Tuesday 10 May 2016

मानवीय संभावनाओं का यथार्थ और उदयप्रकाश की कविताएँ


      साहित्य को विद्वानों द्वारा जिन विशेष अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया गया, जिन मानवीय भावनाओं के साथ जनसामान्य की आशाओं एवं अपेक्षाओं के अनुरूप अब तक की विकास यात्रा में जन-चेतना से जुड़े जिन संभावनाओं को तलाशने की कोशिश की गयी, वह या तो हिंदी साहित्य के मध्यकाल में देखने को मिलती है या फिर साहित्य के समकाल में, जो लगभग स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक अपने विकास पथ पर अनवरत सक्रिय है| हालांकि प्रत्येक युग का साहित्य अपने समय विशेष की विशेषताओं का प्रतिबिम्ब होता है, और है भी, पर अब तक के साहित्य यात्रा पर एक दृष्टि डाली जाए तो यही स्पष्ट होता है कि समय-विशेष का प्रतिबिम्ब मात्र होना ही साहित्य का अर्थ नहीं है | साहित्य वह है जो समय-समाज में विद्यमान स्थितियों एवं परिस्थितियों को व्याख्यायित करने के साथ-साथ उसके अध्येताओं को प्रेरणा और सीख भी दे | प्रचलित और रूढ़ हो चुके परम्पराओं के स्थान पर नवीन परम्पराओं के उद्भव व विकास पर सक्रिय होने के लिए समझ तथा समय-संदर्भित आत्मघाती व्यवस्थाओं से जूझने साहस भी दे | प्रसन्नता की बात यह है कि  इन दोनों ही स्थितियों पर वर्तमान समय-सन्दर्भ को रेखांकित करते हुए लिखा या रचा जा रहा साहित्य अपने उद्देश्यों पर खरा उतरता है |
      इसकी एक वजह जहां रचनाकारों का तमाम प्रकार के तानाशाही बंदिशों से स्वतंत्र होना तो है ही, समय-समाज में नित प्रतिदिन घटित होने वाली घटनाओं में स्वयं की छवि बनती या बिगडती-सी प्रतीत होना भी है | यदि हम अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को कुशल तरीके से समझ सकते हैं तो दूसरों के आशाओं एवं अपेक्षाओं को समझने में हमें किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होगी | इस दृष्टि से साहित्य में स्वयं की स्थिति एवं परिस्थिति को व्यक्त करना ही जनसामान्य के दुख-दर्द को अभिव्यक्त करना है | इसमे कोई दो राय नहीं है कि जो रचनाकार अपने दुःख, अपनी चिंता और अपने परेशानियों को पूर्ण रूप से समझ पाने में कामयाब हो पाता है, दूसरों के दुःख एवं वेदना की समझ उसके मन-मस्तिष्क में बहुत जल्दी स्थान बना लेती है |     
       मध्यकालीन संतों के ह्रदय में भी यही समझ जगी थी | नितांत वैयक्तिक अवहेलनाओं का जो दंश उनके हृदय में रह रहकर चुभता था, संतों ने उसे चुपचाप सह जाने के बजाय सार्वजनिक पटल पर जनसामान्य के समक्ष खोलकर रखना ही उचित समझा | जो यातना, जो कष्ट, जो पीड़ा, उन्होंने सहा, जो अपमान, जो उपेक्षा और अलगाव का जो दंस उन्होंने झेला...यह आश्चर्य की बात नहीं कि संसार के सभी जनसामान्य को उन्हीं स्थितियों एवं परिस्थितियों में देखने का प्रयत्न किया | देश जिस बुरे दौर से उनके समय में गुजर रहा था वह यहाँ व्याख्यायित करने की आवश्यकता शायद नहीं है | जनसामान्य किन विपरीत परिस्थितियों के माहौल से आतंकित था इस बात से भी शायद ही कोई अनभिज्ञ हो | दो वक्त की रोटी और दो टूका कपड़े के मुहताज आम आदमी बिन घर-बार, परिवार के पालन-पोषण के लिए प्रतिपल चिन्ताओ का सामना करते हुए किस तरह स्वयं को सदाबहार मौसम की तरह देख रहे थे...यह आज भी कुछ गरीब बस्तियों में पहुँच कर देखा जा सकता है | किसी बड़े तबके के निवास स्थल पर पहुँच कर समझा जा सकता है | किसी सार्वजनिक स्थल या सामाजिक आयोजनो में प्रतिभागिता करते हुए महसूस किया जा सकता है | ‘आम’ के नाम पर ‘खास’ पर मेहरबान समय-समाज किस तरह जनसामान्य को हाशिए पर ला खड़ा किया है, यह स्थितियां आज भी वर्तमान हैं, और उस समय भी थी...जब संत समुदाय समाज में प्रचलित जड़ परम्पराओं में परिवर्तन की आकांक्षा लिए विरोध और प्रतिरोध का मार्ग अपना रहे थे |
