Thursday 27 May 2021

मृत बस्तियों की ज़िन्दा आवाज़ें

  



सुरेश सेठ की कविताएँ मृत बस्ती की ज़िन्दा आवाज़ हैं| श्मशान में तब्दील हो चुका परिवेश जागरूक और सक्रिय व्यक्तित्व की सहभागिता के लिए आशान्वित है| निष्कपट, निरछल जन के पक्ष में संवाद का आह्वान करती, बगैर किसी स्वार्थ के रची गयीं जरूरी और ज़िम्मेदार कविताएँ, इस कमी को पूरा करते दिखाई देती हैं| ‘नए दिन की तरह’ “उदासी जहां जीने का अंदाज हो/ और सिसकना एक आदाब/ जहां रोना एक रिवाज हो/ और चीखना एक पछाड़” वहां ज़िम्मेदारी के एहसास लिए बढ़ना, सोए हुए लोगों को जगाना और जागे हुए लोगों को उद्यम के लिए तैयार करना हर समय कठिन रहा है| सुरेश सेठ के भोर के स्वप्न में धन कुबेर बनने के स्वप्न नहीं हैं और न ही तो किसी प्रेमिका के आगोश में खोए रहने का कोई ख्वाब| उनके स्वप्न में “भयावह बाढ़ में डूबते लोगों की चीखें हैं/ जल के पागल प्रवाह में बहते/ मकान, दुकान, ढोर डंगर,/ और मरी फसलें हैं” इसलिए सबसे पहले वह इन्हें संतुलित देखने का स्वप्न लेकर चलना चाहते हैं| यही स्वप्न कविता का यथार्थ है और यही जिम्मेदारी भी|

यह सच भी है कि संकट के समय जिम्मेदारी का एहसास होता है| आप कह सकते हैं कि यह समय संकट का नहीं है लेकिन उनसे पूछिए जो घिरे हुए हैं| इतना तो हम सबको पता है कि आक्रान्ताओं की लगातार सक्रियता से बस्तियाँ बीरान हो जाती हैं| ज़िन्दा लोग मृतक-सा आचरण करने लगते हैं, ठीक ब्रेन-वास किये गये मानव-क्लोन की तरह| जिज्ञासाएँ तो होती हैं मन में लेकिन प्रश्न नहीं होते| समस्याओं से कहीं अधिक समाधान दिखाई देते हैं| अपने अपने सुरक्षित कोने, जहाँ संघर्ष से अधिक बचाव का मन्त्र-जाप किया जाता है| श्रम से अधिक भाग्य पर आश्रित रहा जाता है| श्रम पर विश्वास रखने वाले सुरेश मन्त्र-जाप की मण्डली में रहने से इनकार करते हैं इसलिए प्रश्नों का एक बड़ा जखीरा अपनी रचनाओं में लेकर चलते हैं|


इन प्रश्नों से बार-बार जूझते हैं| यह देखते हैं कि जितना अधिक जूझ रहे हैं उतना ही अधिक प्रश्नों को अपदस्थ करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है| वह पूछते हैं “कब तक स्थगित होती रहेगी जूझने की यह संवेदना? जिसका उत्तर नहीं मिलता उन्हें| नहीं मिलता उन्हें इसलिए कि “यह ज़माना आपका नहीं उनका है/ जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी शासन हथियाने का/ अधिकार मिल गया है|”  किन्हें मिल गया है? जब यह प्रश्न आता है तो सीधे तौर पर कवि कहता है “यह जमाना/ मछली का पेट चीर/ हैरोइन भरकर लाने वाले तस्करों/ जूतों के खाली तलों में सरकारी खजाना समेटने/ वाले अधिकारियों/ कुर्सी को अपनी बपौती समझने वाले जन नायकों/ के वर्चस्व के शुबहे का है/ बीस वरस बाद इस शुबहे को जेल मिल जाये/ तो उसे राजनैतिक अदावत कह/ शहीदी जामा ओढ़ने वाले मार्ग दर्शियों का है|” कवि को तस्करों से, वर्चस्व से, तथाकथित जननायकों से, मार्ग दर्शियों से नफ़रत है| नफ़रत है सच के नाम पर झूठ का व्यापार करने वालों से|

नफ़रत है ऐसे कवियों और कलाकारों से जो कुशल नेतृत्व के संकट से जूझते परिवेश में मुद्दों की बात न कर बूझ-बुझिया खेलने में अस्त-व्यस्त हो रहे हैं| अपनों को गिराने-उठाने से अधिक यदि परिवेश की संगति-विसंगति पर ध्यान देते तो न तो नेतृत्व का संकट खलता और न ही तो भविष्य के बंजर होने की सम्भावनाएँ तीव्रतर होतीं| कई बार कवियों, विधाओं के प्रासंगिक-अप्रासंगिक होने की बात होती है| कई बार समकालीन और यथार्थ के मुद्दों पर बहस होती है| लोग नहीं मानते| कवि मानता है| उसका स्पष्ट कहना है कि “सुनो/ जब बादल घिरने पर/ तुम्हें अपनी प्रेमिका की केश राशि नहीं/ कीचड़ सनी सड़कें दिखाई दें/ शहर छप्पड़ों में तबदील होते नजर आयें/ समझो, तुम प्रासंगिक हो गए|”

प्रासंगिक और अप्रासंगिक का यह मुद्दा इसलिए जरूरी है यहाँ कि तन्त्र से पूरी तरह बेदखल होते जिस लोक की योग्यता को सिनाख्त करने और पक्ष में खड़े होकर उसे साहसिकता की प्रक्रिया में लाने की जरूरत दिखाई दे रही है, इधर के अधिकांश रचनाकार उससे बचते प्रतीत हो रहे हैं| इससे भी बड़ी विसंगति की बात ये है कि जन के पक्ष में आवाज बुलंद करने की अपेक्षा ये रचनाकार नकाब से ढंके चेहरों को न पहचानकर उनके पक्ष में माहौल बना रहे हैं| माहौल की प्रवृत्ति ने मंच-माला की व्यवस्था तो कर लिया लेकिन योग्यता और समझ आज तक विकसित न हो सकी| परिणाम  आज पंजाब की हिंदी कविता आक्रोश से हटकर चुहलबाजी में शामिल होती जा रही है|

सुरेश सेठ कविता में जन का पक्ष लेकर आते हैं तो पूरी गंभीरता से उस तरफ सक्रिय रहते हैं| कवि के अपने समय की त्रासद स्थिति यह है कि  “भरपेट भोजन कर्ज की झुर्रियों से भरा चेहरा बना,/ अधनंगा शरीर ढकने का सपना फुटपाथ पर काले आसमान की चादर ओढ़कर सो गया/ अपने लिए मकान नहीं, एक घर बनाने का सपना/ कल उभरा आज जुमला हो गया|” स्वप्न और जुमले के बीच का अंतर प्राप्त करने के लिए इस कवि-हृदय की तड़प देखिये| कृति-प्रकृति के सम्मोहन से बाहर निकलकर जुमले की नीति पर प्रश्न-चिह्न लगाना आसान कहाँ है आखिर? फिर भी वह जोखिम उठाता है और अच्छे दिन आएँगे’ जैसे वायवी स्वप्न के समानांतर “वाजिब रोटी और उचित नौकरी/ की उम्मीद के बिना” ऐसे किसी झांसे में न आने का संकल्प देते हैं|


यह कितने आश्चर्य की बात है कि कवि ‘जनता के समय’ की वापसी का इन्तजार कर रहा है और उसके अपने समकालीन ‘मौसम-गान’, ऋतु-गान’ और प्रणय-निवेदन में खप रहे हैं| कवि के सामने “मैले गंदले जल के पागल प्रवाह/ में डूबते लोग नंग धड़ंग हो गए/ उनके कपड़े लत्ते, ढोर डंगर सब बह गए/ बादल धारासार बरसते रहे/ अब लोग नहीं गा पाते/ बरखा रानी जरा जम के बरसो” जबकि यहाँ तो प्रेम-स्मृति में डूबकर लोग जुल्फों के साए और स्पर्ष के सुख के लिए परेशान हुए जा रहे हैं| ऐसे वासना-जनित लोगों के सामने ही “भूखों का जहां/ पकौड़े तल बेचने के लिए/ मुद्रा कर्ज योजना की जेब टटोलता है” और ये आलीशान होटलों में बैठकर खाने की रेसिपी सोशल मीडिया पर चस्पा करते हैं| कवि देखता है कि “गाय तस्करी के शुबहे में मारे गए/ रोटी तलाशते लावारिस लोग/ बाहर युग परिवर्तन का आह्वान/ कुछ निठल्ले लोगों का तकिया कलाम बन गया|” सवाल ये है कि ऐसे लोग हैं कौन?

ये वही कवि लोग हैं कि एक तरफ आम आदमी कोरोना के प्रकोप से मर रहा है तो दूसरी तरफ ऐसे लोग अंतर्राष्ट्रीय काव्य मैराथन में दौड़ लगा रहे हैं| एक तरफ युवा बेरोजगारी के जंजाल में उलझकर आत्महत्या करने के लिए विवश है और दूसरी तरफ ऐसे लोग “तू-तू मैं-मैं’ की रश्म-अदायगी कर रहे हैं| यह समय ऐसा है जहाँ “एक अच्छा भला तरोताजा सपना/ एक खांसते हुए बूढ़े में तबदील हो जाता है” वहीं एक अच्छा ख़ासा जनकवि देह-दर्शन का अभिलाषी होता जाता है| यह भी एक समस्या है कि विस्थापन और भूख का मंजर उनकी आँखों के सामने नहीं दिखाई दे रहा है| इसी प्रवृत्ति को यह लोग ‘जीना’ कह रहे हैं-अपने हिस्से का अपना जीवन जीना| कवि इस प्रवृत्ति पर सोचता है कि “क्यों न हम भी सपना सपना देखना छोड़/ जीना सीखें/ पानी बिना हाहाकार प्यास/ लगातार बिजली कट में जीना” पर कवि ऐसा करता नहीं है| वह ज़िन्दा है तो परिवेश के लोगों को भी जागरूक रखेगा| नागरिक अधिकारों को पूरे दम-खम से प्रस्तुत करेगा| यह सुरेश सेठ को पता है कि किस तरह नागरिक अपनी पहचान के संकट से गुजर रहा है-

“वह आदमी अपने जिंदा होने का प्रमाण मांगता है

जाली प्रमाण पत्रों के बाजार की रेल-पेल में

सही प्रमाण पत्र खो गये

रैलियों का कोलाहल है

विकास के जयघोष की शोभायात्रा है

इस शोभा यात्रा से

वह आदमी

अपने जिंदा होने का सबूत मांग रहा था,

मांग रहा है, मांगता रहेगा|”

ऐसे आदमी के पक्ष में कवि कल भी खड़े होते थे-निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन इसके प्रबल उदहारण हैं| आज भी खड़े हो रहे हैं-अरुण कमल, मदन कश्यप, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, श्रीप्रकाश शुक्ल, सुभाष राय सरीखे कवियों को पढ़ा जा सकता है और कल भी खड़े होंगे-प्रेम नंदन, अमरजीत राम, जन्सिता, गोलेंद्र पटेल जैसे नविदित कवि जिस तरीके से सक्रिय हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है| सुरेश सेठ जिन्दा होने का सबूत लिए ऐसे आदमी के पक्ष में पूरी गंभीरता से सक्रिय हैं|

