Thursday 30 November 2017

लोक विरोधी समकालीन ‘कविता का लोक’ ('लहक' के अक्टूबर नवम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित)


1. 
      समकालीन हिंदी कविता आन्दोलन से लेकर आज तक के साहित्यिक परिदृश्य में बहुत से आलोचक ऐसे मिल जाते हैं, जिनके दृष्टिकोण में उस समय का प्रत्येक कवि स्वयं में एक आन्दोलन और एक क्रांति होता था| स्वभाव में ‘संत’ और व्यवहार में ‘समाज सुधारक’ था| ‘बिना खड्ग बिना ढाल’ के आततायी शासन-सत्ता का प्रतिरोध करता था और जनता के दुखों का निवारण भी| सभी प्रकार के दुखों में सामाजिक जड़ता और सत्ता की लापरवाही का प्राबल्य होता था जिसे ठोक-पीटकर सही करने का कार्य कवियों द्वारा ही निभाया जाता था| वे मानते हैं कि पुलिस-व्यवस्था निरंकुश थी| जनता राजनीतिक विवेक हीनता का शिकार थी| शिक्षा का साधन न होने से उच्च वर्ग के षड्यंत्र का शिकार आए दिन उन्हें होना पड़ता था| कहीं से भी सामाजिक-विवेक की लौ जलती नहीं प्रतीत होती थी| अधिकतर समाजिक व्यक्तित्व ऐय्यास और निकम्मेपन के शिकार थे| ऐसी परिवेश की वर्तमानता में आलोचकों की दृष्टि में सोलह आने खरे और शुद्ध सामाजिकता का निर्वहन उस समय के कवियों द्वारा किया जाता था|  
        बड़ा संतोष होता है| गर्व भी होता है ऐसा सुन और पढ़कर| आलोचकों के दृष्टिकोण में अपनी दृष्टि मिलाते हुए कहें तो यह भी सोचना आवश्यक हो जाता है कि काश वे कवि आज भी हमारे समय में वर्तमान होते? लेकिन जैसे ही उस समय के (साथ-ही-साथ आज के भी) कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों को नजदीक से पढ़ने का जोखिम उठाता हूँ (प्रचारक-आलोचकों से असहमति रखते हुए) एक विशेष प्रकार की हताशा और निराशा से भर उठता हूँ| उस समय से लेकर आज तक के समय में वर्तमान वैसे कवियों को पढ़ते हुए पता नहीं क्यों ऐसा लगता है जैसे इनसे बड़ा षड्यंत्रकारी और निकम्मेपन की समस्त सीमाओं को लांघ जाने वाला कोई और दूसरा था ही नहीं| जिन कवियों को आज साहित्य-देवता मानकर उन्हें पूजा जा रहा है और जिनके नाम पर आज पुरस्कार पर पुरस्कार बांटे जा रहे हैं, ऐसे बहुत से कवि निष्कर्ष-रूप में भूख और वेदना से मजबूर परिवेश में शमशान के राख पर नृत्य करने वाले विदूषक से दिखाई देते हैं| पड़ोस में हुई मृत्यु घटना से चीखते कराहते परिवेश में नौटंकी के मंच पर नाचते जोकड़ प्रतीत होते हैं|
         यदि अपने स्वभाव और व्यवहार में कवि विदूषक और जोकड़ हो सकते हैं तो आलोचक निश्चित ही भाड़े पर बुलाए गए वाह-आह करने वालों की श्रेणी में तो आते ही हैं| जब आलोचक और कवि के व्यावहारिक कार्य को सामने रखकर देखने की कोशिश की जाती है तो यह सच है कि षड्यंत्र और धोखे से भरा समकालीन ‘कविता का लोक’ कई दृष्टि से विचलित और परेशान करता है| यदि उस समय के कवि इतने ही समृद्ध थे फिर आलोचना और कविता में आखिर एक ही स्वर क्यों देखने को मिलती है? कवि की ललकार में आलोचक की पुचकार क्यों शामिल हुई दिखाई देती है? क्यों कवियों की स्वेच्छाचारिता के खिलाफ आलोचक मुखर होकर सामने न आ सके? कहीं उस समय के आलोचकों की ये मंशा तो नहीं थी कि कवियों की ऐय्यासी में “हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो” जाए और चौथे गर्भपात की व्यवस्था वे स्वयं करते हुए दिखाई दें?
        भारतीय परिवेश का समकालीन परिदृश्य मानवीय विकास की दृष्टि से कभी भी स्थिर न रहा| समकालीन कविता आन्दोलन से लेकर उसके प्रौढ़ावस्था तक के समय में जनता पर अनेकों प्रकार की आकस्मिक परिस्थितियां आईं| एक-एक करके अचानक आईं इन परिस्थितियों ने सम्पूर्ण परिवेश और समाज को झकझोर कर रख दिया| इन परिस्थितियों के केन्द्र में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अस्थिरता, 1962 का भारत-चीन युद्ध, इंदिरा गाँधी के कांग्रेस द्वारा थोपा गया जबरन आपातकाल, भारत पकिस्तान युद्ध, 1984 का दंगा और इसके साथ ही बाबरी मस्जिद घटना और इन सब के बीच में अनेकों बाढ़, सूखा, दंगा-फसाद, महामारी आदि की समस्याएँ प्रत्यक्षतः दिखाई देती हैं| इन परिस्थितियों से जूझने में अच्छे-खासे पूंजीपति-वर्ग के लोगों की आँखों में कींच आ गये थे, खाना-पीना भूल बैठे थे सब| दवा-दुआ की तो बात दूर दो वक्त की खुराकी तक चलाना मुश्किल हो चला था|
         ऐसी परिस्थिति में आम आदमी की क्या स्थिति रही होगी यह उस समय के इतिहास को उठा कर ठीक तरह से जाना जा सकता है| साहित्य के दृष्टिकोण से नहीं क्योंकि जो तो मानवीय संवेदना को प्रकट करने वाले थे उन्हें आउट डेटेड करार देकर पुरातन पंथी घोषित किया जा चुका था| जो ‘आम’ की मुद्रा में रहते हुए ‘ख़ास’ बनकर रहे उन्हें देवता मान लिया गया था| इस विकराल और सबसे संकटमय परिदृश्य में जिस समय किसान खेतों में, मजदूर मिलों में ख़ट रहे होते थे, बिना कुछ खाए-पिए दिन को रात और रात को दिन में बदल रहे होते थे, बच्चे माता का और माँ मालिकों के दया-दृष्टि की प्रतीक्षा कर रही होती थी, युवतियां सूदखोरों और लम्पट सामाजिक कार्यकर्ताओं के चंगुल में फंसकर अपनी अस्मिता की भीख मांग रही होती थीं उस समय के बहुत से कवि दिन की दोपहरी और एकांत में अपनी वासना-पूर्ति हेतु लोगों के घरों में विधिवत सेंध लगा रहे होते थे| पारस्परिक विभेदता की शक्ल में जिस समय लोग एक-दूसरे से मन की बात करने में अक्षम थे उस समय ऐसे कवि तन से तन मिलाकर डूब जाने की सक्षमता का जुगाड़ भिड़ा रहे थे| कितनी ही आबादियाँ महज दो वक्त की रोटी से महरूम थीं और कवि प्रणय-निवेदन में मदमस्त रहा करते थे| वे सब कुछ भूलकर नश्वर से परमेश्वर हो जाना चाहते थे—यथा,
आओ
जैसे अँधेरा आता है अँधेरे के पास
जैसे जल मिलता है जल से
जैसे रोशनी मिलती है रोशनी में|

आओ,
मुझे पहनो
जैसे वृक्ष पहनता है
छाल को
जैसे पगडण्डी पहनती है
हरी घास को|

मुझे लो
जैसे अँधेरा लेता है जड़ों को
जैसे पानी लेता है चंद्रमा को
जैसे अनंत लेता है समय को (अशोक वाजपेयी, 1984)
        प्रेम और वासना का ऐसा छिछोरापन एक कवि ही कर सकता है क्योंकि उसे मनोरंजन करने-कराने का अधिकार भी प्राप्त होता है| लेकिन इस जुगत में वे सिर्फ सामाजिक अराजकता का साम्राज्य भर विस्तृत कर पाते हैं, देने और लेने की परिपाटी में असफलता ही हाथ लगती है उनके| छुट्टे सांड की तरह पूरी-की-पूरी बागबानी को विनष्ट करते हुए और रौंदते हुए उसके ही मालिक को दोषी ठहरा रहे होते थे| “एक उत्तेजक दोपहर में/ अपने शरीर के उस विह्वल गुम्फन में” गुत्थम-गुत्था होकर दुनिया की ईमानदारी की टोह ले रहे होते थे| वर्तमान कविता के एक ‘देव-पुरुष’ जिन्हें आम-जीवन से बड़ा सरोकार है और जो पुरस्कार गैंग के सिरमौर हैं उनके इस कविता से यह परिदृश्य और भी निखर कर सामने आ जाती है —
“कहाँ होती है दुनिया उस समय
जब मैं तुझे सारे अंगों से थाम लेता हूँ
और एक तृप्ति में स्थिर कर देता हूँ
तेरा सौंदर्य?

जब हम सुन्दर होते हैं
अपने शरीर के उस विह्वल गुम्फन में
कहाँ होती है दुनिया उस समय
उसके वे क्षुब्ध पिता और पागल-परेशान भाई
क्यों उस समय दफ्तरों या क्लासों में
काम करते होते हैं,
और क्यों सिर्फ हमारे लिए सुरक्षित छोड़ दिया जाता है
हलकी धूप में उजाला सूनसान
खिड़की के बराबर आकाश का एक नीला टुकड़ा
और एक उत्तेजक दोपहर?
कहाँ होती है दुनिया उस समय
जो बाद में मोड़ पर मिलती है—परेशान
पर हमें अपमानित करने को तैयार
अपनी-अपनी पत्नियों से अतृप्त अनुभवी बुजुर्गों की
बदहवास और हितैषी दुनिया
कहाँ होती है उस समय
--जब हम सुन्दर होते हैं
एक उत्तेजक दोपहर में
अपने शरीर के उस विह्वल गुम्फन में |[1]
                  (अशोक वाजपेयी, कहाँ होती है दुनिया (कविता), 1961)
         अब इन महाशय से कौन कहे कि दुनिया उस समय ‘समाज’ को स्थायित्व देने में मशगूल थी जिस समय तुम “अपने शरीर के उस विह्वल गुफा में” लीन होकर ऐय्यासी कर रहे थे? यह कौन समझाए कि जिस समय तुम “अपनी-अपनी पत्नियों से अतृप्त अनुभवी बुजुर्गों की” यौन-संलिप्तता से सीख ले रहे थे उस समय का आम जनमानस तुम्हारे उस पुरस्कार के लिए धन इकठ्ठा कर रही थी जिसे असहिष्णुता के नाम अभी-अभी वापिस करके आये हो? कवि का यह पूछना कि “उसके वे क्षुब्ध पिता और पागल-परेशान भाई/ क्यों उस समय दफ्तरों या क्लासों में/ काम करते होते हैं,” तो भाई वे कविता के दलाल नहीं थे, सरकारी नौकरी भी नहीं थी उनकी, मजदूर थे और क्योंकि उन्हें चिंता दो-वक्त के रोटी की होती थी न कि कोठे पर बैठकर तुम्हारी तरह ‘‘उत्तेजक दोपहर’’ का जश्न मनाने की| यह कौन बताए महाशय को कि उस समय दुनिया सामाजिक संस्कार की भावभूमि को अपने श्रम-जल से सींच कर समृद्ध भारत का स्वप्न देख रही थी, जिस समय तुम अपने सीमाओं में कैद रहते हुए व्यभिचार कर रहे थे? रही बात तुम जैसे कवियों के ऐय्यासी की शक्ल में जनता का ‘‘अपमानित करने को तैयार’’ होने की तो साहब ये समाज है| इसके अपने कुछ नियम और कायदे होते हैं| हो सकता है तुम्हें नियमों से परहेज हो; तो सुनों व्यापक जनसमुदाय यहीं से व्यवहार और संस्कार ग्रहण करता है| हो सकता है तुम्हें संस्कारों से चिढ़ हो (क्योंकि तथाकथित प्रगतिशील झंडेबाजों की दृष्टि में यह पुरातनपंथी और जड़ मानसिकता की निशानी है) लेकिन ‘लोक’ इन्हीं से समृद्ध होता है और भविष्य को सुरक्षित रखने का उपक्रम करता है| जबकी कवि-दृष्टि में यह साबित होता है कि तुम ‘लोक’ को परलोक में हस्तानान्तरित करना चाहते हो|
         यह सच है कि इस अस्तित्वमूलक समय में, जब सभी किसी भी प्रकार से जीवन को जी लेना चाहते थे उस समय इन कवियों द्वारा किसी दूसरे ‘लोक’ में पदार्पण कर जाने की तैयारी की जा रही थी| अब यह लोक से हटकर परलोक जीवी बनकर रहना नहीं तो आखिर क्या है कि जहाँ जनता के अधिकांश भाग को टूटी खटिया और फटी कथरी भी नशीब नहीं हो रही थी वहां तुम जैसे कवि ‘धरती का हरा बिछौना’ बनाकर “केलि” करने की उद्घोषणा करते हैं?—यथा
मैं बिछाता हूँ धरती का हरा बिछौना
मैं खींचता हूँ आकाश की नीली चादर
मैं सूर्य और चन्द्रमा के दो तकिये सम्हालता हूँ
मैं घास के कपडे हटाता हूँ
मैं तुमसे केलि करता हूँ ( केलि, 1985)”[2]
           मनुष्यता के इस लोक में भला घास का कपड़ा किसे नशीब होता है? चन्द्रमा के दो तकिये की तरफ निगाह तो जाती है लेकिन उसे सम्हालने की फुर्सत किसे होती है? दिन भर खेत या कंपनियों में खटने के बाद ‘केलि’ के प्रसंग नहीं बच्चों को सम्हालने और दो-दम्पत्तियों के बीच घर-गृहस्थी को चलाने की तरतीब भिड़ाने की बरबराहट होती है| यहाँ नायिका पिसती है तो नायक खीझता है| उनके पिसन और इनके खिझन में ही रीझने की थोड़ी सी ख़ुशी मिलती है कि दूसरा दिन फिर याद आता है बीते हुए दिन की तरह| यह भी कि यहाँ प्रेम करने के लिए एक दूसरे की प्रतीक्षा नहीं होती क्योंकि प्रतीक्षा तो आप जैसे सुविधाभोगी ‘परलोकी’ प्राणियों के लिए है और न ही तो किसी प्रकार के अँधेरे की खोज उन्हें होती है| अँधेरा का पर्याय ही उनका जीवन है| पूरा जीवन काल उनका आँधियों-तूफानों से बचे-खुचे समय में ढेबरी के तेल और बिन बाती के लालटेन-से झिलमिलाता एक लौ भर होता है| जैसे वह हिलता डोलता रहता है वैसे ही ‘लोक’ में निवास करने वालों का जीवन हर समय कांपता और हिलता प्रतीत होता है|
“बहुत उजाला है
और उसमें एक अँधेरा कोना खोजते हैं हम
जहाँ चीखते संगीत और शोरगुल के बीच
जयजयकार के तुमुल के बीच
उसकी आवाज सुन सकें |