     इनके समय के षड़यंत्रकारी शक्तियां विल्कुल भी चुप नहीं बैठे थे | तरह तरह के आरोप-प्रत्यारोप गए दिन इनके ऊपर लगा ही दिए जाते थे | यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इसके बावजूद, उन्हीं बस्तियों में वर्तमान रहते हुए भी उन्होंने मुक्ति का स्वप्न देखा और स्वप्न के आवरण में ही सही...स्वयं के दुःख के साथ-साथ लोगों के दुखों को भी अपने ‘करनी और कथनी’ का आधार बनाया | यही वजह है कि रोजी-रोटी, घर-परिवार, देश-समाज की संतुलित एवं सामंजस्यपूर्ण दशा एवं दिशा निर्धारित करने के लिए इन संतों ने कभी भी व्यक्तिगत हित को महत्व नहीं दिया | कबीर का दुःख स्वयं का दुःख नहीं था| उनकी पीड़ा, उनकी खीझ स्वयं की पीड़ा और स्वयं की खीझ नहीं थी | दांसता, गरीबी एवं भुखमरी के कीचड में धंसे तथा वर्णवाद, छुआ-छूत और जाति-पांति के दलदल में उलझे हजारों-करोड़ों निरीह और असहाय मानव की पीड़ा और खीझ थी| गुरुनानक, रैदास, दादूदयाल, सुन्दरदास जैसे संतों को आखिर कमी किस बात की थी, पर इन सबको भी जनसामान्य के वही दुःख, वही वेदनाएं दिखाई दिए थे, जिन्हें समाप्त करने के लिए कबीर ने बीड़ा उठाया था | हालांकि आज हमारे मध्य कबीर नहीं हैं और वे संत कवि भी नहीं हैं, पर उनके विचारों, सिद्धांतों एवं व्यवहारों का कारवां, जिनको लेकर वे आगे बढे थे और जिनके विषय में जनसामान्य को जागरूक कराना चाहते थे, आज भी अपने उसी रूप में चल रहा है |
       कुछ प्रमुख समकालीन कवियों में इसकी वर्तमानता स्पष्ट और साफ दिखाई देती है जिनमे, मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन शास्त्री, लीलाधर जगूड़ी, धूमिल, कुमार विकल, जो उनके समान ही इस धरती को स्वप्नवत निर्माण करने की प्रक्रिया में शामिल करते करते बहुत कुछ स्वप्न जैसा छोड़कर चले गए और जिनमे से कुछ में केदारनाथ सिंह, चंद्रकांत देवताले, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप, विष्णु खरे, अरुण कमल, उदयप्रकाश जैसे उसी स्वप्न को साकार रूप देने की प्रक्रिया में जो ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उसे सजाने और संवारने में मशगूल हैं | यह मशगूलता स्वयं में एक वेदना है जो हजारों-करोड़ों संवेदनाओं के करुणाजन्य परिस्थिति और उनके दारुण दशा से अभिसिंचित है | और अब, जब इनका पदार्पण इस बेहद संवेदनशील क्षेत्र में हुआ है, तो निर्वासन से लेकर आत्म निर्वासन तक के झंझावातों से गुजरना इन्हें पड़ेगा ही |
