Thursday 21 May 2020

हर कोई कोरोना आपदा को एक ‘अवसर’ के रूप में देख रहा है


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मुद्दे की राजनीति अच्छी लगती है| हर मुद्दे पर राजनीति अच्छी नहीं लगती| इधर एक भयंकर रवायत चल पड़ी है| अति सम्वेदनशील विषयों को अखाड़े में खींच लाना और उसी पर कुकुरकाट मचाना| कोरोना को अन्य देश के नागरिक भयंकर आपदा के रूप में देख रहे हैं| आम आदमी से लेकर सरकार तक एक-दूसरे का सहयोग कर रहे हैं| अमीर गरीबों की समस्या समझ रहे हैं और गरीब अपने को लेकर पश्चाताप नहीं कर रहे हैं| हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं हो रहा है| हर कोई इस आपदा को एक ‘अवसर’ के रूप में देख रहा है और जो पूरे जीवन कुछ नहीं कर सका वह ‘आत्मनिर्भर’ बनने की प्रक्रिया में सबसे मजबूत दावेदार स्वयं को देख रहा है| 
यहाँ दो शब्द का प्रयोग किया गया| एक-अवसर, दूसरा-आत्मनिर्भर| भारत के प्रधानमंत्री ने इस शब्द का प्रयोग इस अर्थ में किया कि हाय-तौबा मचाने से अच्छा है कि कुछ कार्य किया जाए| चीन आदि देशों से जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ निकल रही हैं उन्हें भारत में वापस बुलाया जाए| इससे एक तो रोजगार को व्यापकता दी जा सकेगी दूसरे जिन क्षेत्रों में उद्योगों का अभाव है वहां उद्योगजगत का निर्माण हो सके| कोशिश यह भी थी कि विभिन्न क्षेत्रों में कर्ज देकर ‘जन-सक्रियता’ को सकारात्मक रूप दिया जाए| महानगरों आदि से जिस तरह से लोग अपने गांवों की तरफ रुख किये थे, यह अच्छा अवसर होगा उनके लिए| वे लोगों से कर्ज मांगने से अच्छा कुछ धन-लाभ कर सकेंगे|
हमारे यहाँ बुद्धिजीवियों ने इसका ठीक उल्टा अर्थ लिया| जिस बात की परिकल्पना प्रधानमंत्री से लेकर आम आदमी तक ने न की थी, बैठे ठाले का धंधा करने वालों ने उसे वही रूप दे दिया| ‘अवसर’ और ‘आत्मनिर्भर’ इन दो शब्दों को इतना विस्तार मिला कि हर कोई लाभ-लोभ के लालच में पड़ गया| कवियों ने खूब कविताएँ लिखी| विश्लेषकों ने समाचार पत्रों के पृष्ठ-के-पृष्ठ पाट दिए| न्यूज चैनलों लाशों पर ऐसी खबरें चलाईं कि आज भी बहुत से दृश्य आँखों के सामने नाच रहे हैं| मृत्यु के आंकड़े जिस तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं, जिस तरीके से पैदल चल रहे मजदूरों पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे अब यही सब समस्याओं को खत्म कर देंगे| इस भयानक त्रासदी के समय में भी भारत बनाम पाकिस्तान का मुद्दा चला रखे हैं| निश्चित तौर पर यह सभी आत्मनिर्भर बनते हुए महामारी के जलजले में ‘अवसर’ का लाभ उठा रहे हैं|
अवसर और आत्मनिर्भर इन दो शब्दों का फायदा राजनीतिक दलों ने खूब उठाया| केजरीवाल ने तो पहले ही चाल चल दिया था| दिल्ली के गरीब निवासियों को घर छोड़ने के नाम पर पिछले दिनों जो कुछ हुआ उसे दुनिया ने देखा| इधर टी.वी. पर आकर हर सम्भव मदद की हिदायतें दी जा रही थीं और उधर लॉकडाउन असफल करने की रणनीति बनाई जा रही थी| मजदूर भटकने लगे| लोग आरोप-प्रत्यारोप में जुटे| जो दंगल हुआ वह आज तक न तो हमें भूल रहा है और न ही तो मजदूरों को भूलेगा|
        