छू सकें उसके हाथ
उसका शरीर
उसकी गरमाहट
उसका संकोच
उसकी उत्सुकता

और कहें
कि सौभाग्य यह है
उन दो वृत्तों के बीच
उन दो के बीच की गहरी आर्द्र घाटी में |

जब सब थे
यहीं आसपास
तब कहाँ थीं तुम सुमुखि?
जब कोई नहीं है आसपास
तब कहाँ हो तुम सुमुखि? (1982)
          यह सार्वजनिक रूप से काम-पीड़ा का उद्वेग नहीं तो आखिर क्या है? संयत और संस्कारित हो रहे ‘लोक-संवेदना’ के साथ मजाक नहीं तो आखिर क्या है? और यदि यह सब मानवीय स्वभाव ही है, एक विशेष प्रकार की स्वतंत्र भी, फिर रीतिकालीन दरबारी संस्कृति और छायावादी सौंदर्य का विरोध समकालीन हिंदी आलोचकों द्वारा क्यों?  यह समझना ही समझ से बाहर है कि जिस समय ‘सुमुखि’ की उपस्थिति और अनुपस्थिति पर केन्द्रित होकर कवि रति-क्रिया के प्रयोगशाला में “उन दो वृत्तों के बीच/ उन दो के बीच की गहरी आर्द्र घाटी में” निमग्न केलि-रत थे और इस आभास की आशंका से रोमांचित थे कि-
“उसके शरीर में भर गयी सुगंध
जैसे आकाश में नीलिमा
और दूब में हरीतिमा—
अब आश्चर्य की तरह खुला है संसार
और एक-एक पंखुरी की तरह
खिलता मुरझाता रहेगा समय | (अशोक वाजपेयी, भर गई सुगन्ध, 1985) लोक’ डर, भय और आशंका भरे वातावरण में अपने समय का अंतिम गीत गाने में निमग्न था| जिस सौंदर्य में कवि को “आश्चर्य की तरह खुला है संसार” की अनुभूति हो रही थी वही सौंदर्य कहीं निरंकुशता के साथ कुचला और उपेक्षित किया जा रहा था| बलात्कार, शोषण और दमन की विभीषिका में उलझी मनुष्य होने के लिए स्वयं को कोस रही थी|
          अशोक वाजपेयी की तमाम कविताओं के माध्यम से यह कहते हुए कोई आश्चर्य नहीं रहना चाहिए कि जिस समय ‘लोक’ व्यथित होकर खर-पतवार-माटी खाने के लिए अभिशप्त था, उस समय के कवि अपनी प्रेमिकाओं के उरोज और पुष्ट नितम्ब देखने में मशगूल थे| जिस समय का ‘लोक’ तन ढकने के लिए कपड़े को तरसा करता था उस समय के कवि अपनी प्रेमिका को वृक्ष बनाकर उसमें समाहित हो जाने का स्वप्न देख रहे थे| जन-समुदाय की दुखती संवेदना पर मरहम लगाने के बजाय शब्द को वृक्ष पर से लिपटाने की परिकल्पना कर रहे थे| रति क्रिया में सक्रिय स्त्री के “आत्मसमर्पण के क्षण में” व्यथित मनोदशा को से खेलकर उसे सांत्वना दे रहे होते थे| “अनावृत उरोज और सहरता कनकतन” में लीन होकर पूर्ण “समर्पित हो जाने का” ढोंग कर रहे होते थे| 
“आत्मसमर्पण के क्षण में
जब तू फूट-फूटकर रो उठती है
अपनी करुणा से घिरकर
--तो जानती है मुझे क्या देती हैं तेरी आँखें,
तेरे अनावृत उरोज और सहरता कनकतन :
एक दुःख तेरे होने का,
और होकर प्यार करने का
और प्यार कर समर्पित हो जाने का|
फिर मैं तुझे कामना से नहीं देख पाता
क्योंकि आंसुओं में डूबकर तू इतनी अधिक मेरी हो जाती है
कि मुझे सुन्दर और अस्पृष्ट और अक्षत लगने लगता है
मेरी बाहों में समाया तेरा बचपन
जिसमें तू रोती है
और जो दुःख होता है                                        
तेरे होने का—(अशोक वाजपेयी, दुःख तेरे होने का, 1960)”[3]
          सौंदर्य का बाहों में आकर सिमटना कवि के लिए “दुःख होता” है या फिर सुख की गहरी अनुभूति यह अशोक वाजपेयी जैसे कवि जानें लेकिन आम-जनमानस के लिए क्या कुछ बचा कर रखा होता है ऐसे साहित्य में इसे तो समकालीन आलोचकों को ही बताना पड़ेगा| या फिर उनको जो इन्हें भगवान मानकर पूज कर रहे हैं| प्रेम की कुलांचे मारने वाले ऐसे कवियों के लिए प्रेम-वेम भी कुछ होता नहीं महज एक छलावा को छोड़कर| यह सच है कि समकालीन सजग पाठक इस छलावे और  धंधे को अब सिद्दत से दरकिनार कर रहा है|
2.    
          समकालीन हिंदी ‘कविता का लोक’ राजनीतिक पैंतरेबाजी का एक कुशल अखाड़ा भी दिखाई देता है| यहाँ आम जनमानस के मुद्दे और सरोकार न होकर अपने-अपने स्वार्थ और अपनी-अपनी तरतीबें पूरी बेशर्मी लिए सिद्दत से वर्तमान हैं| साहित्य अकादमियों के द्वारपालक और जनसमान्य के स्वघोषित हितैषी कवियों की लोक से कटी हुई काव्य-दृष्टि राजनीतिक नेताओं की वायदों के समान कई मुद्दों पर उलझी हुई होती है| आम पाठक यह समझ पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है कि ये कवि है या फिर किसी राजनीतिक दल के पार्टी-प्रचारक? इस स्थिति के लिए सस्ती लोकप्रियता हाशिल करने की तरतीब भी हो सकती है और स्वयं को स्थापित करने का एक षड्यंत्र भी| बहुत बार ऐसे कवि जनता के बीच दुत्कार भी पाते हैं और बहुत से बार पुचकारे भी जाते हैं| पुचकारे और दुत्कारे जाने के बावजूद कवि अपनी नीयत को स्पष्ट नहीं कर पाता| यहाँ अपने तमाम प्रकार के उद्बोधनों के साथ अंततः उसकी स्थिति भेड़ों की दौड़ में शामिल उस एक भेड़ की मानिंद रह जाती है जो अंत तक यह निर्धारित कर पाने में असफल रहता है कि इस पूरे प्रकरण में उसकी अपनी क्या भूमिका रही?
          एक आलोचक की दृष्टि से बात करें तो मुझे यह नहीं समझ में आता कि भूख और रोटी का मुद्दा लेकर प्रवेश करने वाला कवि आखिर क्यों अपनी लोकप्रियता की ढपली बजाता हुआ भेड़-चाल जैसे उपक्रमों में शामिल हो जाना चाहता है? सम्पूर्ण मानवीय संवेदना को सहेजते हुए “वसुधैव कुटुम्बकम” की परिकल्पना को साकार करने का स्वप्न संजोए कोई कवि आखिर क्यों ‘वैचारिक’ राजनीति में उलझकर अपने बढ़ते कारवाँ को नेस्तनाबूत कर देता है| कवि का मुख्य ध्येय होता है कि वह समाज में समानता की स्थिति को अपनाने के साथ-साथ शांति के महत्त्व को भी रेखांकित करे| जबकि वैचारिकता के केंद्र में आज के कवि क्रांति ही ला देना चाहते हैं| और क्रांति भी किसी विशेष परिस्थिति से लड़ने के लिए नहीं अपने ही संस्कृति और अपनी ही राष्ट्रीय मान्यताओं के विरोध की क्रांति पैदा करने के लिए| समकालीन हिंदी कविता के कवि-कर्म में उदय प्रकाश की इस एक छोटी सी कविता को रेखांकित किया जाना चाहिए-
 “गांधी जी
कहते थे—

‘अहिंसा’ 

और डंडा लेकर
पैदल घूमते थे|”   (उदय प्रकाश, अबूतर कबूतर, पृष्ठ-85)
        जो राजनीतिक पैंतरेबाजी भारतीय लोकतंत्र में चुनाव प्रचार के समय आजमाई जाती रही है वही और लगभग उसी शक्ल में समकालीन हिंदी कविता में भी| फर्क यही है कि वहां वायदे होते हैं और यहाँ पर दावे| वहां जुलूस होता है और यहाँ पर जुलूस की शक्ल में मंत्रणा की रवायतें| बैठकें बाकायदा राजनीतिक पार्टियों वाली ही होती हैं| इनके भी अपने गुट और संगठन होते हैं| महामंत्री, मंत्री, अध्यक्ष होते हैं| विषय हृदय की आवाज पर नहीं पार्टी के हुक्म पर निर्धारित होते हैं| संवेदनाएं मानवीयता की सुरक्षा के लिए नहीं रणनीति की सफलता के लिए होती हैं| यहाँ कवि ‘आह से उपजा होगा गान’ की बजाय नारों से उपजी होगी संवेदना का हिमायती अधिक दिखाई देता है| कहने के लिए वह जन-वेदना के दुःख-दर्द  अभिव्यक्ति दे रहा होता है लेकिन गहरे में ऐसा करने के बजाय अपने गुट का झंडा उठा कर चल रहा होता है| बाहर कुछ भी हो जाए लेकिन वह अपने झुण्ड से आगे जाने के लिए राजी नहीं होना चाहता| कवि का यह कहना कि—
“मैंने
अंत में कहा—

विश्वयुद्ध के विरोध का मतलब
समूची विचारधारा का
विरोध नहीं
निर्मल जी!

यह तय है
कि एक सही राजनीति और सही विचारधारा ही
कभी न कभी इसे रोक पायेगी! (उदय प्रकाश, अबूतर कबूतर, पृष्ठ 77)
       उग्र वैचारिक प्रतिबद्धता की भावना को जन्म देना है| जन पैरोकार के रूप में स्व-स्थापित कवि जब प्रायोजित लेखन करेगा तो कविता कहाँ होगी यह एक चिंतन का विषय हो सकता है| जब दिनों रात मानवीय व्यवहार की टोह लेने के बजाय पार्टी-नीति के निर्धारण में कवि व्यस्त रहेगा, वह क्या सोचेगा और कैसी कविता समय को समर्पित करेगा यह भी विचार का विषय हो सकता है| आखिर लेखन है क्या? अनुभव ही तो है; जो कवि जिस परिवेश से जैसा अनुभव हाशिल करेगा या  कमायेगा वही तो लोगों के बीच सांझा करेगा? इस क्षेत्र में बड़े अनुभव संपन्न व्यक्तित्व हैं उदय प्रकाश| समकालीन हिंदी कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में इनकी सिनाख्त की गयी है और चर्चा-परिचर्चा से लेकर तमाम साहित्यिक व्यवहार के लिए इन्हें अग्रगण्य माना गया है| एक प्रचार और नारेबाजी झंडेबाज की भूमिका को निभाते हुए कविता की शक्ल में उदय प्रकाश के इन उक्तियों को देखा जा सकता है
“मैं अपील करता हूँ राष्ट्रपति से कि
वे घोषित करें
खिचड़ी, ठठेरा, मदारी, लोहार, किताब, भड़भूजा,
कवि और हाथी को
विलुप्तप्राय राष्ट्रीय प्राणी

वैसे खड़ाऊ, दातुन और पीतल के लोटे को
बचाने की इतनी सख्त जरूरत नहीं है
रथ, राजकुमारी, धनुष, ढाल और तांत्रिकों के
संरक्षण के लिए भी जरूरी नहीं है कोई कानून

बचाना ही है तो बचाए जाने चाहिए
गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा,
पेड़ों में घोसले, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में
नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी

क्या कुम्हार, धर्मनिरपेक्षता और
एक-दूसरे पर भरोसे को बचाने के लिए
नहीं किया जा सकता संविधान में संसोधन

सरदार जी, आप तो बचाइये अपनी पगड़ी
और पंजाब का टप्पा
मुल्ला जी, उर्दू के बाद आप फ़िक्र करें कोरमे के शोरबे का
जायका बचाने की

इधर मैं एक बार फिर करता हूँ प्रयत्न
कि बच सके तो बच जाए हिंदी में समकालीन कविता|” (उदय प्रकाश, कवि ने कहा, 93)
           इन्होंने पार्टी लाइन से बाहर न जाते हुए एक विशेष प्रकार की नारेबाजी शैली में किस तरह समकालीन कविता को बचाने की बात रखी है, यह स्पष्ट देखा जा सकता है| इन कवियों की दृष्टि में जनता के हिस्से की बात हो या न हो लेकिन भगवा-विरोध और एक विशेष प्रकार की संस्कृति की अवहेलना जरूर होनी चाहिए| “हिंदी में समकालीन कविता” को बचाने के लिए इनके ‘प्रयत्न’ को इसलिए भी नहीं नकारा जा सकता क्योंकि अभी हाल ही में इनको ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ देने की जिम्मेदारी दी गयी थी और इसके नाम पर जो पोएट्री मैनेजमेंट इन्होंने किया था, वर्तमान कवियों एवं आलोचकों के लिए यह आश्चर्य का विषय ही नहीं विवाद का विषय बनाना भी जरूरी था|  
            समकालीन कविता को बचाए रखने के लिए किए गये इन्हीं प्रयत्नों की देन है कि इधर कविता के लोक में राजनीतिक दांवपेंच के समानांतर पुरस्कारों की राजनीति बड़ी सफल रही है| समकालीन हिंदी कविता के पहले पुरस्कारों की रवायतें बहुत कम देखने को मिलती हैं| उस समय के प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित कवि का पुरस्कार से कोई लेना-देना शायद ही होता हो| समकालीन हिंदी कविता में हर एक कवि के पास अपना एक ‘ख़ास’ पुरस्कार है| पहले तो स्वयं उसे हाशिल करने की जुगत भिड़ाता है और फिर बाद में उसका निर्णायक बनकर लोगों को बाँटता फिरता है| अब इन्होने “अबूतर-कबूतर” में अपने अनुभव-जगत को रूप देते हुए अपने समानधर्मा/धर्मी लेखकों/लेखिकाओं के सम्बन्ध जो ये सत्य-आरोपित किया है कि “हम कोयल हैं/ सरकार के,/ हम साजिन्दे हैं/ दरबार के!” उसमें इनका अपना सत्य तो है समकालीन साहित्यिक परिवेश का भी एक बड़ा सच सामने आता है| पूरी कविता की तरफ ध्यान दें तो बात और भी स्पष्ट हो जायेगी—यथा,  
हम कोयल हैं
सरकार के|
बत्तख के पैर जैसे ठंडे हैं
हमारे विचार|
निश्चिन्त रहें आप|

हम लेंगे बख्शीश,
नज़र उतारेंगे,
ईनाम पायेंगे|
जहाँ भी जायेंगे
आपकी दुन्दुभी बजायेंगे|

कोई चिंता नहीं है हमें|
हमें फ़िक्र है तो
है बिम्बों की,
भाषा की तलाश है|
हम रचना के स्वयत्त क्षण में
जीते हैं
मरते हैं|
फिर-फिर जन्म लेते हैं|