      कहना न होगा कि इस तरह का रास्ता अख्तियार करना कभी-कभी एक भयंकर बीमारी या फिर सीधे मृत्यु को आमंत्रित करने के बराबर भी होता है | यह बात और है कि साहित्य जगत में वर्तमान रहने के लिए तमाम प्रकार के विरोधों से गुजरते हुए ही जन्धार्मिता का निर्वहन किया जा सकता है | सन् 1960 के बाद से लेकर आज तक इस प्रकार के विरोधों से लड़ना रचनाकारों ने अपने जीवन का प्रथम लक्ष्य ही बना लिया था  उदयप्रकाश जी ने अपने रचनाधर्मिता के प्रति इस बात को स्वीकार भी किया है-“यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि कैंसर और मृत्यु के आसन्न आगमन को अतिक्रमित करने या उससे टकराने की इच्छा ही मेरी कविताओं या कहानियों का मूल उद्गम श्रोत है...यह बात अलग है कि मेरे जैसे नगण्य, सामान्य और औसत लेखक के हिस्से में असफलता के ही आने की संभावना अधिक है, लेकिन अगर मेरी तमाम कविताओं और गद्य लेखन में त्रिलोचन की ‘धरती का गद्य’ किसी एक वाक्य में भी व्यक्त हो सका, कविताओं की किसी एक रदीफ़-काफिये शमशेर की ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ की किसी पंक्ति के पासंग भी हो सके, तो वह निमिष मेरी सफलता, मेरी अनश्वरता और रचना के माध्यम से मेरी कालजित शाश्वतता का क्षण होगा |”1 लेकिन सत्य यह भी है कि इस विशेष क्षण को प्राप्त करने के लिए ऐसे कई झंझावातों से गुजरना होता है जो जाने-अनजाने हमारे परिवेश में ही विद्यमान होते हैं और अपने प्रभाव से आच्छादित किए होते हैं |
      समकालीन रचनाधर्मिता और उससे उपजे तमाम प्रकार की विसंगतियों पर यदि विचार किया जाय तो उदय प्रकाश जी के यहाँ इस प्रकार के झंझावत कुछ अधिक ही विद्यमान हैं | इनके चिंतन और लेखन का आधार वही आम आदमी हैं जो कबीर आदि के चिंतन और संवेदना के आधार थे | निरा ग्रामीण परिवेश के वे पात्र जिन्हें आए दिन राजनीतिक षणयंत्र का शिकार होंना पड़ता है| पूंजीवादी शक्तियों के समक्ष अपने सभी सुख-साधनों को समर्पित करना होता है | सार्वजनिक स्थलों पर, तीजों-त्योहारों पर अपमानित, लांक्षित एवं शोषित होना पड़ता है | खुद खाने के लिए मरे, परिवार टूटे, पर अपने आकाओं को खुश रखना होता है, ऐसे सभी पात्र उदय प्रकाश जी के यहाँ वर्तमान हैं | हालांकि उनपर दूसरों की निगाहें बहुत कम ही पड़ा करती हैं, और यदि पड़ती भी हैं तो एक स्वार्थ-विशेष के आवरण में ही...या तो कोई राजनैतिक उद्देश्य हो अथवा किसी प्रकार ठगने की कोई योजना| पर कवि बहुत संवेदनशील प्राणी होता है उसे एक आम आदमी की स्थिति, भले ही वह कितना ही छुपाए, आसानी से पता चल जाती है, ऐसी ही स्थिति का पता कवि को ......के रूप में भी चलता है और वह कह बैठता है-
हम जानते हैं कि तुम्हें अभी
परधान का खेत निराना है, ठाकुर के
गोरु चराने हैं, पटवारी का चौखट बनाना है,
पंडिज्जी की रसोईं के लिए
लकड़ी चीरना है, पटेल का हल चलाना है.
तकादे में आए महाजन के
कारिंदे को फिर से टकराना है |2
     यह एक विडंबना ही है कि आदमी एक है और उससे सेवा लेने वाले अनेक हैं | उन सभी में बस लिबास का अंतर है, स्वभाव या व्यवहार इनका मात्र एक ही है...शोषण और अत्याचार | आचार ऐसा जिसके तहत सबको गुलाम बनाकर रखा जा सके | यह कोई आज की बात है भी नहीं | पूरी की पूरी पिछली सदियाँ उनके इस गुलामपन की गवाह रही हैं | उठने का अवसर इन्हें कभी दिया ही नहीं गया | दबाने का प्रयत्न हद से अधिक किया गया | इनके जो व्यक्तिगत अधिकार होते भी थे उस पर भी सामाजिकता का आवरण लोगों द्वारा चढ़ाकर रखा गया | थोड़ी सी भी कोशिश यदि ये करना चाहे उस आवरण को हटाने की तो सामाजिक बहिष्कार का फरमान सुनाया गया | आश्चर्य की बात तो यह है कि यह फरमान सुनाया भी उसे गया जिसने समाज के निर्माण में अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया | खेत से लेकर खलिहान तक, घर से लेकर बाजार तक की काल्पनिक स्थितियों को साकार स्वरुप देने वाले इस आम आदमी को खेत, खलिहान, घर से नदारद करके बाजार की वस्तु समझा गया | बाजार में भी इनके किसी अन्य रूप को महत्व नहीं दिया गया, शिवाय इनके श्रम के | यह श्रम ही है जिसकी वजह से वे इस दुनिया में अब भी अपने होने को लेकर आश्वस्त हैं | पर कवि को दुःख है कि जिसने समाज-निर्माण के कण कण में अपना योगदान दिया, वहाँ इस आम आदमी का नाम मात्र भी नहीं छोड़ा जाता | इनका सम्पूर्ण जीवन एक पहेली मात्र बनकर रह जाता है | इनके आने वाले संतति को ये हर एक जगह दिखाई देते हैं पर जब यथार्थ स्थिति उन्हें पता चलती है तो एक पश्चाताप और प्रश्नाकुल निगाहों के अतिरिक्त होता भी कुछ नहीं है | उदय प्रकाश जी ने अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से यथार्थ का सुन्दर चित्र खींचा है-
“एक एक ईमारत पर
उनकी कन्नियाँ सरकीं थीं |
एक एक दीवार पर
उनकी उँगलियों के निशान थे |
हर दरवाजे की काठ पर
उनका रंदा चला था |
...नाके के इस पार
जहां से गाँव की वीरानगी शुरू होती है
हर खेत की कठोर छाती पर
पिता अपनी कुदाल
धंसा गए थे |
हल की हर मूंठ पर
उनकी घट्ठेदार हथेलियों की छाप थी
हर गरियार बैल के पुट्ठों पर
उनके डंडे के दाग थे...
बाद में पिता
गायब हो गए
कहते हैं खेत, कुदाल,
बैल, इमारतें, ईंटें, दरवाजें,
बाजार
उन्हें पचा गए |”3
     किसी को पचा ले जाना हालांकि आसान कार्य नहीं है पर मुश्किल भी उतना नहीं है जितना कि हम सोचते हैं | जहां पचा ले जाने की यह प्रवृत्ति आम आदमी के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप सिद्ध हुआ वहीँ यह बड़े तबके के लोगों तथा पूंजीपति-वर्ग के लोगों के लिए किसी आशीर्वाद से कम भी नहीं है |  ये लोग गाँव से लेकर शहर तक, घर से लेकर ऑफिस तक, हर एक जगह मौजूद दिखाई देते हैं | बड़ी विडंबना तो ये है कि इनकी ये मौजूदगी आवश्यकता वश नहीं साधिकार होती है | समकालीन सामाजिक संरचना को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जनसामान्य के समस्त संभावित सुख-दुःख का                                                            ठीकरा यही लेकर बैठे हैं | जबकि आज का कवि इनके इस स्थिति तथा दावे को सिरे से नकारता है | दरअसल, उदयप्रकाश जी का चिंतन आम आदमी की वेदनामय अन्तर्दशा से है | शोषक और शोषित की तमाम विडंबनाओं से इनका साक्षात्कार अनवरत होता ही रहता है | इनके दृष्टि में आम व्यक्ति कितना भी अपने कार्यों में दक्ष क्यों न हो, अपने क्षेत्र तथा व्यवसाय का जानकार क्यों न हो, पर शोषण का शिकार आए दिन उसे होना ही पड़ता है | यह एक कटु सत्य है कि अपने तमाम मजबूरियों का कारवां लिए तथा असामान्य परिस्थितियों का सामना करते हुए नौकरी छोड़ने के लिए विवश यही आम आदमी होता है | गलती कोई भी करे डांट खाने के लिए मजबूर इसी को होना पड़ता है | इस प्रकार के विवशता और मजबूरी के पीछे कहीं न कहीं इनका निराशापन भी होता है जो परिस्थितियों से जूझने के बजाय झुकने के लिए अधिक मजबूर करता है | “जीवनदास” के बहाने उदयप्रकाश जी आम जनमानस से यही पूंछना चाहते हैं कि-   
 “कब तक अकेले दफ्तर से
लौटोगे गंजे-गुस्सैल बाबू का
मेज वाली घंटी पर हांफते-झींखते
कब तक कैरियर में
खाली झोला भूखा कनस्तर
झुलाए लौटोगे
कब तक बच्चों के गाल में
खली थपकियाँ बजाओगे
कब तक औरत को ठोंक-पीट कर
सुलाओगे
शहर की नीयत और
मोहल्ले की चाल-चलन पर
कब तक भरोसा करोगे जीवन दास?