इसीलिए एक ज़िम्मेदार नागरिक मन में उठने वाले सभी प्रश्न इनके यहाँ वर्तमान हैं| लावारिस होती बस्तियों की कथा और व्यापार-लाभ के आगे सिर झुकाए खड़ी भूख की व्यथा, हमारे आपके सामने तांडव कर रही है| हम पक्ष-विपक्ष की नीति-कुनीति में दर्शक की भूमिका में हैं| तालियाँ बज रही हैं और कुश्तियाँ लड़ी जा रही हैं| हम दोनों के पक्ष में हैं दोनों के विरोध में हैं| हमारा अपना कोई पक्ष नहीं है इसलिए हाशिए पर हैं| सभी के होते हुए भी लावारिसों जैसा व्यवहार किया जा रहा है| उपेक्षा का दंश कौन नहीं भोग रहा है आज? यह विचार करने का नहीं खुली आँखों से देखने का विषय है| सुरेश सेठ देख रहे हैं| “देश धनी देशों की कतार में आगे आ गया/ अब अपनी भूख, अपनी प्यास स्थगित कर” विशेष प्रकार के पागलपन में परिवेश डूबता जा रहा है| सुरेश एकला चलो की तर्ज पर कल्पना से बहुत दूर यथार्थ की ज़मीन पर खड़े होकर व्यथाओं के नीचे दबे जन को उबारने की कोशिश कर रहे हैं|

          वे देख रहे हैं कि “फुटपाथ पर रेंगते/ मरते-जीते लोग/ राजपथ पर प्रवेश निषेध का दंश झेल रहे हैं/ जनपथ पर उखड़ी सस्ते अनाज की दुकान/ धनी देशों की बदहजमी बन गई/ नौकरी दफ्तर की बीमार खिड़कियों के बाहर/ बेकार चेहरों का हुजूम छटपटाता रहा” और हम पक्ष-विपक्ष की रणनीति में चूहों की मानिंद अपने आशियाने को सुरक्षित रखने में व्यस्त रहे हैं| जहाँ “भरपेट भोजन कर्ज की झुर्रियों से भरा चेहरा बना/ अधनंगा शरीर ढकने का सपना फुटपाथ पर काले आसमान की चादर/ ओढ़कर सो गया/ अपने लिए मकान नहीं, एक घर बनाने का सपना/ कल उभरा आज जुमला हो गया” वहां नए राजा को चुनने, मूर्तिवत पूजने और पुराने को सम्मान देने की नीति पर हम संकुचित होते रहे| व्यक्तित्व-संकुचन जितना अधिक सघन होता गया आम आदमी विकल्पहीन होता गया| “भूख से कुपोषित बालक का चीत्कार/ व्यावसायिक घरानों के नक्कारखाने में/ तूती की आवाज बनता है तो बने” हमें इससे क्या लेना-देना है? लेना-देना है तो महज व्यक्तिगत स्वार्थ से| आरामतलब जिन्दगी को कोई जोखिम न उठाना पड़े इस प्रक्रिया से|

          सुरेश सेठ यदि उम्र के इस पड़ाव पर अभिव्यक्ति का खतरा उठा रहे हैं तो सीधा सा मतलब है कि वह ज़िन्दा हैं और सोये हुए लोगों को ज़िन्दगी का पाठ सिखा रहे हैं| ऐसा होने में वे सुनी सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करते अपितु खुली आँखों से परिवेश की संगति-विसंगति को देखते हैं| सभी समस्याओं की जड़ अंध-सत्ता है जिसके मद में जन-जीवन असुरक्षित होता जा रहा है| यह सुरेश सेठ मानते हैं| सेठ के यहाँ स्त्रियों का शोषण यदि हो रहा है तो उसकी भी वजह सत्ता है जिसका संरक्षण अपराधियों को प्राप्त है|


पुरुष वर्चस्व के इस देश में स्त्रियों की इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती| राजनीतिक सत्ता से लेकर पारंपरिक सत्ता तक का जो विधान है उसमें स्त्रियों को बंधक बनाकर रखा गया है| समझौतों की अनीच्छित चाहर्दीवारों को जिसने स्वीकार किया देवी कहलाई, जिसने नहीं किया उसे कुलनासिन की संज्ञा दी गयी| पुरुष-हृदय के सच को दिखाते हुए सुरेश सेठ का यह कहना एकदम जायज है कि-“तेरे घर में उसके लिए/ सतरंगे सपनों का प्राचीर नहीं/ समझौतों की ढलान है/ वह रपट गई तो आदर्श पत्नी कहलाई/ रपटते हुए उसांस भरने की जुर्रत की/ तो डार से बिछुड़ी कहलाई|” समझौतों के भी दायरे और सीमाएं होती हैं लेकिन स्त्रियों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है| “देखो, भूख से झुलसती आंतों के साथ/ जो लड़कियां मर रही हैं/ वे वात्त से तो नहीं मर रहीं/ नारी संरक्षण के मसीहाओं के लोभ से/ कुछ बेचारी जान से गईं/ तो ये बदहज्मी से तो नहीं मरीं” ये मरीं तो अपराधियों को मिलने वाले संरक्षण से| राजनीति के नाम पर गुंडा-नीति को लागू करती सरकारों की सक्रियता से|

यहाँ अधिकार न होकर रेप धमकी बलत्कार जैसे जघन्य अपराधिक घटनाएँ स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं| बाहर के लोग तो ऐसा कहते ही हैं घर-परिवार-रिश्तेदार भी ऐसा कहते और करते हैं| विश्वास के दायरे में अविश्वास का इतना बड़ा खेल किसी भयानक यंत्रणा से कम नहीं है स्त्रियों के लिए| परिवेश की विद्रूपता में सड़ांध से परिपूर्ण यह वही देश है जहाँ “क्षुब्ध पति अपनी बीवी का चकला चला/ उसे सामूहिक बलात्कार का नाम देता है/ दुष्कर्मियों के लिए मौत की सजा/ मांगने का कोहराम/ रात के अंधेरे में/ लड़कियों को घर से बाहर न आने की सलाह/ बांटता है” और हम हैं कि स्त्रियाँ अब पहले से कहीं अधिक सुरक्षित और स्वतंत्र हो गयी हैं, इस बात के प्रचार प्रसार में व्यस्त हो गये हैं| “सपने देखना यहां भूतकाल था/ अब अनाधिकार चेष्टा हो गया” यदि किसी ने यह चेष्टा किया भी तो हस्र वही होना है जो आए दिन हम अखबारों में पढ़ते रहते हैं| कवि इन सभी स्थितियों के लिए सीधे तौर पर राजनीति को दोषी ठहराता है| वह जानता है कि आम आदमी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह रोजी-रोटी की स्थिति से ऊपर उठकर ऐसा सोचने के लिए तत्पर हो सके| पैसा और पैरवी है राजनीतिज्ञों के पास तो यह सभी घटनाएँ उनके द्वारा प्रायोजित होती हैं| आप कवि की इस कविता का अंश देखिये और सोचिये-

यहां लड़कियों की नहीं, देशभर की आंतें सूख गईं

आर्थिक विकास के दावे

सामाजिक कायाकल्प के नारे

इन आंतों में दवा के नाम पर

जहर बनकर उतरे

यहां केवल लड़कियां नहीं मरीं

अजन्मी इच्छाएं मर गईं

 

बूढ़े दारोगा ने इनके मुर्दा भ्रूणों

की खोज में निकलने से इन्कार कर दिया

पुलिस चौकियों में बंदों की कमी बताई

दिन दहाड़े सेंध लगती है, लगती रहे

केवल लड़कियां ही क्यों

देश की आधी आबादी

मुर्दो की इस बस्ती में

अपनी खोई जवानी तलाश करती है, करती रहे

 

जवानी तो धनी प्रासादों के

ऊंचे कंगूरों पर बैठी है

किसी चील की हिम्मत, उसे वहां से उतारे

यह चील सड़क पर पड़ी लाश देखती है

 

एक भीड़ इसे कुचलकर निकल गई

शोक प्रस्ताव ठट्ठा कर हंसे

उनके अट्टहास मौजूदा कानूनों में ठिठुरन भरते हैं

नये बनते कानूनों के हवाले पूस की पुरानी रात करते हैं

बूढ़ा दारोगा लाशों के जुलूस में शामिल नहीं हो सकता

चौकसी गृह में कानून के रखवालों की कमी हो गई है

चोर, बटमार, तस्कर, हत्यारे खुद पकड़ो

फिर लोकतंत्र की जय पुकारो

 

लेकिन विकासको पैरोल पर रिहा न कर देना

रिहा हो गया तो अपनी रिहाई पर

राजनीति करेगा

भूख और बेकारी की राजनीति पुरानी हो गई

रिश्वतखोरी और घपलों के स्टिंग आपरेशन

तूतनखामन के पिरामिड बन गए

हरी घास पर क्षणभर के लिए सोया

सत्तापति उठता नहीं

सही है कि ‘स्त्तापति उठता नहीं’ आदेश देता है| इस आदेश के दायरे में ही “बूढ़ा दारोगा लाशों के जुलूस में शामिल नहीं हो सकता/ चौकसी गृह में कानून के रखवालों की कमी हो गई है” क्योंकि अपराधी उस स्त्तापति का घोषित एजेंट होता है न कि कोई ग़ैर| ग़ैर होता तो सूली पर चढ़ा दिया जाता| कवि की दृष्टि में यदि “भूख और बेकारी की राजनीति पुरानी हो गई” है तो रेप, अपहरण, बलात्कार की राजनीति की जा रही है| इसे कौन समझेगा और कब समझेगा? सही अर्थों में अधिकांश लड़कियों का बलात्कार हो नहीं रहा है अपितु करवाया जा रहा है| हरियाणा जाट आन्दोलन के समय की राजनीति को इससे यदि जोड़कर देखा जाए तो बात कहीं अधिक गहराई से समझी जा सकती है| यह जैसे सब को पता हो गया है कि भूख और गरीबी से कहीं अधिक रेप और बलात्कार की घटनाएँ लोगों को आक्रोशित करेंगी| राजनीति महज आक्रोश का खेल खेलती है और हम सब जलते हैं| परिवेश जलता है| लोक ठगा जाता है तन्त्र अट्टहास करता है| तंत्र की बारीकियों पर सुरेश की पैनी नजर है| वह एक-एक पैंतरे को चुपचाप देख और समझ रहा है| इस समझ में उम्मीदों का उभरना और खोना लगा रहता है| उम्मीदों के धुंधलके में कवि इस सत्य से परिचित होता है कि-   

“लोकतंत्र की थाप पर चुनाव धुंधुबी से

रौशनी का छद्म उत्सव बार-बार शुरू होता है

कोरड़ों मनों में न जाने कितने मांडू

उभरते हैं, ढह जाते हैं

उनके मैदानों में धारासार बारिश नहीं होती

हां, उसकी उम्मीद बार-बार उभरती है

खो जाती है|”

तन्त्र के जाल में लोक का यथार्थ हो चुका है ‘उभरना और खोना|’ यहाँ प्रतिभाएं और सम्भावनाएं उभरती तो हैं लेकिन खो भी जाती हैं जल्दी ही| क्यों? यही प्रश्न है जो किसी को भी बोलने और कहने से रोकता है| इस प्रश्न के उत्तर में यदि कोई कुछ ढूंढकर लाता है तो उसकी प्रासंगिकता कविता की ज़मीन पर शास्वत हो जाती है| सुरेश सेठ इसी प्रश्न की ज़मीन पर खड़े होकर जनता का पक्ष रख रहे हैं और लगातार रख रहे हैं| उनकी सक्रियता से क्रांति और बलिदान की इस धरती के उर्वर होने का संकेत मिल रहा है| जन के पक्ष में जीवन का उत्साह पुनः परिभाषित होते दिखाई दे रहा है| इनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि राजनीति के आगे चलने वाली कविता ही वह मशाल है, जिसकी परिकल्पना कभी मुंशी प्रेमचन्द ने की थी| जब मैं कविता में अनुभव की बात करता हूँ तो उसका अर्थ यहाँ से समझा जाना चाहिए कि नवोदित कवि जहाँ छंद के व्याकरण और लय का सूत्र खोजता फिरता है अनुभवी रचनाकार जीवन का समीकरण सुलझा रहा होता है| ऐसी स्थिति में जब सभी व्यथित और समस्याओं में उलझे हुए हैं तो सुलझाने का कार्य कवि और कविता के जिम्मे है|

 

 

Tuesday 11 May 2021

वायरस से कहीं ज्यादा विष विचारों में है (कोरोजीवी कविता और गणेश गम्भीर के नवगीत)

