Tuesday 27 May 2014

सामयिक परिदृश्य में महामति प्राणनाथ और उनकी प्रासंगिकता

आज मै सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित पर सार्थक कवि एवं धर्म समन्वयक महामति प्राणनाथ - साहित्य का अध्ययन कर रहा हूँ।  एक ऐसा साहित्य, जो वर्तमान समय में लिखे जा रहे , रचे जा रहे , सृजित किए जा रहे उन सभी साहित्यांशों से कही अधिक रुचिकर और श्रेष्ठ है , जो वर्तमान  समस्याओं में ही उलझकर रह गए हैं।  मानव-मन की विचलित , विघटित, विशृंखलित अन्तर्दशा को स्थायित्व देने की न तो इनमे कोई सार्थक पहल दिखाई दे रही है और ना ही इनमे कोई ऐसी संवादात्मक व्यवस्था , जिनके आधार पर दिन-प्रतिदिन गिरते नैतिक-स्तर , वैमनस्यता , पाशविकता आदि जैसी घृणित मानसिकता पर रोक लगाकर स्वच्छ सामाजिक मूल्य की प्रतिस्थापना की जाये।  आदमी जितना रो रहा है , जितना चीख रहा है , चिल्ला रहा है जितना , उसे उसी रूप में कोरे कागज़ पर उतारकर ऐसे साहित्य के माध्यम से रोने के लिए उतना ही विवस किया जा रहा है।
                 इसके मुकाबले "महामति के वाणी के आलोक में हम अपने समय समाज और सत्ता के आईने में अपने चेहरे और मुखौटे को देख सकते हैं। जो ऊपरी तामझाम ,वाग्जाल और संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण विवादास्पद हो गए हैं और हमारी पहचान को लील गए हैं।"१ क्योंकि इनके "अमृत- वाणी में अपने अतीत का गौरवगान तो था ही अपने समकाल के अनुरूप जागनी अभियान से  अभिसिक्त युग- संकल्प के साथ भविष्य का स्वप्न भी मुखरित एवं सुरक्षित था।"२ जिसके अनन्तर महामति का कवि-ह्रदय-संपन्न व्यक्तित्व  सम्पूर्ण अर्थो में मानव की बात करता है और करता है बात मानवीयता के रिक्तकोश से अभिसिंचित उस  धर्म की जो मानव को मानवीय व्यवहारों के यथास्थित पथ पर  दशा  और दिशा देता है।  क्योंकि ,"व्यक्ति अभ्युदय और नि:श्रेयश सहानुभूत अंग तथा उसके विकास , उत्कर्ष और संघर्ष की घड़ियों में आरम्भ से अबतक संभवतः धर्म ही सबसे महत्वपूर्ण घटक रहा है। "३ यह जीने के लिए जीवन को एक आधार  देता है और उस जीवन में बहुत कुछ प्राप्त कर लेने की  जिजीविषा देता है।  पर जब दशा और दिशा देने वाला, जिजीविषा देने वाला धर्म कलुषित भावनाओं की गिरफ्त में आकर रूढ़िवादिता के आवरण और  धर्मान्धता के भौचक्कर  में फंसकर अधर्मता का  करता हुआ दिखाई दे, ऐसे समय में समन्वयशील संस्कृति और ''वसुधैव कुटुम्बकम'' जैसी व्यापक सहृदयता का क्या कोई स्तित्व   रह सकता है ?
                यही स्थिति तब थी , जब भारत पर औरंगजेब का शाशन था।  हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही एक भूमि पर थे, पर दोनों ही एक- दूसरे के ध्रुव- विरोधी थे।  एक कतेब का हिमायती था , तो दूसरा वेद का प्रचारक।  "ब्राह्मण कहै हम पवित्र, मुसलमान कहै हम पाक "जबकि महामति प्राणनाथ के अनुसार " जो कुछ कह्या कतेब ने , सोई कह्या वेद। " इसके बावजूद भी " दोनों वन्दे एक साहब के , पर लड़त पाये बिन भेद "और यही स्थिति अब आज भी है , जब " एक बार फिर धर्म में राजनीति के अनुचित प्रभाव न धार्मिक  स्थिति को एक सीमा तक सत्रहवीं शताब्दी जैसा बना दिया है।  छोटे- छोटे मठाधीश अपने  निहित स्वार्थों के पारब्रह्म के स्वरुप और धर्म के सूत्रों की मनमानी व्याख्या करने लगे हैं। "४  महामति प्राणनाथ द्वारा कही गई ये उक्तियाँ कितनी सार्थक  प्रसंगिक लगती हैं :---
                                    पंथ पैडे कै  चलहीं , कै भेष  दर्शन
                                     ता बीच अँधेरी ज्ञान की , पावे न कोई निकसन  (क -१ -२९ )
                                    धरे नाम खशम के , जुदे जुदे  आप अनेक
                                    अनेक रंगे संगे ढंगे , विध  विध करे विवेक।।   ( क -१४ -३३ )
               झोला लटकाए कमंडल लिए हाथ में , माथा चन्दन लगाए आज हर कोई  स्वयं को धर्म चेता और विवेकशील महंथ  घोषित  करने पर  तुला हुआ है।  कोई निराकार ब्रह्म  नाम पर जगंह जगह छावनी डाले गरीबों से पैसा कमा रहा है , तो कोई कर रहा रहा है स्त्रियों का शोषण।  कोई वेद-शास्त्र ,मूर्ती पूजा के नियम  आदि  का आडम्बरपूर्ण  संचरण करने में संलग्न है , तो कोई इनसब के आवरण में स्वार्थ-सिद्धि की उक्तियाँ जुटा रहा  है।  कोई खाने के लिए दो रोटी नही पा रहा है , पहनने के लिए एक वस्त्र नही पा रहा है , वही लोग  देवी -देवताओ को खुश करने के लिए मंदिरों में , देवताओं पर , दूध  पौटा रहे हैं।  दही और घी चढ़ा रहे हैं।  हिन्दू धर्म में  फैले इन सब कुरीतियों और प्रथाओं   के प्रति आवेश और सुधार की भावना या तो निर्गुणमार्गी संत कबीर के कवि-ह्रदय में दिखाई पड़ता है या फिर प्रणामी सम्प्रदाय के संस्थापक , समन्वय- मूर्ती महामति प्राणनाथ  के काव्यों में।
                 जहां कबीर, ''पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोई " कहकर स्पष्ट रूप में ज्ञानी की विशेषता बतलाते हुए बाह्याडम्बर पर कुठाराघात करते है वही महामति प्राणनाथ " शास्त्र - शब्द को अर्थ न सूझे , मतु लिए चलतु अहंकार।  आप न चीन्हे घर न सूझे, यो खेलत मांझ अधार।  " कहकर ढोंगियों और आडंबरियों का पोल खोलते  हुए दिखाई देते हैं।  वे स्पष्टतः मानते हैं ---
                                  कोई बढ़ाओ, कोई मुड़ाओ , कोई खेच काढ़े केश
                                   जो लो आत्मन ओ लखे कहा होए धरे बहु भेष।। ( किरंतन १५-२ )
यही फटकार लगाया था कबीर ने भी तत्कालीन समय समाज को " जप माला छापा तिलक , सरै न एकौ काम ,"५  कहकर मूर्ती पूजा से लेकर उन तमाम हिन्द रूढ़ियों , बाह्याडम्बरों के प्रति ही नहीं मुस्लिम धर्म में व्याप्त उन कुरीतियों और मुल्लापन पर भी  महामति प्राणनाथ जी की दृष्टि जाती है।  जिसके आवरण में नित-प्रतिदिन कोई न कोई फतवा जारी रहता है।  जो कभी स्त्री शिक्षा पर रोक लगाते हुए दिखाई देते हैं , तो कभी घर से बाहर न निकलने की सलाह देते हुए।  मानव की व्यवहारिक और स्वाभाविक विकास प्रक्रिया को रोककर सैद्धांतिक विकास की पहेली में उलझाये रखने की कोशिश कर रहे हैं।  यही नहीं, आज विश्व में जो आतंक का साया मंडरा रहा है शहर के शहर, बस्ती के बस्ती ,  बम धमाकों से उड़ाए जा रहे हैं। उन सबके केंद्र में कहीं न कहीं यही मुल्लापन है।  यही मुश्लिमवाद और यही सलाम है।  जो जेहाद के नाम पर ,इस्लाम के नाम पर हजारों हजारों नवयुवकों को गुमराह करते हुए  गोला  बारूद   की शिक्षा दे  रहे हैं। प्रक्षिक्षण दे रहे हैं।  जिन हाथों में कलम होनी चाहिए।  किताब होनी चाहिए मानवीयता की। उन हाथों में बंदूकें थिमा  रहे हैं रायफल और ए  के ४७ थिमा रहे हैं। क्या यही स्लाम है ? क्या यही शिक्षा दिया है उनके कुरआन ने ? फिर क्या अल्लाह को या पैगम्बर को खुश करने का यही एक तरीका बचा रह गया है ? अगर कबीरदास की माने तो हमे तो यही नहीं समझ आता -----
                                   दिन भर रोज रखत है , रात हनत हैं गाय 
                                    यह तो खून वह बंदगी , कैसे ख़ुशी खुदाय।। "६ 
इस सामयिक परिदृश्य पर  महामति की वाणी उनके द्वारा कही गई  उक्तियाँ कितनी सार्थक और सही लगती है , जब बांग्लादेश , पाकिस्तान आदि जैसे मुस्लिम बाहुल्य देशो में रह रहे अल्पसंख्यक हिन्दुओं का जबर्जस्ती स्लामीकरण किया जा रहा है।  उनको जबरजस्ती सलाम धर्म कुबुलवाया जा रहा है ---
                                      वो राजी एक भेष में ताय मार छुडावे दाब 
                                    वो रोवें सर पीटहिं ए कहें हम होत सबाव।। "(सनंध -४०-१८)
   ऐसे देशों  में हिन्दुओं  के घर को ही नही , मंदिरो को भी ढाया जा रहा है , जो वे कितनी मेहनत और कितनी लग्न से से बनवाए हैं ---
                                      चित दे एक चुनावही , हिन्दू जो आद  के आद
                                        सो जोर कर ढहावही  कहें  हम होत  सवाब।। (सनंध ४०-१८ )
उनके द्वारा इस कुकरम और बदी की भावना पर महामति प्राणनाथ की प्रतिक्रिया देखते ही बनती है --
                                       बदी  न छाड़े एक पल डर न रखे सुभान
                                        फ़ैल करै  चित चाह ते कहें हम मुसलमान।।(सनंध-४०-४५)
दोनों ही धर्मो में व्याप्त कुरीतियों और आडम्बरो पर कुठाराघात करते हुए महामति स्पष्टतः मानते है कि ऐसे लोग जो विभिन्न सम्प्रदायों मे बंटकर आपस में एक दूसरे दुसरे के प्रति वैर भाव रखते हैं , वे आसुरी प्रवृत्ति  के होते हैं . ---
                                         कहावे धर्म पंथ रे लड़ै माहे वैर , अंग असुराई को अधिकार
                                          पशु पंखी साथ न छूटे कहीं , पुकार न कहूं  बहार।।   (किरंतन ५३-३)
दरअसल ये समस्याएं आज सिर्फ हिन्दू -मुस्लिम के बीच ही नही अपितु संसार मे व्याप्त उन सभी धर्मो एवं जातियों मे भी है , जिनका स्तित्व इस मानव समाज मे है। जितनी भी समस्याए संसार की आज इस परिवेश मे व्याप्त है , उन सभी की जड़े हमारे इस धर्म मे ही समाहित है , जो धर्म पूर्णतः साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ग्रसित है।  यही वजह है की " धर्म को सांप्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर उसे व्यापक अर्थ एवं आशय प्रदान करना महामति का उद्देश्य रहा। उन्होंने धर्म को एक ऐसे मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित करने का आग्रह किया कि सांप्रदायिक मतभेद , वर्ण -वर्ग और भाषाई पार्थक्य और मूल्यों का टकराव न हो। "७
                         जहा तक बात वर्ण -वर्ग की है , उनमे टकराव का है , यह भी आज की एक विकट समस्या है।  खासकर हिन्दुस्तान के गँवई परिवेश मे और वर्तमान परिदृश्य मे तो यह इतना विकृत रूप धारण कर लिया है कि " वह हर बस्ती, नगर या गांव अपने व्यक्तिगत विशेषता की  वजह से न पहचाना जाकर जाति विशेष के नाम से जानी जाती है , जिसमे वे पैदा हुए हैं। फलतः "सारी बस्ती " हो गई "बभनौटी , चमरौटी "८ कौन कहे इनको रोककर , इस असामाजिक परम्परा पर विराम लगाकर , सामाजिक समरसता लाने की , आज के राजनीतिज्ञ   "वोट -बैंक के  चलते नित -प्रतिदिन बढ़ावा ही दे रहे है   . उस राजनीतिक वातावरण मे, माहौल एक बार तो वे गौरवान्वित होते हैं , पर पूरा जीवन उस जाती सूचक अपमान के चलते "पददलित " और हीन भावना से ग्रसित रहते है।  उच्च वर्ण -वर्ग के लोग पूज्य होते है।  आदरणीय होते है।  जबकि निचले वर्ण या वर्ग के लोग घृणित और अछूत समझे जाते है।
                        लेकिन महामति के यहाँ इस प्रकार की कोई व्यवस्था नही है। उनके "सुन्दर साथ" मे तो सभी वर्ण और सभी जाती के लोग थे।  इस प्रकार का भ्रम फैलाने वालो से स्पष्टतः सवाल करते हुए दिखाई देते हैं प्राणनाथ जी ----
                         क्रमशः                                      