  विपक्ष-पक्ष के बीच जो कुछ हुआ वह भी जगजाहिर है| पीएम केयर फंड को लेकर शंका-आशंका तक व्यक्त की गयी| आम आदमी यह समझने में अभी तक असफल है कि वह पीएम केयर फंड में दान क्यों करे? जो कर रहे थे उन्हें विधिवत यह कह कर कि सब घोटाले की नीति है, उन्हें रोका गया| ठीक तो नहीं हुआ यह| हाँ राजनीतिक दाँव-पेच में कितना नीचे गिरा जा सकता है, यह हम सब जरूर देख लिए|        
इस कोरोना समय को अवसर में बदलने का एक नजरिया और देखिये| राहुल बनाम मोदी, कांग्रेस बनाम भाजपा का जो खेल शुरू हुआ वह इधर मुख्य ट्रेंड में है| मजदूर अपने घरों की तरफ जा रहे हैं| उधर वे रास्ते में भटक रहे हैं और परेशान हैं, इधर कितने लोग तो भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत तय करके बैठ गए हैं| राहुल की ताजपोशी और मोदी की विदाई का सारा इंतजाम भी कर लिए हैं| ये इंतजाम कितने हास्यास्पद हैं, कहने की जरूरत नहीं समझ रहा हूँ|
मेरी समझ में इधर के दिनों में उत्तर प्रदेश में राहुल और प्रियंका की सक्रियता ने इसी अवसर की तलाश को प्रमुखता दी है| एक हजार बसों को चलाने और उस पर सरकार की आपत्तियों को लेकर नूरा-कुश्ती करने वाली बातें बहुत हद राजनीतिक षड़यंत्र की गोटियाँ प्रतीत होती हैं जिन्हें साजिशन बिछाया गया है| आखिर राजस्थान और पंजाब की बसों को उत्तर प्रदेश के बॉर्डर पर लाने की जरूरत क्या थी? पंजाब और राजस्थान में भी तो मजदूर फंसे थे, उन्हें लाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? यह प्रयास होता तो निश्चित तौर पर सराहनीय प्रयास कहा जा सकता था| ऐसा नहीं किया गया क्योंकि मसला मजदूरों को सहायता पहुंचाना नहीं, राजनीतिक लाभ लेना था|  
हमें यह सोचने में संकोच नहीं होना चाहिए कि मजदूरों के भूख और प्यास पर वोटों की बिसात बिछाई जा रही है| इस बिसात में ‘अवसर’ की जो तुच्छता है वह हमें हतप्रभ करती है| कितने लोगों द्वारा तो क्रांति की भी आशंकाएं जताई जा रही हैं| यह भी कि, बेहद गंभीर समय में इस तरह की आशाएं पालना कहाँ तक उचित है? कांग्रेस और भाजपा तब रहेंगे जब लोग रहेंगे? लोग मर रहे हैं और आप राजनीतिक मंथन में जुटे हैं? आखिर यह कहाँ की समझदारी है? कहाँ की नीति है? ऐसा तो हमारा देश नहीं था कभी? जब ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि ऐसा हमारा देश कब नहीं था?
इधर देश आपदा से लड़ रहा है उधर विपक्ष राजनीतिक मंशाए लिए जनता की सम्वेदना-लाभ उठाना चाह रहा है| प्रियंका की सक्रियता में हमारे तमाम बुद्धिजीवी मित्र सब कुछ बदला-बदला देख रहे हैं| कितने तो मायावती और अखिलेश सिंह की सक्रियता पर प्रश्न चिह्न लगा बैठे हैं| ये प्रश्न चिह्न कितने भयानक हैं इसका अंदाजा कोई लगा सकता है क्या? जिस समय सकारात्मक सक्रियता की मांग की जा रही है उस समय नकारात्मक सक्रियता देश को कहाँ लेकर जाएगी? यह विचार करने का विषय है
राजनीति के बियाबान में सम्वेदनाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ किया जाएगा, किसने जाना था| मजदूरों के दुःख-सुख से जिन्हें कभी कुछ लेना-देना नहीं था वे भी इधर जार-जार हुए जा रहे हैं| केन्द्र सरकार तो एक हद तक स्पष्ट है लेकिन राज्य सरकारों द्वारा अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं किया जा रहा है| यदि किया ही जाता तो ये कोरोना समय उनके लिए मुसीबत न बनती| वे भी एकांत समय का फायदा उठाते हुए सृजनशील रहते और समृद्ध होते|
यह ऐसा कठिन समय साबित हुआ कि उद्योगपतियों ने भी मजदूरों को कुछ नहीं समझा| जिन मजदूरों ने अपने जीवन का सुख-चैन दाँव पर रखकर महानगरों को संवारा उसी महानगर ने दूध में पड़ी मच्छी की तरह उन्हें निकालकर फेंक दिया| अब जब वे घर की तरफ रवाना हो गए हैं तो उनकी सहानुभूति पाने के लिए राजनीति की जा रही हा| कितनी विडंबना है जिनसे सहानुभूति दिखाने का समय है उनसे इकठ्ठा किया जा रहा है| यही भारतीय अवसरवाद का सबसे घटिया प्रारूप है|
पुलिस की सक्रियता ने कोरोना के प्रभाव को कम किया और लॉकडाउन को सफल बनाने में भूमिका निभाई| हमारे यहाँ इसे भी राजनीति से जोड़ा गया| पुलिस को हत्यारा तक कहा गया| इस अर्थ में कि लोगों की सहानुभूति मिल सके| एक खास वर्ग और समुदाय के लोगों ने पुलिस के साथ जो हरकत किये वह बहुत कुछ कहता है| जब उन पर कार्यवाही की बात की गयी तो मामला हिन्दू-मुस्लिम से जोड़ कर देखा गया और निम्न से निम्नतर राजनीति की मिशाल प्रस्तुत की गयी| इन स्थितियों को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि यह समय निश्चित ही हमारे लिए कठिन समय है| देश में जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं वह और भी चिंताजनक है|
जरूरी तो यह था कि हर हाल में आपदा से लड़ना था| जो जिस हद तक सक्षम था उस हद तक प्रयास कर सकता था| भाजपा, कांग्रेस, आप, सपा, बसपा सभी पार्टियों द्वारा एक मिशाल तो प्रस्तुत किया ही जा सकता था| आम दिनों में अलग-अलग रहने वाले जानवर भी संकट के समय एक-दूसरे अंग-संग रहना पसंद करते हैं| रहने की कोशिश करते हैं| हम इस संकट के समय में भी सत्ता हथियाने की बात करते रहे| आम आदमी सड़कों पर उतर कर मरते रहे|
मीडिया तो चलिए अपना रवैया नहीं बदल सकती लेकिन क्या पढ़े–लिखे बुद्धिजीवी ऐसा नहीं कर सकते थे? हताश और निराश जनता के लिए यदि सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को भी पहुचाने का कार्य किया गया होता तो कोरोना का जो कहर आज देश पर आपदा बनकर बरस रहा है, वह न होता| स्थितियां कंट्रोल में होतीं| अब संख्या गिना जा रहा है| शहरों को छोड़कर गाँव वेबस और लाचार नजर आ रहे हैं| जिन ग्राम प्रधानों को सक्रियता के साथ अपने गांवों का देखभाल करना था वे सभी चादर तान कर सो रहे हैं| विधायक और सांसद स्वयं को क्वारनटाइन किये हुए हैं| दर से बेदर हुए लोग किसके पास जाएं अपनी समस्याएँ लेकर? यह समझ उनको नहीं आ रहा है| यह समझ आए कहाँ से? हम सब अब इस प्रश्न को लेकर ढो रहे हैं|
फिलहाल सभी अपने ‘अवसर’ की तलाश में हैं| सभी आत्मनिर्भर बनने की भूमिका में मानवीय भूमिका को तिलांजलि दे रहे हैं| निश्चित रूप से यह हम सबके लिए एक सुनहरा अवसर हो सकता था मनुष्यता को ऊंचा उठाने के लिए लेकिन उसमें व्यक्तिगत हित और निज स्वार्थ को कोई फायदा न होता, इसलिए उचित नहीं समझा गया| यह उचित न समझा जाना ही हमारे मनुष्य होने में संदेह पैदा करता है| हमारे सारे प्रयास सभ्य होने और दिखने के संदेहास्पद हो गए हैं|   