 

कोरोजीवी कविता दुखी मनुष्य का आर्तनाद है| वेदना से ग्रसित उस आदमी का बयान है जिसका न तो देश है, न सरकार है और न ही तो कोई व्यवस्था है| वह ‘स्वयं से’ है तो है अन्यथा नहीं है| यह कविता अंतिम पायदान पर खड़े उस मनुष्य की संवेदना है जो समाज द्वारा निर्मित तमाम व्यवस्थाओं के लिए महज एक देह है “नाम कुछ भी हो” हलकू हों, शंकर हों या मुहम्मद जमालुद्दीन हों| कवि गणेश गंभीर जैसा सिद्धस्थ नवगीतकार ही यह बता सकता है कि पूंजीपतियों के लिए “देह थे वे/ देह हैं वे” जिनसे काम लेते हुए वह अपना उत्पादन बढ़ाना जानता है| एक कवि या साहित्यकार के लिए “भूख थे वे/ भूख हैं वे” जिनका वर्णन करते हुए वह साहित्य अकादमी पा सकता है और समाज में वाहवाही लूट सकता है| मल्टीनॅशनल कंपनियों के लिए “माल थे वे/ मॉल हैं वे” जिनकी नुमाइंदगी करके वह ‘लोक’ को अपने लोभी और सोथक पंजों में दबोच सकता है| राजनीति के लिए “लाश थे वे/ लाश हैं वे” जिनके विषय में चुनाव शुरू होने के पहले और समाप्त होने के बाद वह ‘लाश’ महज आंकड़ा है| 


बाद उसके घर से बाहर किये गये लोग असम भाग रहे हैं या फिर प्रायोजित हिंसक भीड़ द्वारा बंगाल में मारे जा रहे हैं, इसका संज्ञान लेने वाला कोई नहीं| “लाशों का उत्पादन-विपणन/ खूब हो रहा आज/ एक तरफ हैं गिद्ध सैकड़ों/ एक तरफ हैं बाज़” और आम आदमी महज पक्ष-विपक्ष की नीति में महज लाश है जिसको दोनों अपनी-तरह से नोचते-खाते हैं| सच यह भी है कि जिनके जरिये तमाम व्यवस्थाएं निर्मित हुईं “वे थे दुनिया के लिए/ उनके लिए दुनिया न थी” रेल की पटरियों पर कट रहे हैं या फिर तपती सडकों पर चलते हुए ट्रकों द्वारा कुचले जा रहे हैं, किसी के लिए किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं| ऐसे लोग देश-समाज-परिवेश को सुंदर से सुन्दरतम बनाने के लिए सक्रिय रहे लेकिन अफ़सोस यह कि “दे न पायी ज़िन्दगी/ उनको कभी भी ज़िन्दगी|’ हजार स्वप्नों को लिए स्वप्न हो जाने वाले ऐसे लोगों के लिए “साजिश-भगदड़/ भय-भावुकता/ होना घर से बेघर” ही नियति है तो इस नियति में स्वयं के होने को लेकर पश्चाताप ही त्रासदी| 

मनुष्यता संकट में है| ‘भूख’ का यथार्थ लिखकर एक कवि बड़ा बन सकता है लेकिन भूख का इलाज खोजकर मानवीयता को ऊंचे स्थान पर काबिज किया जा सकता है| इस समय बड़ा बनने की जरूरत नहीं है| मानवीयता को ऊंचा उठाने के प्रयास की आवश्यकता है| भूख का बन्दोबस्त यदि हो जाए तो तो सारे क़ानून, सारे नियम आसानी से माने


जाएं| यदि भूख पर कंट्रोल नहीं है तो “भूख मिलेगा जब भी अवसर/ तोड़ेगी क़ानून/ उसकी आँखों में दिखता है/ गुस्सा-नफ़रत-खून|” “भूख कोरोना से भी ज्यादा/ बड़ा भयानक रोग” है| यदि इससे लड़ा जा सके तो कोरोना के लॉकडाउन की अनुपालना करने में किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? इसलिए भी क्योंकि “पेट की ज्वाला बुझाना/ काम उनका रोज का” तो सबको रोक लोगे लॉकडाउन में लेकिन उनका क्या होगा जो दिहाड़ी पर अपना पेट पाल रहे हैं?

कोरोजीवी कविता शब्दगत न होकर संवेदनागत है| बोलती कम दिखाती ज्यादा है| इस समय लोग सुन नहीं रहे हैं महज देख रहे हैं| सब कुछ जैसे संकेतों में घटित हो रहा है| गणेश गम्भीर मितभाषी हैं| सधे बिम्बों और प्रतीकों के कवि हैं| समकालीन विमर्श-विन्दु की सूक्ष्म परख इनको ‘गम्भीर’ बनाती है तो ईमानदार अभिव्यक्ति जिम्मेदार कवि-रूप में सक्रिय रखती है| पक्ष-विपक्ष के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति को देखते हुए गणेश गम्भीर मानते हैं कि “लॉकडाउन फँस चुका है/ दुष्प्रचारों में|” वह यह भी मानते हैं कि “वायरस से कहीं ज्यादा/ विष विचारों में है|” ‘विचार’ एक ऐसी स्थिति है जो गलत दिशा में चल जाए तो चेतनाशील बनाने की अपेक्षा मनुष्य को ‘जड़’ बना देती है| 

किसी विशेष के द्वारा जो कहा जाता है अक्सर उसका गलत अर्थ प्रचारित करने के पीछे इसी जड़ता का हाथ है| आपदा में अवसर’ और ‘आत्मनिर्भरता’ जैसे शब्द इसके ज्वलंत उदाहरण हैं| वर्तमान षड्यंत्रकारी राजनीति की भाषिक संरचना को देखिये तो “शब्द/ अर्थों से विमुख हैं/ दुःख


में डूबे सभी सुख हैं|” सही अर्थों में वायरस की दवा तो फिर भी किया जा सकता है, विचारों की नहीं| जिन विचारों को भाईचारा, समन्वय और समता के लिए कार्य करना चाहिए गणेश गंभीर की दृष्टि में वही बांटने का कार्य कर रही हैं| भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ‘भीम-मीम’ जैसी अराजक स्थितियां इन्हीं विचारों की देन हैं| इनकी यथार्थता पर विचार करते हुए क्या इससे इंकार किया जा सकता है क्या कि “सड़े दिमागों में सदियों से/ पनप रहे हैं कई वायरस/ मानवता का चूस रहे हैं/ धीरे-धीरे, बूँद-बूँद रस”, नहीं कर सकते क्योंकि आप यदि वैचारिक दुराग्रह से इन्हें मेट भी दें तो इनके यथार्थ के “इतिहासों से साक्ष्य मिलेंगे|”  
 

यथार्थ परिदृश्य को देखते हुए जब गम्भीर कहते हैं कि “साजिशें कुछ/ निडर होकर/ हँस रही हैं/ मृत्यु बोकर” तो तमाम दंगों की तस्वीर आँखों के सामने नाच पड़ती हैं और निरपराध उजड़े घरों में छाई अँधेरी जकड़ने लगती है| यह कितनी विसंगति की बात है कि जिस संकट के समय वैचारिक परिपक्वता का परिचय देना चाहिए उसी विपदा के समय “वैचारिक-मल ग्याग रहे हैं/ कतिपय अफलातून|” ये वही अफलातून हैं जो एक दिन पहले कहते हैं कि देश में सम्पूर्ण लॉकडाउन लगना चाहिए (4 अप्रैल, 2021 को राहुल गांधी लॉकडाउन के पक्ष में 5 अप्रैल, 2021


को लॉकडाउन के विरोध में) और ठीक दूसरे दिन यह कहते हुए पाए जाते हैं कि हम लॉकडाउन के पक्ष में नहीं हैं| एक बार सभी मिलकर कहते हैं कि वैक्सीनेशन नहीं करवाना है और जब वैक्शीन एक्सपायर होने के करीब दूसरे देशों में भेजी जाती है तो शोर मचाते हैं| दिल्ली जैसे केन्द्रशासित प्रदेश के मुख्यमंत्री का यह कहना कि “मैं मुख्यमंत्री रहते हुए कुछ नहीं कर पा रहा हूँ” ऐसे ही अफलातूनों का यथार्थ है| इनसे सर्वथा बचाव ही कोरोना जैसी भयंकर त्रासदी से निपटना है|

कोरोजीवी कवि ‘कबीर’ की तरह महज समस्याओं का रोना ही नहीं रोते अपितु उसके समाधान का विकल्प भी देते हैं| गणेश गंभीर मानते हैं कि इस भागते हुए समय में ठहराव संजीवनी का कार्य कर सकता है| जिन्हें जल्दबाजी है उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि “आतुरता से हो सकता है/ अब तक जो भी किया निरर्थक” इसलिए सरकारों और पुलिसों के लिए नहीं अपने लिए रुकना और ठहरना चाहिए| गणेश गम्भीर का यह कहना हमारे लिए शिक्षाप्रद है कि “आगे की


यात्रा हो सम्भव/ इसके लिए जरूरी रुकना/ सावधान रहना ही होगा/ दुर्घटना से यदि है बचना|” हमनें जब भी जल्दबाजी की है भयंकर त्रासदियों के शिकार हुए हैं| यदि समझने और देखने की स्थिति स्पष्ट है, तो आज भी शिकार हो रहे हैं, यह देखा जा सकता है| क्या यह जल्दबाजी का परिणाम नहीं है कि कोरोना को कंट्रोल करने की “कोई कोशिश काम न आई/ निष्फल सारे दाँव”? यह समझिये और समझते की कोशिश करते रहिये| दूसरों को भी प्रेरित करिए|

 

Saturday 8 May 2021

कविताएँ इन दिनों

ज़िम्मेदार नहीं होता राजा 


 राजा कभी स्वयं लड़ता नहीं है

अपना दुखड़ा रोकर
मंत्रियों, कार्यकर्ताओं को धकेल देता है
रणभूमि में
बैठकर लेता है आनंद
चुपचाप अपने शयन कक्ष से
नेतृत्व के गुमान में अँधा हुआ कार्यकर्ता
स्वयं को राजा समझ लेता है
निरीह सैनिकों के सहारे कूद पड़ता है
विपक्ष की शक्ति का अंदाजा
होता है उसे पहले ही
खुश राजा को भी करना ही होता है
वह लड़ता है
खुद मरता है और सैनिकों को भी
मारता है जख्मी करता है
राजा घड़ियाली आँसू बहाता है



प्रजा हितैषी समझती है उसको अक्सर
भूल कर क्षत-विक्षत कर्मियों को
दूसरा कोई और चुन लाता है वह
फिर खेलता है खेल अपने ही शयन कक्ष से
हार और नरसंहार का
ज़िम्मेदार नहीं होता है राजा
बदनाम होता है मंत्री ही और अपराधी भी होता है घोषित
खुद राजा बनने की कोशिश में
भिखमंगे जैसी स्थिति भी नहीं रह जाती उसकी||




यही दुकानदारी है

कस्बे में बैठा हर बनिया
गाली देता है
अपने पड़ोसी को
लुटेरा से लेकर
नरभक्षी तक कह जाता है
इसलिए नहीं
कि दुश्मनी होती है उसे किसी से
इसलिए कि
ग्राहक उसी के पास रह जाए
ग्राहक रिश्ता निभाता है
पूरी संवेदना के साथ जुड़ जाता है
व्यापारी बनिया से
सुख में वाह करता है
दुःख में आह भर संवेदना भी देता है
ग्राहक से हुए टुन्न-पुन्न में
सभी बनिया एक हो टूट पड़ते हैं
कर लेते हैं गारी-मारी तक
अवाक और ठगा हुआ ग्राहक सोचता रह जाता है
माँ-बहन तक करने वाले लोग
कैसे ईमान बेच हो जाते हैं संगठित
एक दूसरे के पक्ष में
अक्ल तो आती है गाहक को
लेकिन सब कुछ
लुटने के बाद
ग्राहक के लिए भाईचारा, संवेदना और जो यारी है
बनिया के लिए व्यापार है
वही दुकानदारी है


कुँए के मेढक


कुँए में रहने वाले सारे मेढक
अच्छे थे
अच्छा था व्यापार उनका
लड़ते थे झगड़ते थे
एक दूसरे की टांग भी खींचते थे
कई बार
एक दूसरे के साथ गाली-गलौज भी
माँ बहन की गालियां
हाथा-पाई तक आश्चर्य नहीं था उनके लिए
बाहर से आया आदमी
कई बार संवेदनशील हुआ
कई बार परेशान
हैरान भी कई बार हुआ
हर बार यही सोचता रहा ये लड़ते क्यों हैं
समय बीता बीतता रहा बराबर
मेढक बाहर निकलना शुरू हुए
एक दूसरे से बड़ा दिखाते
एक दूसरे से कहीं अधिक ताकतवर
नकारते हर किसी को
हर किसी को छोटा बताते
आदमी देखता रहा सुनता रहा
समझता रहा करतूतें
शौक बढ़ने लगे इनके प्रतिपल
प्रतिक्षण बदलते रहे
सभी मेढकों ने इच्छा जताई बारी-बारी
यह कि मेढक अब आदमी होना चाहते हैं
कुँए से निकलना चाहते हैं बाहर
आदमी ने आदमीयत के सब गुण बता दिए
सिखा दिए सब तरीके भी लगभग
अब वह हो ही रहे थे पारंगत कि
जाग गया मेढकपन उनका
वह सुखी थे सक्षम थे अपनी दुनिया में
मुश्किल था आदमीयत के परिवेश में एडजस्ट होना
सब मिलजुलकर एक दूसरे को समझा रहे थे
आदमी अब मेढकों की दुनिया छोड़कर
निकला आदमी की तलाश में
सब मेढक तड़फड़ा गए
करने लगे ताबड़तोड़ बैठकें
इस तरह फिर पहुंच गए उसी कुँए में
जहाँ पहले हुआ करते थे
सच में आदमी की दुनिया में शामिल होना
कितना कठिन है
यह मेढकों को चल गया पता आखिर
आदमी बनाना नहीं है सहज किसी को
आदमी भी मान गया है
रहना है यदि फिर भी उन्हें कुँए में ही
चलना पड़ेगा आदमी के हिसाब से
ठान लिया है इधर अब आदमी ने भी


रंगे शियार

क्या ही दौर है यह
भिखमंगा खाना खिलाने का
रोना रो रहा है
खुद रगड़ता नाक
हर गली चौराहे पर
दूसरे को दे रहा नसीहत इधर
ऐय्याश सत्संग की गद्दी पर
प्रवचन दे रहा है
चापलूस ईमानदार बन रहा है
जासूस यह दिखा रहा है कि
किसी से ईर्ष्या नहीं है उसे
क्या ही दौर है यह
समझो कि समय का समकाल यही है
यही है
औकात बड़े होने की
सब रंगे शियार हैं ये
जितना बच कर रहे भला इंसान
अच्छा है उतना ही।



कलम है, लैपटॉप है और हैं दो हाथ


जिस समय राजा को आदेश करना था
संकेत करके छोड़ दिया उसने
जनता मरती-मारती रही एक-दूसरे को
आह-वाह करते रहे हम सब दर्शक बनकर
कहीं ताली पीटते रहे
तो फिर कहीं पीटते रहे अपना सिर
चौंकने की जरूरत नहीं है कुछ भी
चौकन्ने रह सको तो तुम्हारी बुद्धिमत्ता है
तन्त्र को कुछ भी मत कहो कभी भी
देख सको तो यह देखो
हमारे समय का ‘लोक’ है यह
समर्पण पूरा है
‘तन्त्र’ के खूनी पंजों को सौंप दिया है अपना सिर
मीडिया टीआरपी के चक्कर में
अपने-अपने गढ़ और मठों के अनुकूल रहते हुए
घटनाओं को दिखाने में है व्यस्त
कोई मारा जा रहा है
यह उसके लिए सबसे अधिक ख़ुशी की बात है
सामूहिक रेप का शिकार होती स्त्री का दृश्य
सुखद आश्चर्य से कम तो कतई नहीं है
‘परछाहीं की झलक’ ही सही
देखकर संतुष्ट हो जाएगा इस देश का नपुंशक समाज
यह दौर ऊंचा बनने और दिखने भर का है
लेखक आवारा बन
खुद पर लिखी प्रायोजित समीक्षाएं
टीप रहा है फेसबुक पर
निर्लज्जता यह कि उसके सामने से गुजर रहे हैं लोग इस धराधाम से
आलोचक राजनीतिक विश्लेषण में हो गये हैं व्यस्त
समय नहीं उनके पास कि
जिस मानवीयता की मांग करते थे रचनाओं में कवि से
निर्वस्त्र होती सरेआम उसी पर दो शब्द बोल देते
मत पूछो कुछ कवि से यहाँ के हालात पर
जिसकी जिम्मेदारी थी बहते आंसुओं के सैलाब को रोकने की
प्रतिरोध में खड़े होने की
रक्त-पिपासु सत्ता के समक्ष
वह पार्टीगत लाशों की गिनती दिखा रहा है
फेसबुक पर
कहीं शो कर रहा है फूल-पत्तियों का कैप्शन
गा रहा है गीत प्रिय-मिलन-संयोग का
हम-तुम क्या कर सकते हैं ऐसे हालात में
जिसकी साँसें भी निर्भर हैं
सत्ता की दया पर
कलम है, लैपटॉप है और हैं दो हाथ
अपना कार्य कर रहे हैं
जितना भी बन पा रहा है
शायद यह मृत हो चुका समय
जाग ही जाए
व्यस्त और मस्त है जो अपनी तरह की गहरी निद्रा में