Sunday 25 May 2014

ब्लॉग परिवर्तन

मै अपने सभी बंधु  जन  को यह बताना चाहता हूँ की जो मेरा पुराना ब्लॉग पेज था वह किसी कारन बस मै उसमे पोस्ट नही कर पा रहा हूँ इसलिए अब ये मेरा नया ब्लॉग पेज होगा - यानि -
p-anilpandey.blogspot.com की जगह पर  rachnawli.blogspot.com हो गया है।

चार कवितायें

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2007

बाज़ार में  

बिक रहा था सब कुछ

''कुछ'' के साथ ''कुछ''

मिल रहा था उपहार में

आलू, प्याज,टमाटर की तरह

भाव, विचार, रीति, नीति, सुनीति

सब के लगे थे भाव फुटकल नहीं, थोक में


लोग ख़रीद रहे थे

सब के साथ सब

कुछ के साथ सब

एक के साथ सब

कुछ को मिल रहा था

कुछ व्यवहार में


मैं खोज रहा था शिष्टाचार

किसी ने चेताया

यह नहीं संसार

तुम खड़े हो बाज़ार में॥

बाज़ार

आचार, शिष्टाचार, व्यवहार, परिवार

कितनी तीव्र हो रहा परिवर्तित संसार

घट रहा, बढ़ रहा, स्थाई नहीं, चल रहा

फिर भी सूना पड़ा मानवता का बाज़ार


है नहीं आता समझ क्या विस्तृत होगा

पैरा-पुतही, घांस-फूंस से

नव निर्मित मानव घर-बार

होगा यह चिरस्थाई क्या पुराने ईंटों से गर्भित दीवार

या यूँ ही रह जाएगा संकुचित कुजडे, बनिये का बाज़ार


नहीं सुरक्षित, वैचारिक स्थिति,

व्यावहारिक परिस्थिति से खंडित आचार

छोटे छोटे खंडों में, टुकड़ों में हो रहा विभाजित बाज़ार

गया परिवार, लोपित शिष्टाचार, नश्वरता ही रह गया आधार

बनते बिगड़ते शेअरों में विनष्ट हो रहा एक विस्तृत बाज़ार ॥

सोंच

सोंच, सोंच के किनारे रहकर

सोंचती है सोंचते हुए

क्या सोंच का जन्म

सोंच,सोंच के सोंचने से ही होता है

या

सोंच का सम्बंध

सोंच के सोंच से है

यानी अपनी प्यारी प्यारी चिन्ता ।।

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2007

क्या है मानव जीवन?

दुःख है

विपदा है

सघर्ष है

चल सम्पदा है

निरुपाय निरर्थक

एक विकट विकराल आपदा है

यह मानव जीवन

या

सुख है

समृद्ध है

सहज स्वीकार्य

मानवता की सुमनावीय

भावाभिव्यक्ति की

अचल सम्पदा है

यह मानव जीवन ?

