Thursday 16 May 2019

दरअसल मुम्बईया स्टाइल में पान खाकर सड़कों पर थूकना साहित्य नहीं हैं


कभी जब आलोचना पर कार्य नहीं करता था तो अधिकतर आलोचकों को शक के नजरिये से देखता था| यह लगता था कि वे अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वहन नहीं कर रहे हैं| उन्हें जिन पर लिखना चाहिए उन पर नहीं लिख रहे हैं और जिन पर नहीं लिखना चाहिए उन पर लिख रहे हैं| आखिर कैसे साहित्यकार हैं? तब इस प्रश्न को उछालने में कोई संकोच नहीं करता था| जरूरत पड़ती थी तो इस विषय पर मंच से भी बोलता था|  


इधर कुछ दिनों से आलोचना-समीक्षा पर कार्य करते हुए अब ये प्रश्न नहीं कर पाता हूँ| कोशिश भी करता हूँ तो करते-करते रुक जाता हूँ| इस क्षेत्र में अब तक कई बार कई प्रकार के ऐसे कड़वे अनुभव हुए, जिन्हें साझा करते हुए भी डरता रहा| लेकिन आज कुछ कहने का मन कर रहा है| यह मन तब कर रहा है जब आलोचकों पर बिना मतलब के पटाखे फोड़े जा रहे हैं, अंगुलियां तोड़ी जा रही हैं| उनके श्रम, उद्यम करते रहने के बाद भी उनके सामर्थ्य पर प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं|


पहली बात तो हर लेखक/कवि स्वयं को प्रेमचंद और निराला से कम नहीं समझ रहा है| दो कविताएँ लिखने वाला भी स्वयं को निराला की परम्परा का घोषित करवाने पर तुला हुआ है और दो पुस्तक से दस पुस्तकें लिखने वाला भी| आप यदि कह देते हैं कि फलां की परम्परा का निर्वहन फलां के साहित्य में बहुत सलीके से हुआ है, आप क्रन्तिकारी आलोचक से विद्वान समीक्षा तक बना दिए जाते हैं और वहीं यदि थोडा भी सच बोल देते हैं तो ब्राह्मणवादी, सामंती, संघी, वामी पता नहीं क्या-क्या बना दिए जाते हैं| यहाँ तो कई लोगों को मैंने देखा है जो विधिवत कूट देने, तोड़ देने, फोड़ देने, देख लेने तक की धमकी दे देते हैं| ऐसा लगता है जैसे साहित्य-सम्वाद न होकर किसी जमीन आदि का बंटवारा हो रहा है|   

किस पुस्तक पर लिखना है, क्यों लिखना है, कैसा लिखना है यह निर्धारित करने का अधिकार किसी भी आलोचक और समीक्षक के पास है| लेखक ऐसा नहीं चाहता| जिस समय वह फोन करता है समीक्षा कैसी होनी चाहिए उस तरफ इशारा भी कर देता है| आप व्यस्त हैं, मर रहे हैं, कोई समस्या है, परिस्थिति है लेखक से उसका कोई लेना-देना नहीं है| वह सबसे पहली शिकायत यही करेगा कि आपने मेरी पुस्तक पर अभी तक कुछ क्यों नहीं लिखा? इतने दिनों से तो इंतज़ार करते-करते तो थक गये अभी कितने दिन और करने होंगे?


हर कोई चाहता है कि उसके लिखे पर बात हो, चाहे जिस भी तरह से हो| ध्यान रहे यह भी कि समीक्षा के लिए कुछ भी समीक्षक को मिलना नहीं होता| कई बार जिस पुस्तक को स्वयं उसका लेखक भी नहीं पढ़े होता उसे पढ़कर भी उसकी स्थिति पर एक आलोचक और समीक्षक को बोलना होत्ता लिखना या बोलना होता है| जब तक आप नहीं लिखते हैं तब तक लेखक का फोन आता रहेगा| वह इस तरह आपके साथ पेश आएगा जैसे संसार का सबसे बड़ा हमदर्द वही है आलोचक का| जैसे ही आप लिख कर फुरसत होते हैं...दुबारा न तो लेखक का फोन सुनाई देगा और न ही तो उसकी हमदर्दी|


जिस लेख को एक समीक्षक दिन-रात मेहनत करके लिखता है उसे कोई पत्रिका प्रकाशित कर दे यह उसकी और लेखक के सम्बन्धों पर निर्भर करता है| लगभग पत्रिकाएँ नहीं प्रकाशित करती हैं| कवि आपसे बात नहीं करता, पत्रिकाएँ उसे प्रकाशित नहीं करतीं तो समीक्षक क्या करेगा उस समीक्षा का? इसका जवाब न तो लेखक के पास है, न कवि के पास और न ही तो किसी सम्पादक के पास|

यह इतनी आत्ममुग्धता का दौर है कि एक कवि दूसरे को कवि ही नहीं मानता| एक लेखक दूसरे को लेखक नहीं समझता| उसका लिखा हीरा है बाक़ी जो लिखे हैं वह कूड़ा-करकट है| बड़े से बड़े कवि जिसे इनके यहाँ चरवाही कर रहे हों...ऐसा वे दिखाने की कोशिश करते हैं| अब इतने समझदार और क्रांतिकारी लेखक/ कवि पर किसकी हिम्मत होगी कुछ लिखने की?  जो कुछ किसी को मानता ही नहीं यदि उस पर कभी ठीक तरह का कुछ लिख दिया जाए तो क्या वह जिन्दा छोड़ेगा कभी? यह अपने समय का एक बड़ा प्रश्न है|

यह सच है कि अली-गली में भटकने वाले अधिकाँश लोग भी सिद्धस्त कवि और लेखक का तमगा लटकाए चल रहे हैं| वे ऐसा पोज बनाते हैं कि आप उनकी महानता देखते हुए यह समझ लें कि साहित्य-संसार में जो हैं सो वही हैं| क्यों समझे भाई कोई आपको? आपने किया क्या है ऐसा कि लोग अनालाहक आपकी प्रशंसा किये जाएँ| इस प्रश्न का उत्तर भी बहुत कम लोगों के पास हैं|


दरअसल मुम्बईया स्टाइल में पान खाकर सड़कों पर थूकना साहित्य नहीं हैं| न ही तो हिप्पीकट बाल कटाकर रोब जमाने का नाम ही है साहित्य| इन सभी स्थितियों में आप लड़-झगड़ कर किसी तरह से बालीवुड में तो जगह बना सकते हैं, लेकिन साहित्य में सफल कितने होंगे, ऐसा आपकी शारीरिक क्षमता नहीं, यह आपकी लेखनी ही बता पाएगी| सुनिए, हो सके तो कुछ करिए| लिखिए तो ऐसा लिखिए कि उस पर पाठक अपनी राय बना सके| आलोचक उसे देखने और पढने के लिए विवश हो जाए| सम्पादक टार्च लेकर खोजे आपको| यदि ऐसा नहीं कर सकते गुरु तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी की तरह हिंसा न करो-कराओ|     


सभी चित्र गूगल से साभार 

Wednesday 15 May 2019

लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा (पंजाब) के लवली प्रांगण में आपका स्वागत है..


