Sunday 21 April 2019

मिलना हुआ कुछ ऐसा कि...



अनिरुद्ध सिन्हा सर के आने की खबर पहले से थी| अक्सर बात हो ही जाया करती है उनसे| पिछली मुलाक़ात की यादें अभी भी मन में वर्तमान हैं| इस बार दिल्ली आगमन की खबर सुनकर मैं भी निश्चय कर लिया था कि मिलना ही है| बड़े भैया अरविन्द पाण्डेय का फोन आया लुधियाना जाने के लिए लेकिन उनका आदेश स्वीकार न कर सका क्योंकि दिल्ली की यात्रा बना लिया था| अरविन्द भाई का साहित्य पर पहले से ही अनुराग रहा है तो उन्होंने ने भी चलने के लिए कहा| हम सब कार से जाने की तैयारी कर लिए और यह बता दिया गया सिन्हा सर से कि हम लोग सुबह-सुबह 7 अप्रैल को आ रहे हैं|

मौका था किताब गंज प्रकाशन पर गेट-टू-गेदर कार्यक्रम में शामिल होने का| रात के लगभग 12 बजे घर से निकलना हुआ| रास्ते भर साहित्य पर चर्चा होती रही| गीत-संगीत का कार्यक्रम चल ही रहा था कार में| एक दो जगह चाय का सहारा भी लेना पड़ा| सहारा इसलिए कि नींद पर विजय प्राप्त किया जा सके| रात्रि के 11 बजे तो बात हुई ही थी सुबह 4-5 बजे भी उनसे रहने-आदि के सम्बन्ध में मोबाइल से बात हुई| यह बताने में कोई संकोच नहीं है कि एक अभिभावक की तरह हर समय वे हाजिर रहे| जब तक हम सब पहुंच कर कहीं रुके नहीं तब तक वे फोन-पर-फोन करते रहे| उनकी यह आत्मीयता हमें समकालीन साहित्यिक परिवेश पर बार-बार विचार करने के लिए विवश करती रही|

हम पहुँच थोडा जल्दी गये| जाना हौज ख़ास था तो चले भी गये| वहीं कहीं होटल लेकर 2-4 घंटे आराम किये और फिर अनिरुद्ध सिन्हा सर से मुलाक़ात हुई| वही चेहरा| वही उत्साह| आवाज भी वही जो अक्सर ग़ज़ल विधा पर सक्रिय रहने के लिए प्रेरित करती रहती है| हम सब एक साथ हौज ख़ास स्थित जयपोर हाउस पहुंचे| चार पुस्तकों का लोकार्पण हुआ जिसमें सभी ग़ज़ल विधा की रचनाएँ थीं| अनिरुद्ध सिन्हा, माधव कौशिक, ज्ञान प्रकाश विवेक और विज्ञान व्रत द्वारा लिखित ग़ज़लों के ये संग्रह कैसे हमारे समय की जरूरी पुस्तकें हैं इस पर फिर कभी|


इसके पहले यहाँ पहले से ही गज़लकार कमलेश भट्ट कमल जी, गज़लकार विज्ञान व्रत जी, कवि सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव जी, समहुत के सम्पादक अमरेन्द्र मिश्र जी उपस्थित थे| सबसे मिलना हुआ| परिचय कुछ जन के साथ था तो कुछ जन के साथ नहीं था| वैसे सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव जी ने पहचान लिया| यह फेसबुक की कृपा थी|

अमरेन्द्र मिश्र जी से पहली मुलाक़ात ही थी तो बहुत देर अजनबीयत सी बनी रही लेकिन बाद थोड़े देर उनसे भी सम्वाद करने का अवसर मिला तो मिलता रहा| विज्ञान व्रत सर के पास अनुभव का बड़ा कैनवास है तो वे ग़ज़ल की हिंदी-उर्दू की रवानगी पर अपना विचार रखते हुए मुखातिब हुए| इनसे मिलना हर समय सुखद रहा तो उस दिन भी बहुत कुछ सीखने को मिला| कमलेश भट्ट कमल जी के साथ भी यह पहली मुलाक़ात रही यह बात और है कि पहले कई-कई बार हम फोन पर बात-चीत कर चुके थे| ये बातचीत ग़ज़ल की यथास्थिति को लेकर हुई थी|

अनुभव के एक नायाब हस्ताक्षर और वहां उपस्थित थे और वह थे दरवेश भारती जी| अक्सर लोगों से आप सुनते हुए पा जायेंगे इनके गज़ल सम्बन्धी ज्ञान के सम्बन्ध में| बड़े ही मिलनसार और समन्वय-प्रवृत्ति के व्यक्तित्व हैं आप| मुस्कुराने की कला कुछ कम नहीं है इनके पास लेकिन अक्सर छुपाना भी आता है|

कुछ ऐसे होते हैं जो कवि बनते हैं तो कुछ ऐसे होते हैं जो बाद में बनाये जाते हैं| इन्हीं में से कुछ ऐसे होते हैं जो न तो बनते हैं और न ही तो बनाए जाते हैं अपितु शुरू से कवि ही होते हैं| ज्ञान प्रकाश विवेक जी इन्हीं में से एक हैं| एक थैला लिए जिस समय इनका प्रवेश होता है अचानक मेरे मुंह से निकलता है जन्मजात कवि ऐसे ही होते हैंऔर सभी हंस पड़ते हैं| इस व्यक्तित्व को जैसा आप आलोचना, कथा और गज़लों में देखते हैं ठीक वैसा ही व्यावहारिक जीवन में भी हैं| कहन की रवानगी और प्रस्तुति का लहजा ऐसा कि अलानाहक आप गंभीरता से व्यावहारिकता में परिवर्तित हो जाने के लिए विवश हो जाएं| गुमशुम से बैठे हुए भी मुस्कुराते हुए नज़र आएं|

किताब गंज प्रकाशन के निदेशक प्रमोद सागर जी से भी यहीं मिलना हुआ पहली बार| ग़ज़ब हैं| न कहते हुए भी अपने विषय में सब कह ले जाते हैं| सब कुछ अपनत्व-सा| मिलनसार और हंसमुख प्रवृत्ति के व्यक्तित्व| पता ही नहीं चल पाता है कि कभी मिले भी थे या नहीं| अपनत्व का कैसा व्यवहार है इनके पास यह इनसे मिलने वाला हर कोई तो बता ही सकता है| इनको देखते ही एक बार आप शायद यह भी सोचने लगें कि क्या ऐसे भी प्रकाशक होते हैं...|

पूरे दिन साहित्य पर चर्चा होती रही| बीच-बीच में चाय-नाश्ते का दौर चलता रहा| कई बार गंभीर विमर्श हुआ तो कई बार लोग राजनीति पर चढ़ते-फिसलते रहे| साहित्यिक राजनीति भी एक गंभीर विषय के रूप में हम सबके बीच उपस्थित रही| प्रकाशकों से लेकर वैचारिक ठेकेदारों तक पर बात हुई| विधाओं से लेकर सुविधाओं तक की नीति पर चर्चा हुई|


जो भी हो प्रमोद सागर जी का आत्मीय व्यवहार कभी भूला नहीं जा सकता| ग़ज़लकारों का जनसरोकार से जुड़ कर रचनाधर्मिता का निर्वहन करने की प्रतिबद्धता दूर तक प्रभावित करती रही| इस पानी से लेकर भोजन तक, लोकार्पण से लेकर चर्चा-परिचर्चा तक का सफर कितना सुन्दर रहा, यह इन थोड़े शब्दों में कह पाना तो मुश्किल है लेकिन यदि आपका भी मन देखने का कर रहा है तो अगले वर्ष एक बार फिर वहां पहुंचा जा सकता है| अभी बस इतना ही|

देश के प्रधान जज पर आरोप लगाने वाली महिला की ‘सुरक्षा’ सुनिश्चित की जाए




यदि स्त्री पर आपराधिक मामले चल रहे हैं पहले से तो क्या उसे सच कहने और अपने ऊपर होने वाले ज्यादतियों को बताने का हक नहीं है? क्या सुप्रीम कोर्ट का जज होना सभी प्रकार की प्रवृत्तियों से पाक साफ़ होने का अंतिम प्रमाण है? यदि स्त्री ने सेक्सुअल हरासमेंट के आरोप लगाए हैं तो कुछ तो सही होगा? कोई स्वयं को इतने बड़े और चरित्र पर लगने वाले दाग को कैसे सार्वजनिक कर सकता है भला? आप कहते हैं कोई ‘बड़ी शक्ति’ काम कर कर रही है आपको बदनाम करने के लिए तो क्या ये सही नहीं है कि वह बड़ी शक्ति है जिस पर बैठकर आप एकदम से सुरक्षित हैं|


