धर्म’ का पाठ और समर्पण की राजनीति सिखाई जाती है और जब आप ‘रोटी’ की मांग
करते हैं तो हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर दंगे करवाए जाते हैं| शहर में जो दंगे होते
हैं वह अचानक नहीं होते, स्वयं से नहीं होते| बहुत सुनियोजित तरीके से करवाए जाते
हैं लेकिन समस्या क्या आती है? भूख से मरने का यथार्थ आँखों के सामने नाचने लगता
है-जगदीश पंकज कहते हैं-“आज/ भूखे पेट ही/ सोना पड़ेगा/ शहर में दंगा हुआ है/ एक
नत्थू/ दूसरा यामीन है/ आँख दोनों की/ मगर ग़मगीन है/ बिन मजूरी/ दर्द को ढोना
पड़ेगा/ शहर में दंगा हुआ है|”[8] शहर
में दंगे होते हैं और आदमी भूखों सो जाता है| गांवों में दबंग होते हैं और आदमी
भूखा रह जाता है|
कितनी तो विडंबना है कि रोजगार के
अभाव में शहर हो कि गांव दोनों जगह भूख से पीड़ित है आम आदमी| एक जगह अभाव है तो
दूसरी जगह शोषण| अभाव को ख़त्म करने के लिए जो आम आदमी गाँव से शहर जाता है वह
शोषित होता है और होकर वापिस गाँव आता है| यह कितनी विडंबना है कि गांव की भुखमरी,
अभाव और संकीर्णताओं से दूर शहरों में रहने वाला मजबूर मजदूर अंततः उसी भुखमरी,
अभाव और संकीर्णताओं को लेकर वापस आता है? सोचिए तो कुछ पता चले...| राहुल शिवाय
का एक गीत है “तब क्या थे, अब क्या हैं”- इस गीत में शहरों के दकियानूसी स्वभाव,
मजदूरों के पलायन की तस्वीर और ऊपर से देश के प्रधानमन्त्री द्वारा दिए गए
‘आत्मनिर्भर होने’ के संदेश को बड़ी गहराई और यथार्थ में प्रस्तुत किया गया
है-यथा
नहीं जरूरत रही/ शहर को मजदूरों की/
अब लौटे हैं गाँव, वहां पर/ क्या पाएंगे
छोड़ गांव की खेती-बाड़ी/ शहर गए थे/
दिन भर की मजदूरी में/ दिन ठहर गए थे
सपनों से कैसे/ सच्चाई झुठलायेंगे
शहरी जीवन के/ शहरी अफ़साने लेकर/
त्यौहारों में आते थे/ नजराने लेकर
तब क्या थे/ अब क्या हैं/ कैसे
समझाएंगे
टीस रहे हैं कब से/ उम्मीदों के
छाले/ पूछ रहे हैं प्रश्न भूख/ से रोज निवाले
कहाँ आत्मनिर्भर होंगे/ कैसे
खाएंगे|”[9]
आपके पेट में दाने न हों तो
आत्मनिर्भर होने के सम्बल और दावे कितने अच्छे लगेंगे बताइए जरा? भूख के मामले में
यह जो हमारे समय का यथार्थ है, आज का, क्या इसने हमें 60-70 वर्ष पहले ले जाकर
नहीं छोड़ा है? ये हज़ारों मील पैदल चलने वाली जो जनता है वह कौन है? भूखा, नंगा,
शोषित और दमित आम आदमी, जिसके लिए न तन्त्र है न मन्त्र, यह बात और है कि ये दोनों
के बनकर रहे, उनकी जवाबदेही कौन लेगा? गीता पंडित की मानें तो “भूल गयी संसद जन
का/ लेखा-जोखा/ नहीं जानती उसने क्या-क्या/ देखा भोगा” तो फिर जानता कौन है? ईश्वर
भी तो कोरोना से बचने के लिए मौन है? सोचेंगे तो उत्तर नहीं सूझेगा सिहर कर रह
जायेंगे|
भूख को लेकर ये बहुत थोड़े उदहारण
हैं नवगीत के जो आपको विचलित नहीं करते? क्या आपके समाज को सोचने के लिए विवश नहीं
करते? यदि करते हैं तो फिर समकालीनता के लिए और क्या चाहिए आपको? यह प्रश्न आपके
लिए है सोचिए और फिर से चिंतन कीजिए|
5.
समकालीनता के निर्धारण में यह
अपेक्षा की जाती है कि रचनाकार सत्ता-समर्थित न हो| ‘तन्त्र’ में ‘लोक’ की
सहभागिता सुनिश्चित कराने और जन भावनाओं की रक्षा के लिए यह और जरूरी हो जाता है
कि कवि के पास आँख से आँख मिलाने वाली प्रश्नों की पूरी परम्परा हो| इस आधार पर जब
आप नवगीतकारों को देखना शुरू करते हैं तो विश्वास मानिए समकालीन कविता से किसी
मायने में ये नवगीत कम नहीं दिखाई देते| राजनीतिक षड्यंत्र, भ्रष्टाचार, दलबदल,
घपले-घोटाले से लेकर लूट-मार, दबंगई, हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी सामाजिक विकृतियाँ और
विषय गंभीरता से अभिव्यक्त हुए हैं|
यह गम्भीरता से सोचने का विषय है कि
उसी समाज का हिस्सा नवगीतकार हैं जिस समाज का हिस्सा समकालीन कवि है| दोनों पर एक
तरह का शासन किया जा रहा है और दोनों एक तरह की राजनीतिक दुरभिसंधियों के शिकार
हैं| अब कोई यह कहे कि कवियों ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया और नवगीतकारों ने
ऐसा नहीं किया, तो ऐसे विवेक पर हंसने का मन करता है और कुछ नहीं|
राजनीति अपने स्वभाव में इस देश की
जनता के साथ एक छल है| कपट है| आम आदमी हर समय छल और कपट के जाल में फँसा है| जिन
उद्देश्य और अपेक्षा को लेकर आम आदमी सरकारों का चयन करते हैं, चुनते हैं वे सारी
अपेक्षाएं महज घोषणाओं और सूची-निर्माण में रह जाती हैं| जगदीश पंकज जब यह कहते
हैं कि-“हम नियोजन घोषणाओं में/ सदा सुनते रहे हैं/ और नारों पर भरोसा कर/ उन्हें
चुनते रहे हैं/ सिर्फ जुमले फेंक, होता ही/ रहा हर बार छल|”[10] यह
छल राजनीति का छल है जिससे हम-आप दो-चार हो रहे हैं और होते रहे हैं| हर बार यह
सोचकर सत्ता परिवर्तन किया जाता है कि वह बदली हुई सरकार कुछ अलग कार्य करेगी
लेकिन होता इसके विपरीत है|
जिन योजनाओं और नीत्तियों के तहत
पूर्व की सरकार कार्य कर रही होती है कुछ फेरबदल के साथ वर्तमान सरकार भी वही कुछ
करती है| फिर लोकतंत्र में ‘लोक’ की क्या भूमिका होती है यह देखना हो तो पुरानी और
नई सरकारों के क्रियाकलाप को देख डालिए| पुरानी और नई सरकार के साथ जनता क्या पाती
है जय चक्रवर्ती ‘फिर आई सरकार नई’ में उसका खूब वर्णन करते हैं-यहाँ पूरी एक
नवगीत को मैं रख रहा हूँ-
“फिर
आई सरकार नई/ फिर-/ नए मिलेंगे आश्वासन/ फिर स्वागत में/ स्वर्णमृगों के/ नाचो
बेटा रामलखन!
उनके
आने पर झूमें थे/ इनके आने पर झूमो/ इनकी-उनकी लिए पालकी/ गाँव-गली, घर-घर घूमो/
उनकी गर्दन की रस्सी से/ नपवाओ अपनी गर्दन!
करो
न चिंता भूख तुम्हारी/ आँतें अगर मरोड़ रहीं/ बदहाली यदि जनम-जनम का/ नाता तुमसे
जोड़ रहीं/ ढँको आँकड़ों से/ अपना तन/ पेट भरो पीकर भाषण!
खून
तुम्हरा पीते रहने को/ फिर नये जतन होंगे/ लोकतंत्र की हाँफ रही/ छाती पर उनके फन
होंगे/ राजतिलक है-उनके हिस्से/ भाग तुम्हारे सियाहरन!”[11]
क्या यही नहीं होता आम जनमानस के
साथ? जनता ठगी जाती है और नेता ऐश करते हैं, सरकार किसी की भी क्यों न हो; यदि ऐसा
नहीं है तो बोलो? अपने ही देश में बेगानों की स्थिति आ जाती है आम आदमी की, यह भी
तो एक सच है? और जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ तो पक्ष-विपक्ष जैसा कुछ होता ही नहीं
है राजनीति में| सब पक्ष होते हैं क्योंकि सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं| सारा
मामला कुर्सी का है| सत्ता का है| जनकल्याण के भाव में जन उपेक्षित हुआ है, कल्याण
शब्द की नीलामी हो गयी है| चाहे पक्ष हो या विपक्ष दोनों के नाटक और नौटंकी हम सब
आए दिन देख रहे हैं| अभी कोरोना समय में कांग्रेस और भाजपा की ‘बस वाली’ राजनीति
से भला कौन परिचित नहीं है? जब नवगीतकार राधेश्याम शुक्ल कहते हैं कि – “रामराज्य
की पंचायत में/ रोज हो रही है, नौटंकी/ नायक प्रतिनायक/ दोनों ही बदजुबान हैं;/ जो
जितने अभद्र हैं/ उतने ही महान हैं/ सिंहासन की छीना-झपटी/ मुख्य कथा है/ और सहायक
कथा/ प्रजा की मूक व्यथा है/ ओझा-गुनियाँ व्यस्त/ ओझाई में ‘बहराइच-बाराबंकी”[12]
तो कहीं न कहीं उस पक्ष-विपक्ष के खेल का पोल खोल रहे होते हैं|
संसद में आए दिन क्या होता
है, यह सबको पता है| जिन मुद्दों पर लड़ते हैं उन्हीं पर खुद कितना अमल करते हैं यह
भी हमें-आपको पता है| यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सत्ता-मद में चूर आज के
नेताओं से सभ्य और शिष्ट आचरण की अपेक्षा करना, कहीं न कहीं बेमानी है| ओमप्रकाश
सिंह के शब्दों में कहें तो-“संसद की/ अशिष्ट भाषाएँ/ झूठे वाद-विवाद/ संविधान
की/ जड़ें खोदते/ वटवृक्षी सम्वाद/ बारूदी मुस्कान/ छोड़ते/ अहंकार के मारे”[13]लोग
हमारे रक्षक और हमारे नीति-नियंता बने बैठे हैं| गली के गुण्डों से भी ज्यादे
असभ्य और क्षेत्र के दुराचारी से भी अधिक जड़ लोग संसद में जब जाकर बैठे हैं तो
कल्याण की परिकल्पना कैसे की जा सकती है? ओमप्रकाश के ही नवगीत के माध्यम से कहें
तो हालात ये हो गयी है कि राजनीति के गलियारे से परिवेश में सभ्य एवं आचरणवान
लोगों की अपेक्षा-“घूम रहे हैं लोकतंत्र के/ लोभी, ढोंगी, लुच्चे/ नोच रहे ये
जिन्दा लाशें/ स्यार, भेड़िये, कुत्ते”[14] जो
समाज को हिंसक और आक्रामक बना रहे हैं| क्या आप इस सच से इनकार कर सकते हैं? क्या
ये वही लोग नहीं हैं जिनकी वजह से शांत परिवेश भी अग्नि ज्वाला में धू-धू करके
जलने लगता है?
अगर ऐसे लोगों के विषय में
राधेश्याम शुक्ल का नवगीत-मन यह कहता है कि-“इधर सियासी उल्काओं के हाथ/ अंगारा
है/ बचो, बचाओ, वर्ना/ घर-घर आग लगाएँगी”[15] तो
गलत कहते हैं? पिछले दिनों ‘शाहींनबाग प्रकरण’ के केंद्र में दिल्ली का जो विनाश
हुआ क्या उसमें इन्हीं सियासी उल्काओं का हाथ नहीं था? इनकी वजह से जो दर-ब-दर हुए
उनके दुःख और स्थिति का आंकलन क्या हम सब कर सकते हैं? क्यों? योगेन्द्र दत्त
शर्मा की दृष्टि से देखें तो “राजा नपुंसक, और/ रानी भी हुई है बदचलन/ रखकर रेहन
पर राज्य को/ सब मंत्रिगण खुद में मगन!”[16] फिर
जनता से किसी को क्या-लेना देना है? लेकिन यदि आप जनता के पक्ष में सोचते-विचारते
हैं तो यह सच भी दिख जाता है कि-“विस्मित, चकित सारी प्रजा/ किस पाप की है यह सजा/
भयभीत है हर नागरिक/ ज्यों सिंह के आगे अजा/ ठहरी ध्वजा/ करती सतत/ कमजोर क्षण का
आकलन|”[17] इस
आंकलन में उस ‘विस्मित और चकित सारी प्रजा’ का यथार्थ में समकालीनता नहीं है? यदि
है तो नवगीत के सच को पहचानिए|
राजनीति के अँधेरे पक्ष को चित्रित
करते हुए उजाले की तलाश नवगीत का सामर्थ्य है| नवगीतकार चारण और भाट नहीं हैं|
मंचीय कवियों को जाने दीजिए| सस्ते गीतों को प्रस्तुत कर तालियाँ बटोरना उनका शगल
होगा लेकिन जन-यथार्थ का पक्ष लेते हुए सत्ताओं की आँखों का किरकिरी होना इन्हें
सुहाता है| समझने को आप समझ सकते हैं और राजनीतिक मुद्दों को लेकर जिस तरह की
अभिव्यक्ति है, उसकी समकालीनता की परख भी कर सकते हैं| अब यदि मंशा ही उसे हर हाल
में खारिज करना है तो उस पर कहा ही क्या आ सकता है? समय सबकी खबर लेता है|
6.
पर्यावरण प्रदूषण किसी बड़ी समस्या
से कम नहीं है| साहित्य की अधिकांश विधाएँ जिम्मेदारी के साथ इस विषय को उठा रही
हैं| काव्य-विधाओं की बात करें तो पर्यावरण को लेकर कविता से कहीं अधिक चिंता
नवगीत विधा में देखने को मिलती है| यह आपको एक आश्चर्य लग सकता है लेकिन सच यही
है| कविता के हिमायती अभी विमर्शों की कूटनीति में फंसे हुए हैं| उन्हें न तो
प्रकृति का उजड़ना दिखाई दे रहा है ठीक से और न ही तो प्रकृति पर मनुष्य का आतंक| हो
सकता है प्रकृति अभी उनके एजेंडे में न हो लेकिन हकीकत यही है कि ये दोनों
स्थितियां भयानक त्रासदी लेकर आई हैं, और इन दोनों पर गंभीर विमर्श नवगीतकारों के
यहाँ देखा जा सकता है|
विकास की रफ्तार को हम सब देख रहे
हैं| पेड़ों का कटना और जंगल का उजड़ना अब कोई नई बात नहीं रह गयी| कहीं आग लगती है
तो कहीं लगाई जाती है| प्रकृति जो रूप इधर हमें सुरक्षा और सौन्दर्य दे रहे थे, सबके
सब डरे, सहमें और भयभीत हैं| कुमार रवीन्द्र का एक नवगीत है-‘घर तक थर्राते हैं’-
इस स्थिति को बड़े संजीदगी के साथ अभिव्यक्त किया गया है| यथा-
तूफ़ानी रातों में/ समाधिस्थ पेड़/ पूछते
हवाओं से कौन रहा छेड़
सपनों के डेरे में/ यह कैसी चाल/ लहरों
से कहते हैं/ जाग रहे ताल
कौन रहा तारों को इस तरह खदेड़
बँटा हुआ आसमान/ क्षितिजों के पार/ सोचता
- कहाँ तक है/ अँधी दीवार
क्यों कोंपल असमय ही हो गयी अधेड़
पत्तों की बस्ती में/ इतनी आवाज़/ कौन
कहे कोयल की/ डरे हुए बाज़
घर तक थर्राते हैं दरवाजे भेड़|”[18]
“कौन कहे कोयल की/ डरे हुए बाज़” की
जो अंतर्ध्वनि है उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हम बेचैन भले न हों, सुख
प्राप्त करने की लालसा में सब कुछ भूल जाएं लेकिन प्रकृति-प्रदत्त जीव-जंतु हमारे
आतंक से भयभीत हैं और उजड़ रहे हैं|
यह भी देखिये कि पेड़ लगाने को जो
शौक लोगों का कुछ वर्ष पहले देखा जाता था, अब एक स्वप्न होता जा रहा है| सरकारी
अनुदान पर लगे तो लगे स्वयं से आदमी मेहनत नहीं कर रहा है| बड़े पेड़ों को काटकर
गमले सजाए जा रहे हैं| राधेश्याम बन्धु जब ऐसी अपील करते हैं तो एहसास होता है कि
हमारी जिम्मेदारी है इस धरा को सुरक्षित रखना-“फिर-फिर/ जेठ तपेगा आंगन/ हरियल पेड़
लगाये रखना/ दूर-दूर तक सन्नाटा है/ सड़कें छायाहीन हो गयीं/ बस्ती-बस्ती लू से
घायल/ गलियाँ भी जानहीन हो गयीं|”[19] नीम
के पेड़ से लेकर पीपल के पेड़ तक आँखों के सामने दृश्यमान हो उठते हैं| बरगद के
पेड़ों की सघन छाया कहाँ भूल सकते हैं हम? कैसे वह दृश्य ओझल हो सकती है नजर से जब
वृक्षों की वजह से गलियाँ गुलजार हुआ करती थीं गर्मियों की दोपहरी में| अब मामला
बदलता जा रहा है| पेड़ पौधों की कमीं से मौसम का असमय आना और कई-कई बार बारिश का न
होना, आज का समय का यथार्थ होता जा रहा है| संजय शुक्ल इस गीत में कितनी साफगोई से
यह समस्या उठाते हैं-
आसमान में घिरे रहे पर/ झरे नहीं
बादल!
रेती में लोटी गौरैया/ नाजुक पंख
जले/
अंडे लेकर चलीं चीटियाँ/ कुछ संकेत
मिले/
झुठलाता है अनुमानों को/ अब मौसम का
छल!
वेद पाठ तो दूर,
न दादुर/ बजा रहे ढपली/
उमस मयूरों के पंखों में/ बढ़ा रही
खुजली/
तड़प-तड़प कर मरें मछलियाँ/ नदी हुई
दलदल|”[20]
दादुर से लेकर कोयल तक का अदृश्य
होना कितना दुःखद है! कितना दुःखद है मछलियों का ‘तड़प-तड़प कर’ मरना और नदी का दलदल
होना| विश्वास मानिए तो ये ऐसे संकट की तरफ इशारे हैं जो कुछ ही वर्षों में और
भयानक रूप ले लेगा| जिस समय उत्तराखण्ड में प्राकृतिक आपदा आई थी उसी समय इस बात
पर विचार करना शुरू हुआ था कि कविताओं में पर्यावरण पारस्थितिकी को लेकर काम करना
शुरू करना चाहिए| मुझे याद है उसी समय के आस-पास नया ज्ञानोदय का एक विशेषांक भी
प्रकाशित हुआ था कविता और पर्यावरण को लेकर| इस विषय को लेकर फिर गम्भीरता कम
दिखाई देती है|
जबकि पर्यावरण पारिस्थिकी का बिगड़ना
एक बड़ा संकट है इस समय का| यह समस्या इतनी भयानक है कि इसके आगे कोई दूसरी समस्या
नहीं दिखाई देती, यदि गंभीरता से विचार करें तो| बृजनाथ श्रीवास्तव के यहाँ इस
विषय पर गंभीर कार्य हुआ है| उनकी दृष्टि में हम-“यदि न चेते तो/ हरे दिन बीत
जाएँगे/ नहीं घन मीत आयेंगे|” बादल के न आने से वर्षा का होना असम्भव होगा| बारिस
नहीं होगी तो सूर्य का ताप बढ़ता जाएगा और जलवायु का संकट ऊपर से पड़ जाएगा| बृजनाथ
यह भी कहते हैं “हो रहे हैं छेद/ नभ ओज़ोन पर्तों में/ छिप रहे नाराज/ बादल श्याम
गर्तों में/ ये पपीहे/ फिर कहाँ जल गीत गायेंगे/ आज जड जंगम/ मरें प्यासे बिना जल
के/ हो रहे कंकाल/ तरुवर भी बिना फल के/ फिर नदी तक/ छाँव के वन याद आयेंगे|”[21] यह
जो याद आएँगे वाली बात है इस पर ठहरकर सोचना जरूरी है| ठहरकर सोचने की बात जो मैं
कर रहा हूँ उसका मतलब यह है कि आएँगे नहीं आ रहे हैं| अब हमें याद आ रहे हैं|
पेड़-पौधों की सघन छाया से लेकर फल-फूल तक की अनुपलब्धता हमें साल रही है| गुलाब
सिंह के इस गीत में ये भाव कितनी गम्भीरता से चित्रित हुए हैं-आप पढ़ें और उत्तर
स्वयं तलाशें-
फूल
पर बैठा हुआ भँवरा/ शाख पर गाती हुई चिड़िया
घास
पर बैठी हुई तितली/ और तितली देखती गुड़िया/ हमें कितने दिन हुए देखे !
घाट
के नीचे झुके दो पेड़/ धार पर ठहरी हुई दो आँख
सतह
से उठता हुआ बादल/ और रह-रह फड़कती दो पाँख/ हमें कितने दिन हुए देखे !
बाँह-सी
फैली हुई राहें/ गोद-सा वह धूल का संसार
धूल
पर उभरे हुए दो पाँव/ और उन पर बिछा हरसिंगार/ हमें कितने दिन हुए देखे !
घुप
अँधेरे में दिए की लौ/ दिए जल पर भी जलाते लोग
रोशनी
के साथ बहती नदी/ और उससे नाव का संयोग/ हमें कितने दिन हुए देखे!”
ये
पूरा नवगीत यहाँ इसलिए दिया कि आप समझ सकें हम वाकई कहाँ पर हैं? और ऐसे दृश्य
गुलाब सिंह के यहाँ बड़ी मात्रा में हैं जो हमें सोचने के लिए विवश और विचलित करते
हैं| विवशता में ही सही कम से कम हम इस विषय में सोचें तो...होता क्या है कि हम
भूल जाते हैं समस्याओं को जबकि जरूरत है उन्हें याद रखते हुए उनके समूल समाप्ति का
प्रयास करने की|
7.
यह दौर वैश्वीकरण का है| विश्व गाँव के
रूप में दिखाई दे रहा है| हम सब स्थानीय होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय हैं, यह
उपलब्धि मनुष्य के हिस्से सूचना क्रांति के बाद आयी है| यह सच्चाई है तो यह भी गौर
करने की बात है कि अपनी ही जड़ों से कटे हैं हम| विश्व को गाँव होने में जिस चीज को
हानि उठानी पड़ी है वह है घर-गाँव-परिवार से बेदखल होने की जमीनीं सच्चाई| जो हमारे
सम्बन्ध हैं, जो हमारी आत्मीयता के लिए साध्य थे वे सब परिवर्तन की दहलीज पर आकर
दम तोड़ रहे हैं|
नईम का गीत-मन इस सच्चाई को समझते
हुए इस आशंका को मूर्त रूप देता है-“गाँव-जवार, नदी-नाले हरियल अमराई/ बुआ, भतीजी,
बहिन, बेटियां लगें पराई|/ मुझसे ही क्यों जुदा हो रहा/ बिना बताये मेरा साया?/ जबकि
दूरियां देश-काल की बिला गयी हैं/ ग्रहों-उपग्रहों को आहिस्ता मिला गयी हैं|”[22] बावजूद
इसके चौपाल जैसी आत्मीयता, परिवार जैसी घनिष्ठता, सम्बन्धों जैसी गरिमा कहाँ और
कितना स्थाई रह पा रही है? हम-आपके सामने है| दिनों-दिन रिश्तों में बढती दूरियां,
घर से बेघर होने की ख़ुशी-इसे आप यथार्थतः पीड़ा भी कह सकते हैं, हमारे दिन का चैन
और रात की नींद गायब कर रहे हैं|
पता ये भी है हम सभी को कि स्थानीय
महत्त्व की चीजों का बाज़ारीकरण हमें भयभीत कर रहा है, डरा रहा है| हमें अपनी जड़ों
से काट रहा है| जो कुछ है वह नश्वर है कहने वाला भारतीय अब यह कहता है कि जो कुछ
है सब बिकाऊ है| यहाँ नवगीतकार यायावर की मानें तो इस बाज़ार युग में “गोधन,
गोरस/ गाय गोरसी/ सबकी हैं कीमत/ भाभी के घूँघट के बदले/ देंगे
पक्की छत/ मंदिर की जमीन पर/ उठ जाएगा/ मॉल नया/ अच्छे दिन आ गए/ समझलो/ खोटा वक्त
गया|”[23]
‘भाभी के घूँघट के बदले’ जो ‘पक्की छत’ देने की बात है वह इज्जत लेकर आशियाना
उपलब्ध करवाने की नीयति का खुलासा है| ‘मन्दिर की जमीन पर’ ‘मॉल नया’ नया उठाने की
तैयारी हो चुकी है जो कुछ ही वर्षों में हमारे-आपके सामने होगी|
ध्यान दें तो बनारस में पक्का महाल
को तोड़ने के पीछे वही बाज़ारू-नीयति कार्य कर रही है| जिस ‘ईश्वर’ का ‘दर्शन’ हम
फ्री के फूल और गंगाजल से करते थे अब उन्हीं को सजा कर मॉल में रखा जाएगा यह सुनाई
दे रहा है| निश्चित तौर पर हम गर्व और श्रेष्ठता का अनुभव ऐसे क्षण करेंगे ठीक उसी
तरह जैसे घर के आलूदम, चिप्स, पापड़ आदि को छोड़कर लेज़ और कुरकुरे खाते हुए करते
हैं| ध्यान दीजिए कि जिस पूरे परिक्षेत्र में क्षेत्रीय वस्तुएँ प्राप्त होती थीं
और उन्हीं परिक्षेत्र में ‘विदेशी’ मूल्य के वस्तुओं को पाकर हम धन्य धन्य होंगे|
ध्यान इस बात को रखने की है कि यहाँ
हमारे ‘ना’ के लिए कोई स्थान नहीं है| क्योंकि हमें बड़ी चालाकी से बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के दलदल में छोड़ दिया गया है| जब राधेश्याम शुक्ल कहते हैं कि “सुनों/
तुम्हारा मूल्य, तुम नहीं/ आँकेगा, बाज़ार/ तुम्हें तो बस, बिकना है”[24] तो
मुझे यही दिखाई देता है कि आखिर हम भी तो वस्तु रूप में परिवर्तित कर दिए गए हैं|
‘स्त्रियाँ’ तो थीं ही हमारे यहाँ वस्तु रूप में ‘पुरुषों’ को भी ‘झिगोलो’ की
डिमांड पर मार्किट में उतार दिया गया| कहाँ तो हम स्त्रियों को उस दलदल से निकालने
के प्रयास में थे और कहाँ ‘पुरुष’ भी उस बाज़ार का हिस्सा हो गया|
यानि ‘तुम भी खुश’ और ‘हम भी खुश’
की नीति पर यह बाज़ार हम पर थोपा जा रहा है जिसका परिणाम अभी तो नहीं लेकिन आने
वाले दस वर्षों बाद हमें दिखना शुरू हो जाएगा, अभी भी जिनके आँख खुले हैं वे देख
रहे हैं| सही पूछो तो इस देखने की नीयति पर सवाल है| हम हैं वही जो पहले थे लेकिन
देखने और दिखने के मानक हमारे बदल गए| ‘बदल गए मानक’ में गरिमा सक्सेना कहती
हैं-“आज समझ पर भारी/ चारों ओर दिखावे हैं/ विज्ञापन ऐसा छाया है/ बदल गये मानक/
कर्तव्यों के पलड़े ऊपर/ भारी चाहें हक़/ स्वार्थ सिद्धि का लक्ष्य साधते/ खूब छलावे
हैं|”[25] इन्हीं
छलावों में हम वर्तमान से अतीत हो रहे हैं जिसका कोई भविष्य फिलहाल नहीं दिखाई दे
रहा है|
8
दरअसल वैश्वीकरण के दौर में बाज़ार
की जो अवधारणा है वह कहीं गहरे में हमारी सांस्कृतिक अस्मिता को बदलने की अवधारणा
है| इधर जो कुछ हम सभ्य हुए हैं या दिख रहे हैं वह उसी सांस्कृतिक संक्रमण की
निशानी है| इस निशानी में आप अच्छे से देख पा रहे होंगे, तो हमें अपनी
रीतियों-नीतियों से मोहभंग हुआ है| इतना कि जिन सम्बन्धों और रिवाजों को मनाने के
लिए हम उत्साहित होते थे आज उनका नाम सुनते ही दूर होने की कोशिश करने लगते हैं|
मधुकर अष्ठाना जब कहते हैं कि “सभ्य हुए हम/ सभ्य हुए हम/ रीति-रिवाज़ों/
रिश्ते-नातों के/ इस घर में टूट गये दम” तो उनका इशारा इसी तरफ होता है| वह यह भी
स्पष्ट करते हैं कि “भूल गये/ चौका-बासन, चूल्हा-चकिया में/ सूखा चेहरा/ लगा हुआ
सबके अन्तर पर/ अब पश्चमी पलस्तर/ गहरा/ महँगी कार/ बड़ा है बंगला/ रहते हैं
कम्प्यूटर में गुम|”[26]
अब यहाँ ध्यान देने की बात है कि
कम्प्यूटर और मोबाइल संस्कृति ने निःसंदेह हमें समृद्ध किया है लेकिन विकृति के
कगार पर भी लाकर खड़ा किया है, इसमें कोई दो राय नहीं है| सम्बन्धों में जब तक
सम्वाद होता है तब तक एक अलग गरिमा होती है| आमने-सामने होने का एहसास ही कुछ और
होता है| मोबाइल के आने से संवाद का स्थान एसएमएस ने ले लिया है और “जिंदगी पर्याय
बनकर/ रह गयी रिंगटोन की|” ‘फिर बजी घंटी’ नवगीत में माधव कौशिक ने इस विकृति को
कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-
फिर
बजी घंटी/ मोबाइल फोन की
अब
हथेली में/ सभी सम्वेदनाएँ धंस रही हैं/
शक्तियां
बाज़ार की/ अपना शिकंजा कस रही हैं
अब
जरूरत ही नहीं/ वाचालता को मौन की
वर्जनाओं
की चट्टानें/ रेत बनकर ढह रही हैं/
और
एसएमएस के जरिये/ भावनाएं बह रही हैं
जिन्दगी
पर्याय बनकर/ रह गयी रिंगटोन की
आदमी
बौना हुआ/ पर हो गये टावर बड़े/
दूसरों
के पावों पर/ जैसे जमूरे हों खड़े
अब
नहीं मिलती यहाँ/ छाया घने सागौन की|”[27]
इस नवगीत पर ठहरकर सोचते रहिये| इधर
विश्व के गांव में बदलने का जो यथार्थ है, सही अर्थों में हमारे-आपके माता-पिता,
दादा-दादी का ओल्ड एज होम में पहुँचने का यथार्थ है| इधर यह प्रक्रिया और तेज हुई
है| हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं में यह समस्या विमर्श के रूप में सामने आई है|
नवगीत में इसे बहुत पहले से उठाया जाता रहा है| आज के हर नवगीतकार के पास इस
विसंगति पर सम्वेदनाएँ हैं| वे बोल ही नहीं रहे हैं अपितु गहरे में चिंतित हैं|
अवध बिहारी श्रीवास्तव कहते हैं-आए “अमरीका से फोन कभी तो/ सुन लें पोते की बोली/
दो प्रेतों के राजमहल में/ कैसी दीवाली होली/ क्यों जोड़ी, क्यों, क्यों, क्यों
जोड़ी/ सुविधा राजघरानों की”[28]
सुविधाओं के चक्कर में हम भाग रहे हैं| यह संस्कृति हमारी नहीं थी| माता-पिता तो
खैर चलो मान लेते हैं समय का तकाजा है लेकिन पति-पत्नी भी एक साथ नहीं रह पा रहे
हैं| जो घर और परिवार की अवधारणा थी वह इधर एकदम से टूटी है| नवगीत-मन इस टूटन को
बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं| उन्होंने अभी तक जोड़ना ही सीखा है|
हमारे यहाँ की संस्कृति अतीत से
प्रेरणा लेकर समृद्ध होती है| वैश्वीकरण के मोह और विदेशी होने की लालसा में इधर
बड़ी चालाकी से उस अतीत को हमारी परिधि से अलग कर दिया गया है| वर्तमान का आकांक्षी
जन भविष्य से किस तरह पंगु हो रहा है इसका अंदाजा अभी उसे नहीं है| जब सम्वाद और
सम्बन्ध में तर्कों को तरजीह दी जाने लगी तभी से हमारी जो नींव थी, जिस नींव पर
सामाजिकता का महल बनकर तैयार हुआ था वह कमजोर होने लगी| इसे बहुत संलग्नता से
कमजोर किया गया| जहाँ सीधे बन पड़ता था सीधे नहीं तो तर्कों के दम पर खण्डित किया
गया| तर्क हर समय सच हों, यह जरूरी नहीं है| इस स्थिति को देखना है तो गणेश गंभीर
के यहाँ चलिए| वे कितने स्पष्ट रूप में इस विसंगति भरे षड्यंत्र को रखते हैं, वह
देखने लायक है-
जब चाहे इतिहास बदल दे/ जब चाहे भूगोल
समय इन दिनों/ बोल रहा है काफी ऊँचे
बोल।
मिट्टी जाँची गयी/ अस्थियों का भी
हुआ परीक्षण
शब्दों की छेनी-हथौड़िया/ करती सच का
तक्षण
झूठ रोज तैयार कर रहा है/ कृतियाँ
अनमोल।
कमरे जितने हैं अतीत के/ भरे उजालों
से
बन्द कर दिया गया उन्हें/ तर्कों के
तालों से
सोच रहा हूँ आगे बढ़कर/ मैं दूँ इनको
खोल।
आग-हवा-पानी/ मिलकर यह दुनिया रचते
हैं/
इस धरती के आसमान से/ गहरे रिश्ते
हैं
डर बन कर फिर वर्तमान क्यों/ रहा
आँख में डोल।
जिस धरती के आसमान से गहरे रिश्ते
थे उसे अलग किया गया| आसमान के खिलाफ धरती को भड़काया गया| निःसंदेह आसमान के
तड़क-भड़क, चमक-गरज से धरती का सौंदर्य तो विकृत हुआ ही वह असहाय और निरुपाय भी हुई|
फायदा किसने उठाया, भड़काने वाले ने| कैसे? यह मुद्दा नहीं है, उस पर फिर कभी| इतना
जरूर है कि “कमरे जितने हैं अतीत के/ भरे उजालों से” उन्हें इधर खोजने की तड़प बढ़ी
है, जिन्हें “तर्कों के तालों से” बंद कर दिया गया था| इस खोज में अस्मिता के उन
स्थलों को खंगाला जा रहा है जहाँ से हम संस्कार ग्रहण करते थे| अतीत के उस समृद्ध
परिवेश में पहुंचकर जब बृजनाथ श्रीवास्तव कहते हैं “दादी की वे लोक कथायें/ नये
दिनों ने पी लीं/ समय अमानुष अत्याचारी/ सबकी आँखें गीली/ पहले जैसी/ राय मशविरा/
पुरखों से अब रही कहाँ?” तो गलत क्या कहते हैं? इधर कौन कहे पुरखों राय-मशविरा
लेने की, डांट कर जवाबी कार्यवाही उलटे करने लगते हैं| हालांकि ऐसा सर्वत्र नहीं
है लेकिन फिर भी है तो सच ही?
समृद्ध परम्पराओं और रीति-रिवाजों
की बातें करें तो प्रेमचंद की हामिद के ईद के साथ विजय दशमी पर्व की रंगतों में
कमी आई है| रक्षा-बंधन जैसे मजबूत और सांस्कृतिक पर्व को इधर भुलाने का बीड़ा उठा
लिया गया है| इन पर्वों के आवरण में हम सीखते थे| समृद्ध होते थे| इधर इनके प्रति
अविश्वास तो भरा ही गया सबसे बड़ी बात यह कि आमोद-प्रमोद के नए-नए संसाधनों के
विकसित हो जाने से अब इधर कोई मुड़ता भी नहीं है| माधव कौशिक की दृष्टि में
गए दिनों की बात/ हो गये मेले-ठेले/
निस दिन आपा-धापी/ आँख मिचौनी खेले/
जड़ता ने कर डाली/ जड़ सारी परिपाटी
बरसों बीते/ ब्याह नहीं देखा/ तुलसी
का/
सांझी गाये/ गौर पूजाए/ घर देहरी
का”[29]
तुलसी के व्याह से लेकर गौर पुजाने
तक की जो संस्कृति थी, उसके सन्दर्भ में अब के बच्चे कहाँ जानते हैं कुछ? बच्चों
को छोडिये अधिकांश युवाओं को भी इनके सन्दर्भ में ठीक से पता नहीं है| जब आप इधर
सोचते हैं तो कहीं न कहीं पुरातनपंथी कहलाते हैं लेकिन सच कुछ ऐसा ही है|
सांस्कृतिक परिदृश्य के बनावट और बुनावट में इनका बड़ा हस्तक्षेप होता था| इधर ऐसा
नहीं होने से हम संस्कारिक जमीन की उर्वरता को बचा पाने में नाकामयाब हो रहे हैं| इन
पर्वों, त्यौहारों और रीति-रिवाजों का स्थान कार्टून, वेब सीरीज, इन्टरनेट पर
उपलब्ध सस्ती कहानियाँ ले रही हैं| चिंता का विषय क्या नहीं है यह सब? चिंतन करने
की जरूरत है|
9.
निःसंदेह नवगीत विधा समकालीनता के
पैमाने पर एक समृद्ध विधा है| इसे छान्दसिक समझकर खारिज करना इतना आसान नहीं है
जितना कि समझ लिया गया है| न पढ़कर ही खारिज करना है तो कबीर, सूर, तुलसी में क्या
है? ऐसे प्रश्न भी आप उठा सकते हैं| आप निराला से लेकर नागार्जुन तक को ख़ारिज कर
सकते हैं| यह भी कह सकते हैं कि आजकल वेब सीरीज का ज़माना है तो साहित्य और कविता
पढ़ता ही कौन है? कहने को कोई कुछ भी कह सकता है यदि मामला कहने भर का है तो| इधर
नवगीत और ग़ज़ल विधा के साथ लगातार इसी प्रकार की धमाचौकड़ी खेली जा रही है| ये तो
भला मनाइए इस विधा के रचनाकारों का कि ये अपनी सक्रियता से लगातार परिवेश को सुंदर
और समृद्ध बना रहे हैं अन्यथा तो कौन जानता है आपके तमाम कवियों को?
खैर...समकालीनता पर लम्बी चौड़ी
बातें हो चुकी हैं| एक दो जरूरी बातें और कहना चाहता हूँ| बहुत-से उत्साही आलोचक
और रचनाकार यह भी कह रहे हैं कि नवगीत भारतीयता की वापसी है| ठीक है| होनी भी
चाहिए| तो क्या भारतीयता की वापसी के बाद यथार्थ की बातें नहीं होंगी? क्या
भारतीयता में वर्तमान साहित्यिक विमर्शों की वापसी वर्जित हैं? दलितों और
आदिवासियों की उपस्थिति इस विधा में कितनी है? उनके अधिकार और संरक्षण की कितनी
बातें की जा रही हैं? स्त्रियों के अधिकार और उनकी मुखरता के लिए कोई जगह नहीं है?
गिनती की स्त्री रचनाकारों का हस्तक्षेप है इस विधा में| लिव-इन-रिलेशनशिप से लेकर
थर्ड जेंडर तक पर आपके क्या विचार हैं? प्रवासी भारतीयों से लेकर स्थानीय समस्याओं
तक के विषय में आप क्या सोचते हैं? ठीक है कि स्त्रियाँ आपको देवी, सरस्वती, माँ
आदि दिखाई देती हैं, और हैं भी, तो उन स्त्रियों का क्या होगा जिन्हें जबरजस्ती
देह-धंधा करने के लिए मजबूर किया जाता है? उनका क्या होगा जो बाज़ार युग में अंततः
प्रोडक्ट बनकर रह जाने के लिए विवश हैं? ऐसी स्त्रियों के बारे में नवगीतकार क्या
सोचते हैं जो अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं?
नवगीत की समकालीनता पर बात करते हुए
मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि मुझे उस दिन का इंतजार है जब कोई स्त्री-रचनाकार खुली
मानसिकता के साथ इस विधा में वापसी करेगी| कोई दलित, आदिवासी युवा साथी आएगा और
अपनी अस्मिता की बात इस विधा में जोर-शोर से रखेगा| वह दिन भी मैं देख रहा हूँ जब
जातीय अहम् के स्थान पर सामूहिक सम्पन्नता की बात इस विधा में होगी, जो एक हद तक
हो भी रही है| ये सारे प्रश्न हैं जो नवगीत की सीमाओं को लेकर मेरे दिमाग में
कौंधते हैं|
एक तरफ नवगीत को समकालीन कविता से
टक्कर लेना है तो दूसरी तरफ उसे पारंपरिक भी बने रहना है? यह विरोधाभास है| यह
नहीं चल सकता| नहीं चलना चाहिए| यदि आप इस विधा को आगे लाना चाहते हैं तो खुला
वितान और एक मुक्त परिवेश देना होगा| कुछ उत्साही, निर्भीक और सक्रिय युवाओं को
लाना होगा इधर| रचनाकार आएँगे तो आलोचक स्वयं उपस्थित हो जाएंगे| संकट तो
रचनाकारों की सक्रियता का भी है इधर| छान्दसिक विधा होने की वजह से कई बार
सक्रियता नहीं बन पाती है लोगों की| इस भ्रम को हमें तोडना होगा| पहले कुछ छूट के
साथ उन्हें फैलने का स्पेस दिया जाए बाद में वे खुद ही सिद्धस्थ हो जाएंगे, ऐसा
विश्वास करना होगा| मैंने यह भी देखा है कि कई रचनाकार तो एक मात्रा के इधर-उधर
होने से आग-बबूला हो जाते हैं| ऐसा न करिए| उन्हें समझाइये और खुद एक समृद्ध समझ
के साथ कार्य करिये| नवगीत स्वयं समृद्ध होती जाएगी|
आपके पास आलोचक कम हैं तो कलम
उठाइये| गीत के साथ-साथ संकलनों, संग्रहों की समीक्षा कीजिए| हो सके तो अन्य
विधाओं के साथ इस विधा की गंभीरता पर लेख लिखिए| नहीं लिख पा रहे हैं तो जो आलोचक
आ रहे हैं उनका स्वागत करिए| लाठी लेकर खेदिये नहीं| किसी बात पर असहमति है तो लिख
कर विरोध करिए| इससे प्रतिरोध की संस्कृति विकसित होगी| किसी की चौकीदारी न करिए|
चौकीदारी से राजनीति तो हो सकती है, सृजन सम्भव नहीं है| सृजन संघर्षों से उपजती
है और संघर्ष आप करने नहीं देंगे| तो ऐसा न करिए| आपकी उदारता ही नवगीत विधा की
समृद्धि के लिए जरूरी कदम है| उसे बनाए रखिये|
[1]
रमेश रंजक, इतिहास दुबारा लिखो, पृष्ठ-6
[2]
राजेन्द्र प्रसाद सिंह, भरी सड़क पर,
पृष्ठ-7
[3]
राजेन्द्र प्रसाद सिंह, भरी सड़क पर,
पृष्ठ-7
[7]
यश मालवीय, कविता कोश
[9]
राहुल शिवाय, हस्ताक्षर वेब पत्रिका
[18]
कुमार रवीन्द्र, आहत हैं वन (कविता कोश
से)
[21]
रथ इधर मोड़िये, पृष्ठ-30
[26]
मधुकर अष्ठाना, हाशिए समय के, पृष्ठ-104
[27]
माधव कौशिक, जोखिम भरा समय है, पृष्ठ-16
[29]
माधव कौशिक, जोखिम भरा समय है, पृष्ठ-95
1 comment:
बेहतरीन प्रयास। प्रणाम!
Post a Comment