कब तक
आखिर कब तक
यूं खोए-लुटे
थके रुआँसे रहोगे?”4
      झुकने की भी तो एक सीमाएं होती हैं | सहने की भी एक हद होती है | इसके बाद यदि कुछ बचता है तो वह इनकार है | नकार का साहस आज तेजी से बढ़ा है आम आदमी में | जो उन्हें रुचिकर है वह ख़ुशी से कर रहे हैं और जो अरुचिकर है उसे सीधे तौर पर नकार रहे हैं | गाँव से लेकर शहर तक उनके शोषण के जो दांवपेंच थे, वे अब निरर्थक साबित हो रहे हैं | इसका जो प्रमुख वजह है वह है जनसामान्य के लिए अपने अस्तित्व का बोध होना | अपने अधिकार और अपने दायित्वों को पाने तथा निभाने की प्रतिबद्धता का अहसास होना | यह साहस और यह अहसास समाज से लेकर साहित्य तक स्पष्ट रूम में दिखाई दे रहा है | आदिवासी साहित्य से लेकर दलित साहित्य तक की जो स्थिति है कहीं न कहीं इसी साहस और अहसास का परिणाम है | यह उदयप्रकाश जी को अच्छी तरह पता है और इसीलिए इस बात को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि-
    “जानते हैं हम
की तुम्हारी छाती के भीतर  
पहली बार गुस्से की आग अब धधकी है.
पहली बार तुम्हारी मुट्ठियाँ
कुल्हाड़े पर अब कसी हैं
पहली बार तुम्हारे आँखों के पीछे
तेंदुए की लौक झलकी है
पहली बार तुम्हारी नसों में बाघ का बनैला
खून दौड़ा है |
पहली बार तुम्हारे
पखेरुओं जैसे भोले-भाले दिमाग ने
दूर दूर तक सोचा विचार है
अपना भला बुरा, हित-अहित सोचा है | 
पहली बार  
सैकड़ों साल पुराने बरगद की  
पत्तियों से उतारकर आई हैं  
तुम्हारे पुरखों की आत्माएं
और उन्होंने इतिहाश का सत्य
तुम्हारे सामने खोला है |”6
   लेकिन यह सब पहली बार हो रहा है | यानि सत्ता और शक्ति का अधिकार उन्हें अब जाकर प्राप्त हुआ है | किसी भी समाज तथा सभ्यता के विकास का आधार वहाँ की सत्ता होती है | यह विडंबना ही है देश का कि सत्ता और अधिकार ये दोनों स्थितियां एक वर्ग विशेष के ही केंद्र में रही हैं जिनका उपयोग वे हर समय अपने फायदे के लिए करते रहे हैं | दूसरा छला जा रहा है या शोषित हो रहा है इसका उन्हें कभी भी अफ़सोस या पश्चाताप नहीं हुआ | आज जब शक्ति और सत्ता पर जनसामान्य अपना अधिकार जता रहा है तो उन्हें दबाने और पीछे करने के नए-नए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं | विरोधाभाष की स्थिति तो तब दिखाई देती है जब किसी विशेष आयोजनों पर वे इनके सबसे बड़े शुभचिंतक बनने का प्रयत्न करते हैं और वहीँ जब उनके द्वारा निर्धारित प्रतिमानों को लांघ कर अपनी स्वतंत्रता का इजहार करना चाहते हैं तो ये चिल्लाना और गुर्राना शुरू कर देते हैं | उदयप्रकाश जी की “एक न एक दिन” की ये काव्य-पंक्तियाँ विशेष ध्यान देने लायक हैं-
 “जब पहली बारिस की उमस के बाद  
पौधे बढ़ना चाहेंगे, चिड़िया चहचहाना,
बच्चे हंसना, नदी बहना
लड़की जब लम्बे लम्बे प्यार के बाद  
ऊबकर व्याह करना चाहेगी
वे अपने पैने दांत निकाल कर
गुर्राना शुरू कर देंगे |”7  
गुर्राने और चिल्लाने की प्रवृत्ति को व्यक्ति सहन कर सकता है लेकिन तभी तक जब तक वह मजबूर है | असहाय और अनाथ है, लेकिन समय सबका खबर लेता है | परिवर्तन का लहर जब उठता है तो बड़े बड़े का इम्तहान हो जाता है | हर स्थितियों को रोका जा सकता है | किसी को भी बढ़ने या विकास पथ पर सक्रिय होने से पीछे किया जा सकता है लेकिन जब लहर परिवर्तन का हो तो उसे मोड़ पाना असंभव हो जाता है | विश्व के बड़े से बड़े क्रांति इस बात के गवाह हैं | जनता जब भी जागृत हुई है अपना हिसाब व्याज सहित वसूल की है | यह स्थिति आज इस देश में भी आ चुकी है | किसी भी प्रकार के झांसे और अवरोध को सहन करना किसी भी स्थिति पर जनसामान्य को स्वीकार्य नहीं है | पूंजीवादी सभ्यता का अंत और सच्चे अर्थो में समाजवाद की स्थापना का यही समय है | उदयप्रकाश जी ने अपने एक कविता “मालिक, आप नाहक नाराज हैं” के माध्यम से इस बात को और भी सुन्दर तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सारी स्थितियां व्यक्ति के वश में हो सकती हैं लेकिन परिवर्तन को वश में करना किसी भी शक्ति के वश की बात नहीं है यदि ऐसा करने का प्रयास किया भी जाता है किसी द्वारा तो समाज में हास्यास्पद ही होगा-
 “मालिक यह धुप है  
जेठ की असल  
जैसे जैसे सूरज चढ़ेगा और धरती घूमेगी  
यह और तपतपाएगी  
गर्म लाल लोहे की तरह  
और मोम की तरह चुएँगे आप
कुल्बुलाएँगे  
बिलबिलाएँगे आप
कितना ही अंगोंछा लगा लें सरकार
और हवा,  
इसके मन की बात तो मत पूछिए मालिक
जितना ही आप गुस्साएंगे
उतना ही सर पर दौड़ेगी कंघी-पाटी मेटती हुई
आपकी कोई बात अगर इसके कलेजे लगी  
तो मत पूंछिए फिर सरकार  
हवा बिगड़ उठती है तो कहर ढाती है  
कंगूरे, गुम्बद, किले सब बिखेर डालती है
जहाज़ों को गेंद की तरह उछलती है
नदियों को फुहार बना देती है
तिनगी को बडवाग्नि  
आप तो फिर क्या हैं मालिक !  
फूस की तरह उड़ेंगे अंधड़ में  
पटकनी खाएँगे खपरैलों में
बेपर्द अलग हो जाएँगे  
और नीचे धरती पर  
इत्ते सारे-इत्ते सारे रंग  
सबके सब  
आपका मजाक बनाएँगे|”8   
  
      यह सही है कि समय समाज की परख जिस युग के रचनाकार में जितनी गहरी होगी, देर से ही सही जनसामान्य की भावनाओं एवं संभावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम वह बनेगा जरूर | उदयप्रकाश के कवि-ह्रदय की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे सिर्फ आम आदमी के भावनाओं एवं संभावनाओं को समझते ही नहीं अपितु उसे सबलता प्रदान करने के लिए अपनी पूरी जिज्ञासा भी प्रकट करते हैं | वर्तमान समय में लिखी जा रही कविताओं का निहितार्थ भी इसी में है कि वह उनकी जरूरतों को पूरा करे जो उपेक्षित और अपमानित हैं | हालांकि ऐसा करना किसी भी रूप में उस लेखक या कवि के लिए आसान कार्य नहीं है, पर परिस्थितियों से टकराते हुए आगे बढ़ना ऐसे रचनाधर्मी ह्रदय का स्वभाव भी होता है और सिद्धांत तथा व्यवहार भी | उदयप्रकाश जी को यह समझ गहरे यथार्थ में हुआ है और सबसे बड़ी बात तो ये है कि वे अपने समय के यथार्थ से बहुत गहरे में परिचित हैं | ऐसे यथार्थ से जो पूर्ण रूप से परिवर्तित होकर अपना रूप बदल दिया है, पारंपरिक के आधार पर बहुत कुछ नया पर वही ढर्रेवादी रवैया जिससे निकलने की कोशिश जनसामान्य द्वारा बड़े अरसे से किया जाता रहा है | अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए उदयप्रकाश ने “ईश्वर की आँख” में कहा है-“तो ऐसा हो रहा है हमारा यथार्थ | इसमें पुराने सामाजिक संबंधों का अचानक रूपांतरण हो गया है | शोषण और उत्पीडन के जिन वर्गीय प्ररूपों से हम अब तक, इतिहास और आख्यानों द्वारा परिचित थे, उनको नए, अप्रत्यक्ष, अपरिभाषित प्ररूपों ने विस्थापित करना शुरू कर दिया है | इन नए वर्गों और प्ररूपों की उपस्थिति, दखल अन्दाजी, हिंसा और उनका आक्रमण हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बनता जा रहा है |”5 और इसके जो पैरोकार हैं उनकी सिनाख्त करना भी किसी रूप में सहज नहीं है | जो हमारे शुभचिंतक हैं कहीं वही हमारे परेशानी के सबसे बड़े वजह तो नहीं हैं, यह पहचान भी अब आसन नहीं रहा गया है | जो अच्छे हैं और जो जनसामान्य का, समाज का हित चाहते हैं वे तो गुमनामी का दंश झेल रहे हैं और जो समय समाज के सबसे खतरनाक, अमानवीयता के प्रहरी और दानवता के पोषक हैं....स्वयं को समाज का शुभचिंतक घोषित कर रहे हैं |
“अब तो वह आएगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा  
हो सकता है, वह कहता हुआ आए कि मैं इस
शताब्दी का सबसे ज्यादा छाला गया व्यक्ति हूँ  
और वह विनोबा भावे और संत तुकाराम के बारे में  
बात करे या सफ़ेद सफ़ेद कपडे पहनकर
सफ़ेद सफ़ेद कबूतर उड़ाए या निरशस्त्रीकरण
पर वक्तव्य दे
उसका चेहरा सफाचट हो, चहरे में झुर्रियां हो
और वह सेना और पुलिस के होने के ही खिलाफ हो
वह भाषणों में करता हो चिड़ियों
और बच्चों से बेतहाशा प्यार
कहीं उसने बनवा दिया हो अस्पताल, 
कहीं खोल दी हो प्याऊ, कहीं कोई,
धर्मशाला,
कोई नृत्यकेंद्र,
कोई पुस्तकालय |
......और यह भी बिलकुल संभव है  
की उस वक्त उसको शांति का नोबेल पुरस्कार  
दिया जा चूका हो या उसका नाम
उस सूची में सबसे ऊपर हो |”9
   
यहाँ सामयिक सन्दर्भ के इस सच्चाई को सुन्दर तरीके से अभिव्यक्ति दी गयी है कि जो जितना ज्यादा भ्रष्ट है वह उतना ही अधिक समाज-शुभचिंतक माना जाता है | जिसमे षड़यंत्र और धोखेबाजी की जितनी अधिक परख होती है, पुरस्कृत भी वही होता है और शांतप्रिय भी वही समझा जाता है | गरीबों का मसीहा भी उसे माना जाता है और दयालुता की प्रतिमूर्ति भी उसी को घोषित किया जाता है जबकि जिनके अन्दर ईमानदारी है, वैमनष्य नहीं है, समझदारी है, वह उतना ही अधिक बड़ा दलाल, धूर्त और मौकापरस्त घोषित किया जा रहा है| पर यह कहे तो कौन कहे? यदि कोई आवाज उठाता भी है इनके प्रतिरोध में तो एक तो वह देशद्रोही और आईएसआई का एजेंट करार दिया जाता है; दूसरे शांतिभंग करने के उद्देश्य से षड़यंत्र रचते हुए गिरफ्तार कर लिया जाता है | कवि हो या साहित्यकार, जो तो चाटुकारिता प्रिय होते हैं, उन्हें मोटे रकम देकर चुप करा दिया जाता है और जो चाटुकार नहीं हैं या नहीं होते उन्हें या तो लाचारी से लेकर बेगारी तक जीवन यापन करने के लिए विवश किया जाता है अथवा समय समाज में वर्तमान होते हुए भी गुमनामी का दंश झेलना होता है| फिर राजनीतिक परिदृश्य पर बात की जाए तो सत्ता पक्ष यह कभी नहीं चाहेगा कि उस यथार्थ को अपने कविता या कहानी का माध्यम बनाकर जनता तक पहुंचाए जो उनके जीवन यापन का आधार है | वे तो सदा सर्वदा यही चाहते हैं कि कविता तो कम से कम समाज में लिखी ही न जाए | यदि कविता लिखी जाए तो वह राजनैतिक न हो | एक हद तक सामाजिक भी न हो | जो कविता या साहित्य सामाजिक होगा राजनीतिक उसे स्वभावतः होना होगा | सत्ता पक्ष के कविता या कवि विरोधी इस रवैये पर उदय प्रकाश जी की अभिव्यक्ति देखिये-
“राज्य सत्ता कहती है -
कविता को नहीं होना चाहिए
राज्यसत्ता के बारे में
कानून के बारे में नहीं होनी चाहिए  
कोई कविता
तंत्र के बारे में
कविता को नहीं होना चाहिए  
सिर्फ चाहिए जैसी कविता
के बारे में |”10
