आज मै सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित पर सार्थक कवि एवं धर्म समन्वयक महामति प्राणनाथ - साहित्य का अध्ययन कर रहा हूँ। एक ऐसा साहित्य, जो वर्तमान समय में लिखे जा रहे , रचे जा रहे , सृजित किए जा रहे उन सभी साहित्यांशों से कही अधिक रुचिकर और श्रेष्ठ है , जो वर्तमान समस्याओं में ही उलझकर रह गए हैं। मानव-मन की विचलित , विघटित, विशृंखलित अन्तर्दशा को स्थायित्व देने की न तो इनमे कोई सार्थक पहल दिखाई दे रही है और ना ही इनमे कोई ऐसी संवादात्मक व्यवस्था , जिनके आधार पर दिन-प्रतिदिन गिरते नैतिक-स्तर , वैमनस्यता , पाशविकता आदि जैसी घृणित मानसिकता पर रोक लगाकर स्वच्छ सामाजिक मूल्य की प्रतिस्थापना की जाये। आदमी जितना रो रहा है , जितना चीख रहा है , चिल्ला रहा है जितना , उसे उसी रूप में कोरे कागज़ पर उतारकर ऐसे साहित्य के माध्यम से रोने के लिए उतना ही विवस किया जा रहा है।
इसके मुकाबले "महामति के वाणी के आलोक में हम अपने समय समाज और सत्ता के आईने में अपने चेहरे और मुखौटे को देख सकते हैं। जो ऊपरी तामझाम ,वाग्जाल और संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण विवादास्पद हो गए हैं और हमारी पहचान को लील गए हैं।"१ क्योंकि इनके "अमृत- वाणी में अपने अतीत का गौरवगान तो था ही अपने समकाल के अनुरूप जागनी अभियान से अभिसिक्त युग- संकल्प के साथ भविष्य का स्वप्न भी मुखरित एवं सुरक्षित था।"२ जिसके अनन्तर महामति का कवि-ह्रदय-संपन्न व्यक्तित्व सम्पूर्ण अर्थो में मानव की बात करता है और करता है बात मानवीयता के रिक्तकोश से अभिसिंचित उस धर्म की जो मानव को मानवीय व्यवहारों के यथास्थित पथ पर दशा और दिशा देता है। क्योंकि ,"व्यक्ति अभ्युदय और नि:श्रेयश सहानुभूत अंग तथा उसके विकास , उत्कर्ष और संघर्ष की घड़ियों में आरम्भ से अबतक संभवतः धर्म ही सबसे महत्वपूर्ण घटक रहा है। "३ यह जीने के लिए जीवन को एक आधार देता है और उस जीवन में बहुत कुछ प्राप्त कर लेने की जिजीविषा देता है। पर जब दशा और दिशा देने वाला, जिजीविषा देने वाला धर्म कलुषित भावनाओं की गिरफ्त में आकर रूढ़िवादिता के आवरण और धर्मान्धता के भौचक्कर में फंसकर अधर्मता का करता हुआ दिखाई दे, ऐसे समय में समन्वयशील संस्कृति और ''वसुधैव कुटुम्बकम'' जैसी व्यापक सहृदयता का क्या कोई स्तित्व रह सकता है ?
