Sunday 23 April 2017

बगुलों के देश में हंसों का क्या जीना?

1.       
सुनो हंस!
नाहक तुम डींग मारते हो
कूदते-फानते हो
इस सबसे बनावटी दौर में
वास्तविक होने का प्रमाण बांटते फिरते हो  
अपना धवल व्यक्तित्व दिखाकर लोगों को
सौंदर्य का धाक जमाते हो
धीर और शांत होने का स्वप्न दिखाते हो

तुम्हें पता है
कृत्रिमता के युग में
सौंदर्य समय के सस्ते स्तर पर है
सुन्दरता गौरवान्वित हुई है
शरीर सब का तुमसे सुन्दर सफेदी में पलस्तर हैं
सभी चलने लगे हैं मराली चाल
चोंच और चरण में जड़ा प्रकृति-नस्तर है

सहज हुए हैं सभी
इन दिनों के माहौल में
नम्रता सबके हृदय में विराजमान है
अपना स्थाई-स्थान निर्धारित करके
तुम्हारे सभी क्रियाकलाप लगे हैं ढोंग इन दिनों
संभव है तुम पकड़कर मारे-गरियाए जाओ
लकडबग्घा घोषित करके कर दिए जाओ पुलिस के हवाले
अच्छा है भाग जाओ अभी
बची रहेगी इज्जत सबके दिल में तुम्हारे सुंदर होने की  

तुम्हें पता है?
इन दिनों परिवेश में
सबके जुबान पर है शोषण की खबर
पूरी दुनिया में तुम्हारे धवल होने को लेकर
लगाए जा रहे हैं कयास
सिद्ध किया जा रहा है कांति का घोटाला
मिले सजा तुम्हें सरगना बन सुन्दरता हड़पने की  

सुनों हंस!  
छोड़ दो तुम अपने प्राकृतिक गुण को
और करने लगो कूद-काद बगुलों की तरह
चिल्लाने लगो कौवों की तरह
कुत्तों की तरह ढूँढने लगों खाने के साधन
बंदरों की तरह हँसना
और बिल्लियों की तरह रोने लगो

तुम्हें नहीं पता
गुण के अलग पैमाने निर्धारित किये जा रहे हैं
प्रकृति को कृति और कृति को प्रकृति कहे जा रहे हैं
सच को झूठ झूठ को सच बनाए जा रहे हैं
मुर्दों को जिन्दा घोषित किया जा रहा है
जिन्दे को मुर्दे की तरह दफनाया जा रहा है
यही नहीं विद्या के इस सुनहरे दौर में
जिन्दा रहने वालों को मरने का तरीका सिखाया जा रहा है

यह भी तुम्हें पता होना चाहिए
इस नये युग की संस्कृति की परिभाषा भी
मुर्दा अट्टहास करे उसे सभ्य कहा जा रहा है
जिन्दा जीवित रहने के अधिकार की मांग करे
भरी सभा में असभ्य ठहराया जा रहा है
यहाँ नहीं गुजारा कपड़े पहनने वालों की
नंगों का शहर बसाया जा रहा है  
  
कुछ ऐसा भी किया जा रहा है प्रयास
तुम्हारे इस सत्य-स्थापित देश में
असुंदर दिखने वाले पंक्षियों को   
उनका हक़ मिलना चाहिए
उसकी जगह तुम और
तुम्हारी जगह उनको होना चाहिए
तुम चाहते हो तो छोड़ सकते हो यह लोक  
बगुलों के देश में हंसों का क्या जीना?  

2.  
\
सुनो हंस!
तुम तलाश सकते हो अपने लिए
देश का कोई और दूसरा कोना

हमारी बस्ती में ही नहीं
किसी की भी बस्ती में नहीं बची  
कोई जगह तुम्हारे लिए

तुम आते हो
तो सूल सा उठता है हृदय में
जी करता है कत्लेआम हो जाए अभी

तुम्हारा चलना
देखना, और रुकना भी
मन में संशय बन कर उभर रहा है

नहीं देखना चाहता कोई
तुम्हारा सभ्य रूप
इस असभ्यता के सबसे सुन्दर दौर में |

Wednesday 12 April 2017

यथार्थ और आदर्श की प्रतिरूप “किरण”