हमें पुरस्कृत करें अन्नदाता
विधाता|

हम कोयल हैं
सरकार के,
हम साजिन्दे हैं
दरबार के!    (उदय प्रकाश, अबूतर कबूतर, पृष्ठ-96)                
        यह सत्य, कि “हम लेंगे बख्शीश,/ नज़र उतारेंगे,/ ईनाम पायेंगे|/ जहाँ भी जायेंगे/ आपकी दुन्दुभी बजायेंगे” कोई बनावटी जुमला नहीं है और न ही तो सुनी-सुनाई बातों पर नमक-तेल लगाकर पाठक के सामने परोसना ही ही| बहुत कुछ स्पष्ट करने की जरूरत न होते हुए भी यह कहना अनिवार्य हो जाता है कि यह कवि का अपना भोग हुआ यथार्थ है| उदय प्रकाश ऐसे ही उदय प्रकाश नहीं हो गये और कोई भी ऐसे ही नहीं हो जाता है| इसके लिए निश्चित ही दिल्ली के दलालों के बीच इनकी बोलियाँ लगती हैं| इन्हें कई हाथों, कई नज़रों से होकर गुजरना पड़ता है (‘मोहनदास’ कहानी का अकादमी पुरस्कार प्रकरण ध्यान में रखा जाना चाहिए) अपने अस्तित्व और आत्मा पर दाँव लगाकर झंडेबाजों की मानिंद रिरियाना पड़ता है फिर कहीं जाकर इनाम और पुरस्कार की स्थिति स्पष्ट हो पाती है|
        समकालीन हिंदी कविता के बहुत से कवि इनाम-पुरस्कार की रवायतों तक ही सीमित है, इस बात से इनकार करना इधर की कविता के अस्तित्व को ही नकारना है| नारों और व्यभिचारों से भरा-पूरा यह (समकालीन) साहित्यिक आन्दोलन महज एक बौद्धिक खुरापात भर है न कि जनता की आँखों में दीपक-लौ जलाने वाला क्रन्तिकारी वैचारिक आदर्श| यदि इस प्रवृत्ति का गंभीर विवेचन किया जाए तो जरूर यह निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि भूखे-नंगे-मजबूर जनता के सम्मुख सन् 60 से लेकर आज तक के समय में वर्तमान ‘कविता का लोक’ महज एक षड्यंत्र और धोखा दिखाई देता है|





[1] वाजपेयी, अशोक, खुल गया है द्वार एक, नई दिल्ली : राजकमल, 2014 
[2] वाजपेयी, अशोक, खुल गया है द्वार एक, नई दिल्ली : राजकमल, 2014  

Saturday 18 November 2017

बढ़ जाना है आगे......

तन के रास्ते 
मन का शहर देखना 
मन के रास्ते 
तन का ठूंठ बंजर महसूसना 
जीना है 
समय की संगति में
बिसूरना है
समाज की पंगति में
और फिर
बढ़ जाना है आगे
देखने समझने और
 परखने के लिए
जीवन के उजास को

समय का सच कहना आसान नहीं “सपनों को मरने मत देना”


अपने समय की विसंगतियों से जूझते हुए रचनाकार-मन बहुत बार टूटता-जुड़ता है| टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया में घटनाएँ केन्द्र में होती हैं । घटनाओं की केन्द्रीयता एक विशेष प्रकार की समाजिकता में संभव होती है  समय के दमनचक्र में संघर्ष करते हुए यदि जीवन फिर भी बचा है तो आँखों के सामने घटनाओं का घटित होना स्वाभाविक है| ऐसी स्वाभाविक स्थिति की निर्मिति में सामंजस्य और संतुलन न बिठा पाने की वजह से तड़प और खीझ जैसी स्थितियां मनुष्य में यहीं से आकार ग्रहण करती हैं| यहीं से चैतन्य-मन संघर्ष की जमीन तैयार करता है और रचनाकार घटनाओं की परिधि में अपनी भूमिका तलाशता भटकता रहता है| कई बार यह भटकाव महज एक शौक होता है तो बहुत सी बार अनिवार्य| जहाँ शौक होता है वहां संभावनाशील समाज के बंजर होने की स्थिति बलवती हो जाती है| अनिवार्यता की स्थिति में तलाश की जमीन को उर्वर करने के लिए रचनाकार के हृदय में एक प्रतिबद्धता जरूर होती है| इसीलिए रचनाकार की भूमिका में भटकाव की प्रक्रिया सहज नहीं होती| एक चुनौतीपूर्ण मानवीय जिजीविषा लिए वह हृदय, मन और मस्तिष्क को साथ लेकर कल्पना और स्वप्न की निर्मिति में यथार्थ परिवेश का निर्माण करता है|
स्वप्न को साकार करने के लिए प्रयत्नशील होना आवश्यक है| कवित्व की भूमिका में भावना का कवि-हृदय इसी प्रकार की प्रयत्नशीलता के मुहाने से होकर गुजरता है| कल्पना और आंकलन की जमीन से किनारा करते हुए अनुभव और अनुभूति के धरातल पर उतर कर एक लम्बी रचनात्मक यात्रा की गयी है| कवयित्री अपनी यात्रा में जिससे भी टकराई है यह सन्देश उसके पास तक छोड़ती आई है कि परिवर्तन का कड़वा यथार्थ कितना भी विषैला क्यों न हो “सपनों को मरने मत देना|” कविता की शक्ल में यहाँ अपनी कहने भर की शौक नहीं सबकी सुनकर सबकी कहने की प्रतिबद्धता है| पाठक यह आभास करने में स्वयं को असमर्थ पाता है कि  घटित घटनाओं का साक्षी वह स्वयं है या फिर कोई कवि उसे दिखा रहा है| अपने प्रथम पन्ने से प्रारंभ होकर संग्रह के अंतिम पन्ने तक जन-जीवन-जमीन से जुड़कर परिवेश की जिस यथार्थता को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया है, पाठक-हृदय में सपनों को पालने की ख्वाहिश बलवती होती है न कि मारने की|
 इस संग्रह के माध्यम से वह यथार्थ के गहरे विचार-तंतुओं में प्रवेश करके संघर्ष की भूमि पर उर्वरता का उजास भरते प्रतीत होती है| ऐसा इसलिए क्योंकि कवित्व की उर्वरता में सहायक बीज, खाद, बिसार उसके अपने हैं| सामाजिक भावभूमि की समझ में उसकी अपनी दृष्टि और अपने औजार हैं| उसके लिए शब्द-सामर्थ्य आडम्बरी नीयति की मांग है तो बेबाकपन नारेबाजी का हथियार| भावना इन दोनों स्थितियों से दूर है| वह अपनी कविता-कहन में “मुक्तिबोध का शब्द-सामर्थ्य” और “पाश का बेबाकपन” न शामिल कर अपने पास बची “संवेदनाएं और उन्हें देखने का दृष्टिकोण” अपनाकर चलती है| संवेदना के धरातल पर कवयित्री के साथ ‘प्रेम का अपराधी’ ‘अतृप्त’ ‘आतंकित जीवन’ है “पहाड़ों के पास/ देवदार के वृक्ष तले/ एक झोपड़ी में...शायद किसी का/ पुत्र, पति या भाई” है जो “चंद रुपये की खातिर/ हाँ बस उसी कागज़ के टुकड़ों के लिए” ‘जालिमों की बलि’ चढ़ गया है| “फटे कपड़ों में/ इंदिरा आवास के लिए/ मुखिया सरपंच के घर के आगे/ चक्कर कटती महिलाएं” हैं “रंग के छींटे” को समेटता चित्रकार है जिसके “फटे कपड़े/ और बेतरतीब बढ़े बालों पर/ नहीं पड़ती किसी की नजर/ आते-जाते लोग/ कैनवास उठा कर देखते/ और निकल जाते हैं|” रॉकेट है जिसे “अपने हिस्से का दूध” पिलाते हुए वह महसूस करती है कि “जीवन चाहे मनुष्य का हो/ या निकृष्ट जीव का/ उसे सुरक्षित रखना/ हमारा धर्म है|” धर्म की शाश्वत जमीन पर उपस्थित यह रीतिकालीन दरबारी कवि न होकर अपने रचनात्मक प्रयासों में “इक्कीसवीं सदी का कवि” है “क्योंकि बाज़ार उसे अभी तक/ नहीं बना पाया है वस्तु/ नफे-नुक्सान के अर्थशास्त्र से अलग/ विजातीय प्राणी है वह” जो सुख-सुविधाओं की फ़िक्र न करके मानवीय दुनिया की निर्माण में बाधक कुप्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए सक्रिय है| बदलते समय के साथ बदलती भूमिका में समय को परखने के लिए उसके अपने मुहावरे और अपने भोगे हुए यथार्थ हैं| यह इसलिए क्योंकि सृजन के धरातल पर वह स्वयं एक औरत है| अपनी तमाम संगति-विसंगति के साथ भारतीय समाज में ‘औरत’ का क्या वजूद है, संग्रह की इस कविता में अच्छी तरह से देखा जा सकता है-
“औरत/ जब हार जाती है/ परिस्थिति से
तो आँसूं बहाती है/ रजाई में छुप कर/ पर कहती नहीं व्यथा
औरत/ जो खुद एक नदी है/ स्थिर नदी/ जो तोड़ दे अपनी सीमाएं
तो आ जाता है सैलाब