यह कोई नई बात नहीं है

यह कोई नई बात नहीं है
झुण्ड बनाकर जब किया गया हो आक्रमण
दुश्मन पक्ष से
कुछ जयचंदों की निगरानी में
हारा हो पृथ्वीराज चौहान
लड़ते-लड़ते युद्ध में झेला हो पराजय
यह खबर होना चाहिए जयचंदों को
समय अब वह नहीं रहा
सीखते हैं हम अतीत से ही
वर्तमान को रखते हैं सुरक्षित विवेक से
भविष्य की नीतियां
क्या हों यह नहीं पता होता पृथ्वीराज को भी
त्वरित लेता है निर्णय परिस्थितियों को देखते हुए
सोचो तो! रंचमात्र स्वार्थ के लिए
घर और परिवार तक को लगा देते हैं दाँव पर
बाहर' प्रिय इतना होता है
खबर 'चूल्हे' तक की दे देते हैं पड़ोसियों को
'विभीषण' की कमी इधर तो नहीं है फिलहाल
भरत' होने की शर्तें हर समय रही हैं चुनौतीपूर्ण परिवेश के लिए
चक्रव्यूह की रचना में हर कोई हो माहिर
हर कोई हो दक्ष उसे तोड़ने में
एक अभिमन्यु अकेला असफल हो जाएगा
संख्या कौरवों की नहीं ईर्ष्यालुओं की बढ़ी है
किसी को कम ही हुआ है संज्ञान
सबसे अधिक नजदीकी
करता है घाव सबसे तेज विश्वास पर


इस दंगे भरे दौर में


इस दंगे भरे दौर में
अकेले हो तुम
किस ओर से
कौन आए
भर समूह साथ लेकर
उतार दे
मौत के घाट
परिवार को कर दे तहस-नहस
कुछ नहीं कर सकते तुम
कुछ नहीं है तुम्हारा यहां
न देश
न राज्य
न सरकार
न आस-पड़ोस और समाज ही
तुम हो यह नहीं करता निर्भर
थोड़ा भी तुम पर
ज़िन्दा हो
यह उपद्रवियों की दया दृष्टि है
सरकारें और कानून
तुम्हें बन्धन में रखने के लिए बनी हैं
जरूरत हो जब भी उन्हें
उपयोग तुम्हारा कर सकें
खुशी से
तुम मरो या जियो
किसी का जाता ही क्या है आखिर
अभी तक मैं यही सोचता था
सुरक्षित शहर में हूँ
डर गया हूँ इस तरह इधर कि
कोई झोलाठाऊ लेखक
कर देना चाहता है कलम मेरा सिर
परिवार के साथ ज्यादतियां
महज आलोचना लिखने के अपराध में
बगल लगे गमले से
फूल तोड़ लेने के ज़ुर्म में
पड़ोसी दबा देना चाहता है गला बच्चे का
कोई साफा बाँधे आदमी
तोड़ देना चाहता है हाथ पैर मेरा
धरने पर बैठे आढतियों के पक्ष में न बोलने पर
हम सच में उस दौर में हैं
सन्त मारे जा रहे हैं
नक्सलियों की हो रही है पूजा
पूरे जोश-खरोश में
यह कविता लिख रहा हूँ अभी
लग रहा है जैसे
एक जीवन जी चुका हूँ अपने हिस्से का
अंतर ही क्या है आखिर अब
बंगाल और पंजाब में?


उम्मीद


बात-बात पर देते थे धमकी
मर जाने या फिर
भाग जाने की अपनों से दूर बहुत दूर
तमाम आपदाओं के ताण्डव के बीच
जीवन क्या है
पता इधर चल रहा है
आत्महत्या का विचार कभी आता था
अभी खूब जीने की तमन्ना है
मृत्यु की नजदीकियों ने
अपदस्थ कर दिया गुम होने की चाह
अब तो एक उम्मीद है
दिखता रहूँ सबको
देखता रहूँ दुनिया को


कोशिश यह रहेगी हर समय


धरा सुंदर बने
कोशिश यह रहेगी हर समय
कुछ नया हो परिवेश में
वह श्रम करता रहूँगा
आइना दिखाऊँगा कलम के व्यापारियों को
षड्यंत्रकारियों के उद्देश्य
विकृत की फसल उगाने की
न होने दूंगा पूरा कभी इस समय में
लाख आए समस्याएँ
श्रम-साधना से अपने मैं पीछे नहीं हटूंगा
इस धरा के सौंदर्य को
न बिगड़ने दूंगा कभी जीवित रहते हुए
मजदूर कलम का हूँ
करूंगा प्रतिदिन जी तोड़ श्रम
पैर के पसीने
चढ़ जाएंगे माथे पर जिस दिन
चू पड़ेंगे
धरा पर अपनी सम्पूर्णता में उस दिन
हो जाएगा अंकुरण
किसी नए वृक्ष का
उस दिन चैन से सोने का कर्म करूंगा


बनाई हमने है जो दुनिया, रहना ही है


मुस्कराने लगें सब यहाँ पर अभी
कोई ऐसी वजह पा भी जाएं सभी
कर जा ऐसा कोई कार्य हे ईश्वर!
लौट कर दुःख न आए यहाँ पर कभी
सब हैं डरे-डरे से सब हैं सहमें हुए
छोटे-बड़े जो भी, हैं सदमें में घिरे
कोई कहने की कुछ भी न स्थिति में है
हर कोई ही अजब की परिस्थिति में है
कैसी दुनिया बनाई किया क्या वरण
मर रहे हैं हमारे सभी साथी गण
जो कुछ तूने दिया हम गंवाते रहे
तुम भी तो हमको यहाँ भरमाते रहे
रो रहे हैं सभी सब हैं चिल्ला रहे
कोई स्थल सुरक्षित न हैं पा रहे
है चुका डूब रवि चाँद भी ढल गया
यूं मनुज का सिमटना अखर-सा गया
बस यही अब बता दो रहें हम कहाँ
जियें कैसे जीकर हम करें क्या यहाँ
हर गली मार्ग चौराहे बाधित हुए
घर से अपने ही हम सब विस्थापित हुए
यूँ तो कहना न था कुछ बहुत कह गए
दिल के अरमां अभी भी बचे रह गए
अब नहीं कुछ है कहना बस सहना ही है
बनाई हमने हैं जो दुनिया, रहना ही है