Tuesday 19 May 2020

यह समय निश्चित ही हमारे लिए कठिन समय है


एक छोटी सी समस्या हमारे अस्तित्व के लिए चुनौती बन जाती है| सारे प्रयास और सारे प्रयत्न धरे के धरे रह जाते हैं| यह सोचने के लिए अंततः हम विवश हो जाते हैं कि इतने दिन आखिर किया क्या हमनें? क्या यही मनुज का संघर्ष है? यही उसकी बनाई दुनिया है जिसमें वह स्वयं नहीं सुरक्षित रह पा रहा है? इतने यंत्र, इतने मन्त्र, इतने षड़यंत्र सब के सब इस तरह धरासाई हो जाएँगे, क्या सोचा था किसी ने? नहीं सोचा था|
यदि सोचा होता तो प्रकृति को इतना अस्थिर करके न चलता| जितनी दयनीयता के साथ आज मनुष्य छिपा फिर रहा है, लोगों को छूने से बच रहा है, कैद कर रहा है सारी इच्छाओं को, इसका पचास प्रतिशत भी यदि पहले करता होता तो इतना बेबस न दीखता| तो किया क्या मनुष्य ने? मनुष्य ने जनसंख्या बढ़ाई| अपनी सुख-सुविधा में असमान गति से वृद्धि की| सिंगल सड़कों के जगह फोर लेन की सड़कें तैयार कीं| ओवर ब्रिज पर ओवर ब्रिज तैयार की| यह सब करते हुए कभी नहीं सोचा मनुष्य ने कि प्रकृति का क्या होगा?
एक बात तो मानकर चलिए कि प्रकृति स्वयं अपने ऊपर हावी हो रही विसंगतियों को नियंत्रित करती है| वह अपना मार्ग स्वयं चुनती है| मनुष्य प्रकृति के लिए हर समय एक संकट रहा है, हालांकि उसके लिए प्रकृति जीवनदायिनी भूमिका में रहती आई है| वह प्रकृति ही है जिसके द्वारा हमें हवा, पानी, जल मिल रहा है| प्रकृति के माध्यम से ही हम जी रहे हैं| भोजन से लेकर सयन तक के लिए हम प्रकृति पर निर्भर रहते आए हैं| यदि प्रकृति नहीं है तो हम हैं क्या?     
इस समय स्थिति यह है कि हम सब कोरोना को लेकर चिंतित हैं| होना भी चाहिए| इससे पहले भी कई प्रकार की महामारियां आईं| बहुत से अपने पलक झपकते बेगाने हो गए| जितने विकास किये थे वे सभी हमारे लिए विनाश सिद्ध हुए| हम हाय तौबा मचाते रहे तब तक जिंदगियां तबाह होती रहीं| इलाज सम्भव हुआ लेकिन देर से| आज भी हम असहाय हैं| मरने वाले मर रहे हैं| कहीं भूख से तो कहीं अभाव से| कहीं बीमारी से तो कहीं बसों, ट्रकों आदि के नीचे दबकर|  
यह सब आज हो रहा है| कोरोना काल में| कोरोना एक आपदा है| महामारी है| इसने हमारे अस्तित्व को चुनौती दी है| मनुष्य संघर्षों में और खिलता है, यह एकदम अलग बात है, ऐसे बीमारियों की वजह से नरसंहार बड़ी मात्रा में होती है और हुई भी| दिल और दिमाग खोलकर हम दिन-प्रतिदिन आंकडे देख रहे हैं| ये आंकड़े कितने भयानक हैं? कभी आंकड़े सुनते थे कि जंगल का इतना हिस्सा काटा गया| पहाड़ का ये हिस्सा तोड़कर सड़क बनाई गयी| इतने पेड़ को काटकर उद्योग स्थापित किये गए| हालांकि मृत्यु के आंकड़े भी कभी-कभी प्रकृति द्वारा खेले गए खेल में आते थे लेकिन इस तरह तो नहीं आते थे न?
सोचिये, कि सुबह से लेकर शाम तक समाचार चैनलों द्वारा जिस तरह से क्षेत्रीय और वैश्विक आंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं मृत्यु के, किसी भी मायने में मामूली बात तो नहीं है? हमें यह विचार करना होगा कि अभी भी, आध्यात्म और विज्ञान के क्षेत्र में इतने उन्नतिशील होने के बावजूद, हम प्रकृति को असुरक्षित रखने के दांवपेच से बाज नहीं आ रहे हैं| यह ध्यान देना होगा कि यहाँ न तो आध्यात्म काम दे रहा है और न ही तो विज्ञान| दोनों की सामर्थ्य शून्य हो गयी है| जिस आध्यात्म को हमें अपने दिनचर्या का हिस्सा बना लिया था वहां ताला लटक रहा है| जिस विज्ञान के खोज द्वारा हम स्वयं को सुरक्षित मान बैठे थे...सब के सब फेल हो गए? विज्ञान हथियार तो बना सकता है, परमाणु भी तैयार कर सकता है लेकिन अदृश्य समस्याओं से लड़ने में विज्ञान का क्या योगदान? इस पर विचार करने की जरूरत है|
 कोरोना पर जब हम गंभीर हों तब यह चिंता और जरूरी हो जाती है कि अब हमें करना क्या चाहिए? धर्म गुरुओं ने मौन साध लिया है| हालाँकि कुछ धर्मानुयायी इसे धर्म-विशेष को ख़त्म करने का साजिश मान रहे हैं लेकिन विश्व स्थिति को देखते हुए वे भी अब मान गए हैं कि समस्या गंभीर है| दवाइयां अभी तक नहीं बन पाईं हैं| खोज जारी है| अभी भी यह कयास लगाया जा रहा है कि लगभग जनवरी के बाद आम आदमी के लिए कोई दवा उपलब्ध हो तो हो, अन्यथा बचाव ही समझदारी है|
फिर? हमारा आत्मसंघर्ष ही एक स्थाई इलाज है, क्या यह ध्वनित नहीं हो रहा है? प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं “जब सारी शक्तियां, आध्यात्म और विज्ञान, असहाय हो गए हैं तो हमारे पास संत परम्परा द्वारा दिया गया ‘शब्द’ एक मात्र सहारा है|” वे कहते हैं “यह शब्द ही है जो इतनी समस्याओं के बाद भी हमें-आपको संघर्षशील बनाए हुए है| सोचिए कि जब सभी घरों में कैद हैं, कोई किसी से बोल-बतिया नहीं रहा है और यदि ये शब्द भी न होते जिसके जरिये हम सभी एक दूसरे से बातचीत कर रहे हैं तो क्या होता?”
आत्मसंघर्ष इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि हमारे अन्दर का रोग-प्रतिरोधक ख़त्म नहीं होता| जहाँ हम कमजोर होते हैं वहीँ ये समस्याएं और भारी पड़ जाती हैं| इस बीच सामाजिक गतिविधि कमजोर जरूर पडती है लेकिन बचाव का एकमात्र रास्ता यही बचता है| सामाजिकता का क्या है जभी समस्याओं से मुक्त हो, तभी लोगों से जुड़ना शुरू कर दो| सम्वाद का माध्यम बना रहे इसके लिए ‘शब्द-सत्ता’ पर विश्वास जताया जा सकता है|
यह समय निश्चित ही हमारे लिए कठिन समय है| देश में जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं वह और भी चिंताजनक है| राजनीतिक चुहलबाजी भी कम नहीं हो रही है| इधर कितने लोग तो भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत तय करके बैठ गए हैं| बेहद गंभीर समय में इस तरह की आशाएं पालना कहाँ तक उचित है? कांग्रेस और भाजपा तब रहेंगे जब लोग रहेंगे? लोग मर रहे हैं और आप राजनीतिक मंथन में जुटे हैं? यह तो उचित नहीं है? फिर यह कैसा आत्मसंघर्ष?
आत्मसंघर्ष करना है तो इस दुर्दांत समय से बचने के लिए किया जाए| ऐसा करने से मानसिक रूप से लोक एक-दूसरे से जुड़ेगा| सहअस्तित्व और सहसामंजस्य की भावना को बल मिलेगा| जरूरत इसी भाव के विस्तार का है| यदि हम ऐसा करने में सक्षम होते हैं तो मानसिकता में घर कर गए डर से निजात पा सकेंगे| खोए हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त कर सकेंगे|  

Saturday 16 May 2020

नवगीत स्वयं में समकालीन है


कविता में विधाओं की दशा-दिशा को लेकर संघर्ष होता रहा है| जब कोई विधा उपेक्षित की जाती है तो हानि विधाओं की न होकर सम्वेदना की होती है| हम जिस भी स्थिति में रह रहे होते हैं, अचानक परिवर्तन होने से चौंकते भर नहीं हैं,परेशान होते हैं| बहुत कुछ टूटता-फूटता है लेकिन फिर भी जुड़ने की स्थिति होने में समय लग जाता है| यहाँ हम इस भावना की चिंता किये बगैर अपना झंडा और डंडालेकर मैदान में आ जाते हैं| कुछ भाड़े के अनुयायियों को लेकर शोरभर नहीं मचाते अपितु मान-सम्मान के लालच में नाम परिवर्तनका एक बड़ा खेल शुरू कर देते हैं| इस खेल में पाठकों का बंटवारा कम प्रवृत्ति का अधिक होता है| गीत विधा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ और आज भी हो रहा है|

काव्य-सम्वेदना में विधागत परिवर्तन और उपेक्षा का जो भाव है वह खतरनाक है| खतरनाक इस अर्थ में कि जिन विधाओं से पाठक गहरे में जुड़ा होता है उससे कटकर जाने के लिए तैयार नहीं होता| नयी विधा आने के बाद सबसे बड़ा संकट उसके सामने अपना पाठक-वर्ग तैयार करने को लेकर आता है| एक समय तक छन्द-मुक्त कविता के साथ यही होता है| गीत विधा का दीवाना पाठक एक समृद्ध विधा होने के बावजूद छंद मुक्त कविता को अभिव्यक्त करने और लम्बे समय तक याद रखने में नाकामयाब रहता है| यह नाकामयाबी अनपढ़ता अथवा नासमझी की वजह से नहीं आती, सम्बन्धित नए विधा के साथ सामंजस्य न बिठा पाने की वजह से आती है| इधर नाम परिवर्तन का खेलराजनीति में भी खूब खेला गया| अब नवगीत विधा को लेकर खेला जा रहा है| जनगीत, नवगीत के बाद अब समकालीन गीत का झन्डा उठाया जा रहा है|         

जाहिर सी बात है कि जो समकालीन गीत की बात कर रहे हैं वे अपने पूरे जीवन में नवगीत से नहीं जुड़ पाए| नवगीत के समानांतर जनगीत को खड़ा करने में ऐसे लोग अपना पूरा जीवन खपा दिए| जैसे इनकी जनधर्मिता रुपी लिबास उतरती है ये समकालीनता को अपने नारे का मुद्दा बनाते हैं| वही घिसा-पिटा तर्क है जो जनगीत के सन्दर्भ में था| ये यह नहीं समझते कि नवगीत स्वयं में समकालीन है| अभी इसका मूल्यांकन होना शेष है| अब तो ठीक से कुछ कहा और सुना जा रहा है| एक लम्बे समय तक अकादमिक बहसों से दूर रखकर इस विधा के रचनाकारों के साथ जो छल-छद्म किया गया, वह अब बेपर्दा हो रहा है| जिस चालाकी से नीरस कविताओं को पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाकर कविता से दूर किया गया उस चालाकी को अब पहचाना गया है| अकादमियों से लेकर अकादमिक जगत तक को अब यह एहसास होने लगा है कि नवगीत एक समृद्ध विधा है और उसे आलोचना जगत में कविता के समान मान-प्रतिष्ठा दिया जाए| 

यह सब होने के बावजूद कुछ स्थितियों में नवगीतकार भ्रमित हैं| यह उनकी दीनता है या लाचारी, कई बार समझ में नहीं आता| पहला भ्रम नवगीत विधा के बीज-रचनाकार को लेकर है| नवगीत के कई विद्वान निराला से इस विधा की शुरुआत मानते हैं| वे इसके पीछे तर्क नव गति, नव लय, ताल छंद नवका देते हैं| इसके बाद निराला धीरे-धीरे छंदमुक्त कविता की तरफ बढ़ते हैं लेकिन यह सीधी-सी बात नवगीत के पुरोधाओं को नहीं समझ आती| “बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु/ पूँछेगा सारा गाँव बन्धु!जैसी कविता को पढ़ते हुए जो इसमें नवगीत की परिकल्पना करते हैं उन पर हंसी भी आती है| हँसी इसलिए भी आती है कि कविता के विकासक्रम को भी लोग देखने का जोहमत नहीं उठाते और निराला को प्रथम समर्थ नवगीतकार घोषित करके मुक्तिकामना से संतुष्ट हो लेते हैं| कम से कम मैं निराला से नवगीत का विकास बिलकुल नहीं मान पा रहा हूँ|

नवगीत का प्रारंभ नई कविता के साथ-साथ होता है| जिस समय नई कविता में यथार्थ परिदृश्य का सृजन शुरू होता है आलोचक एकाएक गीत विधा पर आक्रामक होते हैं| एक तरफ जहाँ अपने समकाल को सही तरीके से अभिव्यक्त न कर पाने का आरोप गीत पर लगता है वहीं दूसरी तरफ गीतकारों को आउटडेटेड घोषित किया जाने लगता है| हालांकि यह सब बड़े षड्यंत्रों के साथ होता है लेकिन यह भी सच है कि ऐसा होने से गीतों की दशा-दिशा नए सिरे से निर्धारित होती है| यहीं से गीत को नव लिबास में ढालने की प्रक्रिया शुरू होती है और यहीं से गीत नवगीतकहने की परिपाटी शुरू होती है| अब इसके पीछे आकर निराला से नवगीत का उद्घोष करने के पीछे कौन-सा इतिहासबोध काम कर रहा है? समझ से परे है| कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि निराला से ही नवगीत विधा का आहट सुनाई देता है| अब विधा का आहट सुनाई देना एक अलग बात है लेकिन विधा का शुरू होना अलग बात है| आप निराला में आहट पा सकते हैं नवगीत की लेकिन वहां से प्रारंभ नहीं कह सकते हैं| नवगीत का प्रारंभ नई कविता की तर्ज पर होता है और समकालीनता में परिवर्तित होते हुए आज भी बनी हुई है यह विधा|

यहाँ सबसे बड़ा भ्रम कविताकारों ने फैलाया है| ये मानते हैं कि गीत या ग़ज़ल में कोई बड़ा कवि हो ही नहीं सकता| ऐसा कहते हुए अपनी अज्ञानता पर उन्हें तरस नहीं आता| वे दिनकर और बच्चन जैसे समर्थ कवि को भूल जाते हैं| वे यह भी भूल जाते हैं कि कबीर, सूर, तुलसी, जायसी जैसे बड़े कवि छान्दसिक विधा से ही निकलकर आए हैं| ऐसे समय में जब छंदमुक्त कविता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था| गीत विधा में नीरज बड़े कवि हैं, लोगों ने नहीं माना, यही तो विसंगति है हिंदी साहित्य की| जो लोग उनके बड़े होने पर शक करते हैं वे मानते किसको हैं बड़ा? ये प्रश्न तो बनता ही है| फिर ये न मानने वाले कौन हैं? यह किसी से छिपा नहीं है|

गीत की बात करते हुए उसकी सीमाओं को लोग व्याख्यायित करने लगते हैं| यह तर्क लगभग लोग देते हैं कि छान्दसिकता, सुर, लय आदि को साधने में यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती| वे यह मानते हैं कि ऐसे कवि महज तुकबंदी करते हैं| जिस सीमा की बात ऐसे लोग गीत में करते हैं उन्हीं सीमाओं का अतिक्रमण करने के लिए नवगीत विधा केन्द्र में आई, वे यह देखने की कोशिश नहीं करते| नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ नवगीतकार और गीतकार भी सक्रिय थे यदि वे आपकी निगाह में नहीं हैं तो इसका सीधा सा मतलब है कि आपने उन्हें देखने की कोशिश नहीं की| जिस यथार्थ को आप छूटते रहने की बात कर रहे हैं उस यथार्थ को इधर के नवगीत और ग़ज़ल सिद्दत से पूरी कर रहे हैं| मुक्तछंद के मापदंडों को नवगीत विधा ने खूब अपनाया है| अभिव्यक्ति की स्पष्टता/ सरलता से लेकर विषय की वैविध्यता तक को विस्तार दिया है नवगीतकारों ने| जब मैं यह कह रहा हूँ तो यह कतई न समझें कि मैं मुक्तछंद को नकार रहा हूँ, लेकिन जिस तरीके से नवगीत को चर्चा-परिचर्चा से दूर रखा गया वह क्या है?

बड़ा कवि कविता से ही बनता है......यहाँ जो अर्थ ध्वनित हो रहा है वह यही कि-मुक्तछंद की कविता| इस बात पर भी मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूँ| गीत वालों को लोगों ने स्वीकार ही नहीं किया, इसके पीछे कारण कविताई नहीं, गुटबंदी और दलबंदी है आलोचकों की| मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि कविता में मेडबंदी क्यों की जा रही है? कविता में ग़ज़ल और नवगीत की बात क्यों नहीं की जा रही है? जब मैं इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए सोचता हूँ तो मुझे कविता को एक ख़ास टारगेटमें फिट कर देने की जिद दिखाई देती है| इधर ये जिद टूट रही है और टूटेगी भी| जब कोई यह कहता है कि नवगीत में कितने रचनाकारों ने किसानों पर लिखा, मजदूरों और हाशिये पर धकेले गए जीवन पर लिखा तो मेरा सिर्फ इतना कहना है कि पहले वे नवगीत को पढ़ कर आएं| इस विधा में रच रहे रचनाकारों के विषय में जानकार आएं| यदि कोई यह भ्रम पालता है कि बड़ा कवि मात्र गद्य कविता में ही सम्भव है तो मुझे उससे बड़ा दुराग्रही कोई दिखाई नहीं देता| ‘बड़ा’ का मानक यदि आप पाठकों से लेते हैं तो नवगीतकार 20 ठहरते हैं और यदि शिल्प को लेते हैं तो 21 ठहरते हैं| जबकि कविता अपने कहन से लेकर प्रस्तुति तक इस विधा के समक्ष 19 ही मिलेगी|

जब मैं ऐसा कह रहा हूँ तो यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आंकड़ों के खेल में काव्य-विधाओं को घसीटने का एक ही परिणाम होता है और वह है, पाठकों के हृदय में भ्रम और विचलन की स्थिति का जन्म लेना| यह खेल बहुत दिन तक नहीं चलता है| ऐसे बहुत से कविताकार हैं जिन्होंने एक रात में ही कविताएँ लिखकर संग्रह प्रकाशित करवा लिए| बाद में वरीयता के आधार पुरस्कृत भी किया गया ऐसे लोगों को| नाम-इनाम के बाद मीडिया में भी खूब छाए| समीक्षाकारों को पैसे देकर समीक्षाएं भी प्रकाशित हो लीं| इसके बाद न तो समीक्षक ने उस समीक्षा को कभी देखा और न ही तो कवि ने अपने कविता संग्रह को देखने का कष्ट उठाया| ईडिया-मीडिया वाले भी ऐसे लोगों से नजरें बचाते हुए दिखाई दिए| पाठक तो खैर पहले भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं इन लोगों के लिए| कम-से-कम गंभीर छान्दसिक विधा में आप ऐसे काले कारनामें नहीं कर सकते| यहाँ सम्वेदना को शिल्प की कसौटी पर रखना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए रचनाकार मेहनत करता है और साधनारत रहता है|   

