Saturday 18 November 2017

समय का सच कहना आसान नहीं “सपनों को मरने मत देना”


अपने समय की विसंगतियों से जूझते हुए रचनाकार-मन बहुत बार टूटता-जुड़ता है| टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया में घटनाएँ केन्द्र में होती हैं । घटनाओं की केन्द्रीयता एक विशेष प्रकार की समाजिकता में संभव होती है  समय के दमनचक्र में संघर्ष करते हुए यदि जीवन फिर भी बचा है तो आँखों के सामने घटनाओं का घटित होना स्वाभाविक है| ऐसी स्वाभाविक स्थिति की निर्मिति में सामंजस्य और संतुलन न बिठा पाने की वजह से तड़प और खीझ जैसी स्थितियां मनुष्य में यहीं से आकार ग्रहण करती हैं| यहीं से चैतन्य-मन संघर्ष की जमीन तैयार करता है और रचनाकार घटनाओं की परिधि में अपनी भूमिका तलाशता भटकता रहता है| कई बार यह भटकाव महज एक शौक होता है तो बहुत सी बार अनिवार्य| जहाँ शौक होता है वहां संभावनाशील समाज के बंजर होने की स्थिति बलवती हो जाती है| अनिवार्यता की स्थिति में तलाश की जमीन को उर्वर करने के लिए रचनाकार के हृदय में एक प्रतिबद्धता जरूर होती है| इसीलिए रचनाकार की भूमिका में भटकाव की प्रक्रिया सहज नहीं होती| एक चुनौतीपूर्ण मानवीय जिजीविषा लिए वह हृदय, मन और मस्तिष्क को साथ लेकर कल्पना और स्वप्न की निर्मिति में यथार्थ परिवेश का निर्माण करता है|
स्वप्न को साकार करने के लिए प्रयत्नशील होना आवश्यक है| कवित्व की भूमिका में भावना का कवि-हृदय इसी प्रकार की प्रयत्नशीलता के मुहाने से होकर गुजरता है| कल्पना और आंकलन की जमीन से किनारा करते हुए अनुभव और अनुभूति के धरातल पर उतर कर एक लम्बी रचनात्मक यात्रा की गयी है| कवयित्री अपनी यात्रा में जिससे भी टकराई है यह सन्देश उसके पास तक छोड़ती आई है कि परिवर्तन का कड़वा यथार्थ कितना भी विषैला क्यों न हो “सपनों को मरने मत देना|” कविता की शक्ल में यहाँ अपनी कहने भर की शौक नहीं सबकी सुनकर सबकी कहने की प्रतिबद्धता है| पाठक यह आभास करने में स्वयं को असमर्थ पाता है कि  घटित घटनाओं का साक्षी वह स्वयं है या फिर कोई कवि उसे दिखा रहा है| अपने प्रथम पन्ने से प्रारंभ होकर संग्रह के अंतिम पन्ने तक जन-जीवन-जमीन से जुड़कर परिवेश की जिस यथार्थता को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया है, पाठक-हृदय में सपनों को पालने की ख्वाहिश बलवती होती है न कि मारने की|
 इस संग्रह के माध्यम से वह यथार्थ के गहरे विचार-तंतुओं में प्रवेश करके संघर्ष की भूमि पर उर्वरता का उजास भरते प्रतीत होती है| ऐसा इसलिए क्योंकि कवित्व की उर्वरता में सहायक बीज, खाद, बिसार उसके अपने हैं| सामाजिक भावभूमि की समझ में उसकी अपनी दृष्टि और अपने औजार हैं| उसके लिए शब्द-सामर्थ्य आडम्बरी नीयति की मांग है तो बेबाकपन नारेबाजी का हथियार| भावना इन दोनों स्थितियों से दूर है| वह अपनी कविता-कहन में “मुक्तिबोध का शब्द-सामर्थ्य” और “पाश का बेबाकपन” न शामिल कर अपने पास बची “संवेदनाएं और उन्हें देखने का दृष्टिकोण” अपनाकर चलती है| संवेदना के धरातल पर कवयित्री के साथ ‘प्रेम का अपराधी’ ‘अतृप्त’ ‘आतंकित जीवन’ है “पहाड़ों के पास/ देवदार के वृक्ष तले/ एक झोपड़ी में...