Friday 30 April 2021

कोरोजीवी कविता और नवगीत विधा का सामाजिक संघर्ष


1.

कोरोजीवी कविता अपनी सम्पूर्ण ईमानदारी में जन-जीवन के साथ है| यदि यह कहूं कि सत्ता के तमाम साधनों-संसाधनों-माध्यमों से कहीं अधिक ईमानदार, तो अत्युक्ति न होगी| सड़कों और हॉस्पिटल आदि जगहों पर पड़ी असहाय और असमर्थ जनता के दुःख-सुख यदि कोई सुन रहा है या कह रहा है तो वह कोरोजीवी कविता है| इसके पूर्व के कई लेखों में मैं यह बात कह चुका हूँ कि मीडिया ने भी अपनी जिम्मेदारी से दूरी बना लिया है| वह या तो तांडव कर रही अथवा दिखा रही है| उससे जन-समर्थित आह्वान की अपेक्षा करना बिलकुल हितकर नहीं है| उसका सत्ता-पक्ष में बोलना जितना अहितकर, विपक्ष-पक्ष में खड़े होना उतना हानिकारक|

बिके हुए लोग मात्र व्यापार-सहयोग का आचरण करना जानते हैं, जनधर्म उनके लिए महज एक नाटक होता है| निरपेक्ष की भूमिका उसके बस की बात नहीं रह गयी है| कवि न तांडव पसंद करता है और न ही तांडव रचाने वाले को| वह न तो पक्ष के साथ खड़ा होता है और न तो विपक्ष का पक्ष बनकर ‘ईमानदार’ दिखने का नाटक करता है| वाद और गुट-मुक्त के सिद्धांत पर सक्रिय रहते हुए वही कहता है जो देखता और एक हद तक जिसे भोगता भी है|


इधर नवगीत विधा ने अपनी इसी निरपेक्ष भूमिका का परिचय दिया है| यथार्थ अभिव्यक्ति की ‘मांग’ पर नहीं एक व्यावहारिक दृष्टि के साथ-साथ समय की जरूरत और समाज की यथास्थिति को सुधारने की आवश्यकता पर| घर में या ऑफिस में बैठकर ‘कल्पना’ से यथार्थ का पैमाना गढ़ने वालों के सूत्र से दूरी बनाए, इधर भूख, प्यास, दवा, ऑक्सीजन तथा दैनिक जरूरत की अन्य चीजों के अभाव को जूझते-झेलते आम आदमी के सच को उनके पास से देख रहे हैं| अपने आस-पास से रोज गुजरती अर्थियों के साथ निकलने वाली उस आवाज़ में स्वयं को देख रहे हैं, जिनका इस संसार में कोई बचा ही नहीं| न स्वप्न, न यथार्थ, न अतीत, न वर्तमान, न भविष्य| हर तरफ जिनके लिए मात्र अँधेरा है और यह दुनियादारी महज एक स्मशानघाट, उनकी वेबस आंसुओं की अभिव्यक्ति बन उन्हें नयी दुनिया के निर्माण के लिए साहस दे रहे हैं, शब्द दे रहे हैं, सहारा बन रहे हैं और हो रहे हैं साबित एक जिम्मेदार अभिभावक|

मैंने ऐसे बहुत-से लोगों को देखा है जो मीडिया की आवाज़ पर नहीं कवि और कविता के विश्वास पर एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं| कई ऐसे गीतकार हैं जो अब भी अपना या अपने व्यक्तिगत सुख-सुविधा का आत्मप्रचार कर रहे हैं| उनका उल्लेख यहाँ जरूरी नहीं| न ही तो उन पर ठहरकर सोचने का अवकाश है अभी| जो जन के लिए समर्पित और उनके जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन कुछ नामों में, मधुकर अष्ठाना, सुभाष वशिष्ठ, माधव कौशिक, रवि शंकर पाण्डेय, ओम धीरज, बृजनाथ श्रीवास्तव, जगदीश पंकज, अजय पाठक, रवि खण्डेलवाल, मनोज जैन ‘मधुर’, अवनीश त्रिपाठी, राहुल शिवाय, योगेन्द्र मौर्य, रविशंकर मिश्र, चित्रांश वाघमारे, गीता पंडित, गरिमा सक्सेना, अनामिका सिंह ‘अना’, आदि ने महत्त्वपूर्ण और विशेष कार्य किया है| ये कार्य संख्यात्मक न होकर गुणात्मक हैं|

इन रचनाकारों को पढ़ते हुए आप अपने वर्तमान को ही नहीं अपितु अतीत-षड्यंत्रों को भी देख और समझ सकते हैं| भविष्य के अधिक दुर्दांत होने की परिकल्पना का यथार्थ महसूस सकते हैं| मनुष्यता के गायब होने और सब कुछ मटियामेट होने के आहट पा सकते हैं| यह जान सकते हैं कि अंततः लड़ना है प्रत्येक व्यक्ति को ही अपने हिस्से की लड़ाई| न तो सत्ता, न परिवार और न ही तो समाज व्यक्ति के अस्तित्व को लेकर स्वयं की जवाबदेही तय कर पायेंगे| नवगीतकार का विश्वास सबसे है भी, पर सत्ता से नहीं है| सच यह भी है कि ऐसे कवि एवं कवयित्रियों ने निंदा-कर्म से दूर रहते हुए इन मुद्दों पर विमर्श किया है| इन रचनाकारों ने एक जिम्मेदार कवि होने का कर्तव्य दिखाया है| इस बात की कोई परवाह किये बगैर कि सत्ता-पक्ष से देश निकाला मिलेगा या उपेक्षा| विपक्ष से सहयोग मिलेगा या धमकी|  

क्रमशः 

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