कुछ विधाओं को उपेक्षित किया गया और आज भी किया जा रहा है| रचनाकार अपने तरीके से समय और परिवेश को देख रहे हैं| यहाँ यह कहने मुझे कोई संकोच नहीं है कि नवगीत विधा बिना किसी के द्वारपूजा किये बगैर अपनी संघर्षधर्मी परम्परा से बढ़ रही है और बढती रहेगी| जो इस विधा के शक्ति और सामर्थ्य पर शक कर रहे हैं वे प्रचारक बन एक दिन ख़तम हो जाएँगे लेकिन ये विधाएँ ही भारतीय लोक का प्रतिनिधित्व करेंगी| यहाँ ध्यान देने की बात जो है वह ये कि मैं छंदमुक्त कविता को नकार नहीं रहा हूँ लेकिन जब ग़ज़ल को मनोरंजन और गीत को आउटडेटेड करार दिया जाएगा तो उसके प्रतिरोध में मेरा यह बयान नोट किया जाए|

नवगीत में बात करें तो इधर वर्तमान समय में राधेश्याम शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, मधुकर अष्ठाना, राजेन्द्र गौतम, गणेश गंभीर, गुलाब सिंह, यश मालवीय, ओमप्रकाश सिंह, बृजनाथ श्रीवास्तव, शैलेन्द्र शर्मा, जय शंकर शुक्ल, निर्मल शुक्ल, अवनीश सिंह चौहान, अवनीश त्रिपाठी, चित्रांस वाघमारे, राहुल शिवाय, गीता पण्डित, मालिनी गौतम, सीमा अग्रवाल, गरिमा सक्सेना (क्रम को लेकर विवाद न हो) और अनेक ऐसे कवि/ कवयित्री हैं जिनको पढना चाहिए| अच्छी और खराब रचनाओं का आंकलन पढ़ने से ही सम्भव है| बगैर पढ़े किसी को खारिज कर देना या यूँ कहें कि आउटडेटेड करार दे देना किसी तरह से उचित नहीं है| समस्या यही है कि हम 'अच्छे' को मनोरंजन मानते रहे और जो 'मनोरंजन' हैं उन्हें क्रांतिकारी बताते रहे| विधाओं की शक्ति को परखते हुए यह नहीं होना चाहिए| समर्पित रचनाकार को कोई पहचान देने से कतराता है तो यह उसकी कमजोरी या स्वार्थ हो सकती है विधाओं की नहीं| यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि विश्वकविता के पैमाइश करने वाले निरा बौद्धिक कवि/आलोचक भारतीय विधाओं से कितने अनभिज्ञ हैं, यह पिछले कई दिनों से गहरे में जानने को मिल रहा है|

सही समय है कि नवगीत की शक्ति और सामर्थ्य को बड़े पैमाने पर लोगों के सामने रखा जाए| युवा पीढ़ी का अधिकांश यह नहीं जानता कि नवगीत क्या है| बहुत से लोगों को यह भी नहीं पता है कि नवगीतकार भी इस देश-दुनिया में हैं| यह हमारी कमजोरी है| यह सच है कि नवगीत का इतिहास नवगीत लिखने वालों तक सीमित है| जो नवगीत नहीं लिखते उनके लिए नवगीत का विकासक्रम पता करना थोड़ा कठिन है| हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास तक, डॉ नागेन्द्र जी द्वारा सम्पादित इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य का सरल इतिहास तक जितनी गंभीरता से कविता के विषय में चर्चा हुई नवगीत पर उतना ध्यान नहीं दिया गया| यही स्थिति हिंदी ग़ज़ल की भी है| यह ऐसे नहीं सम्भव हुआ| विधिवत षड्यंत्र करके उपेक्षित किया गया है| यह षड्यंत्र किनके द्वारा किया गया...यह सभी को पता है|

सही अर्थों में कहूं तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद जिस साहित्य के इतिहास को मैं अधिक पसंद करता हूँ वह है 'हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास'| अफ़सोस कि इधर यह विश्वास घटता जा रहा है| यह क्या विडंबना की स्थिति है कि इतिहासकार ने एक पृष्ठ भी गीत/नवगीत को देना उचित नहीं समझा| खैर...यह इतिहास की पुस्तक अकादमिक जगत में खूब प्रसिद्ध है| मैं खुद पसंद करता हूँ| लेखन में कहन और भाषा का प्रवाह गज़ब का है| नवगीत और गीत के प्रति उपेक्षा भाव हतप्रभ करता है| यह नहीं समझ में आ रहा है कि ऐसा क्यों हुआ...लेकिन क्या यह नवगीत के जो स्कूल चल रहे हैं...उन्हें कुछ पता है इसके विषय में? यदि पता है तो उनके समय आवाज और प्रतीरोध क्यों नहीं किया गया|  कई संस्करण आ चुके हैं इस साहित्य के इतिहास का| शायद गलतियों का संज्ञान लिया जाता और नवगीत को जगह दिया जाता| लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नहीं हो रहा है| सब अपने-अपने कुनबे बचाने में लगे हैं|

नवगीत के ‘नाम’ पर शोर मचाने वाले लोग यह जान लें कि नवगीत स्वयं में समकालीन है| उसे ‘समकालीन गीत’ कहना या किसी और नाम से विभूषित कर देना पाठकों के साथ-साथ अध्येताओं को भ्रमित करना है| इधर बड़े स्तर पर शोध कार्य चल रहे हैं| आप नाम परिवर्तन से उन्हें भी भटकाने का खेल खलेंगे इसके सिवाय और कुछ नहीं होगा| फायदा मात्र उन्हें होगा जो इसके नाम के एवज में अपना व्यापार चलाना चाहते हैं| फिर संकलनों की बाढ़ आएगी| सम्पादकों द्वारा रचनाकार ठगे जायेंगे| दो-दो तीन-तीन रचनाओं के आधार पर बड़े घोषित करने के एवज में अच्छा-ख़ासा पैसा कमाया जाएगा| तथाकथित आलोचक लाइम-लाईट में आएँगे| अभी बहुत से लोग यह कहते हुए अपना पल्ला झाड लेते हैं कि मैंने नवगीत पढ़ा नहीं तब उनको एक बहाना और मिल जाएगा कि समकालीन गीत से वे परिचित नहीं है|  