शायद किसी का/ पुत्र, पति या भाई” है जो “चंद रुपये की खातिर/ हाँ बस उसी कागज़ के टुकड़ों के लिए” ‘जालिमों की बलि’ चढ़ गया है| “फटे कपड़ों में/ इंदिरा आवास के लिए/ मुखिया सरपंच के घर के आगे/ चक्कर कटती महिलाएं” हैं “रंग के छींटे” को समेटता चित्रकार है जिसके “फटे कपड़े/ और बेतरतीब बढ़े बालों पर/ नहीं पड़ती किसी की नजर/ आते-जाते लोग/ कैनवास उठा कर देखते/ और निकल जाते हैं|” रॉकेट है जिसे “अपने हिस्से का दूध” पिलाते हुए वह महसूस करती है कि “जीवन चाहे मनुष्य का हो/ या निकृष्ट जीव का/ उसे सुरक्षित रखना/ हमारा धर्म है|” धर्म की शाश्वत जमीन पर उपस्थित यह रीतिकालीन दरबारी कवि न होकर अपने रचनात्मक प्रयासों में “इक्कीसवीं सदी का कवि” है “क्योंकि बाज़ार उसे अभी तक/ नहीं बना पाया है वस्तु/ नफे-नुक्सान के अर्थशास्त्र से अलग/ विजातीय प्राणी है वह” जो सुख-सुविधाओं की फ़िक्र न करके मानवीय दुनिया की निर्माण में बाधक कुप्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए सक्रिय है| बदलते समय के साथ बदलती भूमिका में समय को परखने के लिए उसके अपने मुहावरे और अपने भोगे हुए यथार्थ हैं| यह इसलिए क्योंकि सृजन के धरातल पर वह स्वयं एक औरत है| अपनी तमाम संगति-विसंगति के साथ भारतीय समाज में ‘औरत’ का क्या वजूद है, संग्रह की इस कविता में अच्छी तरह से देखा जा सकता है-
“औरत/ जब हार जाती है/ परिस्थिति से
तो आँसूं बहाती है/ रजाई में छुप कर/ पर कहती नहीं व्यथा
औरत/ जो खुद एक नदी है/ स्थिर नदी/ जो तोड़ दे अपनी सीमाएं
तो आ जाता है सैलाब

औरत/ आकाश है/ बच्चों के लिए/ जमीन है पति के लिए
पर, औरत/ न जाने क्यों/ हर बार हार जाती है/ परिस्थिति से
हर बार हारना ही/ उसकी नियति है/ परिवार और समाज की
मर्यादा बनाए रखने के लिए/ शायद इसीलिए/ औरत/
एक गाली है मर्द के लिए|”  
यह मात्र इसी परिवेश की यथार्थता है जहाँ इज्जत के सभी मुहानों पर उसे प्रतिष्ठापित करने के बाद भी “गाली” के रूप में देखने और समझने के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी को तैयार किया जाता है| इज्जत और अस्तित्व दोनों स्थितियों में मर्द औरत पर अपना अधिकार समझता है/समझता रहा है| अधिकार की भावना में उसे ‘सुरक्षित’ रखने और ‘देखने’ की नीयति खतरनाक होती जाती है और वही नीयति एक समय के बाद भोगने की प्रवृत्ति में विश्राम पाकर उसके अस्तित्व को ही तहस-नहस करने पर आमादा हो जाती है| स्त्री के लिए अँधेरा बढ़ता जाता है और परिस्थितियाँ सघन होती जाती हैं| इन्हीं परिस्थितियों में “एक युवती/ अपनी संवेदनाओं को समेटे/ अनजान पथ पर/ क़दम बढ़ाती/ अज्ञात मंजिल की ओर/ ठिठुरन और देह गलाती सर्दी में/ स्वप्निल उमंग के साथ/ कहकहों में छिपाती/ असह्य पीड़ा को/ सुनसान परिवेश में/ अट्टहास करती/ आगे बढ़ी, आगे बढ़ी/ और आगे बढ़ती गयी|” बढ़े हुए कदम अब आसमान में उड़ान भरने के लिए तैयार हैं| समाज के तथाकथित ठेकेदारों, नीतिवादियों की नजर में उसकी उड़ान भारती जिजीविषा खटक रही है लेकिन वह आत्मसमर्पण करने की बजाय उद्घोस करती है कि “आज मेरे देने की बारी है/ अपने डैने/ पर, मैं नहीं देना चाहती/ स्वेच्छा से इन्हें/ भले ही ये काट लिये जाएं/ पर, मैं खुद नहीं काट सकती इन्हें/ जैसे मेरी दादी-नानी ने काटा था/ संस्कार और मर्यादा के नाम पर|”
उम्र के एक ख़ास पड़ाव पर पहुँचने के बाद आज की स्त्रियों को आभासित होने लगता है कि औरत होना स्वयं की इच्छाओं के साथ-साथ अपने भविष्य को भी किसी और के हाथ गिरवी रख देना है| इसीलिए कवयित्री अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति से पूर्व औरत नहीं होना चाहती और समाज के सापेक्ष खड़े होकर अपनी इच्छा प्रकट करती है कि
“इससे पहले कि
तितली-से फिरते पाँव
पाजेब के बंधन में बंध जाएँ
हिरणी-सी चंचल आँखें
घूंघट की मर्यादा में छिप जाये
सृजनशील सोच में समा जाये
रोटी-दाल का हिसाब
हाँ औरत बनने से पहले
एक बार महसूस कर लेने दो मुझे
अपने हिस्से की रोशनी|” यही वजह है कि गाँव-देहात की औरत होते-रहते वह मेट्रो सिटी की औरतों में परिवर्तित होती है और जो कदम कभी घर की चारदीवारी से बाहर निकलने से संकुचाते थे वही अब “आत्मविश्वास से लबरेज/ धरती को अपने डग से नापती/ बस ट्रेन में धक्के खाती/ अपने हिस्से की जमीन/ और आसमान/ पाने की जद्दोजहद में/ रोज तोड़ती हैं रूढ़ियाँ|” फिर भी इक्कीसवीं सदी में प्रविषित हो जाने के बाद भी स्त्रियों द्वारा अपने हिस्से की रोशनी बचाने के लिए जो संघर्ष किया जा रहा है, चकित ही नहीं करता अपितु कई प्रकार के प्रश्नों से हमें तर-बतर भी करता है| संग्रह की अधिकांश कविताओं को पढ़ते हुए यह विश्वास गहराता जाता है कि भारतीय परिवेश में स्त्री जीवन का यथार्थ अपनी तरह का अलग यथार्थ है| यहाँ प्रवेश कर उसके अधिकारों एवं व्यावहारिक स्थितियों पर बात करना कई तरह की संवेदनाओं को आवाज देना तो है ही जीवन-यथार्थ से दूर भागने वाली आँखों को खटकना भी है|
यह भी सही है कि स्वीकार के सभी दस्तावेजों पर अपनी उपस्थिति देने के बावजूद औरत को ‘देह’ मात्र में देखने का अभिलाषी हमारा समाज रहा है| मानवीयता की सभी भूमिकाओं पर स्वयं को अर्पण कर देने के बाद भी उसके अचल ‘पहाड़’ से उतरते हुए ‘त्रिकोण’ पर आकर समाज की नजरें स्थायित्व पा जाती हैं| यह विवशता स्त्री-पक्ष को अधिक झेलनी पड़ी है| यह भी एक विडंबना है कि एक तरफ तो उसे देश-दुनिया-समाज में खुल कर आने से रोका जाता है और दूसरी तरफ उसी के साथ बलात्कार जैसा जघन्य अपराध किया जाता है| कवयित्री के हृदय में ऐसे जघन्य अपराध के प्रति एक आक्रोश है और वह स्वीकार करती है कि