चार कविताएँ, तीन लेख

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-1 

जिंदगी कभी कभी बहोत हारी,सुस्ताई और मायूस सी लगती है। खासकर तब जब कोई अपना या कोई अपना लगने वाला उसके प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख होने लगता है। और तब न तो ये कलम काम करती है और ना ही तो ये सोंच या कल्पना जिससे कुछ नया विचार करके उससे निजात पाने का तरीका ढूँढा जा सके। यही दुखित मन अपने ही पता नही क्या क्या सोंच लेती है और कौन कौन से ताने बाने बुन लेती है कि सहसा ही मन में एक तरंग उठती है और वह उसका साथ छोड़ देने के लिए अपनी सहमति प्रदान करती है। पर क्या किसी समस्या का हल केवल त्याग में ही संभव है ? क्या उसके लिए कोई और प्रयत्न नहीं किये जा सकते ? किये जा सकते हैं, पर यह प्रयत्न केवल मात्र उसी पर ही निर्भर नहीं होनी चाहिये। आख़िर उसमें भी तो दोनों के अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है। पर किस बात की अभिव्यक्ति ? परिश्रम की अभिव्यक्ति, विचारों की अभिव्यक्ति या एक के प्रति दूसरों के आत्मसमर्पण की अभिव्यक्ति। शायेद ये सभी हो सकते हैं। बस अवसर की अनुकूलता होनी चाहिये। अवसर कब, कहाँ, किसको मिलती है ये तो नहीं कहा जा सकता पर अवसर की भी तो उत्पत्ति शायेद एक ही के हित में होती है। जबकि उसमें भी लगभग दूसरे का अहित ही छिपा होता है।
आख़िर इस प्रश्न के बार बार उठाने का क्या कारन है कि मैं उसके लिए सब कुछ करता हूँ वह मेरे लिए कुच्छ नहीं करता या उसके एक ही इशारे पर मैं आशामन के तारे तोड़ने को उद्यत हो उठता हूँ और जब उसकी बारी आती है तो ऐसा आभाष होता है कि उसका छत ही गिरता जा रहा है। क्या इसमें रिश्तों के टूटने का साफ साफ संकेत नहीं मिलता ? आख़िर ऐसी अवस्था में त्याग का विचार नहीं आएगा तो क्या सम्बंध बनाए रखने का विचार आएगा ! संभवत दोनों ही हो सकते हैं। पर शायेद त्याग का स्तर कुछ ऊंचा ही हो!...................

सोमवार, 3 दिसंबर 2007

तारे-1

रे तारे !

रोज ही तूं भाग आता है

नहीं कहीं और जाता है

रात रात भर जग जग कर

देता रहेता है पहेरा

मौसम साफ हो चाहे छाया घना कोहरा

तुझे कौन सी दिक्कत

क्या आन पड़ी पारिवारिक संकट

शादी तो तेरी हुई नहीं

न ही दुश्मनी किसी से कोई कहीं

जरूर,तेरे पोषक ने तुझको दुत्कारा

फिर रहा तूं मारा मारा

चुक गयी न आज घर की रोटी

मिटटी का तेल खतम, बुझ गयी न ज्योति

काट रहा तूं प्रवास

नहीं तो होता घर का प्रकाश

चल छोड़ क्यों घबडाता है

बैठ सुना सब कुछ अब और कहाँ जाता है .......

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

एक सुबह









एक सुबह एक बालक आया

अपनी माँ के पास

ममता की छाया पाने को

जो था बहुत निराश

एक अनिंद्य आशा का

दीप जलाए हुए बोला वह,

ऐ माँ!

तू क्यों छुपाये है मुख

दे न वही सुख फिर

जो कुछ समय पहले दिया करती थी


काश! आज तूं जानती

मैं कितना हूँ विह्वल

कितना दुःख है

पीडा है

निराशा पन है

देखके तेरी ये बिखरी बिखरी सी सूरत


मुझे कुछ नहीं चाहिऐ इस झूठे समाज से

मैं भूखा हूँ-गम नहीं

प्यासा हूँ - गम नहीं

यदि मरता हूँ तब भी मेरी माँ

मुझे गम नहीं


न दे कोई मुझे एक रोटी

थोडी सी दाल

एक दाना चावल का

चर टुकडा जूठा अचार

पर तूं तो दे दे माँ एक बार

फिर वही प्यार

जो बचपन में दिया करती थी

कम से कम ख़ुशी तो रहेगी

मेरी आने वाली अगली सुबह

कुछ समय पहले जैसे थी .........

सोमवार, 5 नवंबर 2007

आंसू की सार्थकता

आंसू जो कभी कभार भा करते हैं। बेवजह और अनायास। तब जब हम किसी को विदा करते हैं या किसी के घर से विदा होते हैं। अथवा कोई अचानक आ जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं इस आंसू को लेकर। उनका स्वागत करने के लिए, अगवानी करने के लिए। ये तो हुयी प्रेम की आंसू जिसके कोई न कोई वारिस होते हैं। यह अनाथ नहीं होती, दूसरों की उसमें कम से कम कुछ न कुछ अभिव्यक्ति होती ही है। जो चूकर गिरने से पहले ही थाम ली जाती है। पर क्या हम इस आंसू को वास्तविक आंसू कह सकते हैं? यह कैसी आंसू है जो कभी कभार बहा करती है और दूसरों की दिलासायें पाकर अपने आपको तिलान्जित कर लेटी है? आंसू तो शायद वी होते हैं जो अनवरत बहा करते हैं ,जो लावारिस होते हैं । जिसमें दूसरों की अभिव्यक्ति होती है तो शोषण के लिए। दिलासायें होती हैं तो विकास को विनास में परिवर्तित करने के लिए जिसमें यदि स्वर्थाता होती है तो दो रोटी के लिए और यदि निह्स्वर्थाता होती है तो अपने आपको समर्पण करने के लिए। इसके शिवाय वो कर ही क्या सकते हैं? ना तो विद्रोह और ना ही तो विरोध। पर यदि विद्रोह और विरोध करें भी तो किस आधार पर सब कुछ राजनीतिकों का जो ठहरा। धन- दौलत, रूपया- पैसा, मान-ईमान।
भारत में चल रहे आतंकवादी हमले हों या आसाम में सितम ढा रहे उल्फा संगठन के कारनामें अथवा दिल्ली के मास्टर प्लान के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण मामले या तो फिर निठारी हत्याकांड,इन सब में इन्हीं आंसू के तो दर्शन होते हैं। जिसमें निह्स्वार्थ्ता होती है । स्वर्थाता होती है । निरासा , डर ,भय , अनुकम्पा होती है। जो जीवन के समतल पर ऐसा बहा करती है जैसे नदियों के पानी। जिनको न तो कोई पूछनें वाला होता है , और ना ही तो कोई रोकने वाला। कभी कभार यदि रोकानें की कोशिश की भी गयी तो बाँध बनाकर किसी नाम से विभूषित कर दिया गया । घोट दिया गया गला उसका,उसके विकास का और उसके व्यक्तित्व का । पर यहाँ यह भी कहना तो एक देश के लिए , उसके लोगों के लिए , हमारे लिए, अन्यायपूर्ण होगा , कि आंसू रोके नहीं जाते । वी अनवरत बहते रहते हैं । वे लावारिस होते हैं । उनको कोई पूछनें वाला नहीं होता। नहीं;ऐसा नहीं है। जरूर कोई न कोई होता है। उसे रोकानें वाला । उसके बदले भले ही वह अपने आंसू बहाए। पर वह एक कोशिश तो करत्ता है-लाखों आंसू को बहनें से रोकने के लिए । भले ही वह सीलिंग मामले के अंतर्गत अन्यायपूर्ण ढंग से जेलों की रोटी खाए या फिर उसमें उसकी राजनीतिक हित छिपा हो, पर वह एक संघर्ष तो करता है इन असहाय आंसुओं के साथ । यदि इन्हीं के जैसा देश का ३५% भाग करनें लगे तो ये आंसू बहे ही क्यों? फिर तो ना राजतन्त्र , न लोकतंत्र , ना तो प्रजातंत्र , सब तंत्र आ जाये । स्वतंत्र तंत्र आ जाये । जिस स्वतंत्र तंत्र में न तो पुलिस हो, ना तों अन्याय हो , ना तो कानून हो । पर, ये तो गांधीवादी विचारधारा है । इसका समर्थन कौन करेगा ? कांग्रेस , भाजपा , या फिर अन्य राजनीतिक दल? शायेद कोई नहीं। क्योंकि उनके पास ये आंसू नहीं है । हित है। राजनीतिक हित। वर्ग हित । समोहिक हित । समाज हित से कोई मतलब नहीं । समाज क्या कर रहा है? क्या हो रहा है? कहाँ जा रहा है?कोई मतलब नहीं , कोई परवा नहीं। कुछ हो रहा है वो भी बुरा, कुछ न हो रहा है वहतो बुरा हयी है । जो कुछ कर रहे हैं वो आलोचना के शिकार , और जो नहीं कर रहे हैं वो तो आलोचित हयी हैं ।
फिर आंसू कौन है? कहाँ है? कैसे है? किस तरह से उसको परिभाषित किया जाय? किस तरह से उसकी सार्थकता दिखाई जाय ? कैसे नाम दिया जाय उसको आंसू का ? क्या आंसू nirasray है?जो यूँ ही choo padati है। जो यूँ ही bhaauk हो uthati है। बहनें लगती है , गिरने लगती है, चुनें लगती है झरनों की तरह , किसी को देखकर । शायेद यही। .....................