औरत/ आकाश है/ बच्चों के लिए/ जमीन है पति के लिए
पर, औरत/ न जाने क्यों/ हर बार हार जाती है/ परिस्थिति से
हर बार हारना ही/ उसकी नियति है/ परिवार और समाज की
मर्यादा बनाए रखने के लिए/ शायद इसीलिए/ औरत/
एक गाली है मर्द के लिए|”  
यह मात्र इसी परिवेश की यथार्थता है जहाँ इज्जत के सभी मुहानों पर उसे प्रतिष्ठापित करने के बाद भी “गाली” के रूप में देखने और समझने के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी को तैयार किया जाता है| इज्जत और अस्तित्व दोनों स्थितियों में मर्द औरत पर अपना अधिकार समझता है/समझता रहा है| अधिकार की भावना में उसे ‘सुरक्षित’ रखने और ‘देखने’ की नीयति खतरनाक होती जाती है और वही नीयति एक समय के बाद भोगने की प्रवृत्ति में विश्राम पाकर उसके अस्तित्व को ही तहस-नहस करने पर आमादा हो जाती है| स्त्री के लिए अँधेरा बढ़ता जाता है और परिस्थितियाँ सघन होती जाती हैं| इन्हीं परिस्थितियों में “एक युवती/ अपनी संवेदनाओं को समेटे/ अनजान पथ पर/ क़दम बढ़ाती/ अज्ञात मंजिल की ओर/ ठिठुरन और देह गलाती सर्दी में/ स्वप्निल उमंग के साथ/ कहकहों में छिपाती/ असह्य पीड़ा को/ सुनसान परिवेश में/ अट्टहास करती/ आगे बढ़ी, आगे बढ़ी/ और आगे बढ़ती गयी|” बढ़े हुए कदम अब आसमान में उड़ान भरने के लिए तैयार हैं| समाज के तथाकथित ठेकेदारों, नीतिवादियों की नजर में उसकी उड़ान भारती जिजीविषा खटक रही है लेकिन वह आत्मसमर्पण करने की बजाय उद्घोस करती है कि “आज मेरे देने की बारी है/ अपने डैने/ पर, मैं नहीं देना चाहती/ स्वेच्छा से इन्हें/ भले ही ये काट लिये जाएं/ पर, मैं खुद नहीं काट सकती इन्हें/ जैसे मेरी दादी-नानी ने काटा था/ संस्कार और मर्यादा के नाम पर|”
उम्र के एक ख़ास पड़ाव पर पहुँचने के बाद आज की स्त्रियों को आभासित होने लगता है कि औरत होना स्वयं की इच्छाओं के साथ-साथ अपने भविष्य को भी किसी और के हाथ गिरवी रख देना है| इसीलिए कवयित्री अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति से पूर्व औरत नहीं होना चाहती और समाज के सापेक्ष खड़े होकर अपनी इच्छा प्रकट करती है कि
“इससे पहले कि
तितली-से फिरते पाँव
पाजेब के बंधन में बंध जाएँ
हिरणी-सी चंचल आँखें
घूंघट की मर्यादा में छिप जाये
सृजनशील सोच में समा जाये
रोटी-दाल का हिसाब
हाँ औरत बनने से पहले
एक बार महसूस कर लेने दो मुझे
अपने हिस्से की रोशनी|” यही वजह है कि गाँव-देहात की औरत होते-रहते वह मेट्रो सिटी की औरतों में परिवर्तित होती है और जो कदम कभी घर की चारदीवारी से बाहर निकलने से संकुचाते थे वही अब “आत्मविश्वास से लबरेज/ धरती को अपने डग से नापती/ बस ट्रेन में धक्के खाती/ अपने हिस्से की जमीन/ और आसमान/ पाने की जद्दोजहद में/ रोज तोड़ती हैं रूढ़ियाँ|” फिर भी इक्कीसवीं सदी में प्रविषित हो जाने के बाद भी स्त्रियों द्वारा अपने हिस्से की रोशनी बचाने के लिए जो संघर्ष किया जा रहा है, चकित ही नहीं करता अपितु कई प्रकार के प्रश्नों से हमें तर-बतर भी करता है| संग्रह की अधिकांश कविताओं को पढ़ते हुए यह विश्वास गहराता जाता है कि भारतीय परिवेश में स्त्री जीवन का यथार्थ अपनी तरह का अलग यथार्थ है| यहाँ प्रवेश कर उसके अधिकारों एवं व्यावहारिक स्थितियों पर बात करना कई तरह की संवेदनाओं को आवाज देना तो है ही जीवन-यथार्थ से दूर भागने वाली आँखों को खटकना भी है|
यह भी सही है कि स्वीकार के सभी दस्तावेजों पर अपनी उपस्थिति देने के बावजूद औरत को ‘देह’ मात्र में देखने का अभिलाषी हमारा समाज रहा है| मानवीयता की सभी भूमिकाओं पर स्वयं को अर्पण कर देने के बाद भी उसके अचल ‘पहाड़’ से उतरते हुए ‘त्रिकोण’ पर आकर समाज की नजरें स्थायित्व पा जाती हैं| यह विवशता स्त्री-पक्ष को अधिक झेलनी पड़ी है| यह भी एक विडंबना है कि एक तरफ तो उसे देश-दुनिया-समाज में खुल कर आने से रोका जाता है और दूसरी तरफ उसी के साथ बलात्कार जैसा जघन्य अपराध किया जाता है| कवयित्री के हृदय में ऐसे जघन्य अपराध के प्रति एक आक्रोश है और वह स्वीकार करती है कि
“जब भी आती है यह खबर
फिर किसी का नोचा गया है जिन्दा गोश्त
किसी भेड़िये ने फिर बनाया है
किसी लड़की को शिकार
तो सच पूछिए
स्त्री होने की आत्मग्लानि
मुझे जीने नहीं देती|” इस आत्मग्लानि से वह जूझती है लेकिन दूसरी तरफ यह भी पाती है कि इन मुद्दों पर “सशंकित है समाज/ चिंतकों और समाजशास्त्रियों की वाणी/ मौन है|” इसलिए भी क्योंकि इनमें से अधिकाँश उसी सत्ता और शासन के हिमायती हैं जिनके दमनचक्र में फंसकर स्त्रियाँ बद-से-बदतर जीवन जीने के लिए विवश होती रही हैं| जब बात इनकी स्थिति-सुधार की आई तो कभी अतीत का तो कभी भविष्य का हवाला देकर उन्हें बंदिशों में जकड़ने की पूरी कोशिश की गयी| उनके मन से यह कभी जानने की कोशिश नहीं की गयी कि आखिर वह क्या चाहती हैं जिस पर कवयित्री का स्पष्ट कहना है “स्त्री/ कोई इतिहास नहीं होती/  जिसे भुला दिया जाए/ स्त्री/ कोई भविष्य नहीं/ जिसकी योजना बनाई जाये/ स्त्री/ वर्तमान है/ जिसमें डूब कर/ उसे समझा/ या महसूस किया जा सकता है|”