“जब भी आती है यह खबर
फिर किसी का नोचा गया है जिन्दा गोश्त
किसी भेड़िये ने फिर बनाया है
किसी लड़की को शिकार
तो सच पूछिए
स्त्री होने की आत्मग्लानि
मुझे जीने नहीं देती|” इस आत्मग्लानि से वह जूझती है लेकिन दूसरी तरफ यह भी पाती है कि इन मुद्दों पर “सशंकित है समाज/ चिंतकों और समाजशास्त्रियों की वाणी/ मौन है|” इसलिए भी क्योंकि इनमें से अधिकाँश उसी सत्ता और शासन के हिमायती हैं जिनके दमनचक्र में फंसकर स्त्रियाँ बद-से-बदतर जीवन जीने के लिए विवश होती रही हैं| जब बात इनकी स्थिति-सुधार की आई तो कभी अतीत का तो कभी भविष्य का हवाला देकर उन्हें बंदिशों में जकड़ने की पूरी कोशिश की गयी| उनके मन से यह कभी जानने की कोशिश नहीं की गयी कि आखिर वह क्या चाहती हैं जिस पर कवयित्री का स्पष्ट कहना है “स्त्री/ कोई इतिहास नहीं होती/  जिसे भुला दिया जाए/ स्त्री/ कोई भविष्य नहीं/ जिसकी योजना बनाई जाये/ स्त्री/ वर्तमान है/ जिसमें डूब कर/ उसे समझा/ या महसूस किया जा सकता है|”
भावना अपनी पैनी दृष्टि से सामाजिक यथार्थ का गहन अवलोकन करती है और उसके बाद ही कवि-कर्म में प्रवृत्ति होती है| उसके लिए कविता शौक पूरा करने के लिए विलासिता में खर्चे गए महज शब्द भर नहीं हैं| मन को दिलासा दिलाने के लिए “कविता/ अभिव्यक्ति भर नहीं/ कलात्मक भाषा और छंद की/ जब रोटी की आकुलता/ अतृप्त इच्छाएँ/ बेबसी, मजबूरी/ तड़प/ और एकाकार होने की उत्कंठा/ भावनाओं की गरमी पाकर/ संवेदनाओं की तरलता से/ गढ़ती है अक्षर/ तो शब्द-शब्द से/ फूट पड़ती है कविता|” इसलिए उसकी दृष्टि में अपनी सम्पूर्णता में कविता अधिकारों की प्राप्ति और कर्तव्यों की समझ है| एक समय और था जब इस प्राप्ति और समझ पर औरतों का अधिकार नहीं हुआ करता था| समझ ही उसके जीवन का यथार्थ था प्राप्ति की संभावना न के बराबर थी| आज के समय में प्राप्ति और समझ के सांझे दायित्वबोध का निर्वहन औरतों द्वारा किया जा रहा है|
“औरतें जब व्यस्त होती हैं खरीदने में
साड़ी और सलवार-सूट
तो लेखिकाएँ खरीदती हैं अपने लिए
कुछ किताबें, पत्रिकाएँ और कलम
औरतें जब ढूंढती हैं इंटरनेट पर
फैशन का ट्रेंड
तो लेखिकाएँ तलाशती हैं अपने लिए
ऑन लाइन किताबों की लिस्ट
औरतें जब नाखून में नेल पालिस
और पैरों में महावर लगा
करती हैं ख़ुद को सुन्दर दिखने की जतन
तो लेखिकाएँ/ रंग छोड़ती नाखूनों से
पलटती हैं किताबों के पन्ने
या फिर रिश्तों की मजबूती के लिए
शब्दों से उगाती हैं