यह अक्सर कहा जाता है कि हिंदी विषय में कैरियर बनाना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है| कुछ लोग हिंदी को कैरियर का विषय न मानकर समय पास करने का जरिया मानते हैं| कुछ लोगों का यह मानना होता है कि हिंदी की पढाई करना अपना जीवन बर्बाद करना है|

मैं मानता हूँ जो ऐसा मानते हैं वे गलत हैं| हिंदी जैसा कोई विषय शायद हो जो आपको जीवन जीने का सही सलीका सिखाए| हिंदी भाषा एवं साहित्य को पढ़कर आप अपनी अभिरुचि के तमाम कैरियर को प्राप्त कर सकते हैं| भाषा जहाँ हमारे लिए अभिव्यक्ति के धरातल पर आगे बढ़ने के लिए जरूरी है वहीं साहित्य व्यक्तित्व-निखार के लिए बहुत जरूरी|


आप पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत ही सफल कैरियर की शुरुआत कर सकते हैं हिंदी साहित्य में रूचि लेकर| आप एक सफल लेखन की दुनिया में स्वयं को रख सकते हैं| आप केन्द्रीय संस्थानों में बतौर भाषा अधिकारी, अनुवादक के तौर पर कार्य कर सकते हैं| आप एक अच्छा अध्यापक बन सकते हैं, प्रोफेसर बनकर विश्वविद्यालयों का हिस्सा बन सकते हैं| आप ऐसा बहुत कुछ कर सकते हैं जो आप सोचते हैं| आप बतौर एक स्क्रिप्ट राइटर के अपनी दुनिया संवार सकते हैं| गीत आदि विधाओं से जुड़कर फ़िल्मी दुनिया में नाम कमा सकते हैं|


हमारे यहाँ स्नातक स्तर के विद्यार्थियों के अपने ब्लॉग हैं| वे लिख-पढ़ ही नहीं रहे हैं अपितु उसके जरिये अपनी अभिव्यक्ति क्षमता का भरपूर प्रयोग कर रहे हैं| यहाँ ऐसा नहीं है कि हिंदी विषय है तो हिंदी ही पढेंगे अपितु अन्य विषयों के साथ भी आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है| सामाजिक विज्ञान, भूगोल, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, रंगमंच जैसे विषयों के साथ सीधे तौर पर जोड़ा जाता है| जब तक आप यहाँ से स्नातक करते हैं इतना कुछ समृद्ध हो जाता है कि अलग से कहने की जरूरत नहीं है|
  

यदि आप चाहते हैं कि हिंदी विषय को लेकर स्वप्नों की दुनिया में एक सफल उड़ान भरें तो लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा (पंजाब) में आपका स्वागत है| यहाँ हिंदी विषय में स्नातक (बी.ए.), परास्नातक (एम. ए.), एम. फिल., पी-एच.डी. आदि कोर्सों में प्रवेश शुरू है| यूजीसी के नियमानुसार बहुत ही समृद्ध पाठ्यक्रम है यहाँ का| अन्य विश्वविद्यालयों की अपेक्षा पढ़ाई का अलग ही तरीका है यहाँ का| क्लासें अत्याधुनिक एवं तकनीकी संसाधनों के माध्यम से संचालित होती हैं| आप जुड़ते हैं तो नवीनता का अनुभव स्वयं करेंगे|


Friday 10 May 2019

बच्चे भी अब उसी के नक्शे कदम पर हैं

एक पति, जो अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करता था| गरीब था| दिहाड़ी करके किसी तरह अपना और अपने बच्चों का पेट पालता था| पत्नी सक्षम थी| सुन्दर और समझदार भी थी| सुन्दरता का तो मुझे भी पता है, समझदार थी, ऐसा उसका पति बताता था कभी कभी| आर्थिक तंगी से घर के हालात बहुत ठीक नहीं थे| फिर भी पत्नी की परवरिश में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं छोड़ रखी थी उसने| खुद नहीं खाता था लेकिन उसके लिए जरूर बचा कर रखता था|

पति काम की तलाश में अक्सर बाहर ही रहता था| पत्नी बच्चों के साथ घर में होती थी| अन्य औरतें उसके पड़ोस की जहाँ खेती-बारी तक के कार्य कर आती थीं, वहीं वह बर्तन तक नहीं धोती थी| सारा काम बच्चे करते थे, जो बचता था वह पति दिहाड़ी से लौटने के बाद करता था|

आरी-पडोस के कुछ आदमी अक्सर उसके यहाँ आते रहते थे| पत्नी को उसी में से किसी आदमी से प्रेम होता है जो यथार्थतः उससे छोटा होता है उम्र में| प्रेम के चोंच कुछ अधिक ही गुल खिलाने लगे और एक दिन इधर सुनाई दिया कि वह पेट से है तो उधर खबर लगी कि लड़के की शादी होने वाली है|

पत्नी-व्रता पति को ठोकर मारकर पत्नी प्रेमी के साथ जाने के लिए तैयार हो ली| प्रेमी के घर वाले नहीं राजी थे और प्रेमी भी चाहता था कि कुछ ले-देकर वह उससे पिंड छुड़ा ले| पत्नी नहीं मानती और अंततः एक दिन दोनों में झगड़ा होता है| पंचायत जुटती है लेकिन पत्नी पंचायत में आने की बजाय सड़क पर अपने कोख के बच्चे को लेकर लेटना उचित समझती है|

गाँव वाले उसे सब गरियाते हैं| वह नहीं मानती| प्रेमी लड़के की शादी होती है| वह अपने परिवार के साथ चैन से रहता है| पत्नी अब फिर अपने पुराने पति के साथ है| पति फिर से उसकी सेवा करना शुरू कर दिया है| वह अब भी कुछ नहीं करती है| फैशन इतनी कि भाई पूछो मत| बच्चे भी अब उसी के नक़्शे-कदम पर हैं|

अब यहाँ उन स्त्रियों को क्या कहूं जो हर समय हर समस्या की जड़ पुरुष को बताती हैं| यहाँ दोष पति का है या फिर पत्नी का?  यदि पत्नी का है तो ये हमारे यथार्थ समाज की एक बड़ी सच्चाई है और यदि कोई पति पर दोष लगाता है तो उसकी सोच पर सोचने के लिए विवश होना होता है|

#समझदार #देवियों हर जगह #पुरुष को #गाली देने से अच्छा है कुछ अपनी सच्चाई पर भी सोचा करो|

Thursday 9 May 2019

उन्हें उजाड़ो और उनके घर में आग लगा दो (अलवर गैंग रेप घटना)


यह सहसा विश्वास नहीं होता कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं| कोई कब और कहाँ घेरकर बेइज्जत कर दिया जाए कुछ नहीं कहा जा सकता| हम एक ऐसी वहसी दुनिया में घिरते और सीमित होते जा रहे हैं कि रक्षा-सुरक्षा पर बात करना भी महाअपराध की श्रेणी में आता जा रहा है| कुछ भी हो यह किसी तरह से बर्दास्त नहीं है| नहीं हो रहा है| कैसे और किन हालातों में होगा परिवार| पति और पत्नी पर क्या बीत रही होगी यह न तो हम कह सकते हैं और न ही तो आप| यह उसकी आत्मा से पूछा जाना चाहिए जिसके साथ यह सब हुआ|

देश लोकतंत्र का पर्व मनाने में व्यस्त है| राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप जोरों पर है| इतनी जोरों पर कि अपराध को नियंत्रित करने के लिए पुलिस नहीं है और यदि है भी तो उसके पास समय नहीं है| अपने ऊपर हुए वहसी हमले की फरियाद लेकर पुलिस के पास दंपत्ति जाते भी हैं तो यह कहकर कार्यवाही करने से इनकार कर दिया जाता है कि अभी चुनाव ख़तम हो जाए फिर कुछ किया जाए| हम तीन ही हैं बाकी सभी की ड्यूटी लगी है| क्या राजस्थान सरकार के पास इतने भी पुलिस नहीं हैं कि वे ऐसे जघन्य अपराधों पर अविलम्ब कार्यवाही कर सकें|


सवाल यह नहीं है कि ऐसा क्यों कहा गया, यह भी है कि जिस पार्टी को लेकर लोग बड़े-बड़े आशाएं पाल बैठे हैं, उस पार्टी के सरकार में यह सब कुछ हुआ लेकिन राजनीतिक घाटे का सामना न करना पड़े, इसलिए पूरी सरकार सोई रही| उसके कारिंदे सोये रहे| हमारे यहाँ के सूचिबाज साहित्यकार बंधू भी, जो कांग्रेस पार्टी के दलाल बनकर जनता को बरगला रहे हैं, सूची पर सूची निकाले जा रहे हैं, लगभग मौन की स्थिति में रहे| अब तक कहीं यह घटना भाजपा शासित प्रदेशों में हुआ होता तो ये पीछे ही पड़ गये होते| मोमबत्ती की लाइनें लगा दिए होते| मानवाधिकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा आए होते|

खैर यह तो इनकी नियति है ऐसा करना लेकिन हमें अब होशियार हो जाना चाहिए| इस दृष्टि से बगैर किसी लापरवाही के जनता को अपनी जवाबदेही स्वयं तय करनी होगी| भाजपा हो या कांग्रेस या फिर अन्य कोई पार्टी, वह जनता की सुरक्षा का जिम्मा नहीं ले पा रही है, नहीं ले सकती| यह समय है जब सभी स्वार्थों को दरकिनार रखते हुए ऐसे मामले में संलिप्त अपराधियों को दौड़ाकर पीटा जाए| उनके ऊपर तेज़ाब डालकर सार्वजनिक रूप से जला दिया जाए| यह समय न तो पुलिस का सुनने का समय है और न ही तो किसी राजनीतिक दल से आश रखने का माहौल|