यही स्थिति तब थी , जब भारत पर औरंगजेब का शाशन था। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही एक भूमि पर थे, पर दोनों ही एक- दूसरे के ध्रुव- विरोधी थे। एक कतेब का हिमायती था , तो दूसरा वेद का प्रचारक। "ब्राह्मण कहै हम पवित्र, मुसलमान कहै हम पाक "जबकि महामति प्राणनाथ के अनुसार " जो कुछ कह्या कतेब ने , सोई कह्या वेद। " इसके बावजूद भी " दोनों वन्दे एक साहब के , पर लड़त पाये बिन भेद "और यही स्थिति अब आज भी है , जब " एक बार फिर धर्म में राजनीति के अनुचित प्रभाव न धार्मिक स्थिति को एक सीमा तक सत्रहवीं शताब्दी जैसा बना दिया है। छोटे- छोटे मठाधीश अपने निहित स्वार्थों के पारब्रह्म के स्वरुप और धर्म के सूत्रों की मनमानी व्याख्या करने लगे हैं। "४ महामति प्राणनाथ द्वारा कही गई ये उक्तियाँ कितनी सार्थक प्रसंगिक लगती हैं :---
पंथ पैडे कै चलहीं , कै भेष दर्शन
ता बीच अँधेरी ज्ञान की , पावे न कोई निकसन (क -१ -२९ )
धरे नाम खशम के , जुदे जुदे आप अनेक
अनेक रंगे संगे ढंगे , विध विध करे विवेक।। ( क -१४ -३३ )
झोला लटकाए कमंडल लिए हाथ में , माथा चन्दन लगाए आज हर कोई स्वयं को धर्म चेता और विवेकशील महंथ घोषित करने पर तुला हुआ है। कोई निराकार ब्रह्म नाम पर जगंह जगह छावनी डाले गरीबों से पैसा कमा रहा है , तो कोई कर रहा रहा है स्त्रियों का शोषण। कोई वेद-शास्त्र ,मूर्ती पूजा के नियम आदि का आडम्बरपूर्ण संचरण करने में संलग्न है , तो कोई इनसब के आवरण में स्वार्थ-सिद्धि की उक्तियाँ जुटा रहा है। कोई खाने के लिए दो रोटी नही पा रहा है , पहनने के लिए एक वस्त्र नही पा रहा है , वही लोग देवी -देवताओ को खुश करने के लिए मंदिरों में , देवताओं पर , दूध पौटा रहे हैं। दही और घी चढ़ा रहे हैं। हिन्दू धर्म में फैले इन सब कुरीतियों और प्रथाओं के प्रति आवेश और सुधार की भावना या तो निर्गुणमार्गी संत कबीर के कवि-ह्रदय में दिखाई पड़ता है या फिर प्रणामी सम्प्रदाय के संस्थापक , समन्वय- मूर्ती महामति प्राणनाथ के काव्यों में।
जहां कबीर, ''पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोई " कहकर स्पष्ट रूप में ज्ञानी की विशेषता बतलाते हुए बाह्याडम्बर पर कुठाराघात करते है वही महामति प्राणनाथ " शास्त्र - शब्द को अर्थ न सूझे , मतु लिए चलतु अहंकार। आप न चीन्हे घर न सूझे, यो खेलत मांझ अधार। " कहकर ढोंगियों और आडंबरियों का पोल खोलते हुए दिखाई देते हैं। वे स्पष्टतः मानते हैं ---
कोई बढ़ाओ, कोई मुड़ाओ , कोई खेच काढ़े केश
जो लो आत्मन ओ लखे कहा होए धरे बहु भेष।। ( किरंतन १५-२ )
इसके मुकाबले "महामति के वाणी के आलोक में हम अपने समय समाज और सत्ता के आईने में अपने चेहरे और मुखौटे को देख सकते हैं। जो ऊपरी तामझाम ,वाग्जाल और संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण विवादास्पद हो गए हैं और हमारी पहचान को लील गए हैं।"१ क्योंकि इनके "अमृत- वाणी में अपने अतीत का गौरवगान तो था ही अपने समकाल के अनुरूप जागनी अभियान से अभिसिक्त युग- संकल्प के साथ भविष्य का स्वप्न भी मुखरित एवं सुरक्षित था।"२ जिसके अनन्तर महामति का कवि-ह्रदय-संपन्न व्यक्तित्व सम्पूर्ण अर्थो में मानव की बात करता है और करता है बात मानवीयता के रिक्तकोश से अभिसिंचित उस धर्म की जो मानव को मानवीय व्यवहारों के यथास्थित पथ पर दशा और दिशा देता है। क्योंकि ,"व्यक्ति अभ्युदय और नि:श्रेयश सहानुभूत अंग तथा उसके विकास , उत्कर्ष और संघर्ष की घड़ियों में आरम्भ से अबतक संभवतः धर्म ही सबसे महत्वपूर्ण घटक रहा है। "३ यह जीने के लिए जीवन को एक आधार देता है और उस जीवन में बहुत कुछ प्राप्त कर लेने की जिजीविषा देता है। पर जब दशा और दिशा देने वाला, जिजीविषा देने वाला धर्म कलुषित भावनाओं की गिरफ्त में आकर रूढ़िवादिता के आवरण और धर्मान्धता के भौचक्कर में फंसकर अधर्मता का करता हुआ दिखाई दे, ऐसे समय में समन्वयशील संस्कृति और ''वसुधैव कुटुम्बकम'' जैसी व्यापक सहृदयता का क्या कोई स्तित्व रह सकता है ?