संवेदनाओं का पौधा|”  वह खुली आँखों से अपने समय के हरियाली लिए लहलहाते फसलों के सौंदर्य को निहारती है| उस पर दृष्टि लगाए भूखे गिद्ध-दृष्टि का परख करती है| वह मानती है कि समाज के आगत फसलों के रोगग्रस्त, अल्पायु, जीर्ण-शीर्ण होने और रह जाने के पीछे प्राकृतिक आपदाओं का दोष कम मनुष्य रूप में उपस्थिति अमानवीय प्रेतात्माओं का योग अधिक है| इसलिए शोषित और उपेक्षित जीवन यापन करने सचेत करती है “सुन्दर भविष्य के लिए बढ़े तुम्हारे कदम/ सहानुभूति के शब्दों को/ वैसे ही कुचल देगी/ जैसे शेरनी के पंजे से चीटियाँ/ तुम्हारा प्रण/ तमाचा है समाज के उन ठेकेदारों को/ मुझे विश्वास है/ तुम उठोगी, शुरू करोगी जीवन/ नए हौसलों के साथ/ पर खोलो/ उडो आकाश में/ गाओ पंछियों के संग गीत/ ये उन्मुक्त गगन तुम्हारा है|” आज का समय यदि किसी भी स्तर पर उन्मुक्त गगन में उड़ने लायक हुआ है तो निःसंदेह ऐसे रचनाधर्मिता की वजह से ही|
सामाजिक परिवेश के रूप में एक भीड़ उसके आस-पास मौजूद है| कोरा आदर्श और मनुष्यता की भावना से परिपूर्ण| लेकिन वह मानती है कि जितने भी आदर्श और मनुष्यता का प्रतिरूप लिए संभावनाएं हमारे सामने उपस्थित हैं वे सब-के-सब महज एक छलावा हैं| इस छलावे में उसका पूरा परिवेश गमजदा है| वह देखती है कि कैसे “सब कुछ शांत-शांत/ हवा सांय-सांय करती/ कबूतर की फुदकन/ कोयल की कूक/ सब थम-सी गई/ पौधे झुलसे हुए सामने पड़ा है/ मांस का लोथड़ा/ क्षत-विक्षत/ शायद उड़ाया गया है कोई मानव/ फिर आज बम से|” यथार्थ का ऐसा परिदृश्य हमें अपने वर्तमान और भविष्य के प्रति सचेत करता है जबकि आदर्श के छुपे प्रारूप महज डर, भय और आतंक के साये में समेटकर रखने के औजार भर हैं| इनकी आदर्शता में जीवन-सम्पूर्णता की परिकल्पना करना स्वयं को काल के गाल में डाल देने के बराबर है| जरूरी है कि समय के दमनचक्र में चलते हुए स्वयं को सक्षम बनाना| आदर्श और मनुष्यता के आवरण में छिपे यथार्थ और अमानवीय प्रवृत्तियों की सिनाख्त करना| इस भूमिका में सामाजिक विरोध की गुन्जाईस बरक़रार रहती है इसलिए सपनों को साकार रूप देने के लिए शब्द उसके सारथी बनते हैं तो कवित्व कारवां| अपनी कविता के पक्ष से मुखातिब होती है वह कहती है-
“मेरी कविता/ मुस्कान बन खिलना चाहती है/ किसानों के चेहरे पर
जो नाउम्मीद बादल के बरस जाने पर/ उमंग से भर उठा है
मेरी कविता/ बनना चाहती है/ कुम्हार की मिटटी
और होना चाहती है परिपूर्ण/ चाक पर ढल कर
मेरी कविता/ समा जाना चाहती है/ जेठ की दुपहरी में
गंतव्य तक जाते/ रिक्शाचालक के पसीने में
और महसूस करना चाहती है उसका श्रम/ मेरी कविता/ रहना चाहती है
अपने लोगों के साथ/ बांटना चाहती है उनकी संवेदना
उनके सुख-दुःख का प्रतिरूप/ बनना चाहती है/ मेरी कविता|”   