         सभ्यता और संस्कारों की बात करना जैसे इन दिनों के कवियों और कविताओं में बेइमानी सी हो गयी है| जन-संवेदी रचनाकार इन दिनों यथार्थ चित्रण में इस तरह मशगूल हो गए हैं कि लगता है जैसे उनके रोने से ही एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन हो जाएगा| यह कहना किसी भी रूप में गलत नहीं है कि यथार्थ तभी अपने साकार रूप में अनुकरणीय होगा जब उसे आदर्श के माध्यम से अमलीजामा पहनाने की कोशिश की जायेगी| आदर्शता एक ऐसी स्थिति है जो व्यक्ति के अन्दर समझ विकसित करती है| आदर्श के गलियारे से गुजर कर आने वाला रचनाकार एक हद तक अनुभवशील और परिपक्व होता है| यह परिपक्वता रचनाकार के लिए जितनी संतोषप्रद होती है समाज के लिए उतनी ही सुखद|
          डॉ० जयशंकर शुक्ल एक ऐसे ही रचनाकार हैं जिनकी रचना-दृष्टि आदर्श के मुहाने से होते हुए यथार्थ का संस्पर्श करती है| इनकी अनुभवशीलता संस्कारों की जो किरणें बिखेरती है सम्पूर्ण परिवेश उससे प्रभावित और आच्छादित होता दिखाई देता है| परिवेश का आदर्षता से आच्छादित होना अपने सम्पूर्ण अर्थों में संस्कारशीलता से अनुप्राणित होना है| जीवन में मानवीय व्यावहारिकता संस्कारशीलता के ही प्रभाव से प्रवेश पाती है अन्यथा तो व्यक्ति पाशुविकता के आस-पास मंडराता फिरता है| कवि यह कहना-मानव-पशु में अंतर कितना रह जाता है,/कार्य हमारा, जाने क्या-क्या कह कह जाता है|/ मानव की श्रेणी में रहने वालों की,/ पहचान कराती, ऐसी मधुमय मानवता है ये||/ जीवन यात्रा में यदि चाहो आगे बढ़ना,/ निर्दय बनकर जग में यारों कभी न रहना/ दया-धरम की धरती माँ ये घोषित करती,/  भर लो अंचल, ऐसी सुन्दर मादकता है ये”, आदर्शता की संभावनाओं के साथ जुड़कर रहने की स्थिति को स्पष्ट करना है|
             सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक के विकास यात्रा में यदि देखने का प्रयत्न किया जाए तो ‘मानव-पशु में अंतर’ बहुत ज्यादा नहीं पाया जाता है| मानव जहाँ मानवता के लिए अपने अतीत से प्रेरणा ग्रहण करते हुए वर्तमान को जीने और भविष्य को सुखकर बनाने की परिकल्पना करता है वहीं पशु न तो अतीत की तरफ देखने का कष्ट उठता है और न ही तो भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देता है| जैसे भी होता है वह वर्तमान से खुश और संतुष्ट दिखाई देता है| मनुष्य यहीं नहीं रुकना चाहता| वह अतीत से अनुभव जुटाता है तो वर्तमान को खुशहाल बनाने के लिए उसे अपने जीवन में प्रयोग भी करता है| यह प्रयोग अपने गहरे यथार्थ में मात्र वर्तमान के लिए हो ऐसा बिलकुल भी नहीं है| ऐसा इसलिए क्योंकि स्वयं के लिए जीना ही उसका उद्देश्य कभी नहीं रहा| प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के इन शब्दों के माध्यम से कहने का प्रयास किया जाए तो “औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पावो, अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ” उसके जीवन का मुख्य निहितार्थ होता है| उसके इसी निहितार्थ का परिणाम है कि वह यथार्थ संभावनाओं की खोज और भविष्य के निर्माण में अनवरत सक्रिय रहना चाहता है| इस सक्रियता में वह अपना गौरव और स्वाभिमान समझता है| समझ में जब स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव-हित की चिंता हो तो मानवीयता स्पष्टतः अपने यथार्थ रूप में दिखाई देती है| गौरव और स्वाभिमान की इसी प्रक्रिया को ‘गौरव’ कविता के माध्यम से जयशंकर शुक्ल मानव की इसी स्थिति और वास्तविकता को कुछ इस तरह स्पष्ट करते हैं-
गौरव को बेताब मनुज यह
प्रति पल उद्यम करता जाए |
अपनी या अपनों के खातिर
जग में कितने कष्ट उठाए ||
खुद की इच्छा गौण समझकर
ममता से परवश हो जाए |
स्वजनों की चाहत के कारण
धरा सींचने गंगा लाए ||
शौर्य त्याग मर्यादा से जुड़
कभी न पीछे मुड़ने पाए ||   