Tuesday 12 May 2020

साहित्य का मूल्यांकन जब भी हो रचना केन्द्रित हो



हिंदी साहित्य में आलोचना विधा हर समय संशय के घेरे में रही है| कल भी थी, आज भी है और भविष्य में भी बने रहने की सम्भावना है| संख्या में रचनाकार अधिक हैं आलोचक कम हैं, एक समस्या तो ये है, दूसरी समस्या ये है कि हर कोई रातों रात आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी या राजेन्द्र यादव, ओम प्रकाश वाल्मीकि बन जाना चाहता है| जिनके पास रचना का अधिकांश नहीं है वे भी, जिनके पास है वे तो बनना चाहेंगे ही| अब क्योंकि आलोचना के कुछ मापदंड हैं और कुछ सिद्धांत भी; उनकी अनुपालना में व्यावहारिक होने की लाख कोशिश करने के बावजूद भी आलोचक विवश हो जाता है और कई बार इस विवशता में अपनों से भी दूर हो लेता है| खैर यह तो उसकी अपनी समस्या है कि व्यावहारिकता और सैद्धांतिक पक्ष में से किसका चुनाव वह करता है| बात आलोचना में रचना और रचनाकार के व्यक्तिगत जीवन-मूल्यांकन की हो रही है तो उस पर केन्द्रित रहना जरूरी हो जाता है|
विचार मन में उठेंगे तो विमर्श होना तय है| विमर्श होगा तो विवाद भी सम्भव है| इधर विवाद का नया विषय सोशल मीडिया पर उठाया गया है| रचनाओं का मूल्यांकन रचना केन्द्रित न होकर व्यक्ति-केन्द्रित भी हो| उठाने वाले का यह मानना है कि रचनाओं की परख में रचनाकार का व्यक्तिगत जीवन भी शामिल हो, बगैर ऐसे मूल्यांकन के हम जनपक्षधरता को स्पष्ट नहीं कर सकते| जीवन से अलग रचना सम्भव है लेकिन उसकी सामाजिक उपादेयता में संशय बनी रहती है| ऐसा करते समय कहीं गहरे में वे आलोचना को व्यक्तिगत रंजिश का अड्डा बना रहे होते हैं, यह उन्हें आभास नहीं होता|
मेरा यह मानना है कि मूल्यांकन जब भी हो रचना केन्द्रित हो यह कहीं ज्यादा उचित होगा| रचनाकार क्या खा रहा है? क्या पहन रहा है? इस पर ध्यान देकर क्या करेंगे? ध्यान देना है तो इस पर दो कि वह लिख क्या रहा है या लिखा क्या है| उसके लेखन में हमारा समय और हमारा परिवेश किस तरह व्याख्यायित हुआ है, यह जरूरी है देखना, न कि यह देखना कि वह कितने बजे सो कर उठता था और कितने बजे रात में सोता था| यदि वह भ्रष्ट है तो उसके लेखन में वह आचरण प्रविष्ट होगा
 हम जब रचनात्मक होकर बात करते हैं तो रचनाकार वहां सर्वथा उपस्थित होता है, यह एक साधारण-सी समझ रखने वाला पाठक भी जानता है| रचनाकार जैसा होता है उसका लेखन उसी प्रकार का होता है| व्यक्ति से व्यक्तित्व अलग नहीं होता| लाख कोशिश करने के बावजूद भी| उदहारण के लिए आप अशोक वाजपेयी की कविताओं का एक चक्कर लगाइए और एक चक्कर उदय प्रकाश की कहानियों का| दोनों का बहुत कुछ रचनाओं में मिल जाता है| व्यक्तिगत जीवन में जाना जरूरी नहीं लगता| अशोक वाजपेयी "उत्तेजक दोपहर" में "केलि" की शिक्षा देते हैं और ‘सद्यःस्नाता’ के साथ 'रति' प्रयोग करते हुए विलासिता को प्रमुखता देते हैं| उदय प्रकाश अपने यहाँ बेंचों पर, ट्रकों के नीचे, अस्पतालों में, जंगलों में, रास्तों में होस्टलों में मैथुनरत युगल को दिखाने में आनंद महसूस करते हैं| मुझे नहीं लगता कि यहाँ अलग से अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के जीवन को देखने का प्रयास करेंगे आप? आप रचना की आलोचना करिए सब साफ़ हो जाएगा| कौन जनधर्मी है और कौन विधर्मी सब अलग और स्पष्ट हो जाएगा|
अब यदि रचना को छोड़ कर व्यक्तिगत जीवन में जाकर छींटाकसी करेंगे, उनके खाए-पिए, घूमने टहलने का हिसाब किताब रखेंगे तो निश्चित तौर पर आप आलोचना नहीं कर रहे हैं बल्कि व्यक्तिगत रंजिश निकाल रहे हैं| लेकिन ऐसा करेंगे कैसे? पढना पड़ेगा, सोचना पड़ेगा, सन्दर्भ देना पड़ेगा, सो आलोचना में इतनी जोहमत उठाए कौन? जब सीधे-सीधे कहने भर से लाइक और कमेन्ट मिले तब तो और भी| यहाँ रचनकार का समाज-समर्पण जरूर अपेक्षित होता है| हालांकि यह भी सच है कि सही रचनाकार वही होगा जो जन-जीवन-परिवेश और समाज के प्रति समर्पित और संघर्षधर्मी होगा|
सोशल मीडिया के वाह-आह से कहीं दूर की स्थिति है आलोचना| वाह-आह में यदि रमकर रहने की कोशिश करेंगे तो न तो रचनाकार को समझ पायेंगे और न ही तो रचना को| हो भी यही रहा है इधर| एक तो अधिकांश रचनाकारों को यह नहीं पता है कि वह लिख क्या रहे हैं? उनकी कविता का कहन क्या है और उसका प्रभाव क्या पड़ने वाला है जन-समाज पर दूसरी आपकी हल्की टिप्पणी उसे सातवें आसमान चढ़ा देगी, मात्र इसलिए कि वह जीवन बहुत तंगहाली में जिया है| तो क्या गरीब होना और गरीब रहते हुए मर जाना ही रचना-श्रेष्ठ होने का पैमाना रह गया है? इस पर विचार करने की जरूरत है|
इधर एक लम्बी भीड़ सक्रिय है| रचनाकारों की भी और आलोचकों की भी| इस भीड़ के पास प्रतिभा की कमी भले हो लेकिन ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो गाली-गलौज कर सकें| तो यहाँ रचना केन्द्रित होने की ज्यादा जरूरत है| आज यह बात पूरी तरह सच है कि यदि आलोचना व्यक्ति को छोड़कर रचना केन्द्रित हो तो विश्वास मानिये 80 प्रतिशत कवि गायब हो जाएंगे। कथाकारों की भी यही स्थिति है| कितने तो रचनाकार ऐसे हैं जिन्हें यही नहीं पता है कि वे रच क्या रहे हैं? रचना क्या चाह रहे हैं?
सच यह भी है कि जब आलोचक में रचना से टकराने का साहस नहीं होता तभी वह व्यक्ति-चरित्र पर छापा मारता है| हालांकि इससे कुछ हाशिल भी होने वाला नहीं होता क्योंकि रचनाएँ शिला की तरह अडिग होकर अपने होने का प्रमाण देती हैं| वह सिर्फ प्रमाण ही नहीं देतीं बल्कि रचनाकार की गंभीरता और सजगता का गवाह भी होती हैं| आज कितना भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल को आउटडेटेड और सामंतवादी कह लें लेकिन उनकी रचनाधर्मिता को कोई हानि नहीं पहुँचती| मुंशी प्रेमचंद से लेकर नागार्जुन तक पर कीचड़ उछाले गए लेकिन वे बने रहे अपने उसी रूप में| यदि आपको चर्चा-परिचर्चा में आना है तो उसके लिए कार्य-श्रम और समर्पण लेकर आइये| विवादों को बगैर किसी वजह तूल देने से न तो आपका हित होना है और न ही तो हिंदी साहित्य का|


Friday 8 May 2020

कबीर, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन होना सरल नहीं है


कवि के साथ पाठक का मामला अलग है| आलोचक और आलोचना को जाने दीजिए| कई बार बहुत प्रिय लगने वाला कवि बहुत हद तक चुका हुआ कवि लगने लगता है| उसकी व्यावहारिकता आपके लिए आकर्षण हो सकती है लेकिन रचना में वह वही नहीं रह जाता, जो देखते हुए आप उससे बतौर पाठक जुड़े होते हैं| कहने को आप इसे मोहभंग भी कह सकते हैं और कहने को यह भी कह सकते हैं कि कवियों में एक समय के बाद दुहराव आने लगता है| वही भाव, वही सम्वेदना, शिल्प भी वही, तो पाठक कितना झेलेगा? यह आप एक बतौर कविता प्रेम समझ सकते हैं|  
कई बार जिस कवि की वर्तमान स्थिति को देखते हुए आप अलग रहना जरूरी समझने लगते हैं, लगातार और निरंतर वह आपकी मानसिकता पर दबाव बना रहा होता है| यह दबाव सैद्धांतिक नहीं होती, व्यावहारिक तो कतई नहीं, स्वाभाविक होती है, इसमें कोई शक भी नहीं है| ऐसा इसलिए क्योंकि आप सैद्धांतिकता को नकार सकते हैं क्योंकि आपके अपने सिद्धांत होते हैं| व्यावहारिक रूप से यदि कोई प्रक्रिया आप पर दबाव बनाए तो आप उससे निकल सकते हैं| लेकिन कोई स्वाभाविक रूप से दबाव बनाता है, तो मुश्किल हो जाता है ऐसा करना|
मानसिकता पर दबाव का मतलब यह भी नहीं है कि ऐसा उसके सीधे हस्तक्षेप से होता है; होता सब कुछ रचनाओं के भीतर से रचनाओं द्वारा है, लेकिन जुडाव आपका हृदयगत होता है| प्रिय लगने वाले अनेक कवियों पर वह अकेला भारी पड़ने लगता है| आप बतौर पाठक से कब एक समीक्षक और फिर कब एक आलोचक की भूमिका में उतर आते हैं, यह वही कवि सिखाता है आपको| कवि कहना शायद गलत होगा, कविता मानकर चलिए|
अच्छी रचनाएँ ही आपकी मानसिकता को कुछ सही और सार्थक कहने और करने के लिए प्रेरित करती हैं| अच्छे आदमी को आप बाहर रख दीजिए थोड़ी देर के लिए क्योंकि अपने समय का जो सबसे अच्छा मान लिया जाएगा, वह अच्छा आदमी तो होगा, अच्छा कवि भी हो, इसमें संदेह रहेगा|
अच्छा आदमी हर समय सोचेगा कि कहीं कुछ ऐसा न कह दें कि लोग बुरा मान जाएँ| जो अपने समय में बुरे के रूप में विख्यात होगा, वह खुलकर कहेगा, निर्भीक होकर कहेगा| उसे यह डर नहीं होगा कि कौन नाराज होगा और इसकी भी परवाह नहीं करेगा वह कि कोई उसे छोड़ देगा| छूटा वह पहले ही होता है| उपेक्षित वह पहले ही होता है| संग-साथ के लोग हुक्का-पानी तक बंद किये होते हैं| अपने कार्यक्रमों में न बुलाना और कोई बुलाए तो उसे मना करना, यह सब वह झेल चुका होता है या झेल रहा होता है|
जब आप इतना कुछ समझ लेंगे तो यह भी समझ लेंगे कि कबीर, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन होना सरल नहीं है| मुश्किल है और बहुत मुश्किल है| इतना कि हर पग उपेक्षित होना एक नियति बन चुकी होगी| किसी भी इधर-उधर को सुनना और किसी भी इधर-उधर को सहना एक आदत बन चुकी होगी| प्रभाव तो खैर इसका भी कुछ नहीं पड़ना है उस पर क्योंकि उसके सामने स्वयं का जीवन तो है ही नहीं| कबीर के सामने, निराला के सामने, मुक्तिबोध के सामने, नागार्जुन और त्रिलोचन के सामने स्वयं का अपना क्या था? कुछ नहीं था| वे सब समय को बेहतर और समाज को मानवीय बनाने के लिए संघर्ष किये और उनके नक़्शे कदम पर चलने वाले ऐसा कर रहे हैं|
हिंदी साहित्य में कुछ कबीर हैं जिनमें साहित्य का सत् और व्यक्तित्व की निरपेक्षता अभी शेष है| जब भी आप इनकी खोज में निकलेंगे सम्भव है बड़ी संख्या में आदिकालीन रासो कवि-परम्परा के कवि-वंशज आपको मिल जाएं और शौर्य-प्रदर्शन करते हुए कवि-कुल-परम्परा के शाश्वत प्रतिमानों से परिचय कराने लगें? यह भी सम्भव है कि रीतिकाल के वे कवि मिल जाएं जिन्होंने कभी स्त्री-सौन्दर्य के आगे बढ़ने की हिम्मत ही न दिखाई? जब यह सब सम्भव है तो आप आगे बढ़ ही जाएँ, यह सम्भव नहीं है| कभी एक निबन्ध पढ़ा था, किसका? यह मुझे पता नहीं है| उसमें यह लिखा था कि बुराई हृदय में अटल भाव धारण करके बैठती है| जहाँ अच्छी चीजें या अच्छे लोग होते हैं वहां पहुँचना कई बार बहुत मुश्किल होता है| यह सब ग्रह-रूप होते हैं| फिर भी यदि पहुंचना है तो उनकी तरह उपेक्षित होने और हाशिए पर धकेले जाने की स्थिति को झेलने के लिए तैयार रहिये|
ध्यान रहे, यह सब मैं तीसरे लोक की बात नहीं कर रहा हूँ| इसी लोक और इसी दुनिया की बात कर रहा हूँ| यह सब वर्तमान काव्य-जगत का एक काला चिट्ठा है जिसे सफेद करने के लिए बहुत कवि-आलोचक-प्रकाशक आए, लेकिन कर नहीं पाए| कुछ तो उसी में शामिल होकर काले बन गए| यह कहावत वहां खूब फब्ती है-“काजल की कोठरी में कैसो भी सयानों जाए, एक लीक काजल की लाग हैं सो लागि हैं|” निश्चित ही यह किसी समर्थ कवि या आलोचक ने कहा है क्योंकि सफेद होने के चक्कर में वह अधिक से अधिक काला ही हुआ| यह कथन उसकी आत्मपीडा मानकर चलिए| कुछ ऐसे हैं जिसे विधिवत देश निकाला दे दिया गया|
देश निकला जिन्हें दिया गया उन्हें पत्रिकाओं ने छापना बंद कर दिया और प्रकाशकों ने भाव देना| इन दोनों के प्रभाव में रहने वाले समीक्षकों ने ऐसा किनारा किया, जैसे वे जानते ही न हों उन्हें| कभी मिले ही न हों, कभी कोई बातचीत ही न किये हों किसी से? वे इन दोनों की भी कभी नहीं सुने तो यह होना तो निश्चित था ही| सम्पादक मतलब इन्द्र प्रकाशक मतलब ब्रह्मा| नारद की भूमिका में ‘समीक्षकों’ को आप गिन सकते हैं| ये बिचारे न लेखक के होते हैं और न प्रकाशक के होकर रह पाते हैं| दोनों के साथ बनाए रखने के मोह में कभी-कभी पिसते भी हैं/ पिस भी जाते हैं| करने को आप इस प्रश्न भी विचार कर सकते हो कि देवताओ को भला कब अपना प्रतिद्वंदी अच्छा लगा है?
अब भी लोगों को कहते सुनता हूँ कि कबीर जैसे रचनाकार इधर कहाँ? रैदास जैसे कवि इधर कहाँ? कहाँ हैं मुक्तिबोध और निराला जैसे कवि, तो विश्वास मानिए, मन करता है पकडूं कालर और पूछूं कि आँख खोलकर बात कर रहा है या कुम्भकरण-नींद से जागकर उठा है? सच यह है कि ऐसा पूछ नहीं सकता क्योंकि उन्हीं प्रश्न करने वालों में से एक मैं भी हूँ| इस प्रकार के प्रश्न यदा-कदा मैं भी करता रहता हूँ| हालांकि मुझे अब कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण रचनाकारों, कवियों और आलोचकों का पता चला है, मैं अब इन दिनों उन्हीं को पढने-लिखने की तरफ उन्मुख हो रहा हूँ| जब आपको मैं कुछ सार्थक करता नजर आऊं तो इधर जरूर मुड़ने की कोशिश करना| कोशिश करना तो दमखम के साथ करना| अपनी स्थिति और औकात अपनी देखकर करना| आने के बाद कुछ देर और कुछ दूर चलना, कभी अलविदा न कहना. 