संग्रह की कविताएँ निश्चित ही इस उद्घोस पर खरा उतरी हैं| अभिव्यक्ति के स्तर पर कवयित्री का प्रवेश जैसे ही लोक-मानस की यथार्थता में होता है संवेदनाएं घिर कर जन-जीवन का चित्रण करने लगती हैं| समय का वर्तमान गहरे यथार्थ में जन-जीवन को व्यथित करता है| महानगरीय परिवेश को छोड़ दें तो ग्रामीण समस्याएँ किसी भी सहृदय को चिंतित होने के लिए विवश करती हैं| कवयित्री के गाँव में ‘साठ पार की जिम्मेवारी’ को महसूसते संघर्ष करते ‘किसान की आत्महत्या’ है. स्वप्न और यथार्थ के बीच जीवन यापन के साधन जुटाते ‘नीलम’ सरीखी लड़की के बालपन में ‘श्रम से निखरता सौंदर्य’ है ‘गरीबी’ की विवशता लिए “रोटी में मिठास’’ की यथास्थिति को पहुँच से दूर करती ‘बागमती का आक्रोश है| इन सब में आम आदमी है जिसे बाढ़ और सूखे के बीच भूखे रह जाने की कला में पारंगत हाशिल है| नदी के उफान मारने की स्थिति से उपजे यथार्थ को कवयित्री ने जिस संवेदना से जोड़कर प्रस्तुत किया है वह हतप्रभ करता है कि-“असमय उतरा निशान/ और नदी का उफान तो/ जैसे समेट लेना चाहता है धरती से/ आरी और डरेर की सीमा/ ऐसे में रामू की भैंस/ कन्हाई की गाय/ केदार के बैल/ और रिनिया की बकरियाँ/ कहाँ जाएँगी चरने/ कहाँ से चुन लाएंगी/ चुनिया-मुनिया लकड़ियों के गट्ठर/ कैसे भरेगा उनका पेट/ कहाँ से जुगाड़ कर पायेगा वह/ अपने मौसा मौसी के लिए/ भोजन और कपड़े|” भोजन और कपड़े की मारामारी ही इस देश और समाज की सच्चाई है| इस सच्चाई से दूर रहते हुए हम विश्वशक्ति की परिकल्पना संजोए बैठे हैं और जिनके सहारे देश की उन्नति होनी हैं वे आत्महत्याएँ कर रहे हैं| “जिम्मेदारियों के बोझ से/ दबा आदमी/ एक मशीन होता है/ जिसकी संवेदनाएँ/ सांचे में ढलकर/ पत्थर हो जाती हैं|” पत्थर हो चुकी संवेदनाओं में आज आशाओं का दीप जलाने वाला शायद ही कोई तैयार हो| ‘किसान की आत्महत्या’ पर कविता की शक्ल में यह प्रश्न वाकई नीति-नियंताओं को कठघरे में खड़ा करता है-
दो दिन पूर्व
संबलपुर के किसान ने की थी
आत्महत्या
फिर, बरगढ़ के एक किसान ने भी
छोड़ दिया था शरीर
अखबार की सुर्ख़ियों में ढलती घटनाएँ
हो जाती हैं बासी
सूरज ढलने के साथ ही
सरकारी घोषणाएं व सामाजिक चिंताएं
संवेदना की परिधि से बाहर दिखती हैं
लेकिन सवाल गंभीर है
उनके लिए
जिनके पिता व भाई छोड़ गये दुनिया
पेट की क्षुधा-शान्ति का नहीं रहा विकल्प
आखिर इन आश्रितों के लिए
कौन तय करेगा दशा और दिशा
सरकार, समाज या राजनीति के ठेकेदार|’
सरकार को आत्महत्या से, किसान से, गरीब से कुछ भी लेना देना नहीं है| उसके लिए वोट महत्त्वपूर्ण है| समाज और समाज के लोग धर्म, सम्प्रदाय और झूठी इज्जत को संजोकर रखने में व्यस्त है| राजनीतिक ठेकेदारों में कवि-साहित्यकार से लेकर चाय की दूकान पर बैठे हुए अस्तित्वविहीन खद्दरधारी तक आ जाते हैं, इन सबका का काम वैचारिकता को बचाकर समाज के उन्नायकों को गाली देना भर है| जनधर्मिता की संभावना यदि गलती से इनमें कोई देखता भी है तो वह इनकी नजर में या तो एकदम से मूर्ख है या फिर गली के सबसे अगले दरवाजे पर बैठा हुआ मामूली-सा कुत्ता जिसे अपने ऊपर होने वाले हमलों पर भी भौंकने की इजाजत नहीं है| कहने को देश प्रदेश की सरकारें बहुत कुछ कर रही हैं| सड़कें बना रही हैं| बुलेट ट्रेन चला रही हैं| मेट्रो की लाइनें दिन-प्रतिदिन