          कभी न पीछे मुड़ने की स्थिति को मनुष्य के सिवाय शायद ही किसी दूसरे प्राणी ने अपनाया हो| यह मनुष्य ही है जो “आपस में निमग्न स्नेह रस के महासागर में/ धरा के प्राणियों हित प्रेम-सुधा बरसाता रहा|” जीवन-गत तमाम प्रकार की व्याधियों को स्वेच्छा से झेलते हुए वह भविष्य का मार्ग प्रशस्त तो करता ही है, दूसरों को भी इस तरह बनाता और तराशता है जिससे समय-समाज में उसकी भी उपयोगिता जीवन-जगत के लिए अनवरत बनी रहे| यह भी सही है कि ऐसे समय में, जब मनुष्य महत्त्वपूर्ण माना गया है समाज में अन्य की अपेक्षा तो यह सम्पूर्णता में बनी रहे न कि अवगुण और अनाचार के मार्ग पर चलते उसे मृतप्राय करने के लिए उद्यत हो| कवि सम्पूर्ण मनुष्य जाति को संबोधित करते हुए कहता है “सबल बनो पर तुमको इतना याद रहे/ निर्बल की भी आहें होती हैं, भान रहे|/ हृदय गुफा में बैठा प्रभु साकार रूप में/ आता इसके साथ अग्नि की दहकता है ये|” ईश्वरीय कोप और सामाजिक अपयस से सर्वथा बचाव के लिए जो सच्चे मनुष्य हैं उन्हें अपने इस उपयोगिता का अभिमान होता भी नहीं है| ऐसा करते रहने के पीछे प्रत्येक मनुष्य का स्पष्ट मानना होता है की “मानवता की उपासना ही हमारा धर्म है/ शास्त्र और आचार का एक यही मर्म है|”
      जीवन-पथ पर आगे बढ़ने के लिए उसकी पहचान बहुत आवश्यक मानी जाती है| हम कहाँ जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं इसके विषय में कुछ तो जानकारी होनी ही चाहिए| इस जानकारी के लिए ही मनुष्य ने ‘शास्त्र’ का चयन किया है| शास्त्रों के द्वारा संस्कारशीलता का उपनयन किया है| आज के इस संक्रमण के दौर में ‘शास्त्र’ को ही सभी विसंगतियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा रहां है| तमाम प्रकार की विडम्बनाओं के लिए उसे शक के दायरे में रखकर खारिज करने का साहस किया जा रहा है| विडम्बना का विषय यह भी है कि ऐसा उनके द्वारा किया जा रहा है जिन्हें न तो शास्त्र की समझ है और न ही तो शास्त्रगत-आचार की| यही वजह है कि जो आचरण की परिभाषा ‘किरण’ के कैनवास से कवि बताता है “आचरित बन स्वयं किसी अप्रतिम अलबेले से/ सामाजिक स्नेह भाव के आधार को संवारते|/ कर दे पिक, काक को अपने सहज कौतुक से/ हॉवे महिमामंडित जो उसे आचरण पुकारते” आज बहुत कम ही लोगों में देखने और जानने को मिल रही है|
         यह भी सही है कि ऐसे लोग सिद्धांतों मात्र में अडिग तो रहना चाहते हैं लेकिन जब बात व्यावहारिकता की आती है तो कहीं दूर हट जाना चाहते हैं| शास्त्र के प्रतिरोध में अनेक कोकशास्त्र भी इन दिनों के परिवेश में लोगों द्वारा रचे गए हैं और निरंतर रचे भी जा रहे हैं लेकिन वे नितांत बनावटी, दिखावटी और मतिभ्रम करने वाले ही साबित हुए हैं| कवि का यह कहना “हाय रे हतभाग्य/ तुमने/ अपने चारों तरफ/ बनावटी दुनिया के ताने बाने/ कृत्रिमता के बहाने तथा/ उपलब्धि की इच्छा में/ स्वयं को उसकी छाया से/ दूर कर लिया है/ बहुत दूर कर लिया है” उसकी अपनी यथार्थ स्थिति को दिखाने का ही प्रयास है|
         इस प्रयास में शास्त्र के बहाने जहाँ जीवन-पथ को सुन्दर बनाने की परिकल्पना की गयी है वहीं अपने समय के साथ-साथ इस वर्तमान की संवेदनशील समस्याओं पर भी गहरी दृष्टि दौडाई गयी है| सबसे पहले तो बात कर लेना उचित होगा देशभक्ति की| आज सम्पूर्ण चिंतन-प्रक्रिया दो धाराओं में बंटी हुई है| देशभक्ति और देशद्रोह| देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषाओं से आज का बच्चा-बच्चा वाकिफ है| जो ठीक से दौड़ना भी नहीं सीखा होगा भक्ति की स्थिति से कहीं ज्यादा परिचित होगा| सवाल ये है कि जो दौड़ रहे हैं लगातार ऐसी भक्ति को ढोंग और ढकोशला बता रहे हैं और मन-माफिक देशभक्ति के दायरे से बाहर होते हुए जन-भक्ति का जुमला उछाल कर सम्पूर्ण परिवेश को दूषित और प्रदूषित कर रहे हैं| जो भावी युवा हैं देश के ऐसे जुमलों से संक्रमित जरूर हुए हैं और समाज-देश-विरोधी संस्कृति की तरफ बड़ी तेजी से उन्मुख हो रहे हैं| देश के बच्चों में ‘भारत की तकदीर’ को देखते हुए जयशंकर शुक्ल यह कहना देश और समाज के लिए तत्पर होना तो सिखलाता ही है संस्कृति से जुड़कर कार्य करने के लिए प्रेरित भी करती है-यथा
बच्चों तुम भारत माँ की तकदीर हो
देश को चमकाओगे ऐसे वीर हो
तुमसे बढ़ता मान देश का
गौरव स्वाभमान देश का
ज्ञात विश्व में जान सके ना
ऐसा मधुमय आन देश का
जन-उत्थान कराने वाले
विविधा के रणधीर हो|
           काव्य की ऐसी पंक्तियाँ निश्चित ही देश समाज और संस्कृति से जुड़ने के लिए प्रेरित करती हैं| यह स्थिति आज के कवियों में बहुत कम देखने को मिल रही है| गीतों और नवगीतों में तो ऐसी परंपरा वर्तमान है लेकिन तथाकथित समकालीन कविता जिसे मुक्त-छंद के नाम से ही समझने का प्रयत्न किया जा सकता है, में इसका बहुत बड़ा अभाव दिखाई देता है| वहां भारत को भारत मानने के लिए ही लोग तैयार नहीं हो रहे हैं “माँ” शब्द से विभूषित करना तो बहुत दूर की बात है| इसीलिए देश में इन दिनों “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह!” जैसे नारे जन्म ले रहे हैं| देशभक्ति के पाठ पढ़ने वाले बच्चों को उकसाए जा रहे हैं| उन्हें परम्परावादी और रूढ़िवादी सिद्ध किये जा रहे हैं| यहाँ कवि संस्कारशील बच्चों को पुरातनपंथी न कहकर उन्हें ‘आने वाले युग का नायक’ कहता है
“आने वाले युग के तुम नायक हो
प्रातः रुपी धनुहा के सायक हो
नये क्षितिज को विस्तृत करके
बनो दीप तुम लायक हो
जो बलि जाए राष्ट्र धर्म पर
तुम वो शूर वीर हो ||बच्चों||
         यहाँ कवि जाति-धर्म या समाज-धर्म की बात न कहकर राष्ट्र-धर्म की संवेदना को महत्त्व देता है| यह भी वर्तमान की एक विसंगति है कि जाति-धर्म के आगे किसी का कलम और किसी की सोच कम ही चलती हुई दिखाई दे रही है| हमारे आज के इस समय की यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि जिनसे उन्हें सीख मिलनी चाहिए वे पाठ्य परिवर्तित कर के उनके स्थान पर ऐसे रचनाओं को जगह दिया जा रहा है जिनमें प्रेरणा नाम की चीज न होकर विखंडन की विसंगतियां भरी पड़ी हैं| जिस देश का साहित्य जैसा होगा उस समाज-संस्कृति  की स्थिति की पारिकल्पन कुछ वैसी ही की जायेगी| सदियों से चले आ रहे भारतीय समाज में असमानता की जो जगह थी शिक्षा जगत में उस असमानता को और भी विकसित किया गया है| महापुरुषों को गलियां दी जा रही हैं तो महात्माओं पर व्यभिचार के दोष मढ़े जा रहे हैं जबकि कपटी, धूर्त और अहंकारी तथा समाज-विभाजक के सूत्रधार राजनीतिक षड़यंत्र का फायदा उठाते हुए पुरस्कृत हो रहे हैं| अर्थात विखंडन की जो भी नीतियाँ कारगर हैं उन्हें अपनाया जा रहा है जबकि इस देश की संकल्पना में विखंडन न होकर “साम्यरस की छटा” हिलोरे ले रही थी, कवि विभाजन कारियों को यही सन्देश देना चाहता है कि-
मान क्यूं दे रहे हो कृपन के लिए/ मान देना है दे दो सुमन के लिए
आप के सामने ऐसा हो जाएगा/ आग भी रो उठेगी तपन के लिए
एक दीपक जला करके देखो जरा/ बाती घी में डूबा करके देखो जरा
अन्धकार अपने आप में घुट जाएगा/ रोशनी की छवि भरके देखो जरा|
दूरियां हर दिलों की सिमट जाएँगी/ अन्तराएं अँधेरे की मिट जाएँगी
राह की दोस्ती के चलो कुछ कदम/ मुश्किलें रास्तों की भी हट जाएँगी|
आदमी-आदमी जैसा दिखने लगे/ आदमीयत की आभा निखरने लगे
अपनी जैसी समझ लो पराई व्यथा/ साम्यरस की छटा फिर सँवरने लगे|”
             ‘साम्यरस की छटा’ से चाटुकारों को हर समय भय रहा है| मुफ्त की खाने वालों को हर समय दिक्कत रही है| भला वे कब चाहेंगे कि “आदमी आदमी जैसा दिखने लगे/ आदमीयत की आभा निखरने लगे”? यदि ऐसा हुआ तो फिर लूटने-खाने के लिए कहाँ से मिलेगा उन्हें? कवि इन स्थितियों की यथार्थता को लेकर पूरे संग्रह में चिंतित दिखाई देता है| उसके इस चिंता में ‘जनसँख्या का विस्फोट’ भी है और लेबर चौराहों पर लग रही मजदूरों की बोली भी है, महापुरुषों की जरूरत भी आज के इस समय में उसे आभासित हो रही है और भाषा-संस्कृति की दुर्दशा पर भी बेहद संवेदनशील है| कुल मिलकर ‘किरण’ में वह चाहता है कि सभी व्यक्ति अपने अपने हिस्से की रोशनी को देखें ताकि समाज व्याप्त अंधियारा समाप्त हो सके| सम्प्रेषणीयता में तुकबंदी कहीं कहीं बाधक जरूर है लेकिन भावात्मक सघनता होने की वजह से बोधगम्य भी है| सहज शब्दों के माध्यम से सब कुछ कह देने की इनकी अपनी विशेषता है जिसे विशिष्टता भी समझा जा सकता है और इनकी कमजोरी भी|










Tuesday 11 April 2017

सामाजिक जीवनबोध की सहज अभिव्यक्ति-दर्द का कारवाँ


         इन दिनों गज़ल-क्षेत्र में कुछ नये रूप सामने आए हैं| सच यह भी है कि इस विधा को स्थापित कुछ विशेष पूर्व-मान्यताओं के केन्द्र में नए रूप के लिए ही आरक्षित माना जाता रहा है, और यह विश्वास परिवेश में जमाया जाता रहा है कि जो प्रेम के दर्द से पीड़ित हो, गम से चोट खाए दिल को सांत्वना देने के लिए या फिर दिल को किसी ठीक ठिकाने लगाने के लिए वह गज़ल लिखता रहा है| इन स्थापनाओं को प्रेम की धड़कन बढ़ाने वाले युवाओं ने ही यथार्थ का जामा पहनाकर समकालीन समय-बोध को चित्रित करने वाली सशक्त विधा के रूप में परिवर्तित किया है| गजल को भोगे यथार्थ और आने वाले भविष्य के नए सन्दर्भों से परिचय करवाकर सामयिक एवं समकालीन जीवन-प्रक्रिया में प्रतिष्ठापित किया है|
         गज़ल-विधा के कुछ हस्ताक्षरों में अनिरुद्ध सिन्हा, माधव कौशिक, अशोक अंजुम, ज्ञानप्रकाश विवेक, अशोक मिजाज, मधुकर अष्ठाना आदि बड़े स्थापित रचनाकारों के साथ-साथ युवा रचनाकारों में अभिनव अरुण, डॉ० मोहसिन खान ‘तन्हा’, प्रवेश गौरी ‘गुरु’ आदि जैसे युवा पीढ़ी के रचनाकार सक्रिय रूप से अपनी भूमिका को निभा रहे हैं; जिनमें मांसल प्रेम की वायवी उड़ान न होकर मानवीय-प्रेम का यथार्थ अंकन स्पष्टतः परिलक्षित होता है| मानवीय समाज में वर्तमान तमाम रूढ़ियों के शमन के लिए इन रचनाकारों ने गुटबंदियों से दूर रहते हुए अपनी अलग पहचान बनाई है|  
         इन सब में मालिनी गौतम का अपना स्थान और अपनी भूमिका है जो हम सब को ‘दर्द का कारवाँ’ लेकर चलने वालों में शामिल होने के लिए विवश करती है| हलांकि यह सच है कि “वक्त को मुट्ठी में कोई कर सका है कैद कब/ ये फिसलती रेत है इसका न कोई ठाँव है” बावजूद इसके कारवाँ से जुड़ने की यह विवशता ऐसे समय में अनिवार्यता बनकर हमें प्रेरित कर रही है जब “जिन्दगी न अब कोई गुलमोहर की छांव है/ हो चुकी उम्मीद घायल थक चुका हर पाँव है|” यह कारवां मनुष्यता के मार्ग में आने वाली विडम्बनाओं को दूर कर सह-अस्तित्त्व पूर्ण जीवन-निर्माण को बढ़ावा दे सके इसलीए भी हम सब का जुड़ना आवश्यक हो जाता है| जुड़ते वक्त यह भावना जरूर उसके मन में वर्तमान रहनी चाहिए कि “सभी कुछ भूल जाना है/ अलख मुझको जगाना है/ यही हो जोश इंसा में/ जमीं पर चाँद लाना है/ भले हो आग का दरिया/ हमें तो पार जाना है|” आग के दरिया के पार जाने और धरती पर चाँद को लाने के लिए जिस साहस और जिस विश्वास की आवश्यकता होती है वह मालिनी गौतम द्वारा रचित “दर्द का कारवाँ” में वर्तमान है|
        मालिनी द्वारा विरचित गजलों की दुनिया में परिक्रमा करते हुए यह जिज्ञासा बराबर बनी रही है कि कल्पना और यथार्थ का, जो सर्वथा आदर्शों की देहरी को सुरक्षित रखे हुए है, समन्वयपूर्ण ऐसा संयोजन इस रचनाकार ने कहाँ से हाशिल किया? बिखरे हुए शब्दों को यथार्थ का आकार देना तो कोई इनसे सीखे| यह बगैर किसी संकोच के कहा और स्वीकारा जा सकता है कि, जब हम इन्हें पढ़ रहे होते हैं कहीं गहरे में एक रचना या मात्र एक पुस्तक ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन-प्रक्रिया का मानवीय रूप आत्मसात कर रहे होते हैं| यह इनके व्यावहारिक जीवन की छाया भी हो सकती है और रचनात्मक-जीवन के अभिव्यक्ति की शक्ति भी|
       समकालीन जीवनधर्मिता का निर्वहन कर रहे जन-मानस के लिए इनकी गजलों का महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि छान्दसिक विधा में यथार्थ का अंकन अधिकतर विरल रहा है| यहाँ अक्सर रचनाकार तुकबंदी के चक्कर में भावात्मकता की संकरी गली में उलझता जाता है| हर हाल में, न चाहते हुए भी आदर्षता का वरण करना उसकी मजबूरी बन जाती है| लेकिन यह मालिनी की शक्ति ही है कि यथार्थ को भी गजब का परिवेश ही नहीं देती अपितु अपने अनुशासन में उसे नया संस्कार भी देती है| मालिनी का गजल के माध्यम से यह कहना ही इस स्थिति की पुष्टि करना है-यथा,
इस तरह  क्यों  हुई  तू  विकल  ज़िन्दगी 
कुछ संभल, कुछ बहल, आगे चल ज़िन्दगी
हैं उमीदें कई, शेष अरमान हैं
थाम ले तू हमें यूँ न छल जिन्दगी
छन्द बहरों में नाहक तलाशा किये
चाक सीने से निकली गज़ल जिन्दगी
नित नयी मुश्किलों से जो घबरा गये
कर दे उनके इरादे अटल जिन्दगी
वो हैं नादां, हुई उनसे बेशक खता
दे न उनको सजा, कुछ पिघल जिन्दगी
देखकर क्रूर मंजर जो पथरा गये
उनकी आँखों को कर दे सजल जिंदगी
नव्य आशा, मिली है नयी चेतना
त्याग दे पथ पुराना, बदल जिन्दगी   
        जीवन जीना इतना आसान नहीं है और जीने की प्रक्रिया में जब एक मनुष्य होता है, जीवन-यथार्थ की परिकल्पना करना भी किसी प्रत्यक्ष परिस्थिति को स्वीकार करके उसे झेलना ही होता है| यह समय भी कुछ इन दिनों का बड़ा घातक हुआ है जहाँ मनुष्यता बार-बार हारती और पराजित होती प्रतीत होती है| यह प्रतीत होना यथार्थता के रूप में तब और अधिक विकराल अवस्था में वर्तमान हो जाता है जब प्रेम और भाई-चारे का सन्देश बांटने वाली मानवीय आँखें फूट और विध्वंस का षड़यंत्र रचती दिखाई देती हैं| इन आँखों की यथार्थता को अभिव्यक्त करते हुए मालिनी का यह कहना “भाई-भाई को काटे, क्या हिन्दू क्या मुस्लिम है/ खंजर और तलवारें हैं इन जहरीली आँखों में/ संबंधों पर गाज़ गिरी, पैसा ही सर्वस्व हुआ/ दो और दो अंकगणित इन भड़कीली आँखों में” उजड़ रहे मनुष्यता की संभावनाओं की तरफ इशारा करना है| 
       समाजिकत्व के केन्द्र में मनुष्य को एक जिम्मेदार व्यक्तित्व के तौर पर मनीषियों द्वारा चिह्नित किया गया है| अन्य जीवों की अपेक्षा उसकी भूमिका जिम्मेदारी की कुछ अधिक मांग करती है| कुछ हैं जो इस जिम्मेदारी को निर्वहन करने में असफल रहते हैं जबकि कुछ इसे अपना सौभाग्य समझते हैं| जो सौभाग्य समझते हैं वो कहीं न कहीं उनमें से हैं “नफरतों की कैद से जो हो गए आजाद हैं/ प्रेम का अमृत वही जीवन में अपने पा गए” ऐसे लोगों का यह प्रण कि “पड़े पैरों में हैं छाले मगर मैं फिर भी चलता हूँ/ कभी सहरा कभी दरिया से अक्सर मैं गुजरता हूँ/ नहीं गहराई नदियों की, नहीं सागर का खारापन/ बुझाने प्यास औरों की मैं झरना बन के बहता हूँ|” निश्चित ही झरना बनके बहने की प्रक्रिया ने मानव समाज को बहुत बड़ा संबल दिया है| और जो असफल रहे हैं जिंदगी का बोझ वो ढोने लगे/ हर मुख़ालिफ़ बात पर वो रोने लगे|” रोने की स्थिति वाले इस प्रकार के लोगों की संख्या मानवीय समाज को प्रगति-पथ पर आगे ले जाने में बाधक सिद्ध होती है| यहाँ जिम्मेदारी का एहसास न होकर समय और समाज से कटे होने की संभावना अधिक होती है|
          जीवन-समय में हर तरह के लोग वर्तमान हैं| कुछ कर्म को महत्त्व देते हैं तो कुछ कल्पना के वायवी उड़ान को| कुछ ‘खावे अरु सोवे’ में विश्वास करते हैं जबकि कुछ ‘जागे अरु रोवे’ के लिए जिज्ञासु रहते हैं| कवि ‘जागे अरु रोवे’ में अपनी समस्त इच्छाओं का तर्पण करने वालों में माना जाता है| समाज की तमाम विसंगतियों को देखते हुए भी वह निराश नहीं होता और यह आशा उसे रहती है कि “संग दिल इंसान सुधरेगा न आखिर कब तलक, यह दिले नादान मचलेगा न आखिर कब तलक|” दिल का मचलना इंसान के सुधरने की प्रथम सीढ़ी है| इसीलिए एक बचपन की-सी संभावना हृदय में बचाकर रखनी चाहिए| बचपन की अवस्था में जुड़ने की संभावना अधिक होती है| प्राप्त करने और संजोने की ललक देखी जाती है| इसीलिए कवयित्री यह सलाह भी देती है कि-