बुद्धिजीवियों से तो कतई ऐसे मसले पर किसी प्रकार की अपेक्षा करना गलत है| वे कुछ नहीं करेंगे| उनसे यदि आप सम्वाद रखने की कोशिश करेंगे तो वे भाजपा और कांग्रेस के समय के अपराधों की गिनती लेकर बैठ जायेगें| यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि पीड़ित दंपत्ति न तो मुसलमान परिवार से है और न ही तो उच्च तबके से कि उस पर चर्चाओं का माहौल गरम हो सके और अपराधियों को सजा दिलाई जा सके| वे दलित परिवार से सम्बन्धित हैं| इसलिए अक्सर सच का पहरा देने वाले लोगों को कोई लाभ यहाँ नहीं मिलेगा इसलिए सभी चुप हैं और मौन रहेंगे| ये जितने भी हैं सबके सब नोट और वोट के नशे में चूर हैं| हो सके तो ऐसे साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को भी दौड़ाकर घसीटने का उपक्रम किया जाए जो ऐसी सरकारों के परिप्रेक्ष्य में वकालत करते पाए जाएं|

इस दंपत्ति ने भला क्या बिगाड़ा था किसी का? अपने मोटर साइकल से आ रहे थे लेकिन बदमाशों ने जो क्रूरता दिखाई वे उसके शिकार हुए| अब जब पूरा परिवार बेइज्जत हो चुका है, पति-पत्नी मुंह दिखाने के लायक नहीं रह गये हैं फिर राजनीतिक दलों के चाटुकार सम्वेदना दिखा रहे हैं| जनता को चाहिए कि उन्हें ही दौड़कर दुरुस्त करे जो राजनीतिज्ञ और दलाल अब आन्दोलन-सक्रियता का बहाना लेकर पार्टी हितों को साध रहे हैं|

मेरे देशवासियों अब तुम्हें स्वयं सरकार बनना होगा| अपने अधिकार और सुरक्षा के नाम पर स्वयं जागरूक होना होगा| तुम्हारे साथ कोई नहीं है, तुम अकेले हो| यह समाज तुम्हारा नहीं है चोरों और लुटेरों का है| यहाँ जनहित के नाम पर पैसा कमाने वाले भाड़-साहित्यकार इकठ्ठा हो जाएंगे लेकिन तुम्हारे सुरक्षा के नाम पर संघर्ष करने वाले जन नहीं मिलेंगे| तुम उठो और ऐसे नरपिशाचों को ठिकाने लगाओ| उन्हें उजाड़ो और उनके घर में आग लगा दो| यदि ऐसा करते हो तो दूर तक लोग ऐसे वारदात को अंजाम देते हुए 100 बार सोचेंगे|


Wednesday 8 May 2019

अब ऐसे नामों का क्या करियेगा


निर्मला पुतुल की भाजपा में शामिल होने की खबर लगभग सच है (स्पष्ट कुछ भी नहीं)। आज तीन-चार दिन से सूची-वीरों में शामिल कुछ लोगों की नींद उड़ी हुई है। पता नहीं घर का चूल्हा जला भी है या उपवास पर हैं बिचारे। यदि ऐसा है तो यह निर्मला पुतुल की व्यक्तिगत फैसला है जिसे मैं हर दृष्टि से उचित मानता हूँ। जहां हैं निष्पक्षता से हैं। कम से कम उनमें तो नहीं ही हैं जो एक तरफ तो विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ पद-प्रतिष्ठा-मान-सम्मान-मंच के लिए लालायित रहते हैं।


अब नाम तो बहुत हैं जिन्हें आप सभी समय-समय पर देख पहचान रहे हैं। कहने की जरुरत अलग से नही है। फिर भी एक नाम आप सभी के सामने रख ही देता हूँ। रमेश कुंतल मेघ जी से आप सभी परिचित हैं। अघोषित मार्क्सवादी ये स्वयं को कहते रहे हैं बड़े मंचों से| इनके पक्ष को लेकर भी कोई भ्रम की स्थिति शायद न हो लेकिन साहित्य अकादमी का पुरस्कार न सिर्फ लिया इन्होंने अपितु मंच से यह भी कहा कि अकादमी की निष्पक्षता पर गर्व है मुझे। पुरस्कार गैंग इनके पीछे भी पपड़ा लेकिन इन्होंने उसे लेने से इनकार करना उचित नहीं समझा|


अब इनकी उम्र अधिक हो गयी है| लम्बे अधिक होने के कारण चलते हैं तो झुक कर चलते हैं यूं कहें कि चल-फिर ठीक से नहीं पाते तो ज्यादा उचित होगा| हरियाणा ग्रन्थ अकादमी और साहित्य अकादमी के कई कार्यक्रमों आप इन्हें शामिल हुए पा सकते हैं| चंडीगढ़ में हुए राष्ट्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली के युवा महोत्सव में इनकी हास्यास्पद स्थिति देखने को तब मिली जब मैं भी युवा रचनाकारों को सुनने के लिए पहुंचा हुआ था| आयु से बहुत बड़े और बुजुर्ग वाम रचनाकार की दयनीयता उस समय मुझे सोचने पर विवश कर गयी जिस समय विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी को देखते ही कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए और उन्हें बैठने का आग्रह करने लगे। यह तो विश्वनाथ तिवारी जी थे जो ऐसा आग्रह स्वीकार नहीं किये और इन्हें बैठने के लिए निवेदन करते रहे|

सवाल यह है कि यह दयनीयता क्या वैचारिकता की दयनीयता थी? नहीं। उस चेक की दयनीयता थी जो कुछ समय बाद उन्हें मिलनी थी। उदय प्रकाश की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है।  ऐसा भी बताया जाता है कि उदय प्रकाश उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक  के हाथों पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं| आप रूपसिंह चन्देल दादा से ऐसे तमाम संस्मरण सुन सकते हैं। 

ऐसे और भी नाम हैं जो मंच से घोषित वाम विचारक होने का दावा करते हैं लेकिन जहां कुछ मिलना होता है उसी के हो भी जाते हैं। अब यह सूचिबाजों का ही गैंग है जो किसी के ऊपर फतवा जारी कर हुक्का-पानी बंद करने का ऐलान करता दिखाई देता है| इन्हीं गैंग कुछ ऐसे शातिर लोग हैं जो मंचों पर इसलिए पहुँच जाते हैं कि किसी तरह घर का खर्चा चले, जबकि वहां से आने के बाद तर्क देते हैं कि हमने खूब धोया मंच से भाजपाइयों को| अब ऐसे नामों का क्या करियेगा|

इसलिए हे सूचीबाजों कुछ बनाओ-खाओ। भूखे रहने से कुछ नहीं होने वाला। जिसको जो करना है वह करेगा ही। तुम्हारे बन्दरबांट के झाँसे में कोई कैसे आएगा भला? खुद तो ऐश करोगे चंदे के पैसे से और दूसरे को क्रांति-भरम में मरने-खपने का उपदेश दोगे। यह कब तक चलेगा आखिर? जनता सब समझती है भाई| वह जान गयी है कि तुम सभी कितने निष्पक्ष हो|

महादेवी वर्मा के शब्दों में कहूँ तो -
रहने दो हे देव अरे यह मेरे मिटने का अधिकार।

Monday 6 May 2019

आइये, बढिए! एक कदम बढ़ाइए! शिक्षा-सुधार के लिए भी......