रविवार, 4 नवंबर 2007

हम क्या थे क्या हो गये

आया था कभी ख्याल जो वो ख्याल बनकर रह गये
सोंचा भी न था जो कभी वो सोंच बनकर कह गये

देखा न ख्वाब जिसकी मैं वो ख्वाब बनकर बह गये

सोंचते हैं, क्या थे पर आज क्या हम हो गये


चारों तरफ बाहर थी संयुकतता गुहार की

रहते थे ख़ुशी हर समय आनंद सी फुहार थी

थे एक हम अनेक में वो संगम कि धार थी

वे धार अमरता के थे पर अल्पता में बह गये


स्वत्वों का अमंद गान था अनंत पर भी मान था

थे स्वर्गवासी नरक में हम सबका ऐसा शान था

गिरते न कभी गिर के भी जन जन का ये अभिमान था

पर मान अपनी बेंचकर अभिमान में ही ढह गये


है बात सारे जाति की सब हिंद के प्रजाति की

स्वजाति पर निर्भर थी जो उस देश के प्रभात की

उन धीर की सुधीर की विद्वान उन गंभीर की

जो मार्ग पर ही चलते चलते मार्ग से बिछड़ गये


वह देश हिंदुस्तान है जो विश्व का खाद्यान्न था

लुटते हुए सहस्र बार फिर भी जो महान था

था पास इसके अतुल्यता न और किसी के पास था

पर तुली यह ऐसा हुआ न विश्व में कोई भए


कारण कुछेक एक ना असंख्य के करीब थे

थे सभी अमीर,जन व्यक्तित्व ही गरीब थे

धन था धान्य था खेत खलिहान था

था सभी गुजर बसर, अनजान से सब गुजर गये


कहता हूँ आज मैं यहाँ जो मामले संगीन थे

रंगीन थे जो होते कभी, वो स्वप्न में नशीब हैं

शश्यामला थी धरती यहाँ पुत्र नौनिहाल था

जो जैसा था अच्छा ही था चारों तरफ खुशहाल था


सरसों के फूल फूलते, सूरजमुखी बाहर थे

सितार नवरंग में जौ, धान, गेहूँ, सार थे

फुहार था प्रकृति यहाँ वातावरण कुहार था

निर्माता न कोई भाग्य का मनुष्य कूदी लुहार था


पर दुर्भाग्य हम उनकी कहें कि खेल ईश्वरी जाति का

धीरे धीरे न बहोत पर क्षति हुआ प्रजाति का

कुछ तो लुटे खुदी, शायद ईश्वरी अभिशाप था

कुछ को गया लुटाया यही सबसे बड़ा आघात था


बाहरी अधिक प्रवीन थे बल शक्ति से न क्षीण थे

थे बडे, छोटे, बुरे लालची प्रखर मलीन थे

पर था न ऐसा हिंद में यह भारती दरबार था

जिसके लिए सदा से ही अतिथि देवो संसार था


अर्थ स्थिति थी प्रबल विकट इस जहान् की

न कोई पाप संसय जो भी थी वो शान की

माता थी ये तब धरती उनकी प्रांगन कृषि संसार था

बोले जो भी बोली धारा की जीवन से उसका हर था


पर दिन कहाँ वी दूर थे मानवीयता से सुदूर थे

निकल पड़े जो पग जनों के लखते हुए भी सूर थे

बिकने सगी ये माता उनकी पुत्र ही खरीददार था

है बात कोई और कि पीछे कोई स्वर था


खाली पड़ीं जो सड़कें सूखी धुल रेत कांट की

कुछेक के जीवन बनायी कुछ के लिए खाट थी

बाकी चले आशा चलाये एक शहर चार था

माता पिता परिवार पर सीधा बुरा प्रहार था


सोंचा ना होगा कोई स्वप्न ऐसे दुराचार का

झेलना पड़ेगा अब दुःख गुलामी के प्रहार का

माता पिता पथ लखते यहाँ रोटी दो आचार का

शहरों में छोटे पुत्रों का खटखट के बुरा हाल था


अब और क्या सुनाएँ दर्द हिंद के निहार के

पहने थे कितने कपड़े व कितने कहाँ उघार थे

थी जमीदारी प्रथा तो कर क्रिया प्रधान था
औरतें थी भोगी हवस की ऐसा वह संसार था .............

रविवार, 14 अक्टूबर 2007

वह मजदूर

जिसमें उत्साह था अदम
सह चूका था जो हर सितम
रक्त नलिकाएं भी
दौड़ लगा रही थी
चुस्ती जुर्ती के साथ
जो था समाज की
राजनीति से बहुत दूर
वह मजदूर

फावड़ा लिए अपने कन्धों पर
चला जा रह था
वह निश्चिंत हो बेपनाह
बेहिच्किचाहट
समाज समुदाय की
गन्दी कूटनीति से
बहुत दूर
वह मजदूर

राजनीति, कूटनीति
थी सीमित उसके लिए
यहीं पर
हो नसीब मात्र
दो वक्त की रोटी
सुख सुकून से
किसी तरहं चलाता जाए
परिवार का गुजर बसर
चलाता फावड़ा वह इसीलिये
रात को दिन में बदल देते हैं वे
अपने लिए
हो वास्तविकता के निकट
ख्वाबों से बहुत दूर
वह मजदूर
वह मजदूर। ॥

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2007

स्वार्थी सूरज

गोधूलि बेला हो गयी है। सूर्य धीरे धीरे अपने निवास स्थल को जा रहा है । एक अजीब की लालिमा है। जो एक समय पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमे वही तेज विद्यमान है जो तेज तब था जब वह उदित हो रहा था। छोटी छोटी तेज्युक्त लालिमा किस तरह मोतियों-सा प्रतीत हो रही थी। जब वह उदित हो रहा था। पर, अगर यदि सच कहा जाय तो इस समय जब वह जा रहा है अपने पुराने स्थल को, जहां से वह आया था। एक अजीब सी मायूसी उसमे देखने को मिल रही है। ऐसा लग रहा है जैसे इसके आँखों में आंसू भरे हों। वह चाह रहा हो रोने के लिए पर रो ना प रहा हो। शायद इसलिये कि कहीं उसको रोते देख वो भी ना रोने लगे, जो शायद उसके प्रकाश के तले अपना जीवन यापन कर रहे हैं। या फिर इसलिये कि कहीं वह निस्तेज ना हो जाये क्योंकि उसे तो कल फिर वहीं आना है। पर यही तो चिन्ता का विषय है कि कल जब वह फिर आएगा तो क्या यहाँ के वासियों को वैसा पायेगा जैसा कि छोड़ गया था? नहीं ना। शायद नहीं। क्योंकि तब तक तो पता नहीं कितने वहां से जा चुके होंगे और कितने वापस आ चुके होंगे। एक दुनिया को छोड़कर एक नयी दुनिया में। एक नयी सवेरा और एक नयी आशाओं के साथ। एक नवे सभ्यता में। एक नवे परिवेश में। एक नवे समाज तथा एक संगत में।
फिर उनके लिए उस सूर्य का क्या महत्व?वी तो यही सोंचेंगे ना कि यह कोई रही है। भूखा है। प्यासा है। किसी से मिलाने जा रहा है। रास्ता भूल गया है। लाओ लाकरके एक लोटा पानी दे दो । बिछा दो खात सोहता ले । आराम करले। उनको क्या पता होगा कि यह वही सूर्य है जो इसके पहले सबदो एक प्रकाश देकर गया था। एक आशा देकर गया था। जीवन में कुछ पाने की।

पर दूसरे पल यह महाशूश होता है कि कहीँ वह इनको पहचान रहे हो कि ये उनका पूर्वज है। और पर इसलिये नकार दे रहे हो कि यह स्वार्थी हो जो हम सबों को दुखों में छोड़ गया था और जब ख़ुशी देखा तो वापस आ गया। हाँ, एक पल के लिए सही हो सकता है। जब सूर्य सबको समान समझ रहा था। अपना समझ रहा था तो आख़िर छोड़कर क्यों चला गया वह? क्या उसे यहाँ कोई बहोत अधिक परेशानी थे। जैसे सब जीं रहे थे वैसे वह भी जीता. क्यों नहीं सम्मिलित हुआ वह लोगों की खुशियों में ?दुखों में? लोग तो निराश थे जब वह जा रहा था, क्यों वह ख़ुशी की लालिमा लिए चला गया मुस्कुराते हुये?
पर क्या सूर्य को स्वर्थाता का अपराधी बताना ठीक होगा? ये माना जा सकता है की वह स्वार्थी है। सबों को जिस हालत और जिन हालातों में छोड़ गया उसे नहीं जाना था। रहना था सबों के दुखों में, सुखों में। पर क्या वह अपने लिए ही गया?नहीं वह अपने लिए ही नहीं गया। ये तो सोंचने वालों की गलत फहमीं ही हो सकती है। यदि उसे अपने तक की ही चिन्ता होती तो वह भी अन्यों की तरह दो रोटी खाकर पड़ा रहता गरजते हुए। क्या जरूरत थी उसको एक जगहं की ठण्डी और दूसरे जगाहन की गर्मी सहते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जानें की। सबकी चिन्ता थी सबकी परवा थी तब वह छोड़कर गया सबों को। उसका प्रकाश ग़ायब हो गया था । वह क्षीण होता जा रहा था अपने आप में। जिससे लोग प्रकाश हीन होकर विलाख रहे थे इधर उधर। सड़कों पर आए. भीख मँगाने की नौबत आयी। तब मजबूरन उसे जान पड़ा। आकिर कौन है ऐसैस संसार में जो अपने को दुःखी देख सके। पर फिर भी ऐसे सूर्य भुला ही दिए जाते हैं। नहीं रहता किसीको उसके प्रकाश का ख्याल। उसके तेज का ख्याल।तथा उसके सतीत्व का ख्याल इसीलिये शायद सूर्य भी बांवला हो गया है। आता है, खोजता है अपने पुराने इज्जत को, सतीत्व को, साथी और संगाती को। पर जब नहीं पाता तो एक अजीब सी वेदना लिए हुए चला जता है रुंवासा होकर। लेकिन उसे जब फिर भी संतोष नहीं होता तो चला आता है दौड़ा दौड़ा। पर इस स्वार्थी संसार में कोई नहीं खाता तरस उस पर। उसके कार्य पर। उसके प्रयास पर॥

पांच कवितायेँ , दो लेख

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा

जंग करना आसान है। जंग में विजय प्राप्त करना आसान है। किन्तु यह जंग तलवारों की हो न की आपसी विवादों की । जहाँ जंग तलवारों की होती है वहां फैसला बाहुबल पर जाता है तथा विजय प्राप्त करना कुछ हद तक मुमकिन हो जाता है। और जब यग लड़ाई आपसी विवाद की होती है , तब दिल कुछ भी करनें से इंकार कर देता है। फिर इन्सान कर भी क्या सकता है? कलह, अशांति व्यक्ति को इतना लाचार कर देती है कि व्यक्ति दिन प्रतिदिन निराशा एवं आत्मग्लानी में डूबता जाता है। एक दिन वह समय आ जाता है जब जिंदा आदमी बुत्परस्त बन जाता है । सब कुछ देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है । सब कुछ जानकर भी वह अनजान बन जाता है । अपनी पहचा वह इस कदर भूल जाता है, जैसे डाल से टूटा हुआ पत्ता । यह आत्मविश्वाश ही कितना सहायक होगा ? नसीब ही कितना साथ देगी ? कोई किसी का भला क्या कर सकेगा ? इन सभी विवादों में उलझाना, साथ ही साथ इन विवादों का निराकरण कैसे निकले ? कौन हल करे ये छोटे- छोटे दो चार विवाद ?
अजीब विडंबना है । आज इन्सान खुद को ही नहीं बता पा रहा है कि वह क्या है, उसके अंदर कितना गुण समाहित है,वह समाज के लिए कितना उपयोगी है ? वास्तविकता तो यह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अपनें स्वाभिमान के परे एक कायर की भांति जीवन बितानें में अपना कर्तव्य समझ रहा है। फिर क्या हक है उसे किसी दूसरे पर टिप्परी करनें की ? वह क्यों भाषण देता है कि हम परिवार या समाज की भलाई के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर सकते हैं ? एक आलसी की भाँती जीवन यापन करना इन्सान को शोभा नहीं देता। आलसी व्यक्ति अपनें किसी कार्य को करनें में असमर्थ होता है । फिर वह परिवार समाज या किसी और के विषय में क्या सोंच सकता है ? यदि आज जन जन, बच्चा - बच्चा आलस्य का त्याग नहीं करेगा तो आने वाला समय आलस्य - युग के नाम से जान जाएगा। अर्थात , आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा । .............

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

फिर क्यों रख रो रही वह अपनी पकी रोटी?

जल रही आग के आगे
तप रहे तावे पर , बैठी
रख रही वह पिसान कि तहें
धीरे धीरे नरम हांथों से
उलटती पलटती देखती
फिर चौपतती
फिर पहुँचाती सबके सामने
कच्ची है रोटी
काले धब्बे ज्यादा पड़ गए हैं
अभी और पकाना था
नहीं लगाई आंच
पक तो गयी , पर जल गयी
ज्यादा लगाई आंच
नहीं इसमें कोई स्वाद
हो गया सब बर्बाद
रख , पका दूसरी रोटी
देना उसे जो आये मेरे बाद
जली , भुनी , रोई
पस्ताती फिर ले आयी रोटी
वही धुवां वही आग
पर पसीना है नया
उलट पलट तरासती
फिर वही नयी रोटी
बन गयी रोटी एकदम नयी
पर फिर क्यों रख रो रही
वह अपनी पकाई रोटी ?.............

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

..........इज्जत क्या,उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन

कभी कभी, जब कभी , कोई ऐसी रचना हमें पढनें को मिलती है, जिसमें भारतीय वर्ण-व्यवस्था के प्रति व्यंग और मानव जीवन को पाने के बावजूद पशुतर जीवन जीने के लिए मजबूर निचली जातियों, अर्थात दलितों की समस्याओं को सत्य के धरातल पर रख उनके निरासमय जीवन के प्रति, कुंठित भावनाओं एवं संवेदनाओं को, जहाँ दुखों को सहना उनकी परंपरा और वैसे वातावरण में रहना, जहां न तो साफ सफाई हो और ना ही तो कोई घर बार हो , हो तो झुग्गियां- झोपरियाँ । जिनका समय या असमय कभी भी नष्ट हो जाना निश्चित ना हो, उनका परिवेश बन जाता है। ऐसी कहानियो को सुनकर या पढ़कर निश्चित ही ह्रदय में दो तरहं की चिंगारियां फूटती हैं जिसमें एक वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरहं समाप्त कर देना चाहती हैं जबकि दूसरी उन दलितों को, जो पशुतर जीवन जी रहे हैं, वर्ण-व्यवस्था के प्रधान, ब्रह्मण और क्षत्रियों के बीच खड़ा कर देना चाहती हैं।
रामनिहोर विमल की कृति,"अब नहिं नाचाब" हालांकि इसकी रचना १९८० के आसपास की गयी पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था की प्रधानता से पूरी तरहं लड़ती हुई और सूद्रों , चमारों एवं दलितों के अधिकारों का समर्थन करती हुई एक ऐसे रंगमंच का निर्माण करती है जहां यदि दलितों को उत्साहित होनें की प्रेरणा मिलती है तो क्षत्रियों और ब्राहमणों को ग्लानी और वर्ण व्यवस्था के प्रति, जो हमारे पूर्वजों, वेदों, तथा उपनिषदों के द्वारा हमें प्रदान किये गए, क्शोभित होनें के लिए हमें मजबूर कर देती है।
अपनें वक्तव्य में विमल जी यह बात मानते हैं,"हमनें इस कहनीं को घटी होते हुए नहीं देखा।"पर आज के परिप्रेक्ष्य में और खासकर जिस समय यह लिखी गई, पूर्णतः सत्य सिद्ध होती है। कन्हाई भगत का, जो कहानी का मुख्य पत्र है, पंडित विद्याधर चतुर्वेदी तथा बाबु साहब शेर शिन्घ से दंडवत प्रणाम करना और उनका ध्यान ना देना। ध्यान देते हुए भी,"उठ उठ ससुर तुम लोग को समय असमय का जरा भी ख्याल नहीं , जब भी मेहरिया भेंज दिहिस, चलि दिहें।"दुत्कार कर अपमानित करना ब्रह्मण और क्षत्रियों का तो परिवेश ही बन चूका था। आज के परिवेश में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लगभग ८०% दलितों की, जहां सवर्णों की बहुलता पाई जाती है,यही दशा है । जो ना तो उनके सामनें खड़ा हो सकते हैं और ना ही तो उनके साथ, उनके खाट पर बैठ ही सकते हैं। ये आज भी समझते हैं,"चमारों की इज्जत जानें से गाँव की इज्जत नहीं जाती। और जिस गाँव में चमारों की इज्जत होती है, उसमें फिर हम लोगों की इज्जत नहीं होती।" पर शायद ये भूल जाते हैं कि इज्जत क्या उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन।............................