भावना अपनी पैनी दृष्टि से सामाजिक यथार्थ का गहन अवलोकन करती है और उसके बाद ही कवि-कर्म में प्रवृत्ति होती है| उसके लिए कविता शौक पूरा करने के लिए विलासिता में खर्चे गए महज शब्द भर नहीं हैं| मन को दिलासा दिलाने के लिए “कविता/ अभिव्यक्ति भर नहीं/ कलात्मक भाषा और छंद की/ जब रोटी की आकुलता/ अतृप्त इच्छाएँ/ बेबसी, मजबूरी/ तड़प/ और एकाकार होने की उत्कंठा/ भावनाओं की गरमी पाकर/ संवेदनाओं की तरलता से/ गढ़ती है अक्षर/ तो शब्द-शब्द से/ फूट पड़ती है कविता|” इसलिए उसकी दृष्टि में अपनी सम्पूर्णता में कविता अधिकारों की प्राप्ति और कर्तव्यों की समझ है| एक समय और था जब इस प्राप्ति और समझ पर औरतों का अधिकार नहीं हुआ करता था| समझ ही उसके जीवन का यथार्थ था प्राप्ति की संभावना न के बराबर थी| आज के समय में प्राप्ति और समझ के सांझे दायित्वबोध का निर्वहन औरतों द्वारा किया जा रहा है|
“औरतें जब व्यस्त होती हैं खरीदने में
साड़ी और सलवार-सूट
तो लेखिकाएँ खरीदती हैं अपने लिए
कुछ किताबें, पत्रिकाएँ और कलम
औरतें जब ढूंढती हैं इंटरनेट पर
फैशन का ट्रेंड
तो लेखिकाएँ तलाशती हैं अपने लिए
ऑन लाइन किताबों की लिस्ट
औरतें जब नाखून में नेल पालिस
और पैरों में महावर लगा
करती हैं ख़ुद को सुन्दर दिखने की जतन
तो लेखिकाएँ/ रंग छोड़ती नाखूनों से
पलटती हैं किताबों के पन्ने
या फिर रिश्तों की मजबूती के लिए
शब्दों से उगाती हैं
संवेदनाओं का पौधा|”  वह खुली आँखों से अपने समय के हरियाली लिए लहलहाते फसलों के सौंदर्य को निहारती है| उस पर दृष्टि लगाए भूखे गिद्ध-दृष्टि का परख करती है| वह मानती है कि समाज के आगत फसलों के रोगग्रस्त, अल्पायु, जीर्ण-शीर्ण होने और रह जाने के पीछे प्राकृतिक आपदाओं का दोष कम मनुष्य रूप में उपस्थिति अमानवीय प्रेतात्माओं का योग अधिक है| इसलिए शोषित और उपेक्षित जीवन यापन करने सचेत करती है “सुन्दर भविष्य के लिए बढ़े तुम्हारे कदम/ सहानुभूति के शब्दों को/ वैसे ही कुचल देगी/ जैसे शेरनी के पंजे से चीटियाँ/ तुम्हारा प्रण/ तमाचा है समाज के उन ठेकेदारों को/ मुझे विश्वास है/ तुम उठोगी, शुरू करोगी जीवन/ नए हौसलों के साथ/ पर खोलो/ उडो आकाश में/ गाओ पंछियों के संग गीत/ ये उन्मुक्त गगन तुम्हारा है|” आज का समय यदि किसी भी स्तर पर उन्मुक्त गगन में उड़ने लायक हुआ है तो निःसंदेह ऐसे रचनाधर्मिता की वजह से ही|
सामाजिक परिवेश के रूप में एक भीड़ उसके आस-पास मौजूद है| कोरा आदर्श और मनुष्यता की भावना से परिपूर्ण| लेकिन वह मानती है कि जितने भी आदर्श और मनुष्यता का प्रतिरूप लिए संभावनाएं हमारे सामने उपस्थित हैं वे सब-के-सब महज एक छलावा हैं| इस छलावे में उसका पूरा परिवेश गमजदा है| वह देखती है कि कैसे “सब कुछ शांत-शांत/ हवा सांय-सांय करती/ कबूतर की फुदकन/ कोयल की कूक/ सब थम-सी गई/ पौधे झुलसे हुए सामने पड़ा है/ मांस का लोथड़ा/ क्षत-विक्षत/ शायद उड़ाया गया है कोई मानव/ फिर आज बम से|” यथार्थ का ऐसा परिदृश्य हमें अपने वर्तमान और भविष्य के प्रति सचेत करता है जबकि आदर्श के छुपे प्रारूप महज डर, भय और आतंक के साये में समेटकर रखने के औजार भर हैं| इनकी आदर्शता में जीवन-सम्पूर्णता की परिकल्पना करना स्वयं को काल के गाल में डाल देने के बराबर है| जरूरी है कि समय के दमनचक्र में चलते हुए स्वयं को सक्षम बनाना| आदर्श और मनुष्यता के आवरण में छिपे यथार्थ और अमानवीय प्रवृत्तियों की सिनाख्त करना| इस भूमिका में सामाजिक विरोध की गुन्जाईस बरक़रार रहती है इसलिए सपनों को साकार रूप देने के लिए शब्द उसके सारथी बनते हैं तो कवित्व कारवां| अपनी कविता के पक्ष से मुखातिब होती है वह कहती है-
“मेरी कविता/ मुस्कान बन खिलना चाहती है/ किसानों के चेहरे पर
जो नाउम्मीद बादल के बरस जाने पर/ उमंग से भर उठा है
मेरी कविता/ बनना चाहती है/ कुम्हार की मिटटी
और होना चाहती है परिपूर्ण/ चाक पर ढल कर
मेरी कविता/ समा जाना चाहती है/ जेठ की दुपहरी में
गंतव्य तक जाते/ रिक्शाचालक के पसीने में
और महसूस करना चाहती है उसका श्रम/ मेरी कविता/ रहना चाहती है
अपने लोगों के साथ/ बांटना चाहती है उनकी संवेदना
उनके सुख-दुःख का प्रतिरूप/ बनना चाहती है/ मेरी कविता|”   
संग्रह की कविताएँ निश्चित ही इस उद्घोस पर खरा उतरी हैं| अभिव्यक्ति के स्तर पर कवयित्री का प्रवेश जैसे ही लोक-मानस की यथार्थता में होता है संवेदनाएं घिर कर जन-जीवन का चित्रण करने लगती हैं| समय का वर्तमान गहरे यथार्थ में जन-जीवन को व्यथित करता है| महानगरीय परिवेश को छोड़ दें तो ग्रामीण समस्याएँ किसी भी सहृदय को चिंतित होने के लिए विवश करती हैं| कवयित्री के गाँव में ‘साठ पार की जिम्मेवारी’ को महसूसते संघर्ष करते ‘किसान की आत्महत्या’ है. स्वप्न और यथार्थ के बीच जीवन यापन के साधन जुटाते ‘नीलम’ सरीखी लड़की के बालपन में ‘श्रम से निखरता सौंदर्य’ है ‘गरीबी’ की विवशता लिए “रोटी में मिठास’’ की यथास्थिति को पहुँच से दूर करती ‘बागमती का आक्रोश है| इन सब में आम आदमी है जिसे बाढ़ और सूखे के बीच भूखे रह जाने की कला में पारंगत हाशिल है| नदी के उफान मारने की स्थिति से उपजे यथार्थ को कवयित्री ने जिस संवेदना से जोड़कर प्रस्तुत किया है वह हतप्रभ करता है कि-“असमय उतरा निशान/ और नदी का उफान तो/ जैसे समेट लेना चाहता है धरती से/ आरी और डरेर की सीमा/ ऐसे में रामू की भैंस/ कन्हाई की गाय/ केदार के बैल/ और रिनिया की बकरियाँ/ कहाँ जाएँगी चरने/ कहाँ से चुन लाएंगी/ चुनिया-मुनिया लकड़ियों के गट्ठर/ कैसे भरेगा उनका पेट/ कहाँ से जुगाड़ कर पायेगा वह/ अपने मौसा मौसी के लिए/ भोजन और कपड़े|” भोजन और कपड़े की मारामारी ही इस देश और समाज की सच्चाई है| इस सच्चाई से दूर रहते हुए हम विश्वशक्ति की परिकल्पना संजोए बैठे हैं और जिनके सहारे देश की उन्नति होनी हैं वे आत्महत्याएँ कर रहे हैं| “जिम्मेदारियों के बोझ से/ दबा आदमी/ एक मशीन होता है/ जिसकी संवेदनाएँ/ सांचे में ढलकर/ पत्थर हो जाती हैं|” पत्थर हो चुकी संवेदनाओं में आज आशाओं का दीप जलाने वाला शायद ही कोई तैयार हो| ‘किसान की आत्महत्या’ पर कविता की शक्ल में यह प्रश्न वाकई नीति-नियंताओं को कठघरे में खड़ा करता है-
दो दिन पूर्व
संबलपुर के किसान ने की थी
आत्महत्या
फिर, बरगढ़ के एक किसान ने भी
छोड़ दिया था शरीर
अखबार की सुर्ख़ियों में ढलती घटनाएँ
हो जाती हैं बासी
सूरज ढलने के साथ ही
सरकारी घोषणाएं व सामाजिक चिंताएं
संवेदना की परिधि से बाहर दिखती हैं
लेकिन सवाल गंभीर है
उनके लिए
जिनके पिता व भाई छोड़ गये दुनिया
पेट की क्षुधा-शान्ति का नहीं रहा विकल्प
आखिर इन आश्रितों के लिए
कौन तय करेगा दशा और दिशा
सरकार, समाज या राजनीति के ठेकेदार|’
सरकार को आत्महत्या से, किसान से, गरीब से कुछ भी लेना देना नहीं है| उसके लिए वोट महत्त्वपूर्ण है| समाज और समाज के लोग धर्म, सम्प्रदाय और झूठी इज्जत को संजोकर रखने में व्यस्त है| राजनीतिक ठेकेदारों में कवि-साहित्यकार से लेकर चाय की दूकान पर बैठे हुए अस्तित्वविहीन खद्दरधारी तक आ जाते हैं, इन सबका का काम वैचारिकता को बचाकर समाज के उन्नायकों को गाली देना भर है| जनधर्मिता की संभावना यदि गलती से इनमें कोई देखता भी है तो वह इनकी नजर में या तो एकदम से मूर्ख है या फिर गली के सबसे अगले दरवाजे पर बैठा हुआ मामूली-सा कुत्ता जिसे अपने ऊपर होने वाले हमलों पर भी भौंकने की इजाजत नहीं है| कहने को देश प्रदेश की सरकारें बहुत कुछ कर रही हैं| सड़कें बना रही हैं| बुलेट ट्रेन चला रही हैं| मेट्रो की लाइनें दिन-प्रतिदिन बिछ रही हैं| देश बदल रहा है समय भी बदल रहा है| परन्तु समाज में परिव्याप्त उस गरीबी का क्या कहें जिसके चपेट में देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा है और बिना-खाए-पिए अपने जीवन का तर्पण कर रहा है| जब कवयित्री यह कहती है कि “ग़रीबी सिर्फ पेट की भाषा जानती है/ प्रेम व सौंदर्य की परिभाषा/ उनके लिए है/ जिनकी आँतों में मौजूद है/ पर्याप्त भोजन” दिन-प्रतिदिन राजनीतिक घटनाक्रमों पर शेखी बघारने वाले हमारे टिटपुंजिया बौद्धिकों और भाषणबाजी करने वाले देश के तथाकथित उन्नायकों को कठघरे में खड़ा करती है|   
आलोच्य संग्रह के हवाले से कहें तो यह भी एक सच्चाई है कि वैश्वीकरण के प्रभाव में हम जितने विस्तृत हुए हैं अपने लोक में व्याप्त विसंगतियों की मौजूदगी में उतने ही संकीर्ण और सीमित| इसलिए उसे अपने अतीत से बहुत खीझ नहीं है लेकिन वर्तमान से आशाएं अधिक है| वह जानती है यदि वर्तमान अपना दायित्व समझ लेगा भविष्य खुद-ब-खुद स्वर्णिम होता चला जाएगा| इस संग्रह की बहुत सी कविताओं में यथार्थ अन्वेषण के साथ-साथ संघर्षधर्मिता की गहन पड़ताल है| यथार्थ कहीं कचोटता है तो संघर्ष आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है| संघर्ष और यथार्थ के मध्य व्याप्त विसंगतियों को स्पष्ट करते हुए एक तरफ जहाँ वह यह कहती है कि “जीवन/ स्वजनों हेतु/ समर्पित/ भोग की लिप्सा है|” वहीं दूसरी तरफ उसका यह कहना कि “जीवन का मतलब/ सिर्फ़ भूख से रोटी का मिलना-भर नहीं होता/ रूह से रूह का मिलना भी है/ जिसके मिलने से भर जाती है रोटी में मिठास/ मिलती है तृप्ति/ आत्मा को सुकून” सामाजिकता के केन्द्र में संघर्ष धर्मिता के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करना है|
सपनों को मरने मत देना” की अनुपालना और सपनों को जिन्दा रखने की जिद में कई बार सीधा रास्ता भी हमें अपनाना पड़ता है| आलोच्य संग्रह में यह स्थिति कई-एक कविताओं में वर्तमान है| व्याप्त सामाजिक विसंगतियों पर तंज कसते हुए कुछ एक जगह कविता की कविताई बाधित जरूर हुई है लेकिन कवयित्री का उद्देश्य स्पष्ट रहा है| यह सच है कि जहाँ आक्रोश हावी होता है वहां कलात्मक सम्प्रेषण के स्थान पर भावात्मक सम्प्रेषणशीलता अपना काम करना प्रारम्भ कर देती है बावजूद इसके यह कवयित्री का अपना तरीका है जिसके दायरे में उन्होंने गहन-से-गहन विषयों को भी अपनी कविताई के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत कर पाने में कामयाबी हाशिल की हैं| कलात्मकता की दृष्टि से नदी सीरीज की लिखी गयी कविताओं के साथ-साथ प्रेम-परक कविताएँ अपनी बनावट और बुनावट में परिपूर्ण हैं| यह संग्रह वाकई भविष्य में हमारे समय की सच्चाई को जांचने-परखने का एक सार्थक उपक्रम सिद्ध होगा और पाठक जगत दिल खोल कर इसका स्वागत करेगा, इसी अपेक्षा के साथ, बहुत शुभकामनाएँ |