शिक्षा में बढ़ रही दुर्व्यवस्था पर यह समय चुप रहने का बिलकुल नहीं है| नम्बरों की दौड़ में बच्चों को पंगु बनाने का यह जो दौर है दीमक की तरह योग्यताओं को समाप्त कर रहा है| हम आप खुश हो रहे हैं कि हमारे बच्चे योग्य हैं, विद्वान हो रहे हैं, टॉपर हैं| सच यह है कि अन्दर-ही-अन्दर दिमाग से वे इतने कमजोर होते जा रहे हैं कि 15 मिनट भी हमारे साथ बैठ कर सम्वाद करने की स्थिति में नहीं हैं|
सम्वाद करें कहाँ से? शब्दों का अभाव वैकल्पिक परीक्षा-व्यवस्था की वजह से हुआ है| यहाँ पढ़ना और टिक करना है| लिखने की जो व्यवस्था होती थी कभी अब वह इतिहास की बात होने लगी है| 2 पृष्ठ भी कायदे से लिखना होता है तो आसमान के तारे नजर आने लगते हैं| कल्पना शक्ति क्षीण होती जा रही है| कहने का सलीका तो है नहीं सुनने की क्षमता भी दूषित हो रही है|
आज 500 में से 499 तक अंक ला रहे हैं बच्चे| मुझे यह नहीं समझ आ रहा है कि इन प्रश्न-पत्रों का निर्माण कौन करता है आखिर? हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृति जैसे साहित्यिक विषयों में यदि 100 नम्बर आ रहे हैं तो परीक्षा की उपयोगिता ही क्या रह गयी है आखिर? होना तो यह चाहिए कि जिस स्कूल के जिस प्रश्नपत्र में इतने नम्बर आएं उन्हें ब्लैक-लिस्ट में डाल देना चाहिए| बोर्ड परीक्षाओं के प्रश्नपत्र बनाने वाले को तलब किया जाना चाहिए|

वैकल्पिक परीक्षा-प्रणाली को जितनी जल्दी हो सके, समाप्त करने के लिए कदम बढाया जाना चाहिए| लिखित परीक्षा पर जोर दिया जाए| आतंरिक मूल्यांकन में नम्बर-प्रतिशत को कम किया जाए| जो फेल हो रहा है उसे फेल करने का जोहमत उठाया जाय| यदि ऐसा किया जाता है तब तो मानकर चला जाए कि बच्चे कुछ हद तक बुद्धिमान हो रहे हैं यदि नहीं हो रहा है तो यह शुभ-संकेत नहीं है भविष्य के लिए किसी भी रूप में|
वर्तमान समय में सभी विषयों से कहीं अधिक जरूरी यह मुद्दा है| इस पर आवाज उठाई जानी चाहिए| विद्यार्थी से लेकर शिक्षक, राजनीतिज्ञ से लेकर समाज वैज्ञानिक तक को इस गंभीर विषय पर अपना मत रखना होगा| सक्रिय होना होगा उन्हें| शिक्षा-तन्त्र मजबूत रहेगा तो लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं होगा| यदि यही कमजोर रहा तो फिर कोई तन्त्र काम भी नहीं आएगा|
एक आन्दोलन इस क्षेत्र में भी करना होगा| मैं उस दिन के इंतज़ार में हूँ जब इस क्षेत्र में जागरूकता के लिए साहित्यकार अपनी समर्थन-लिस्ट जारी करेंगे| हर जिला, हर शहर, हर प्रदेश के बुद्धिजीवी इस आन्दोलन में भाग लेंगे| पुरस्कार वापसी गैंग से लेकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली गैंग तक यदि ऐसे मुद्दे पर सक्रिय होता है तो उसकी निरपेक्षता का महत्त्व राजनीतिक चौखट से कहीं अधिक यहाँ दिखाई देगा|
आइये, बढिए! एक कदम बढ़ाइए! आप कदम बढ़ाएंगे तो परिवेश के हालत सुधरेंगें| हालात बदलेंगे| समय संस्कारित होगा और समाज की उन्नति होगी| सही शिक्षा सही दिशा की तरफ हमें बढ़ने के लिए प्रेरित करती है| यदि दिशा स्पष्ट होगी तो हम सभी स्पष्ट होंगे|


फोटो-जागरण की वेबसाईट से 

लौटकर आओ सखे

आज व्यथित मन ढूंढता है
शान्ति का कोना कोई
तुम मिलो तो बात हो कुछ
होना तेरा सब कहीं
है मुझे लगता जहां में
है नहीं तुझ सा कोई

रहती है तो दुनिया मे सब
नहीं तो जैसे कोई नहीं
जागता ही रहा मैं तन्हा
आंखें कब की सोई नहीं
तुम नहीं तो आज जैसे
इस जहां में हो न कोई


जिंदगी की दौड़ में हम
अक्सर हैं ठहरे हुए
सब सुनाई दे रहा अब
हैं मगर बहरे हुए
मौन हो तुम, शब्द गूँगे
ध्वनि नहीं हलचल कोई

तुम कहाँ हो, हो, जहां हो
लौटकर आओ सखे
व्यथित हृदय, थकित आँखें
रास्ते दे जाओ प्रिये
हो न हो कुछ हो ही जाए
कुछ और न समझे कोई

Saturday 4 May 2019

ऐसी परीक्षा प्रणाली से क्या वाकई हम योग्यता पैदा कर रहे हैं?



वह समय था कि 10 दिन पहले से ही पढ़ाई करने वाले बच्चों की साँसें थमी रहती थीं| घर-परिवार वाले भगवान् से या तो प्रार्थना करते थे या फिर बच्चे की स्थिति अनुसार लायक-नालायक होने का निर्धारण| पूरे गाँव में यह स्पष्ट होता था कि इस बार कितने बच्चे 10 वीं और 12 वीं की परीक्षा दे रहे हैं| पूरा परिवेश परीक्षा देने वाले के लिए किसी भयानक त्रासदी के आने जैसा प्रतीत होता था, तब तक जब तक कि वह देख नहीं लेता था कि पास हुआ या फेल|



पास-फेल का पता होना आसान नहीं होता था| नेट/इन्टरनेट का ज़माना नहीं था| समाचार पत्र या रेडियो के समाचार से यह पता चल जाता था कि फलां तारीख को रिजल्ट आउट हो रहा है| कुछ निर्भीक और तिकड़म बाज युवा होते थे| उनकी तरफ सभी भरी निगाहों से देखते थे| उन्हें यह आशा होती थी कि यही रिजल्ट लेकर आएगा बोर्ड से| होता यह था कि अखबार में रिजल्ट आउट होता था जिसके लिए रात में ही घर से लगभग 10-12 किलोमीटर की दूरी पर जाना होता था| लम्बी लाइन में लगकर किसी तरह अखबार प्राप्त करके वह उसी रात आ जाता था घर पर|


सुबह होते ही या तो उस व्यक्ति के पास गाँव वाले इकट्ठे होने लगते थे या फिर वह स्वयं लोगों के यहाँ पहुँच जाता था| यह दिन ऐसे युवा के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन होता था| रोजगार की दृष्टि से वह अच्छा पैसा कमा भी लेता था| लोगों की दृष्टि में नायक अलग से बन जाता था| यदि यह कहें कि परीक्षा परिणाम देखना किसी मायने में सहज नहीं होता था, तो गलत नहीं होगा|

जिस तरीके से परीक्षा-परिणाम देखना सहज नहीं था उसी तरह परीक्षा पास करना या अंक प्राप्त करना भी आसान नहीं होता था| बहुत कम बच्चे होते थे जो प्रथम श्रेणी में आते थे| द्वितीय श्रेणी वाला विद्यार्थी भी किसी मायने में कमजोर नहीं आँका जाता था| तृतीय स्तर प्राप्त विद्यार्थी इस दृष्टि से खुश हो लेता था कि चलो किसी तरह पास तो हो गये| यदि फेल होते तो गाँव में बड़ी बेइज्जती होती|


फेल होने वाला विद्यार्थी कई-कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकलता था| निकलता भी था तो कुछ बहाने लेकर| या तो वह बीमार बताता या फिर बैच (उड़न दस्ता) से भयभीत होने का कारण| ख़ुशी तो बिलकुल उसके चेहरे पर नहीं दिखाई देती थी| दरअसल ऐसा उसके ही चेहरे पर नहीं बल्कि पूरा घर ही शोकाकुल होता था| मातम जैसा माहौल पूरे परिवेश में छा जाता था| माता-पिता अक्सर ऐसी स्थिति में यह कहते हुए पाए जाते कि पैसे तो पूरे दिए थे, घर का कोई कामधाम भी नहीं करता था, अब नहीं पास हुआ तो क्या करें? एक बार और एडमिशन करवा देंगे पास हुआ तो ठीक है नहीं तो फिर घर के अन्य सदस्यों की तरह मजदूरी-किसानी कर लेगा|