सोमवार, 7 जनवरी 2008

मुस्कराहट

ग़जब की चीज है मुस्कुराहट
आ जाती है , खुद-ब-खुद
न कोई पता बगैर किसी आहट
रोता है दिल तो आती है
हंसती है महेफिल तो आती है
आती है मुस्कुराहट बेवजह
ना कोई पता बगैर किसी आहट

पर कई दिनों से
घट रहा जब सब कुछ
हो रहा जब सब कुछ
सब कुछ सहना ही रह गया
जीवन में कुछ
कोशों दूर कड़ी मुस्कुरा रही
ये स्वार्थी मुस्कुराहट
ना कोई पता बगैर किसी आहट................... ।

वह चिड़िया

वह चिड़िया


दूर से दिखती है


फर्फराते हुए उसके पंख

सुनाई देते हैं , वह लकती है


आंखों में कुछ सपने दिखाई देते हैं


सपनों को संवारने की ललक लिए

पिज़डे में पड़ीं खिड़कियों को निहारती है


वह चिड़िया



ऐसा एक दिन की नहीं


रोज रोज की कहानी हो गयी है

पहले था बचपना , पर अब सायानी हो गयी है


पिज़डा ही उसकी मंजिल, पिज़डा ही उसकी आशा


पिज़डा उसकी पहचान , पिज़डा ही उसकी भाषा


जैसा रहा बचपना वैसे ही बीती जवानी


नहीं कर पायी भेद उसमें और देखती रही सपने


वह चिड़िया ..................................... ।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

स्मृति के झरोखे से

हुआ क्या कदम आज रुकने लगे

तुम मुझे आज बेगाने लगने लगे

ऐ प्रिये कुछ बताओ भला क्या हुआ

तेरे हर गम में खुश हम यूँ लगने लगे


याद कर लो उसी दिन को जब तुम मिले

थे मिटे उस दिन पहले के कितने गिले

फिर गिले आके आख़िर क्यों ऐसे मिले

कि एक दूजे के दुश्मन हम लगने लगे


तुमने कहा कुछ क्या हमने सुना

क्या हमने कहा तुम समझते गए

कुछ सुने भी गए कुछ रहे अनसुने

दोष तुमपे तुम हमपे यूँ मढ़ने लगे


चला न पता दोष किसका कहाँ तक

न तुम नम हुए ना ही हम कम हुए

बात एक दिन न हो न बिताए बिते

आज दूरी को ही नजदीकियां हम समझने लगे


चलो अच्छा है प्यारी ये अच्छा ही था

अब आगे बढ़ो कुछ समझते हुए

कुछ ऐसा करो कुछ लगे कुछ भला

ताकि दूरियां नजदीकियों में बदलने लगे ............... ।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-2

दिया था कसम भौरों ने फूल को जब
जनम भर रहेगा ये बन्धन हमारा
कड़ी धूप में,वर्षा, ठंडी हर पहर में
चमका करेगा प्यार का ये सितारा

कहा
फूल से एक दिन भौरे नें खिलखिलाकर
प्रिये तुम रहोगी सदा सर्वदा ही हमारी
न प्यारी खूबसूरती न लालच है यौवन का
न समझना कभी मुझे सौंदर्य का पुजारी

नियत ही है मन मानवीय स्वभाओं से निर्मित
कभी गर ये भटके तो कहेना न विलासी
अगर भूल चाहे चखना स्वाद तेरे हुस्ने जहाँ का
बनाना मुझे तत्क्षण स्व-मन मर्जी का प्रवासी

सौंदर्य का पुजारी तो जहाँ ही रहा है
न चलना मुझे रीति-पथ अनुसरण कर
कहाँ घर, जाती, धर्म, रीति कौन सा है तुम्हारा
न मतलब है रहेना हमें नैतिकता को वरण कर

बना स्वर्ण माटी वही जाती थी वह
बँटा पूर्व थाती वही धर्म था वह
बने थे हम दानव नैतिकता को तजकर
हुए थे विलासी वही रीति थी वह

वही परंपरा थी भूल कर्तव्य लड़े हम
जहाँ ने था देखा बर्बादी को अपने
सितारों ने बनाया था जो स्वर्ग इस जहाँ को
हुए नर्क से बद जो देखे न सपने ...................

चार कविताएं , तीन लेख

अब मुझको पवन बन जन होगा  

अब मुझको पवन बन जाना होगा
कितना दूर कितना पास
कौन कहाँ कब रखता है आश
पास पहुँच सबके अब मुझको
समाचार कुछ लाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

कितनी खुशियाँ किसके घर हैं
कौन सचेत कौन बेखबर है
किसको कौन आता है रास
सोंच समझ मुझको ही अब
एक आंकडा नया बिठाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

कहाँ रही बह नीर-नयन
सहत रहत जन भूख-शयन
रहा तड़प कौन प्यास से
कुछ पानी दाना पहुँचाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

सो रहे जो प्रेस वाले हैं
राजगद्दी पर बैठे मतवाले हैं
उनके मन को पकड़ एक दिन
इन सुनें नगर को दिखलाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा ................. ।

मंगलवार, 18 मार्च 2008

ऐसी आए मेरी रानी

हे इश्वर भगवन प्रभु
हे मावा महरानी
करो ऐसा जुवाड
जेसे आवे हमारो रानी

गोरी हो या वो काली
पर लगे सदा भौकाली
लहंगा पहने गोरखपुरिया
नथुनी राजस्थानी

पैर जुडा हो दोनों तन से
एक हो छोटा एक बड़ा
निकुरा हथिनी सूंड के जैसी
हो एक आँख की कानी

नाक निकुरे से छूती रहे
घूमें जूठ लगाए मुख में
चले जिधर भी करें घृणा सब
पर समझे वो ख़ुद को रानी

जब भी निकले घर से वो
कीचड तन में लगा रखे
तन भी फूली हो मुर्रा भैंसों सी
बैठत होवे परसानी

गर ऐसा प्रभु हो गया तो
होगी सटी सावित्री ही वो
बची रहेगी बुरी नजरों से सबके
मैं बना रखूंगा उसे अपनें महलों की रानीं

हे इश्वर भगवन प्रभु ..................... ।

ऐसी आएगी मेरी घरवाली

स्वच्छ सुसज्जित सुनायनों वाली
आएगी मेरी घरवाली
मुख पर तनिक भी बात ना होगी
चमकेगी होठों पर लाली
थोडी सी वो गोरी होगी
हल्की ही सी सावली
पतली सी सारी पहनकर
कर देगी सबको बावली
उसकी भोली सी सूरत पर
हो जाऊंगा मैं कुर्बान
चाहे चर लात रोज ही मारे
जोहूँगा मैं उसकी मुस्कान
नाकों में नथुनी होगी
और कानों में लतकेगी बाली
सासु जी को हर समय तोदेगी
और श्वसुर को देगी गाली
कहते कविराज वो मायावी होगी
होगी चर घूँसा खानें वाली
अवगुण तो उसके पैरों तल होगी
ऐसी आयेगी मेरी घरवाली
ऐसी आएगी मेरी घरवाली .......... ।

सोमवार, 17 मार्च 2008

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है
गजब की चिंता होती है मन में
हलचल सी उठ पड़ती है
एक मार्ग से हटते हटते
आँखें भी रो पड़ती हैं
पर धैर्य खो देता है तन
मन शांत नहीं रह पता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
लाखों करोरों भावनाएं
लेकर आसमा में चक्कर लगाते हैं
एक बार अंतरिक्ष पहुंचकर
धरती वापस आते हैं
मुख्य बिन्दु पर चलते चलते
बुद्धि ही खो जाता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है

रहता एक कहीं अगर तो
चार उसे मैं बनता हूँ
अपनी झूठी खबरें देकर
सबको खुश कर जाता हूँ
पर मजबूरी हो चली यहाँ पर
असत नहीं छिप पता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है

किसी हादसे में कहीं से
आलसी अगर आ जाता है
ch च करते करते वहाँ
ख़ुद घायल हो जाता है
अन्ताहल में आकर सबको उस पर रोना पड़ता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
कुछ अच्छे कुछ बुरे जुटते
रहते उस शोकापन में अपनी बीती बातों को
कह जाते एक घतानापन में
वो विचरते देते सुख हम पर
दुःख ही उनको मिलता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
कुछ सहकारी कुछ ग्रामीनी
आ जाते दो जन के गम में
कुछ घूसखोरी कुछ खिश्निपोरी
कर जाते उनके अंधेपन में
चिंता मुझको इस पर होता है
जल्द मानव घबडाटा है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
अपनें विगत गत जीवन को वो
खुश्खोरों को बताते हैं
स्थ घूसखोरी के कारन
एक को चार बनाते हैं
सब बातों को छोड़ जवान दिल
इनकी बातों में उलझता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है ................ ।