Friday 1 May 2020

और अंततः इसी तरह हमने मजदूर दिवस मना लिया


रश्म अदायगी की विधिवत अनुपालना यदि कहीं होती है तो भारत में| यहाँ सभी स्थितियों का एक उत्सव होता है| त्यौहार से लेकर सामान्य दिनों को भी उत्सव के रूप में जिया जाता है| जन्म से लेकर मृत्यु तक का एक उत्सव होता है|  उत्सव में रीति-रिवाजों का केक काटा जाता है| सभी उस केक खाने की नीति में भागीदारी करते हैं| एक कदम पीछे कोई नहीं रहना चाहता कि कहीं लोग उसकी सह्भागिकता को लेकर कोई प्रश्न न उठा दें| प्रश्न न उठे इस पर जोखिम इतना कि बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक शामिल हो जाते हैं| व्हाट्सएप, फेसबुक से लेकर ट्विटर अकाउंट तक उत्सव-कार्ड और शुभकामना संदेशों से भर जाते हैं|
सोचने को हम सोच सकते हैं कि क्या भूख का भी कोई उत्सव होता है क्या? भला मृत्यु का उत्सव भी मनाया जाता है क्या? यह सब महज सोचने के विषय हैं| इस पर गौर करने की कोई जरूरत नहीं है| जरूरत वैसे भी यहाँ किसी भी जिम्मेदार स्थिति की नहीं है क्योंकि हम सब सहने-भूलने और अपराध करने के अभ्यस्त हो चुके हैं| अभ्यस्त लोग इधर-उधर की बातों पर कोई विमर्श नहीं करते| विमर्श करने लायक वे होते ही नहीं|
जो भूख का जश्न मनाए| जो किसी के अकाल और असमय मृत्यु पर तांडव रचाए, भला उसमें विमर्श की बौद्धिकता कैसे देखी जा सकती है? हम देख सकते हैं क्योंकि हम भी उन्हीं तमाम में से एक हैं| पारम्पराओं का दीप यदि जलाया जाता है तो हम भी परम्पराओं के अनुगामी हैं| जलाना हमने भी सीखा है| जब मैं ‘हम’ और ‘हमने’ शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ तो उसे सम्पूर्ण भारतवासी की आवाज समझी जाए| अंततः हैं तो हम सभी उत्सवधर्मी ही|
इधर पूरे दिन मजदूर दिवस मनाया गया| फेसबुक पर कविताएँ लिखी गयीं| व्हाट्सएप पर कार्ड्स भेजे गए| कविताएँ शेयर की गयीं| प्राप्त करने वाले और भेजने वाले दोनों खुद हुए| हाय-हैलो की रवायत में मजदूर समृद्ध हो गए| धनवान हो गए| सम्पन्न हो गए| उनकी सम्पन्नता में हमने अपनी विशालता भी महसूस कर ली| आश्चर्य की बात ये है कि यह सब होने में मात्र 24 घंटे लगे|   
मजे की बात कहें या विडंबना की, इधर यह सब हो रहा था और उधर लगभग 30-35 दिन से मजदूर सड़कों पर थे| दिन-रात वे महज चल रहे थे और चलते जा रहे थे| न घर था न ठिकाना| कहाँ रहना है और कहाँ जाना है यह भी नहीं पता था| फिर भी वे चलते जा रहे थे| चिलचिलाती धूप में पसीने से तरबतर होकर चैनल उनकी तस्वीरें दिखाकर उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे| पुलिस महकमें के लोग उन्हें रोकते और मारते हुए लॉकडाउन की शिक्षा दे रहे थे| नेता वगैरह हिन्दू-मुसलमान में जुटे हुए थे| कवि कविताएँ लिख रहे थे और फेसबुक पर लाइव होकर अपने हुनर का सौन्दर्य दर्शन करा रहे थे|
बच्चे जब दूध के लिए रो रहे थे, बुजुर्ग जब दवाई के लिए भटक रहे थे, युवा के स्वप्न लुट रहे थे और भरे-पूरे परिवेश में कंगाली मुक्त होकर अट्टहास कर रही थी, हम, आप और सभी शुभकामनाओं में व्यस्त थे| यह व्यस्तता भी ऐसी कि मानों किसी की शव यात्रा में डीजे डांस करते हुए शोक का मखौल निघर्घटपने से उड़ा रहे हों; यह सब हुआ और अभी भी हो रहा है, हमें इसका थोडा भी अफ़सोस कहाँ हुआ?
बधाई देने वाले तमाम थे| अफ़सोस जताने वाले भी कम नहीं थे| किसी की विपदा पर किसी की असहायता पर कविता लिख कर आह-वाह बटोरने वाले भी कहाँ कम थे? चाहते तो किसी भी शहर का मजदूर दर-से-बदर नहीं होता| घर से बेघर होकर दीन-हीन दशा में दर-दर न भटकते| सवाल यह है कि हम आज भी अपनी गलती नहीं मानेंगे| हम आज भी नहीं मानेगे कि इनके प्रति हमारा भी कोई कर्तव्य है? हम भी कहीं न कहीं इनकी दुर्गति के भागीदार हैं? हमारी भी कोई जिम्मेदारी बनती है इन सभी के प्रति?
हमने यह सब नहीं सोचा| हम यह सब सोचते ही कहाँ हैं? हमारे पास इन विषयों सोचने के लिए समय ही कहाँ है? जब तक इनके विषय में चिंता करेंगे तब तक बहुत-से अवसर हाथ से निकल जाएंगे, उनका   लाभ कैसे लिया जा सकेगा भला? फेसबुक के ही कितने मित्र हैं जिनके जन्मदिवस की बधाई देनी होती है...पोस्ट लगाने होते हैं...नयी रचनाओं से लेकर नई ली गयी तस्वीरों को भी फेसबुक पर लगाने होते हैं...जब हम उनकी स्थिति या यथास्थिति पर विचार या विमर्श करेंगे तो भला इन अवसरों का लाभ कैसे उठा पायेंगे?
मजदूरों के दुःख तो आते-जाते रहते हैं...रोज ही तो मरते हैं...गाँव में रहें या शहर में होते तो मरने के लिए ही हैं...हम क्यों भला उनके सन्दर्भ में चिंता करें? इन चिंताओं में सगे-सम्बन्धियों के नाराज होने के आसार भी बढ़ जाते हैं| तो क्यों न हम सभी फेसबुक और व्हाट्सएप पर मजदूर-मजदूर खेलें? भाग्य और दुर्भाग्य भी तो कुछ होता है आखिर? आखिर क्या जरूरत थी इस गर्मी में निकलने के लिए? सरकारें सहायता दे रही हैं, भोजन दे रही हैं, खर्चे के लिए पैसे अकाउंट में डाल रही हैं| अब इन्हें भटकना ही है तो भटकें, भला हम इनके रोने में अपने रोने का आभास क्यों करें?
बड़ी मुश्किल से तो घर रहने का अवसर मिला है| खाना-पकाने के दिन फिर कहाँ मिलेंगे आखिर? अपने मित्र भी सोचते थे कि ये लोग क्या खाते-बनाते हैं, अब भला इससे अच्छा अवसर कहाँ मिलेगा अपना हुनर दिखाने का? अब क्योंकि मनुष्य हैं, तो मनुष्यधर्मी उत्सव में शामिल होना हमारा कर्तव्य ही नहीं अधिकार भी है| इसलिए उन्हें बधाई देना उचित बनता है, उनकी स्थिति के लिए हम जिम्मेदार ही कहाँ हैं?
कोसना है तो सरकार को कोसा जाए...मजदूरों ने उन्हें चुना है| हम अपने को शर्मिंदा क्यों मानें भला? हम तो दिन-रात उनके पक्ष में पोस्ट-पर-पोस्ट लिखे जा रहे हैं...अब इससे अधिक कर ही क्या सकते हैं? यह भी बात सही है| यह स्थिति भी ठीक है| हम जब अपने घर के बगल अचानक हो आए गड्ढे को माटी डालकर पाट नहीं सकते और उसके लिए सरकारी कारिंदों के आने का इंतज़ार करते रहते हैं, तो भला इन मजदूरों के पक्ष में क्या बोलेंगे और करेंगे?
तो यह गर्व का विषय हो सकता है कि हमने मजदूरों को बधाई दी| कविता लिखी| कहानी लिखी| वीडियो बनाए| मजदूर लाभान्वित हुए या नहीं हम जरूर हुए| हमें जो नहीं जानते थे वे भी श्रम, पसीना, मजदूर, भूख, कंगाली आदि पर चर्चा-परिचर्चा करके और कविता-वविता लिखकर अपना नाम क्रांतिकारी कवियों और चिंतित दार्शनिकों में लिखवा ही लिया| और अंततः इसी तरह हमने मजदूर दिवस मना लिया