यह भी सच है कि विद्यार्थी मेहनत भी खूब करते थे| गांवो में बिजली की व्यवस्था नहीं होती थी तो लोग लालटेन या ढेबरी जलाकर पढ़ा करते थे| कुछ बच्चे खेत के मेड़ों पर बैठ कर अपनी पढाई पूरी करते थे| अभाव हर समय उनके पीछा किये रहता था| कई बार तो कई-कई दिन बच्चों को भूखा भी रहना होता था| आज का परिदृश्य ऐसा बिलकुल नहीं है| आज तो गांवों में भी बिजली की अच्छी व्यवस्था हो गयी है| शहरों में तो खैर बिजली हर समय उपलब्ध रहती ही है| लगभग बच्चे के पास मोबाईल फोन, लैपटॉप आदि सुविधाएँ हैं|

बावजूद इसके पहले वाले बच्चों की तरह परीक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थित्यों में अब रौनक जैसा न तो टॉपर के चेहरे पर झलकता है और न ही तो मातम जैसा फेल होने वाले के मुखड़े पर दिखाई देता है| आज के समय में पहले तो कोई फेल नहीं होता और यदि हो भी जाता है तो फिर से परीक्षा देकर पास हो जाने की स्थिति अपनाकर टेंशन मुक्त रहता है| नम्बर अब कम नहीं आते| इतना तो आ ही जाते हैं कि कोई फेल न हो|

आज के समय में प्राप्त होने वाले परीक्षा-प्राप्तांक को देखकर फ्री में मिलने वाले लंगर-प्रथा की याद ताजा हो जाती है| 500 में 499 अंक तक बच्चे प्राप्त कर रहे हैं| यह स्थिति जहाँ एक तरफ देश के युवाओं के हौसले को देखकर प्रसन्न हो जाने के लिए तैयार करती है तो वहीं दूसरी तरफ नंबरों के दौड़ में शामिल ‘भेड़-चाल’ पर तरस भी आती है|



अकादमिक जगत में चमक जाने वाले ऐसे बच्चों से कभी व्यावहारिक जगत की बातें कर के देखिये...खीस निकल आएगी| दिनोंदिन व्यावहारिकता से दूर होने वाले परीक्षाओं में आखिर इतने नंबर लेकर विद्यार्थी क्या करेंगे? क्या इसके जरिये उसे कमजोर नहीं किया जा रहा है? क्या उसकी मानसिकता को पंगु नहीं बनाया जा रहा है? वह सब कुछ हो रहा है जिसकी हम और आप परिकल्पना नहीं कर सकते| सच तो यह है कि प्राप्त नम्बरों के आधार पर किसी विद्यार्थी को बहुत अधिक बुद्धिमान तब नहीं कहा जा सकता जब तक उसके व्यावहारिक का आंकलन न कर लिया जाए|


यहाँ पता नहीं क्यों आमिर खान की दो फ़िल्में बार-बार याद आ रही हैं| ‘तारे जमी पर’ और ‘थ्री इडियट्स”| ये दोनों फ़िल्में नम्बरों की भेड़-दौड़ से हमें अलग रहने के लिए प्रेरित करती हैं, कुछ अलग करने और खोजने के लिए तैयार करती हैं; लेकिन समस्या यह है कि जैसे ही हम इन विशेषताओं को प्राप्त करने के लिए मुड़ते हैं, नम्बरों के बाजीगर हमें ‘पिछड़ा’ हुआ घोषित ही नहीं करते अपितु भविष्य की सम्भावनाओं पर बट्टा लगा देते हैं|

सवाल यही है कि ऐसी परीक्षा प्रणाली से क्या वाकई हम योग्यता पैदा कर रहे हैं? क्या बच्चों का मानसिक विकास प्रश्नों के रटने में ही सम्भव है? क्या कल्पना की ऊंची उड़ान भरने की जो उम्र है उसे हम यथार्थ के खुरदरे जमीन घसीटते हुए अपंग नहीं बना रहे हैं? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर सभी तलाश रहे हैं लेकिन यह ऐसा आकर्षण बन चुका है कि छोड़ भी कोई नहीं पा रहा है|    


Friday 3 May 2019

कितना अच्छा होता यदि मनुष्य बना रहता मनुष्य ही



माधव कौशिक समकालीन हिंदी कविता में सांस्कृतिक अस्मिता से उपजे गतिरोध को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं| चिंता की यह स्थिति अनावश्यक नहीं है| दरअसल यथार्थ परिदृश्य को प्रकट करने के चक्कर में कवियों का एक बड़ा वर्ग प्रायोजित लेखन के लिए विवश हुआ है, जो अनघटी घटनाओं को भी केन्द्र में लाकर विमर्श का मुद्दा बना देना चाहता है| पाठक की नजर में वे प्रायोजित मुद्दे तो कहीं दिखाई नहीं देते, जिस पर हो-हल्ला मचाया जाता है, कविता भी संशय के दायरे में आ जाती है| यथार्थ की अंधी दौड़ में आदर्शता की उपस्थिति कमतर न हो, इस दृष्टि से समकालीन हिंदी कविता में माधव कौशिक की रचनाधर्मिता विशिष्ट है| यहाँ विशिष्टता का पैमाना श्रम-संस्कृति की वह अनिवार्यता है जहाँ रचनाकार जन और जमीन से जुड़कर चलता है| माधव कौशिक की कविताएँ हमारे समय की वह आईना हैं जिसमें सम्पूर्ण युग-बोध समाहित है|    
माधव कौशिक कविता की जमीन पर “कैंडल मार्च” की वेबसी के साथ समय की निरंकुशता और मनुष्य की पशुविक प्रवृत्ति की विसंगतियों को लेकर पाठकों के सामने उपस्थित हुए हैं| इस संग्रह में केन्द्र समाज है तो परिधि में परिवेश और प्रकृति| कविताई की सहज सम्प्रेषण के साथ यहाँ जन, जीवन और कविता को लेकर कवि का पक्ष स्पष्ट है| स्पष्टता में एक तरलता है, प्रवाह है, रचनाधार्मिता की श्रमशील निर्वाह है| इस तरह का निर्वाह आज की हिंदी कविता में कम दिखाई देती है| जो है वह निश्चित ही भीड़ से अलग है और अलग होने में पूरे समय के वैभवशाली होने की सम्भावना बढ़ गई है| ऐसा इसलिए क्योंकि “भीड़ में से जब भी/ कोई इक्का-दुक्का आदमी/ सभी कतारें तोड़कर/ अलग से चलने लगता है/ तो निरीह पगडण्डी भी/ राजमार्ग लगने लगती है|” पगडंडियों पर चलते हुए राजमार्ग बना जाने की चाह इस संग्रह की कविताओं का मूल उद्देश्य है|
राजमार्ग ‘खास’ का न होकर आम का हो ये स्वप्न माधव कौशिक का है| आम संघर्ष की जमीन में लोट-पोट कर बड़ा हुआ होता है| धूल-कण में सनकर खड़ा हुआ होता है इसलिए समय की विसंगतियों से लड़ना उसे अच्छी तरह आता है| यदि तमाम उपेक्षाओं के बावजूद वे चुप हैं तो यह उनके लोक का संस्कार है जो उतापात मचाने से उन्हें रोकते हैं| इसलिए भी क्योंकि निजी स्वार्थ से अधिक इन्हें दूसरों की जरूरतों का ख्याल रहता है| दूसरे यदि इन्हें पागल और नासमझ समझें तो यह भी सच है कि “लालकिले की प्राचीरें/ झुक जायेंगी उनके बोझ से/ संगीनों से थर्रा उठेंगें कंगूरे/ बिगुल की आवाज़/ सनसनी फैला देंगी/ दीवाने आम में/ इक्कीस तोपों की गर्जना/ हिला देंगी/ जर्जर जनतंत्र की चूलें/ स्वतंत्रता दिवस गौरवपूर्ण/ तो है ही/ मर्मांतक भी कम नहीं|” क्योंकि कितने ही स्वप्नों की भ्रूण को साकार होने से पहले ही निरर्थकता के कगार पर छोड़ दिया गया है| प्रतिभावों को तोड़-मरोड़कर कूड़ेदान फैंकने लायक बना दिया गया है| जो तो कुछ प्रतिरोधी स्वभाव के थे उनके लिए पहरे इस कदर कड़े कर दिए गये हैं कि उनकी हंसी-मुस्कराहट-आँसू सबके हिसाब-किताब लिए जा रहे हैं| सब सीसीटीवी कैमरे की जद और हद में हैं| थोडा भी विरोध में हुए कि लटकाए गये| कवि ‘मुनादी’ के माध्यम से “वक्त के अंधे अक्षरों में लिखा फरमान” जारी करता है और संशय के दायरे में जनधर्मी प्रवृत्ति के पोषक लोगों से अपेक्षा करता है “कि तुम हंसो/ मगर तुम्हारी हँसी/ अधरों से बाहर न टपके/ रोओ किन्तु आँसू/ पलकों की दहलीज न लांघें/ गाओ लेकिन तुम्हारी आवाज़/ हलक में तड़पती रहे/ जीओ लेकिन मृत्यु-शैया पर/ काल के गाल में रहते हुए/ अतिक्रमण करो काल का|” इस तरह ही प्रतिरोध की संस्कृति बची रह सकती है अन्यथा तो बोलने वालों को एक-एक कर या तो गायब किया जा रहा है या फिर मार ही दिया जा रहा है| 

एक सच यह भी है कि जन की सुरक्षा में सक्रिय तन्त्र जिस तरह से जन-सम्भावनाओं पर कुठाराघात करते हुए जीवन-जरूरत के मुद्दों को गायब किया है समाज तो आतंकित है ही समय भी पनाह मांग रहा है| तन्त्र-पिंजड़े में सुरक्षित नर-पशुओं के नंगे नाच से पूरी बस्ती हैरान और हतप्रभ है| लोक लज्जित है और जन असुरक्षित है| सांड बने घूम रहे तन्त्र के नुमाइंदे घुन की तरह भारतीय परिवेश की शालीनता और स्वर्ग के समान आभासित होने वाले भविष्य को निगल रहे हैं| हम हैं कि इस ‘झूठी उम्मीद’ में कि “कहीं से तो किरण कोई/ हमारे घर में आयेगी/ कहीं से तो कोई बदली/ हमारे मन पे छायेगी/ कहीं से तो कोई सूरज/ हमारे दिल में निकलेगा/ कहीं से तो कोई चन्दा/ अंधेरी रात बदलेगा/ कहीं से तो कोई/ ऐसा फ़रिश्ता घर में आयेगा/ हमारे दर्द की चट्टान को/ पल में गिराएगा/  इसी उम्मीद पर/ बैठे रहे हम लोग जीवन भर|” और इसके बाद हम तो चले गये या चलते बनते हैं लेकिन इस प्रकार की ‘झूठी उम्मीद’ का परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है|
यह अपनी तरह का सच है कि जनसामान्य की उपेक्षा से राजभवन कभी चिंतित नहीं होता| जितना जन उपेक्षित और प्रताड़ित होता है जनप्रतिनिधि उतना ही फलता और फूलता है| जन उपेक्षा में अपनी सुरक्षा तलाशने वाली सत्ता क्यों चाहेगी कि सामान्य विशिष्ट की भूमिका में रेखांकित हो? कभी आकर्षण के लिजलिजे में फंसकर तो कभी हाशिए पर जाने के दुहस्वप्न से साधारण आदमी भी मजबूर होकर तन्त्र की ढाल बनना स्वीकार कर लेता है| यह दौर है भी ऐसा जहाँ “उठा पटक को कोई बुरा नहीं कहता है/ सारे सच के साथ खेलते/ आँख-मिचौनी/ धक्का मुक्की करने/ में सबके सब अव्वल/ सर से पानी गुजर रहा है/ या आँखों का पानी बिलकुल/ सूख चुका है” यह निर्धारण कर पाना मुश्किल हो गया है|   
 कवि परछाहीं की तरह हर दृष्टि से जन के समर्थन और साथ में होता है| रचनाकार ही है जो जोखिम उठाकर भी उसकी सम्भावनाओं को जिन्दा रखने का उपक्रम करता है| कवि के इस उद्घोस पर, “कोई तो हो जो/ व्यवस्था के बिगडैल सांड के/ सींगों में/ विश्वास का फंदा डालकर/ बीच चौराहे के/ धराशायी कर दे उसे” सदियों से उपेक्षित होता आया लोक अपनी गरिमा के साथ उठ खड़ा हुआ है| दलित, आदिवासी, और अन्य अनेक उपेक्षित-दमित वर्गों से अटा पड़ा वही लोक, जिसे पूंजीपतियों और कार्पोरेट घरानों के रहीशों द्वारा उपेक्षा की तपती भट्टियों में तपाकर पंगु बना देने की साज़िश रची जा रही थी, लामबंद होकर शोषण के खिलाफ बिगुल बजा दिया है| यह सच है कि इन सभी के लामबंद होने से भारतीय समाज में-
 एक दिन वह भी आया/ जब सारी घुटन/ सड़कों पर आक्रोश के लावे/ में तब्दील हो कर/ धधक उठी/
अधनंगे लोगों के अस्थि पंजर/ बख्तरबंद गाड़ियों के/ परखचे उड़ाने दौड़ पड़े/
कटे हुए हाथ/ तलवारों में बदल कर/ टूट पड़े/ सत्ता की मीनारों पर/
और देखते ही देखते/ लोक ने लोक के लिए/ लोक के द्वारा/ कई अलौकिक लोगों को/ परलोक भिजवा कर ही दम लिया|” 
अलौकिक को परलोक में भिजवाने का क्रम अनवरत जारी है| यह इसी का परिणाम है कि आए दिन ऐसे भ्रष्टाचारियों का विरोध किया जा रहा है जो जनता को कंगाल बनाने में अपनी कोई कसर बाकी न रखे| उन आतताइयों को खींच कर बाहर किया जा रहा, जिनके शरीर पर आम आदमी की आशाओं एवं आकांक्षाओं के विनष्ट होने के दाग हैं| उन्हीं की हथियार से उन्हें भरी सभा में नंगा कर बेनकाब किया जा रहा है, जो मान बैठे थे, इस देश के लोग सब कुछ बहुत जल्दी भुला बैठते हैं| ऐसा मानने वालों को शायद यह नहीं पता है कि “वक्त बहुत बेचैन/ बहुत ही दुखी/ बहुत गुस्से में है/ वक्त के सब्र का/ पैमाना भर गया कब का/ वक्त की आँख से/ आँसू नहीं/ लहू टपका” जो उनकी परिधि बताने और लोक को उसकी शक्ति-सामर्थ्य दिखाने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है| ध्यान देने की बात है ये कि आँसू गिरने में तो कलेजे के सभी अंश तड़प उठते हैं, लहू टपकने की स्थिति में समय के क्या हालात हैं इसका अंदाजा लगाया जा सकता है| देश और समाज के हालत-हालात तो ऐसे हैं कि “अब किसी मजलूम के हक़ में/ कोई कब बोलता है/ अब किसी की चीख सुनकर/ कौन कब दर खोलता है/ अब शहर के लोगों की खुदगर्जियाँ/ बढ़ने लगी हैं/ अब ज़रा सी बात पर ही/ त्योरियाँ चढ़ने लगी हैं/ शाम को घर लौट आना/ एक सपना हो गया है/ चैन शायद भीड़ में/ बालक सरीखा खो गया है/ अब कहाँ सच्चा सही इंसान/ मिलता है यहाँ पर/ अब बता इंसानियत का/ फूल खिलता है कहाँ पर|” प्रश्न की ऐसी मुखरता से इस अकाल पड़ते समय में वक्त का इस तरह मानवीयता के उलट खड़ा होना कवि की भूमिका को और अधिक बढ़ा देता है|       
 कवि लोक की सक्रियता पर नजर रखता है| वह देखता है कि लम्बे अरसे तक सब कुछ भूल कर जीवन-यापन की दैनिकी में व्यस्त होने वाले लोक को अब सब कुछ याद रखने की जिजीविषा स्पष्ट दिखाई दे रही है| यही लोक भविष्य की सम्भावनाशील प्रवृत्तियों की तलाश में “आने वाला कल भी अपना/ कल से बेहतर होगा’ की उम्मीद लिए सीधे सम्वाद के लिए निकल पड़ा है| लोक की यथास्थिति को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध ऐसे व्यक्तियों में जो उत्सुकता है, उसमें राह आसान है और मंजिल पास| इस राह में निकल पड़े लोगों के अन्दर की उत्सुकता को देखकर कवि का यह कहना वाजिब है कि “कभी न कभी/ शांत हो जाता है ज्वार/ थम जाती हैं तूफानी हवाएं/ जम जाती हैं तलछट/ कभी न कभी/ टूट ही जाता है सन्नाटा/ पिघल जाती है बर्फ/ चरमराकर/ खुल जाते हैं कपाट/ कभी न कभी/ फूट ही पड़ता है लावा/ बह निकलता है आक्रोश/ चीख उठता है आदमी|” आदमी का चीखना नियतिवाद के प्रति विद्रोह की भावना का प्रथम चरण माना जाता है| इस चरण में अतीत कम वर्तमान अधिक मायने रखता है| भविष्य इस हद तक विचलित नहीं करता कि वह सुरक्षित रहेगा अपनी स्थिति तक, खासकर तब जब अतीत को साधता हुआ वर्तमान संतुलित रहता है| 
वर्तमान को सुन्दर और सुदृढ़ बनाने में जुटा भारतीय समाज आज जड़ रूढ़ियों को समाप्त कर देना चाहता है| विभाजनकारी और अलगाववादी प्रवृत्तियों पर अबिलम्ब रोक चाहता है| राजनीतिक और अन्य कारणों से संकीर्णता की विभीषिका में जकड़ा समाज स्वतंत्र होकर मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना चाहता है| कवि भी यही चाहता है| समाज के चाहने में कवि का अटल विश्वास है कि “चाहे सैकड़ों, हज़ारों वर्षों बाद सही/ ये सभी लकीरें मिट जायेंगी/ समाप्त हो जायेंगी/ ये सारी सीमाएं/ मनुष्य और मनुष्यता के मध्य/ सिवा मनुष्यता के/ हो भी क्या सकता है” और यथार्थतः कुछ होना भी नहीं चाहिए यदि मनुष्यता की स्थायित्व को प्राप्त कर लिया जाय तो| दरअसल सारी कोशिशें तो मनुष्यता की भावभूमि को स्पर्श करते हुए उसे विकसित करने की ही है| आदर्श स्थिति में तो हम दिखाई देते हैं मनुष्यत्व के रंग में लेकिन जब यथार्थ का अवलोकन करते हैं तो विवश होना पड़ता है और आगे बढ़ते रहने के लिए|

इस संग्रह की अधिकांश रचनाओं के सहारे आदर्श और यथार्थ के मध्य गुम हो रही मानवीयता की वर्तमानता को सुनिश्चित करना कवि अपना कर्तव्य समझता है| मानव-मूल्यों और मानवीय-संबंधों की गरिमा बरक़रार रहे इसके लिए शास्वत संवाद की भूमिका को बनाए रखना आवश्यक मानता है| कवि के समय का यथार्थ तो ये है कि “जीवन की बुनियादी बातें/ धीरे-धीरे बदल रही हैं/ धीरे-धीरे बदल रहा है/ जीवन से जीवन का रिश्ता/ धीरे-धीरे लोग, पुरानी/ जड़ों से अपनी उखड़ रहे हैं/ रहते हैं महलों में लेकिन/ अपने मन से उजड़ रहे हैं|” मन से उजड़े हुए यही लोग विषबेल की तरह समाज में छाते हैं और फिर एक दिन पूरा परिवेश संक्रमण और विखंडन के मार्ग पर निकल पड़ता है| ऐसी स्थिति में कवि स्वयं को जीवन के “सबसे मुश्किल मोड़ पर” पाता है| ऐसे मोड़ सांस्कृतिक शून्यता और सामाजिक गिरावट के धुंधली तस्वीर पेश करते हैं जहाँ “तीसरी दुनिया की/ सारी भूख को दिल में समेटे/ और अफ्रीका के अंधे जंगलों से/ आदिवासी लोगों की चीत्कार लेकर/ मिस्त्र के बाज़ार से गाती तवायफ/ युद्ध में मारे गये/ इराकी लोगों के जनाजे/ और काबुल में हज़ारों/ तोप के गोले उठाये/ वक्त के कन्धों को/ झुकता देखता हूँ/ देखता हूँ सैनिकों की लाशें/ उल्टी बंदूकें उठाये/ फौजियों के सख्त चेहरे/ देखता हूँ मैं/ शिखर-सम्मेलनों में मुस्कुराते/ राजाध्यक्षों की कतारें/ ड्रोन के हमलों में घायल/ पक्षियों की चीख/ सुनकर चौंकता हूँ/ रोज दहशतगर्द/ दुनिया के बदन को नोच खाते/ रोज पागलपन का तांडव/ देखता हूँ हर जगह पर” तो यह शक गहरा उठता है कि क्या हम हैं भी मनुष्य लोक में? क्या हम उसी समाज में हैं जिसे बनाने में सदियों गुजार दी गईं? स्वस्थ और समृद्ध सामाजिक परंपरा वाले उसी भूमि पर हैं जहाँ आने के लिए देवता भी तरसा करते हैं?  
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए यह स्पष्ट होता है कि समझ के धरातल पर कवि एक विशेष प्रकार की जिम्मदारी लिए पदार्पण करता है तो इस जिम्मदारी से अनवरत संघर्ष की राह का ही चयन करना श्रेयस्कर समझता है| जुगाड़ और जुमले की प्रवृत्ति में विश्वास न करके श्रम की अनिवार्यता को चिह्नित करना कवि का उद्देश्य रहा है| यही वजह है कि इस कवि को न तो वाम खांचे में फिट करके देखा जा सकता है और न ही तो राष्ट्रवादी खांचे में| माधव इन दोनों खेमों की राजनीतिक नारों से कहीं अधिक जरूरी समझते हैं कि मानवीय तरलता का पक्ष रखा जाए| माधव कौशिक मानते हैं कि राजनीतिक पार्टियों के पक्ष-विपक्ष में खड़े होने से अधिक “ठीक तो यही रहता/ कि हम/ मौसम के मिजाज को सुरक्षित रखते/ सहेज कर रखते/ वनस्पतियों का हरापन/ हवाओं की सौंधी सीलन/ बचा कर रख पाते/ पृथ्वी का कौमार्य/ गगन का सौभाग्य/ कितना अच्छा होता/ यदि मनुष्य/ बना रहता मनुष्य ही|” मनुष्य को मनुष्य की तरह बनाए रखने के लिए जिस शास्वत खेमा को सुरक्षित रखकर परख की जमीन तैयार करनी होती है, वह है मानवीय अस्मिता और संघर्ष का खेमामाधव कौशिक इसी खेमें के सशक्त हस्ताक्षर हैं और ताउम्र बनकर रहना भी चाहते हैं ताकि वर्तमान में लहलहाती फसलें सुरक्षित रह सकें और आने वाली नस्लें दम-खम के साथ खड़ी हो सकें|   



राजनीतिक चालें सब समझा दे रही हैं

चलो मान लेते हैं कि जिन्ना सामाजिक थे| प्रगतिशील थे| कट्टरपंथियों से चिढ़ते थे कोसते थे उन्हें| जब यह सब कुछ थे तो अलग राष्ट्र निर्माण की नीति का समर्थन क्यों किये?? और बाद में उसी झंडे को उठाकर न सिर्फ नेतृत्व किये अपितु मुस्लिम सम्प्रदाय को लेकर ही पाकिस्तान के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाए??

सच तो ये है कि उन्हें हिन्दुस्तान से नहीं इस्लाम से प्रेम था| हिन्दू से नहीं मुसलमान से प्रेम था| यदि थोड़ी भी भारत और भारतीयता के प्रति प्रेम होता तो विभाजन की नौबत ही क्यों आती?? हिन्दू-मुस्लिम के दंगे तो अभी भी हो रहे हैं, होते रहते हैं| न महज हिन्दू दोषी करार दिए जा सकते हैं और न ही तो मात्र मुस्लिम| दोनों पक्ष की कमियों की वजह से ही ऐसा होना संभव होता है| लेकिन अलग तो नहीं हो रहे हैं| फिर भी एक हैं|


ये बात और है कि इस्लाम अल्पमत में है| जहाँ बहुमत में हैं वहाँ की स्थितियां किसी से छिपी नहीं है| अलीगढ मुस्लिम विवि में जिन्ना का फोटो लगना इसलिए नहीं जरूरी है कि वह संस्थापक सदस्यों में से एक था इसलिए ज्यादा जरूरी है कि वह इस्लाम के संरक्षकों में प्रमुख था| उसने एक अलग मुस्लिम राष्ट्र का निर्माण किया| अभी और भी इस्लामी राष्ट्र भारत से पैदा करने होंगे शायद इसलिए भी इनकी तस्वीरों को सुरक्षित रख कर पूजा जा रहा है?? यह भी एक सच्चाई है कि देश में अभी और भी जिन्ना हैं जो जिन्न बनकर डँसेगे|

कुछ बुद्धिजीवियों का ये भी मानना है कि राजनीतिक नेतृत्व में मुस्लिम लीग के हार के कारण जिन्ना को अपना राजनीतिक भविष्य खतरे में नजर आया इसलिए वे पाकिस्तान की मांग पर उतर आए| हो सकता है| फिर तो आज 20 के लगभग राज्यों में भाजपा की सरकार है तो क्या राहुल गांधी मुस्लिम समुदाय के सहारे किसी दूसरे पाकिस्तान की परिकल्पना करने में सफल हो सकेंगे? क्या वामपंथ, सपा, बसपा और जितनी भी पार्टियाँ अल्पमत में हैं और सांस ले रही हैं किसी दूसरे राष्ट्र की मांग रखेंगे??

कुछ भी हो सकता है| सही अर्थों में यही हिन्दुस्तान है| वैचारिकता की मोह और राजनीतिक सत्ता की लोलुपता व्यक्ति को कितना नीचे गिरा सकती है, वर्तमान समय की राजनीतिक चालें सब समझा दे रहीं हैं|

Thursday 2 May 2019

अकादमियों को “पोर्न साहित्य फेस्ट” के आयोजन पर विचार करना चाहिए|


सदानीरा पत्रिका के माध्यम से आग्नेय और अविनाश मिश्रा की ऐसी कुकृत्य पर बहुत अधिक हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं है| यह सब होना था| दरअसल इस सबकी भूमिका तभी शुरू हो गयी थी जब धूमिल ने "हर तीसरे गर्भपात के बाद" स्त्री को धर्मशाला कहा था| तब भी हमारे साहित्य के तथाकथित आलोचकों ने इसे कविता और राजनीति की यथार्थ अभिव्यक्ति कहा था| आज जब सदानीरा के सहारे आग्नेय के इशारे पर अम्बर पाण्डेय और मोनिका की 'गुदा' पर कविताएँ आई हैं तो फिर से उसकी व्याख्या राजनीति और समाजनीति से की जानी शुरू की गयी है|

दरअसल समाज में कुछ ऐसे अय्यास हैं जिनकी दृष्टि में स्त्री एक योनि और गुदा से बढ़कर कुछ है ही नहीं| ऐसे लोग ही आपको बलात्कार और रेप के विरोध में नारे लगाते हुए मिल जायेंगे| असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी का नाटक करते दिख जायेंगे| इनकी ऐसी हरकत को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सबसे बड़े बलात्कारी और रेपिस्ट यही हैं| कविता में अभिव्यक्ति-स्वतन्त्रता के माध्यम से स्वच्छंदता की खतरनाक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले ऐसे ऐय्यास साहित्यकारों को सडकों पर खींच कर लथेड़ा जाए, विश्वास मानिए बलात्कार जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति कहीं न हो|


ध्यान रहे इसके पहले शुभम श्री 'रोमालियुक्त योनी वाली माँ' की रचना कर के स्त्री योनि के गहराई तक जाकर ऐय्यासी का नमूना पेश किया था, मुझे जहाँ तक याद पोएट्री मैनेज करने के एवज में उन्हें भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से नवाजा भी गया था| सरला माहेश्वरी जी ने उसके बाद की एक कविता में शुभमश्री पर एक कविता भी लिखा| जड़ परंपरा पर क्रांति करती स्त्री तक करार दे दिया था| उदय प्रकाश विधिवत इनको पुरस्कृत किये और यह दावा उनके अन्य समर्थकों द्वारा किया गया की अब हिंदी कविता को वैश्विक हो जाना चाहिए| काव्यशास्त्र की परिकल्पना नए सिरे से की जानी चाहिए| वैश्विकता का प्रमाण ‘स्त्री देह” की गहराई में प्रवेश करने से ही मिल सकता है, यह जड़ मूर्ख, असभ्य और जंगली रचनाकारों से सीखा जा सकता है| इनका लोकतंत्र, इनकी सोच, अभिव्यक्ति स्वतंत्रता यही है जो हम देख और पढ़ रहे हैं|

पिछले दिनों मनीषा कुलश्रेष्ठ, गीता श्री, उदय प्रकाश और भगवानदास मोरवाल जैसे सस्ते रचनाकारों की सड़कछाप रचनाओं को केंद्र में रखते हुए मैंने एक लेख भी लिखा था| वहां भी देह-मर्दन-दर्शन से अधिक कुछ नहीं था| उनके भी समर्थकों ने उन्हें समाज में घटित हो रहे यथार्थ का संवाहक कहा था| यहाँ जो है उसे सब देख ही रहे हैं| चिंता करने की बात नहीं है| अभी आग्नेय आए हैं, कल उदय प्रकाश भी आ जायेंगे| अशोक वाजपेयी भी कूद पड़ेंगे| दिल्ली के आधे से अधिक साहित्यकार, संपादक, प्रकाशक उतर जायेंगे मैदान में इन्हें क्रन्तिकारी और साहसी की भूमिका से नवाजने के लिए| जो इन ऐय्यास साहित्य-गैंग के प्रतिरोध में बोलेगा वह या तो आरएसएस का कार्यकर्ता कहलायेगा या फिर भाजपा का एजेंट अथवा पुरातनपंथी|

ये प्रगतिशील हैं और यही इनकी प्रगतिशीलता| दरअसल सभ्य समाज के प्रति किया जाने वाला विरोध व्यक्ति को गंदे नाले में ही गिराता है| इनका क्या ये तो कीड़े हैं कहीं भी गिरेंगे खाने-पीने-सोने भर का खुराक पा ही जायेंगे| समाज को ये ऐसा ही (गंदे नाले के कीड़े के सामान) देखना चाहते हैं| निर्वस्त्र, ऐय्यास, जंगली और यौन-रत भूमिका में सबको मदमस्त रखना चाहते हैं| इनकी कविताओं को पढ़कर कविता और कवि जैसे शब्द को लिखते हुए भी शर्म आ रही है| यह भी नहीं पता है कि ये इसी समाज के हिस्सा हैं या किसी और समाज के| मुझे तो लगता है ये अपनी ऐय्यासियों की ही वजह से घर-परिवार-परिवेश से मारकर भगाए गए हैं| अब कुछ नहीं बचा तो नंगा होकर ऐय्यासी पर उतर आए हैं|

दरअसल ये अकेले नहीं हैं| समकालीन हिंदी साहित्य में इनकी पूरी जमात है| अभी पिछले दिनों नचिकेता की ऐय्यासी प्रवृत्ति पर लिखा तो बहुत से महानुभाव यह कहते हुए पाए गए कि उनका भोगा हुआ यथार्थ है| साहित्य में वैसा (सस्ता) लेखन करना साहस का काम है| अब महानुभावों को कौन कहे कि कोरे और बिस्तर पर की गयी ‘उठापटक’ के यथार्थ की प्रस्तुति साहित्य नहीं पोर्नोग्राफी है| अब जल्द ही साहित्यिक पोर्न स्टार का एक विज्ञापन दिया जाए अखबारों में| इन सभी को अच्छा रोजगार तो मिल ही सकता है| आखिर है तो यथार्थ ही| जब यथार्थ को कविताओं और कहानियों के जरिये पाठकों सौंपा जा सकता है तो इस क्षेत्र में भी हाथ आजमाना चाहिए|

इधर साहित्य अकादमियों को भी इस विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए| उन्हें “पोर्न साहित्य फेस्ट” के आयोजन पर विचार करना चाहिए| एक पुरस्कार समिति का गठन भी किया जाना चाहिए जिसके प्रमुख निर्णायक मंडल में उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्ठ रचनाकारों को शामिल किया जाना चाहिए| यह एक सुझाव भर है| यदि इनसे भी अच्छा कोई निर्णायक मिल सके (मुझे तो नहीं दिखाई दे रहा है) तो आप स्वतंत्र हैं उसे चुनने के लिए|