“बालक से तुम चलना सीखो
गिरकर आगे बढ़ना सीखो
ठहरे जल में तो बदबू है
कल-कल करके बहना सीखो
बंद किताबें किस मतलब की
बंद कली से खिलना सीखो
ठोस हुआ अंतर्मन सबका
बनकर मोम पिघलना सीखो
कालकूट की इस दुनिया में
निर्भय बनकर चलना सीखो
भूल न जाना प्रीत पुरानी
प्रेम अगन में जलना सीखो|”
         यह भी एक बड़ा सत्य है कि जीवन-पथ में मुसीबतें आती हैं| उन मुसीबतों से जूझते हुए ही नए पथ की खोज की जाती है| नए पथ का विस्तार कौन करना चाहेगा...जिसे प्रेम के यथार्थ को सम्पूर्ण समाज में विस्तार देने की लालसा होगी| सम्पूर्ण समाज में विस्तार देने के लिए ही समाज में संवादात्मक व्यवस्था का सृजन हुआ था| आज यह व्यवस्था अलगाववाद की संभावना को जन्म देते हुए अवसाद का शिकार हो रही है| मालिनी का स्पष्ट कहना है कि  “बीतते जाते बरस लेकिन नहीं संवाद है/ इसलिए तो जिंदगी में आज ये अवसाद है|” इस अवसाद के आवरण में घिरकर मनुष्यता पत्थर के आकार में बदलने लगी है और उसी का प्रभाव है कि “अब नहीं है दिल धड़कता जिस्म ये फौलाद है|” एहसास की ऐसी वेदना उन्हीं के लिए होती हैं जिनके अन्दर प्रेम की भावना का, अल्पांश ही सही, प्रवाह पाया जाता है|
         कवयित्री जानना चाहती है कि “आज रिश्तों में ये खटास है क्यूं/ मेरा मन आज फिर उदास है क्यूं?” हालाँकि वह यह भी जानती है कि “छोड़ सभी ने गुलसितां को उसके हाल पर” अपनी अपनी दुनिया सजाने में व्यस्त हो गए हैं| उनके इस व्यस्तता का ही परिणाम है कि “छाया है घनघोर अँधेरा फिर भी दीपक मौन खड़ा है/ शोर मचाती इस दुनिया में सन्नाटा भी बोल पड़ा है|” सन्नाटे के उठ खड़े होने से कलरव का अभाव खटका है| मनुष्य ने वाचालता की प्रक्रिया से हटकर मौन को आमंत्रण दिया है| मौन ने संवाद-व्यवस्था को गहरे में प्रभावित किया है| वह इन दिनों के परिवेश में मृतप्राय हुई है| संवाद व्यवस्था के मृतप्राय होने की वजह से ही व्यक्ति अहमवादी, अहंकारी और वैयक्तिक मान्यताओं को तवज्जो देने वाला निर्दयी दानव बन कर सामाजिक मान्यताओं को तिलांजलि दे रहा है|
        गजल को कहने और उसे सामाजिक आकार देने में मालिनी गौतम का अपना व्याकरण और अपना परिवेश वर्तमान रहा है| काव्य के अन्य विधाओं के साथ-साथ इस विधा में भी इनका मन खूब रचा-बसा है| सामाजिक रिश्तों की समझ और सामाजिक मान्यताओं की समृद्धता इनके कवि-हृदय के केंद्र में हर समय रहा है| भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और साम्प्रदायिकता के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध का स्वर इनकी सम्पूर्ण रचनाधर्मिता में प्रमुखता लिए हुए है| मालिनी वाकई अपने तरह की एक ऐसी रचनाकार हैं जो मानवीय समाज को बचाने के लिए जितना अधिक प्रौढ़ मानसिकता को महत्त्व देती हैं उससे कहीं अधिक बाल-मन को भी तवज्जो भी देती हैं, जो अन्य रचनाकारों में बहुत कम या लगभग न के बराबर वर्तमान रह पाता है| यह कहना सुखद आश्चर्य से कम नहीं है कि कुछ इन्हीं गजलकारों की वजह से आज गजल-विधा से नजरें छुपा कर चलना समकालीन आलोचकों को भारी पड़ रहा है|