सोमवार, 3 मार्च 2008

और दे जायेंगे काम यही १०-५ रुपये

अब नहीं सहा जाता और ना ही तोदेखा जाता है आर्थिक तंगी की दशा । जैसे जैसे दिन बढ़ रहे हैं , उम्र बढ़ रही है ऐसा आभाष होता है की ये आर्थिक समस्याएं पूरी तरंह से हमें अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं। जबकि ऐसा नहीं है कि इससे मैं ही दुखित हूँ या ये कि मैं ही झेल रहा हूँ । भोग रहा हूँ। इस दशा को इसके पहले भी हमारे ही दादा, बाबा, यहाँ तक कि बड़े भाई तक इस तंगी से मुखातिब हो चुके हैं । और जैसा कि अब भी झेल रहे हैं , हालांकि वैसी मुसीबत मेरे ऊपर नहीं आयी पर आज ये भी नहीं कह सकता कि मैं एक एक पैसे के लिए नहीं सहका । आज मैं विद्यार्थी जीवन का निर्वहन कर रहा हूँ ,कहा जाता है कि विद्यार्थी जीवन सबसे सुखमय जीवन होता है। ना कूँ चिंता और ना ही तो कोई फिक्र । खासकर आजके इस फैश्नबुल जमानें में तो और भी सही है । पर ऐसी स्थिति में पैसे के मत्वा को तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता । जब तक जेब में १०-५ रुपये नहीं होते न तो किताब नजर आती है और ना ही तो कुछ पढ़नें का दिल करता है। वैसे भी १०-५ रुपये आज के इस महंगाई के दौर में कोई मायनें नहीं रखता पर कहीं भी बैठ जाओ एक दोस्त के साथ तो २०-२५ के करीब वैसे ही पड़ जाते हैं । पर क्योंकि कोई साधन नहीं है, कोई विशेष आश्रय नहीं है और ना ही तो पिता की कमाई । माँ है जिसका ख़ुद का खर्चा अपाध है ,बड़े भाई तो हैं पर क्योंकि १८ की उम्र पार कर चुका हूँ अब वह बचपना भी नहीं रही कि जिद करके या रो के ले लूँ, मांग लूँ। बडा हो गया हूँ और स्वाभिमान का अभिमान । १०-५ ही मेरे लिए बहुत है और कोशिश करता हूँ कि ये बचे रहें खर्च न हों । पर फ़िर भी कमबख्त यूँ ही आँख के सामनें से ख़ुद के ही हाँथ से स्वयं के जेब से निकलकर चले जाते हैं दूसरों के पास ।
पहले (बडे भाई के पास रहते हुए)समोसे अच्छे लगते थे ,न्यूदाल्स और मंचूरियन प्यारे लगते थे । वर्धमान मंदी में जाकर गोल गप्पे खाना तो एक परिवेश ही बन गया था मेरा। पर वही जब अब कहीं दिखते हैं तो तुरंत मन मचल जाता है। पहुँचनें की एक कोशिश तो करता हूँ उनके पास पर असफल क्योंकि वही १०-५ अगर बच जाते हैं तो दूसरे दिन मिर्चा आ जाएगा , या फ़िर एक्शातेंशन लाइब्रेरी में २ रुपये साइकिल स्टैंड के लगते हैं और दी जायेंगे कम यही १०-५ रुपये । ऐसी स्थितियां प्रायः लोगों के पास कम ही आती होंगी पर हमारी तो दिनचर्या ही इसी से सुरु होती है। अर्थात सुबह से ही १०-५ रुपये को बचानें का उपक्रम करता रहता हूँ और शाम होते होते २०-२५ रुपये खर्च होकर अंततः एक दिशाहीन मोड़ पर आकार सोंचानें के लिए मजबूर हो जन पड़ता है।
आज नंददुलारे वाजपेयी द्वारा लिखित पुस्तक कवि निराला पढ़ रहा था और क्योंकि निराला की दिनचर्या भी लगभग इसी लहजे में हुआ करती थी प्रारम्भ और यह जानने पर कि निराला का दानी स्वभाव बहुत हद तक उनकी अर्थ समस्या थी " रिक्शे वाले या पं वालों को पैसा देकर वापस न लेना उनका स्वभाव नहीं अपितु कट जाता था उसमें जिसे प्रायः वे उधार(कर्ज) लिए रहते थे । खीझ उत्पन्न हुयी सम्पूर्ण मानवीयता पर पर यह जानकर कि आर्थिक दुर्दशा अन्य दुर्दाषाओं से प्रायः थिक हुआ कराती है अपनें आप को समझाते हुए यह एक लेख लिखना ही उचित समझा। ......................

हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगें ?

कादम्बनी के "आयाम" स्तम्भ में प्रकाशित विश्वनाथ त्रिपाठी की प्रायः गद्य विधा के संस्मरण विधा में रची रचना या आत्मीय लेख ,"उन छात्रों की याद आती है" पढ़कर सहज ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुरु गुरु ही होते हैं उनका स्थान तो कोई और ले ही नहीं सकता । एक स्थान पर वे जब कहते हैं,"गुरु माँ-बाप नहीं होता"तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बडा रहस्य आज की पीढ़ी से, खासकर हम नवयुवकों से छुपाकर रखा जा रहा है । पर जब उसी अंदाज में आगे वे लिखते हैं,"वह कुछ ऐसा भी होता है, जो माँ-बाप नहीं होते" तो मुझे अपना छात्र जीवन याद आ जाता है । जो अब भी मैं अपनें उसी गुरु के संरक्षण में छात्रीय जीवन को न सिर्फ़ जी रहा हूँ अपितु उसका आनंद उठा रहा हूँ। श्रीमान त्रिपाठी जी जिस तरंह आपका श्री प्रकाश अपने घर के समस्याओं से आहत था ठीक वही दशा आज हमारी है। फर्क तो सिर्फ़ इतना है कि उसके पास आप गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी थे और मेरे पास गुरु सुनील अग्रवाल जी जो कमला लोह्तिया सनातन धर्म कालेज( लुधियाना) के राजनीती शास्त्र के प्रमुख अध्यापक हैं। वह समस्याएं आपको सुनाता था मैं सुनील सर को ।
पर निहायत ही आज के इस समय में बहुत से विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो न तो अप जैसे गुरु का दर्शन ही कर पते हैं और ना ही तो अपने आपको ऐसे छात्र के रूप में प्रस्तुत ही कर पाते हैं जिससे कि गुरु और शिष्य के उस सम्बंध को एक उए "आयाम"तक पहुँचाया जा सके । बात तो यह भी सही है कि "सभी छात्र इतनें प्रिय और आत्मीय नहीं होते" क्योंकि आज वे शिक्षा को शिक्षा की तरंह नहीं अपितु व्यावाशय के रूप में ले रहे हैं । और ऐसी स्थिति में तो जो गुरु शिष्य परम्परा का केन्द्र होता है संवाद पूर्ण रूप से टूट गया है।जहाँ एक अध्यापक को अपने सिर्फ़ ४५ मिनट के लेक्चर से मतलब होता है वहीं विद्यार्थी का उस प्रणाली के डेली अतैन्देंस से यथास्थिति तो आज ये कहती है की अध्यापक जन अपना अध्यापकत्वा ही खोते जा रहे हैं । अब तो आप जैसे लोग जो यह कहते हैं ," विश्वविद्यालय में क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर , मैं अक्सर छात्रों के साथ बैठकर गप मरता था ।" न होकर ऐसी श्रेणी के अध्यापक प्रायः हो रहे हैं जो उतने समय गप मरनें के भी शुल्क (फीश) ले लिया करते हैं अन्यथा इस रूप में उनके पास नहीं बैठते की उनके लिए उनके परिवार से ही फुरसत नहीं है।
पर हकीकत यही तो नहीं है । संवाद का जरिया यहीं से टू खत्म नहीं हो जाता। एक अनजानें अंचल पर रह रहा छात्र जिसका प्रायः ना तो उसका वहाँ घेर होता है और ना ही तो उसका अपना जन्मभूमि । होते हैं तो आप ही "जो कुछ ऐसा भी होता है जो माँ -बाप नहीं होते ।" ऐसी स्थिति में वह विद्यार्थी स्वार्थी तो नहीं कह सकता पर अभागा जरूर हो सकता है जो अपनें गुरु नहीं गुरु के रूप में पाया हुआ माता-पिता को अपना हाल नहीं देता और ना ही तो उसका लेता है ।वे शायद यही भूल जाते हैं की "माँ-बाप का दुःख असहनीय होता है, वे रोते धोते भी हैं"
वास्तव में जब आप कहते हैं,"मेरे अनेक विद्यार्थी ऐसे भी थे, जो हमें बीच में ही छोड़कर चले गए । निहायत आत्मीय, प्रतिभाशाली छात्र । उनकी याद से हूक सी उठती है । हमारी स्मृत चेतना विवश चीख करती है और चुप हो जाया कराती है ।" मैं प्रतिभाशाली होनें की तो आशा नहीं कर सकता और ना ही तो यह कह ही सकता हूँ की आपके श्री प्रकाश और अन्य विद्यार्थियों की तरंह गुरु की पवित्र आत्मा में जगंह ही बना पाया हूँ पर एक बात जो मुझे सालती है वह यह की आप तो गुरु हैं, अर्थात माता-पिता, जिन्हें गमों और दुखों को सहेना लगभग एक आदत सी बन गयी होती है , किसी तरंह उनके बिछुदन को सह भी लेते हैं , पर मैं या मेरे जैसे अन्य छात्र जब आप और सुनील सर जैसे माता के आँचल और पिता के प्यार को सिर से उठाते देखते होंगे या आभाष करते होंगे तो उनका क्या होता होगा ? आपकी इस रचना को पढ़कर वास्तव में ह्रदय द्रवित हो गया है। आँखें नम हो आयी हैं । इसलिए तो हई है की आप के दिल पर व आप पर क्या गुजरती होगी जब हर साल ऐसे शिष्य को विदा करते होंगे , इसलिए भी की हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगे ? क्या उस समय भी आप जैसे गुरु या सुनील सर जैसे गुरु हमें मिल पायेंगें ? जो "छात्रों के साथ क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर में अक्सर बैठकर गप मारा करें."

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

जहाँ पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है...

आज कई दिनों से जब मैं स्व-वेदना और पारिवारिक दुर्दांत के ग्रसन से मुक्त हो अपने अध्ययन कार्य में पुनः व्यस्त हो चुका हूँ, तबसे मेरे कुछ दोस्त अक्सर ये कहते हुए, और जैसा की मैं भी मनता हूँ कि मैं कालेज बराबर नहीं आ रहा हूँ। यदि आ भी रहा हूँ तो लगभग क्लासों में बंक मार जाता हूँ । मेरे चाहने वालों में तो कई लोग यह भी कहते हुए नहीं हिचकते कि कहीं मैं "इलाहबाद "में चल रहे "नहावन" में तीर्थ यात्रा करनें तो नहीं गया था। सही है उन सब का सोंचना, और जाहिर है ऐसे प्रश्नों का उठना । दरअसल अबतो मैं भी मनता हूँ कि मैं तीर्ता यात्रा में नहीं पर तीर्थ-स्थल पर जरूर रहता हूँ । जहाँ पर कभी कभी मुझे इलाहबाद के ;"शास्त्री पुल"पर " निराला" की "वह तोड़ती पत्थर"वाली औरत भी मिल जाया करती है और कभी कभी मुंशी प्रेमचंद के "गोदान" का होरी गऊ दान के स्वप्न लिए उसी तट पर दिखाई देता है । जहाँ दिनकर के "रश्मिरथी" का कर्ण दलितों के उत्कर्ष के लिए हांथों में अर्ध लेकर सूर्य से प्रार्थना करते हुए दिखाई देता है वहीं अज्ञेय के "हरी घांस पर क्षण भर" के लिए बैठे एक प्रेमी जोडा यह सोंच कर उठता हुआ प्रतीत होता है कि कहीं ये ईर्ष्यालु समाज उनको कुछ और न समझ बैठे ।
इस तीर्थ- स्थल की जीतनी भी प्रसंसा की जाए उतनी ही कम है । क्योंकि यहाँ पर हमारी संस्कृति है , सभ्यता है , परम्परा का निर्वहन कराने के लिए नए और पुराने व्यक्तियों के बीच संवाद का जरिया है और है जीवन को जीने की कला । एक ऐसी कला जिसमें मार्क्सवाद के दर्शन यदि आर्थिक समस्याओं के हल खोजने की प्रेरणा देता है तो गाँधी जी के विचार उसको पाने का तरीका बतलाता है । जहाँ कबीर दास ,"का बाभन का जुलाहा" कहकर समाज में भाईचारा को बढ़ने और जाती-पांति को ख़त्म कर देना चाहते हैं वहीं घनानंद जी यह बतानें के लिए उद्यत हो रहे हों कि इस मार्ग पर चलने का एक ही तरीका है और वह है प्रेम । एक ऐसा प्रेम "जहाँ सांचे sचले तजि अपुनपौ झाझाकी कपटी जे निसाक नहीं।"
यहाँ मोहन राकेश के "अशाध का एक दिन"से संवाद करती मुक्तिबोध की "अंधेरे में "खड़ी कविताएँ है जो पूर्ण होते हुए भी मोहन राकेश के दुनिया में "आधे अधूरे " हैं। यहाँ पर आशा है, निराशा है , वेदना है संवेदना है और है फणीश्वरनाथ रेणू की आंचलिकता । "मैला आँचल" "परती-परिकथा"यदि जीवन की वास्तविकता पर आने के लिए मजबूर कर देती हैं तो "रस्प्रिया", "तीसरी कसम", "आदिम रात्रि की महक",तथा "संवदिया" मध्यम से श्रद्धालु परदों के पीछे छुपे हुए सत्य को पहचानकर मानवीय संवेदना को वेदना के स्वर से भर कर समाज में नव क्रांति लाने को उद्यत हो उठता है । जहाँ पर हर कोई ऐसे पवित्र स्थल पर मत्था टेक कर जतिवादिता और वर्ग-भेदभाव के कारण खड़ी दीवार को तोड़ देना चाहता है, दहा देना चाहताहै और चाहता है निर्माण करना ऐसे परिवेश और सभ्यता का जहाँ पर मानव का मानव के साथ व्यापार का नहीं मानवीयता का सम्बंध हो ,और हर कोई , हर किसी से , अशोक वाजपेयी जी के "कविता का गल्प" का माने तो संवाद करता हुआ दिखाई दे , चिंतन करता हुआ दिखाई दे , अपने जीवन के प्रति , अपनी वास्तविकता के प्रति और सबसे आवश्यक तथा महत्वपूर्ण समस्या साहित्य और समाज के प्रति । की जब साहित्य व्यक्ति की समस्याओं को केन्द्र में रखकर उनके लिए निराकरण खोजने का प्रयास कर रहा है तो आखिर क्या कारण है कि साधारण-वर्ग से लेकर उच्चा-वर्ग , और अध्यापक वर्ग से लेकर विद्यार्थी -वर्ग तक उससे अपनी दूरियां बढाये जा रहा है । कि जब कविता चाहे "भिक्षु" हो या "दींन" , चाहे "वह तोड़ती पत्थर" हो अथवा अर्थहीन जीवन का रोना रोता वृद्ध "चल रहा लाकुटिया टेक" हो इन सबका इन सबके अपने अपने अर्थों में साथ दे रही हो तो आखिर वे सब क्यों उसके विकास और संवर्धन के विषय में उदासीन हैं ।
वास्तव में दोस्तों मुझे बहुत ही आनंद आ रहा है इस तीर्थ स्थल पर आकर। जो तीर्थ यात्रा से ज्यादा पुण्य कमाने का अवसर देती है । श्रद्धा देती है और देती है हौसला जबकि क्लास में क्या है वही ४५ मिनट डेस्क के सामने कुर्सी पर बैठा एक इन्सानिं मूर्ती । या समय पर पहुँच कर लगातार ४५ मिनट लिखवाने वाला ट्यूटर , अथवा फ़िर ये कहें कि गुरु के मर्यादाओं के साथ खेलते हुए "बुद्धिमान बुद्धू" विद्यार्थिओं की संगती । बहुत हद तक अब तो आप सब ये sweekare ही होंगे कि हाँ "ये सब ये सब कुछ" । तो जब ये सब ये सब कुछ है तो आप सब भी आ जाओ इस तीर्थ स्थल पर "जिस तीर्थ स्थल का नाम है "साहित्य" "साहित्य का संसार" और अगर गुरु प्रो० सुनील अग्रवाल सर का मानें तो "आनंद का स्वर्ग" , जहाँ पर पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है । ..............................