यह सत्य है कि कविता यदि राज्यसत्ता, न्यायपालिका के सम्बन्ध में होगी या रची जाएगी तो फिर उनका क्या होगा जो इनके आवरण में अपने जीवन के अस्तित्व को संजोए बैठे हैं | उदयप्रकाश जी इन स्थितियों से बहुत ही गहरे रूप में जुड़े हुए हैं | समकालीन स्थितियों एवं परिस्थितियों से उपजे तमाम प्रकार के विसंगतियों को उन्होंने सही तरीके से अनुभव किया है| सत्ता एवं शासन के दोहरे रवैये से आम आदमी जिस तरीके से व्यथित एवं कुंठित है, यह उदयप्रकाश जी के कविताओं में प्रमुख रूप से व्यंजित हुआ है | यही परिदृश्य काफी कुछ हद इनके कहानियों में भी उभरकर सामने आता है | इनके कहानियों के अधिकांश पात्र सत्ता के दोहरे रवैये की वजह से निर्वासितों का सा जीवन व्यतीत करते हैं | वे न्याय पाने की लालसा लिए भटकते मात्र हैं | इस भटकाव में उन्हें शोषण एवं उपेक्षा मात्र मिलता है | यही शोषण एवं उपेक्षा का दिग्दर्शन इनके काव्य का प्रमुख केंद्र है | सच तो यह है कि उदयप्रकाश को समझने के लिए उनके कहानियों एवं कविताओं को एक करके पढ़ा जाना चाहिए | ऐसा करने से समकालीन यथार्थ से व्यथित आम आदमी का दुःख-दर्द स्वयमेव व्यंजित हो उठेगा | इन्हीं संभवनाओं की तरफ इशारा करते हुए परमानन्द श्रीवास्तव जी ने लिखा है, “क्यों ऐसा नहीं हुआ कि उदय प्रकाश की कविताओं में छिपे उनके कथाकार और उनकी कहानियों में छिपी कविता पर सतर्क पाठकों का ध्यान जाता और मूल्यांकन की कोई और नई समावेशी पद्धति जन्म लेती | जिस जादुई यथार्थवाद के लिए उदयप्रकाश की कहानियाँ अनेकार्थी जान पड़ती हैं और एक से अधिक पाठ के लिए पाठकों को उत्सुक बनाती हैं उससे मिलती-जुलती अपरिचयीकरण (दिफेमिलियराइजेशन) सरीखी कव्ययुक्ति का इस्तेमाल करके ही उनकी कविताएँ अधिक सार्थक बन सकी हैं |”11 ऐसा होने के पीछे कई तरह की भूमिकाओं का एक साथ निर्वहन करना तो है ही उसे कई रूपों में भोगना भी है | ऐसा व्यावहारिक जीवन में ही संभव है | उदयप्रकाश पूर्णतः व्यावहारिक हैं | सैद्धान्तिकता तो इनके काव्य से लेकर कहानी तक नदारद की स्थिति में है | अतः यह कहना गलत न होगा कि समकालीन परिवेश विद्यमान जितनी भी संभावनाएं एवं परिस्थितियाँ हैं वह सब उदय प्रकाश के साहित्य में अपने यथार्थ रूप में व्यंजित हुआ है |  


सन्दर्भ-सूची,
1.     उदयप्रकाश, ईश्वर की आँख, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, संस्करण द्वितीय-2005, पृष्ठ-15
2.     प्रकाश, उदय, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताब घर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-83
3.     वही, पृष्ठ-11  
4.     वही, पृष्ठ-15
5.     उदयप्रकाश, ईश्वर की आँख, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, संस्करण द्वितीय-2005, पृष्ठ-77
6.     प्रकाश, उदय, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताब घर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ 83-84   
7.     वही, पृष्ठ – 23
8.     प्रकाश, उदय, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताब घर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-20-21
9.     प्रकाश, उदय, सुनो कारीगर, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2007, पृष्ठ - 44-45
10.                        प्रकाश, उदय, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताब घर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-69  
11.                        प्रकाश, उदय, अबूतर कबूतर, दिल्ली, स्वर्ण जयंती, (आवरण पृष्ठ से)