यही स्थिति तब थी , जब भारत पर औरंगजेब का शाशन था। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही एक भूमि पर थे, पर दोनों ही एक- दूसरे के ध्रुव- विरोधी थे। एक कतेब का हिमायती था , तो दूसरा वेद का प्रचारक। "ब्राह्मण कहै हम पवित्र, मुसलमान कहै हम पाक "जबकि महामति प्राणनाथ के अनुसार " जो कुछ कह्या कतेब ने , सोई कह्या वेद। " इसके बावजूद भी " दोनों वन्दे एक साहब के , पर लड़त पाये बिन भेद "और यही स्थिति अब आज भी है , जब " एक बार फिर धर्म में राजनीति के अनुचित प्रभाव न धार्मिक स्थिति को एक सीमा तक सत्रहवीं शताब्दी जैसा बना दिया है। छोटे- छोटे मठाधीश अपने निहित स्वार्थों के पारब्रह्म के स्वरुप और धर्म के सूत्रों की मनमानी व्याख्या करने लगे हैं। "४ महामति प्राणनाथ द्वारा कही गई ये उक्तियाँ कितनी सार्थक प्रसंगिक लगती हैं :---
पंथ पैडे कै चलहीं , कै भेष दर्शन
ता बीच अँधेरी ज्ञान की , पावे न कोई निकसन (क -१ -२९ )
धरे नाम खशम के , जुदे जुदे आप अनेक
अनेक रंगे संगे ढंगे , विध विध करे विवेक।। ( क -१४ -३३ )
झोला लटकाए कमंडल लिए हाथ में , माथा चन्दन लगाए आज हर कोई स्वयं को धर्म चेता और विवेकशील महंथ घोषित करने पर तुला हुआ है। कोई निराकार ब्रह्म नाम पर जगंह जगह छावनी डाले गरीबों से पैसा कमा रहा है , तो कोई कर रहा रहा है स्त्रियों का शोषण। कोई वेद-शास्त्र ,मूर्ती पूजा के नियम आदि का आडम्बरपूर्ण संचरण करने में संलग्न है , तो कोई इनसब के आवरण में स्वार्थ-सिद्धि की उक्तियाँ जुटा रहा है। कोई खाने के लिए दो रोटी नही पा रहा है , पहनने के लिए एक वस्त्र नही पा रहा है , वही लोग देवी -देवताओ को खुश करने के लिए मंदिरों में , देवताओं पर , दूध पौटा रहे हैं। दही और घी चढ़ा रहे हैं। हिन्दू धर्म में फैले इन सब कुरीतियों और प्रथाओं के प्रति आवेश और सुधार की भावना या तो निर्गुणमार्गी संत कबीर के कवि-ह्रदय में दिखाई पड़ता है या फिर प्रणामी सम्प्रदाय के संस्थापक , समन्वय- मूर्ती महामति प्राणनाथ के काव्यों में।
जहां कबीर, ''पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोई " कहकर स्पष्ट रूप में ज्ञानी की विशेषता बतलाते हुए बाह्याडम्बर पर कुठाराघात करते है वही महामति प्राणनाथ " शास्त्र - शब्द को अर्थ न सूझे , मतु लिए चलतु अहंकार। आप न चीन्हे घर न सूझे, यो खेलत मांझ अधार। " कहकर ढोंगियों और आडंबरियों का पोल खोलते हुए दिखाई देते हैं। वे स्पष्टतः मानते हैं ---
कोई बढ़ाओ, कोई मुड़ाओ , कोई खेच काढ़े केश
जो लो आत्मन ओ लखे कहा होए धरे बहु भेष।। ( किरंतन १५-२ )
यही फटकार लगाया था कबीर ने भी तत्कालीन समय समाज को " जप माला छापा तिलक , सरै न एकौ काम ,"५ कहकर मूर्ती पूजा से लेकर उन तमाम हिन्द रूढ़ियों , बाह्याडम्बरों के प्रति ही नहीं मुस्लिम धर्म में व्याप्त उन कुरीतियों और मुल्लापन पर भी महामति प्राणनाथ जी की दृष्टि जाती है। जिसके आवरण में नित-प्रतिदिन कोई न कोई फतवा जारी रहता है। जो कभी स्त्री शिक्षा पर रोक लगाते हुए दिखाई देते हैं , तो कभी घर से बाहर न निकलने की सलाह देते हुए। मानव की व्यवहारिक और स्वाभाविक विकास प्रक्रिया को रोककर सैद्धांतिक विकास की पहेली में उलझाये रखने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं, आज विश्व में जो आतंक का साया मंडरा रहा है शहर के शहर, बस्ती के बस्ती , बम धमाकों से उड़ाए जा रहे हैं। उन सबके केंद्र में कहीं न कहीं यही मुल्लापन है। यही मुश्लिमवाद और यही सलाम है। जो जेहाद के नाम पर ,इस्लाम के नाम पर हजारों हजारों नवयुवकों को गुमराह करते हुए गोला बारूद की शिक्षा दे रहे हैं। प्रक्षिक्षण दे रहे हैं। जिन हाथों में कलम होनी चाहिए। किताब होनी चाहिए मानवीयता की। उन हाथों में बंदूकें थिमा रहे हैं रायफल और ए के ४७ थिमा रहे हैं। क्या यही स्लाम है ? क्या यही शिक्षा दिया है उनके कुरआन ने ? फिर क्या अल्लाह को या पैगम्बर को खुश करने का यही एक तरीका बचा रह गया है ? अगर कबीरदास की माने तो हमे तो यही नहीं समझ आता -----
दिन भर रोज रखत है , रात हनत हैं गाय
यह तो खून वह बंदगी , कैसे ख़ुशी खुदाय।। "६
इस सामयिक परिदृश्य पर महामति की वाणी उनके द्वारा कही गई उक्तियाँ कितनी सार्थक और सही लगती है , जब बांग्लादेश , पाकिस्तान आदि जैसे मुस्लिम बाहुल्य देशो में रह रहे अल्पसंख्यक हिन्दुओं का जबर्जस्ती स्लामीकरण किया जा रहा है। उनको जबरजस्ती सलाम धर्म कुबुलवाया जा रहा है ---
वो राजी एक भेष में ताय मार छुडावे दाब
वो रोवें सर पीटहिं ए कहें हम होत सबाव।। "(सनंध -४०-१८)
ऐसे देशों में हिन्दुओं के घर को ही नही , मंदिरो को भी ढाया जा रहा है , जो वे कितनी मेहनत और कितनी लग्न से से बनवाए हैं ---
चित दे एक चुनावही , हिन्दू जो आद के आद
सो जोर कर ढहावही कहें हम होत सवाब।। (सनंध ४०-१८ )
ऐसे देशों में हिन्दुओं के घर को ही नही , मंदिरो को भी ढाया जा रहा है , जो वे कितनी मेहनत और कितनी लग्न से से बनवाए हैं ---
चित दे एक चुनावही , हिन्दू जो आद के आद
सो जोर कर ढहावही कहें हम होत सवाब।। (सनंध ४०-१८ )
उनके द्वारा इस कुकरम और बदी की भावना पर महामति प्राणनाथ की प्रतिक्रिया देखते ही बनती है --
बदी न छाड़े एक पल डर न रखे सुभान
फ़ैल करै चित चाह ते कहें हम मुसलमान।।(सनंध-४०-४५)
दोनों ही धर्मो में व्याप्त कुरीतियों और आडम्बरो पर कुठाराघात करते हुए महामति स्पष्टतः मानते है कि ऐसे लोग जो विभिन्न सम्प्रदायों मे बंटकर आपस में एक दूसरे दुसरे के प्रति वैर भाव रखते हैं , वे आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं . ---
कहावे धर्म पंथ रे लड़ै माहे वैर , अंग असुराई को अधिकार
पशु पंखी साथ न छूटे कहीं , पुकार न कहूं बहार।। (किरंतन ५३-३)
दरअसल ये समस्याएं आज सिर्फ हिन्दू -मुस्लिम के बीच ही नही अपितु संसार मे व्याप्त उन सभी धर्मो एवं जातियों मे भी है , जिनका स्तित्व इस मानव समाज मे है। जितनी भी समस्याए संसार की आज इस परिवेश मे व्याप्त है , उन सभी की जड़े हमारे इस धर्म मे ही समाहित है , जो धर्म पूर्णतः साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ग्रसित है। यही वजह है की " धर्म को सांप्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर उसे व्यापक अर्थ एवं आशय प्रदान करना महामति का उद्देश्य रहा। उन्होंने धर्म को एक ऐसे मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित करने का आग्रह किया कि सांप्रदायिक मतभेद , वर्ण -वर्ग और भाषाई पार्थक्य और मूल्यों का टकराव न हो। "७
जहा तक बात वर्ण -वर्ग की है , उनमे टकराव का है , यह भी आज की एक विकट समस्या है। खासकर हिन्दुस्तान के गँवई परिवेश मे और वर्तमान परिदृश्य मे तो यह इतना विकृत रूप धारण कर लिया है कि " वह हर बस्ती, नगर या गांव अपने व्यक्तिगत विशेषता की वजह से न पहचाना जाकर जाति विशेष के नाम से जानी जाती है , जिसमे वे पैदा हुए हैं। फलतः "सारी बस्ती " हो गई "बभनौटी , चमरौटी "८ कौन कहे इनको रोककर , इस असामाजिक परम्परा पर विराम लगाकर , सामाजिक समरसता लाने की , आज के राजनीतिज्ञ "वोट -बैंक के चलते नित -प्रतिदिन बढ़ावा ही दे रहे है . उस राजनीतिक वातावरण मे, माहौल एक बार तो वे गौरवान्वित होते हैं , पर पूरा जीवन उस जाती सूचक अपमान के चलते "पददलित " और हीन भावना से ग्रसित रहते है। उच्च वर्ण -वर्ग के लोग पूज्य होते है। आदरणीय होते है। जबकि निचले वर्ण या वर्ग के लोग घृणित और अछूत समझे जाते है।
लेकिन महामति के यहाँ इस प्रकार की कोई व्यवस्था नही है। उनके "सुन्दर साथ" मे तो सभी वर्ण और सभी जाती के लोग थे। इस प्रकार का भ्रम फैलाने वालो से स्पष्टतः सवाल करते हुए दिखाई देते हैं प्राणनाथ जी ----
क्रमशः
बदी न छाड़े एक पल डर न रखे सुभान
फ़ैल करै चित चाह ते कहें हम मुसलमान।।(सनंध-४०-४५)
दोनों ही धर्मो में व्याप्त कुरीतियों और आडम्बरो पर कुठाराघात करते हुए महामति स्पष्टतः मानते है कि ऐसे लोग जो विभिन्न सम्प्रदायों मे बंटकर आपस में एक दूसरे दुसरे के प्रति वैर भाव रखते हैं , वे आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं . ---
कहावे धर्म पंथ रे लड़ै माहे वैर , अंग असुराई को अधिकार
पशु पंखी साथ न छूटे कहीं , पुकार न कहूं बहार।। (किरंतन ५३-३)
दरअसल ये समस्याएं आज सिर्फ हिन्दू -मुस्लिम के बीच ही नही अपितु संसार मे व्याप्त उन सभी धर्मो एवं जातियों मे भी है , जिनका स्तित्व इस मानव समाज मे है। जितनी भी समस्याए संसार की आज इस परिवेश मे व्याप्त है , उन सभी की जड़े हमारे इस धर्म मे ही समाहित है , जो धर्म पूर्णतः साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ग्रसित है। यही वजह है की " धर्म को सांप्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर उसे व्यापक अर्थ एवं आशय प्रदान करना महामति का उद्देश्य रहा। उन्होंने धर्म को एक ऐसे मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित करने का आग्रह किया कि सांप्रदायिक मतभेद , वर्ण -वर्ग और भाषाई पार्थक्य और मूल्यों का टकराव न हो। "७
जहा तक बात वर्ण -वर्ग की है , उनमे टकराव का है , यह भी आज की एक विकट समस्या है। खासकर हिन्दुस्तान के गँवई परिवेश मे और वर्तमान परिदृश्य मे तो यह इतना विकृत रूप धारण कर लिया है कि " वह हर बस्ती, नगर या गांव अपने व्यक्तिगत विशेषता की वजह से न पहचाना जाकर जाति विशेष के नाम से जानी जाती है , जिसमे वे पैदा हुए हैं। फलतः "सारी बस्ती " हो गई "बभनौटी , चमरौटी "८ कौन कहे इनको रोककर , इस असामाजिक परम्परा पर विराम लगाकर , सामाजिक समरसता लाने की , आज के राजनीतिज्ञ "वोट -बैंक के चलते नित -प्रतिदिन बढ़ावा ही दे रहे है . उस राजनीतिक वातावरण मे, माहौल एक बार तो वे गौरवान्वित होते हैं , पर पूरा जीवन उस जाती सूचक अपमान के चलते "पददलित " और हीन भावना से ग्रसित रहते है। उच्च वर्ण -वर्ग के लोग पूज्य होते है। आदरणीय होते है। जबकि निचले वर्ण या वर्ग के लोग घृणित और अछूत समझे जाते है।
लेकिन महामति के यहाँ इस प्रकार की कोई व्यवस्था नही है। उनके "सुन्दर साथ" मे तो सभी वर्ण और सभी जाती के लोग थे। इस प्रकार का भ्रम फैलाने वालो से स्पष्टतः सवाल करते हुए दिखाई देते हैं प्राणनाथ जी ----
क्रमशः