चलो मान भी लेते हैं कि एक हद तक आप सही भी हो लेकिन यही आरोप यदि किसी मंत्री/ विधायक/ सांसद/ डाक्टर/ प्राध्यापक अथवा अन्य किसी कर्मचारी पर लगे होते तो क्या उस समय भी आपके यही तेवार होते साहब? उस समय भी उसे अपने पद पर बने रहने देते और जो जनता आपके पक्ष में खड़ी है क्या उनके पक्ष में उसी निर्लज्जता के साथ खड़ी होती? शायद न खड़ी होती क्योंकि उसके साथ वह ‘बड़ी शक्ति’ नहीं रहती है जिसके छत्रछाया में आप सुरक्षित हैं एकदम से|

महिला ने एक हलफनामें को 22 जजों के घर भेजा है| इतने बड़े पद पर बैठे किसी भी व्यक्तित्व के लिए इतनी बड़ी हिमाकत करना बगैर सच के आधार के सम्भव नहीं है| लेकिन जिस तरह आप स्वयं को गलत नहीं मान रहे हैं लोग भी आप को गलत मानने की ‘भूल’ नहीं करेंगे| समरथ को दोषी कहने की भूल कर भी कौन सकता है? वह भी इस देश में तो बिलकुल असंभव है क्योंकि शोषण को चुपचाप सह जाना ही आम आदमी के जीवन की सबसे बड़ी नियति है|   

यदि आप यह कहते हैं कि जज के पास ‘प्रतिष्ठा’ ही है तो भाई प्रतिष्ठा जज के पास ही नहीं सभी के पास होती है? फिर तो प्रतिष्ठा दांव पर न लगे इसलिए किसी के खिलाफ कोई कानून वगैरह तो बनता ही नहीं? चुपचाप शोषण करो और सज्जन बने रहो अंततः| आप कहते हैं कि “मुझे कोई धन के मामले में पकड़ नहीं सकता| लोगों को कुछ और तलाशना था और उन्हें यह मिला|” तो साहब धन से हीन होना ‘अपराध’ से मुक्त होना नहीं है| यानी आप ‘धन’ संचित करके नहीं रख पाए तो गलत कार्य नहीं करेंगे यह बचाव का कैसा तर्क है भाई? आरोप लगा है तो सच्चाई भी होगी| नहीं भी होगी तो जो सजा हो बाद में उसे सुनाओ वह भुगते उसे| लेकिन ऐसा नहीं होगा|

अभी उसे आपराधिक मामलों में दोषी बताया जा रहा है, बाद में फाइलें पलटी जायेंगी, उसके खिलाफ के अपराध दो चार और ढूंढें जायेंगे, किसी मंत्री वंत्री के साथ उसके कनेक्शन फिट किये जाएंगे और फिर उसके बाद जो अक्सर होता है महिलाओं के साथ...दुश्चरित्र घोषित करके बदनाम कर दिया जाएगा उसे| वह न्याय नहीं पायेगी| जज साहब साहस के साथ फैसलें सुनाएंगे और एक स्त्री अपने फैसले का इंतज़ार करते हुए या तो आत्महत्या कर लेगी या फिर जज साहब की मुस्कराहट और साहस को देखते हुए तिल-तिल मरने लगेगी| भारतीय न्याय की यही विशेषता है|
  
 महिला आयोग कहाँ चली गयी भाई? वह आयोग जो मीटू कार्यक्रम को आगे बढ़ा रही थी? वे लोग कहाँ चले गये जो महिला अधिकारों के प्रति स्वयं को ‘तटस्थ’ बता रहे थे? दरअसल वे लोग कहीं गये नहीं हैं, वे लोग अभी ‘फासीवाद’ के खिलाफ सबूत जुटाने में आप से उम्मीद जगाए बैठे हैं| वे लोग आपमें ‘ईश्वर’ का अंश देख रहे हैं| वे लोग अभी ‘भक्त’ को कोश रहे हैं| आप उस महिला के साथ ही नहीं उन लोगों के घर की महिलाओं के साथ ज्यादती करेंगे फिर भी वे नहीं बोलेंगे कुछ भी| क्योंकि वे वैचारिकता के अन्धे और मानसिकता के पैदल लोग हैं| उनके आँसू, उनके नारे स्वयं को सुरक्षित रखने के ‘सुरक्षा-कवच’ हैं|

जहाँ तक मेरा विचार है तो उस महिला को सुरक्षा दिलवाया जाए ‘सरकार’ द्वारा| इनका कोई भरोसा नहीं है| अपने हितों की ‘सुरक्षा’ को ध्यान में रखते हुए वे उसे मरवा भी सकते हैं| यदि सुरक्षा सम्बन्धी किसी प्रकार को जोखिम उस पर आता है तो उसका सारा जिम्मा देश के प्रधान जज पर ही थोपा जाए|