बिछ रही हैं| देश बदल रहा है समय भी बदल रहा है| परन्तु समाज में परिव्याप्त उस गरीबी का क्या कहें जिसके चपेट में देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा है और बिना-खाए-पिए अपने जीवन का तर्पण कर रहा है| जब कवयित्री यह कहती है कि “ग़रीबी सिर्फ पेट की भाषा जानती है/ प्रेम व सौंदर्य की परिभाषा/ उनके लिए है/ जिनकी आँतों में मौजूद है/ पर्याप्त भोजन” दिन-प्रतिदिन राजनीतिक घटनाक्रमों पर शेखी बघारने वाले हमारे टिटपुंजिया बौद्धिकों और भाषणबाजी करने वाले देश के तथाकथित उन्नायकों को कठघरे में खड़ा करती है|   
आलोच्य संग्रह के हवाले से कहें तो यह भी एक सच्चाई है कि वैश्वीकरण के प्रभाव में हम जितने विस्तृत हुए हैं अपने लोक में व्याप्त विसंगतियों की मौजूदगी में उतने ही संकीर्ण और सीमित| इसलिए उसे अपने अतीत से बहुत खीझ नहीं है लेकिन वर्तमान से आशाएं अधिक है| वह जानती है यदि वर्तमान अपना दायित्व समझ लेगा भविष्य खुद-ब-खुद स्वर्णिम होता चला जाएगा| इस संग्रह की बहुत सी कविताओं में यथार्थ अन्वेषण के साथ-साथ संघर्षधर्मिता की गहन पड़ताल है| यथार्थ कहीं कचोटता है तो संघर्ष आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है| संघर्ष और यथार्थ के मध्य व्याप्त विसंगतियों को स्पष्ट करते हुए एक तरफ जहाँ वह यह कहती है कि “जीवन/ स्वजनों हेतु/ समर्पित/ भोग की लिप्सा है|” वहीं दूसरी तरफ उसका यह कहना कि “जीवन का मतलब/ सिर्फ़ भूख से रोटी का मिलना-भर नहीं होता/ रूह से रूह का मिलना भी है/ जिसके मिलने से भर जाती है रोटी में मिठास/ मिलती है तृप्ति/ आत्मा को सुकून” सामाजिकता के केन्द्र में संघर्ष धर्मिता के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करना है|
सपनों को मरने मत देना” की अनुपालना और सपनों को जिन्दा रखने की जिद में कई बार सीधा रास्ता भी हमें अपनाना पड़ता है| आलोच्य संग्रह में यह स्थिति कई-एक कविताओं में वर्तमान है| व्याप्त सामाजिक विसंगतियों पर तंज कसते हुए कुछ एक जगह कविता की कविताई बाधित जरूर हुई है लेकिन कवयित्री का उद्देश्य स्पष्ट रहा है| यह सच है कि जहाँ आक्रोश हावी होता है वहां कलात्मक सम्प्रेषण के स्थान पर भावात्मक सम्प्रेषणशीलता अपना काम करना प्रारम्भ कर देती है बावजूद इसके यह कवयित्री का अपना तरीका है जिसके दायरे में उन्होंने गहन-से-गहन विषयों को भी अपनी कविताई के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत कर पाने में कामयाबी हाशिल की हैं| कलात्मकता की दृष्टि से नदी सीरीज की लिखी गयी कविताओं के साथ-साथ प्रेम-परक कविताएँ अपनी बनावट और बुनावट में परिपूर्ण हैं| यह संग्रह वाकई भविष्य में हमारे समय की सच्चाई को जांचने-परखने का एक सार्थक उपक्रम सिद्ध होगा और पाठक जगत दिल खोल कर इसका स्वागत करेगा, इसी अपेक्षा के साथ, बहुत शुभकामनाएँ |


No comments: