जीवन में अपना लगने
वाला कोई व्यक्तित्व एक ही पल में कैसे अनजाना लगने लगता है? जिसके
साथ आप रह रहे हों, जिसके बगैर आप रह नहीं सकते हैं इतना अप्रिय, अरुचिकर
एवं नीरस कैसे लगने लगता है?
आपके पक्ष का समय इतना क्रूर
और कठोर कैसे हो जाता है कि एक ही क्षण में जिए गए हजारों हजार घंटे झूठे और
बनावटी-से लगने लगते हैं?
कभी-कभी सोचता हूँ और
फिर सोचने में तल्लीन हो जाता हूँ|
क्या वाकई मनुष्य
परिस्थितियों का दास होता है?
क्या वाकई वह समय के हाथ का
महज एक खिलौना भर होता है? क्या वह सचमुच एक मात्र पात्र है जिसकी संरचना
और क्रिया-कलाप पहले कोई निर्धारित करके बैठा हुआ है? सोचता
हूँ और बस सोचता रह जाता हूँ|
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