Monday 10 April 2017

प्रिये, कहो तो सच कहूं

तुम पूंछ रहे थे कैसा हूँ प्रिये
तो सुनो तुम्हारी अनुपस्थित में इन दिनों
बहुत खाली खाली-सा होता जा रहा हूँ मैं
कहाँ हूँ, क्या कर रहा हूँ, कैसे हूँ, क्यूं हूँ, कहाँ जा रहा हूँ
सब कुछ भूलता सा जा रहा हूँ मैं, क्योंकि
तुम नहीं हो, जो कहती थी छत का एंगल पकड़ कर
शाम को थोड़ा जल्दी आना घर पर  

तुम रहते थे तो एक गजब का कलरव रहता था परिवेश में
पूरा रूम चलता रहता था अपनी मौज में जैसे
बजता रहता था एक-एक सामान यहाँ का अपने आवेश में  
जैसे कि झरना कोई चल रहा हो दूर पहाड़ से
पुकारते थे तुम मुझे जिस व्यवहार से  
खिंचा चला आता था तुम्हारे सौंदर्य के सत्कार से  

तुम्हारे आवाज की निरंतरता
प्रेम भरे इन्तजार की वर्तमानता
हर समय गूंजता रहता था हृदय में
जब तक नहीं पहुँच कर देख लेता तुम्हें
जैसे खोया-खोया-सा रहता था जंगल-वन में
तुम नहीं हो तो मौन-सा है कोना-कोना घर का
कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है इन दिनों शहर का   

हाँ, तुमने यह भी पूंछा था
कुछ खाया-पीया कि नहीं अभी तक
डांट लिया था उस समय मैंने लेकिन सच बताऊँ
इन दिनों नहीं कोई पूछ रहा है वैसे, जैसे
खाना बनाकर थाली में सजाकर आते थे तुम
और मैं कह दिया करता था नहीं खाना मुझे, आवेश में  
बार-बार मनाती थी तुम मैं बार-बार रूठता था
तुम जुड़ती जाती थी मुझसे मैं स्वयं से टूटता था

प्रिये, कहो तो सच कहूं
तुम्हारे बिन जिन्दगी बहुत त्रस्त है
घर का सामान सब अस्त-व्यस्त है
क्या क्या सहेजूँ सब छूट-सा रहा है
नेह हृदय का अब टूट सा रहा है
कि तुम नहीं हो इन दिनों मेरे पास
दिन है डरावना तो रात है उदास
बहुत कुछ सँभालने के चक्कर में प्रिये
बहुत कुछ पकड़ से छूट रहा है
जैसे मेरा विश्वास साथ छोड़ रहा है मेरा
मुझसे मेरा ही जैसे कोई लूट-सा रहा है  ||

वह कहाँ है

तुम वहां हो खोए हुए अपने में
हम यहाँ हैं सोए हुए किसी अनबूझ सपने में
वह कहाँ है जो न तो खोया हुआ है
और न ही तो सोया हुआ है
हमारे तुम्हारे साथ शामिल था जो पिछले जुलूस में
नितांत हताश और परसान-सा चेहरा लिए

समय की नियति और उसकी नीयत से
यह तो जाहिर है वह अमीर नहीं था
और यदि होता तो क्यों आता नारा लगाने बेमतलब के
घर-बार अपना छोड़-छाड़ के बीच बाजार में बगैर खाए पिए
वह रहीस भी नहीं ही था हमारी तुम्हारी तरह  
बेशरम होकर छाती पीटने की अकल नहीं दिखाई दी थी उसमें
फटे पुराने कपड़े में नारे लगाने से एक बार बहुत ही ज्यादा सरमाया था वह

वह जो था अतीत में
वही होकर रहना चाहता था वर्तमान में
भविष्य से लापरवाह जरूर था वह हमारे तुम्हारे नज़रों में
वह आवारा, खुदगर्ज, कपटी और स्वार्थी बिलकुल भी नहीं था
जैसा कि हम तुम होते आए हैं आज से नहीं सदियों से
नहीं जनता था वह हमारी तुम्हारी तरह घड़ियाली आंसू बहाना
हंसने की चाहत रखता था और सिखाता था हमें भी मुस्कुराना    
हाँ, तुम कह सकते हो वह पालतू कुत्ता था
पुचकारते थे तो वह दौड़ा आता था किसी लालच में
गधा था, भैंसा था, भेड़ था, था और वह बहुत कुछ  
जो वह नहीं हो सकता था वह भी था अपने स्वभाव में
न होता तो हजारों कुत्तों, हजारों गधों, हजारों भेड़ों में घिरा होकर
भाग क्यों न लेता हमारी तुम्हारी तरह, हमारे तुम्हारे लिए उनसे मुठभेड़ क्यों करता
वह भूखे-प्यासे, रोते-गाते, सोते-जागते हमारी रक्षा के लिए क्यों रहता तत्पर  

उसका न होना ही होना है आज के लोगों को सच बताने के लिए
हमारा होना यथार्थ को झुठलाना है, बहाना है सच को छुपाने के लिए
तलाश तुम्हें भी है हमें भी है और उन्हें भी है जो उसके गुम से गुमनाम होने के साक्षी थे
यह बात और है कि हिम्मत नहीं है हमारे पास सच को सच की तरह दिखाने के लिए
अब हम ही नहीं दुनिया भी जानना चाहती है वह कहाँ गया, जो
न तो चिल्लाता था, न डकारता था, न हांफता था और न ही तो रोता था
खटता रहता था कि हम और तुम आराम से सो सकें अहक भर के ||