Saturday 16 December 2017

प्रसंगवश : साहित्य का ऐसा दौर यह


उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 2016 का पुरस्कार घोषित हो चुका है| महीना ठण्डी का है लेकिन माहौल गर्म है| साहित्यकार पुरस्कारों का जश्न मना रहे हैं तो उनके अनुयायी उसके लिए उन्हें बधाई देने में व्यस्त हैं| स्थानीय अख़बारों में अपने इलाके के अखाड़ेबाज (यह इस अर्थ में कि वे मैदान में थे) साहित्यकारों को नवीन अंकों में प्रमुखता से प्रकाशित करने का जोखिम उठा लिए हैं| फेसबुक भी बधाइयों से गूँज उठा है| दो-तीन दिनों से लगातार हम जैसे नव-प्रवेशी पाठक भी इन पुरस्कृत रचनाकारों की साहित्य-साधना पर मुग्ध हैं| कुछ को तो जान रहे हैं तो लिख दे रहे हैं और फोन भी कर दे रहे हैं| जिनको नहीं जान रहे हैं उनके विषय में जानकारी जुटाने में मशगूल हो उठे हैं|
यह भी सही है कि परिवेश के लिए कई साहित्यकार एकदम से आश्चर्य हैं| इसके पहले साहित्यकार के रूप में न तो उन्हें कहीं देखा गया और न ही तो कहीं सुना गया| झंडा उठाते, सेमिनारों/संगोष्ठियों में भाषणबाजी करते भले देखा गया हो| कई रचनाकार ऐसे हैं जिनके दो-चार संग्रह की गिनती भी ईमानदारी से नहीं दी जा सकती (ऐसा मेरा मानना है)| कई लोग यह भी बता रहे हैं कि इधर कई रचनाकार ऐसे हैं जिन्हें पूर्व के सरकारों द्वारा कोई तवज्जो नहीं दिया गया| वे भले कुछ नहीं लिखते-पढ़ते थे ठीक-ठीक लेकिन परिवेश में दो चार दोहा आदि तो गा ही दिया करते थे| अब बदले सरिकारी समीकरण में उनके दिन लौटे हैं तो निश्चित ही न्याय हुआ है| हम भी मान लेते हैं लेकिन साथ ही यह भी सोचते हैं कि कौन सा अभी लोगों के साथ न्याय हुआ है?
फिर भी...सब बधाईयाँ दे रहे हैं तो साहित्यिक विरादरी में होने के नाते (मन से) मैं भी बधाई दे देता हूँ| बधाई हो! सूर्य-तेज से विभूषित बहादुर साहित्यकारों आकाश-क्षितिज की सीमाओं को लांघकर धरती को आलोकित करो! लेकिन जब मन से ऐसा कह रहा हूँ तो हृदय में अशांति भी हो रही है| यह अशांति इसलिए कि पुरस्कार प्राप्त अधिकांश रचनाकार बड़े घराने से सम्बन्ध रखते हैं| उनके पास बंगला है, गाडी है, महंगे सूट-बूट और नोकर-चाकर हैं| अधिकतर या तो सरकारी जॉब से सेवानिवृत्त होकर पेंशन ले रहे हैं, प्रोफ़ेसर हैं, अकादमियों के अध्यक्ष/सचिव हैं या फिर वे हैं जो वर्तमान में सरकारी प्रतिष्ठानों के दामाद बने बैठे हैं|
आखिर इन पुरस्कारों से साहित्य या समाज का क्या हित होना है? जिनको पुरस्कार मिला है क्या वे उस धनराशी का प्रयोग साहित्य-संस्कृति को बढ़ावा देने में लगाएंगे? क्या जो पुरस्कार पाए हैं अपने-अपने गाँव या फिर परिवेश में कोई पुस्तकालय खोलने में उस पुरस्कार-राशि का प्रयोग करेंगे? नहीं, ऐसा कुछ नहीं करेंगे| उनकी संतानें महँगी गाड़ियों के मोडल चेक करेंगे| फ्रिज, ए.सी., टेलीविजन आदि-आदि की व्यवस्था करेंगे| प्राप्ति राशी का प्रयोग सही अर्थों में शायद ही प्रयोग हो, खैर किसी के व्यक्तिगत जीवन में तांक-झांक करने का क्या मतलब? लेकिन यह प्रश्न तो उठता ही है कि जिन साहित्यकारों को पुरस्कार दिए गये उनकी जीवन-शैली क्या वाकई इस प्रकार के पुरस्कारों के योग्य है? यदि नहीं है तो आखिर क्यों इतनी बड़ी राशि महज खुश होने और विलासिता के संसाधनों को बढाने के लिए सरकारों द्वारा दान दे दिए जाते हैं? क्या इनमें से 30 प्रतिशत साहित्यकार भी ऐसे हैं जो रचनात्मक धरातल पर श्रेष्ठ ठहरते हों और जिन्हें वाकई जीने-खाने के लिए इस प्रकार के पुरस्कारों की आवश्यकता थी?
सच तो यह है कि ऐसे रचनाकारों की प्रवृष्टियां ही सरकारी प्रतिष्ठानों तक नहीं पहुँच पाती| इसलिए भी क्योंकि दलालों से उनका कोई ठोस परिचय नहीं बन पाता| वे कमीशन का प्रतिशत भी नहीं निर्धारित कर पाते| वे अक्सर गुमनामी की जिंदगी जी रहे होते हैं और एक दिन ऐसा जीवन जीते हुए ही मर भी जाते हैं| अब भी हमारे लोक में ऐसे कलाकार और साहित्यकार मिल जायेंगे जिनके घर शाम को दीपक नहीं जलते| तवे नहीं गरम होते| आटा ख़तम हो जाता है तो पड़ोसी भी मुंह चिढ़ाता है|
यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि जिन रचनाकारों में प्रतिभा है और जो कुछ करने लायक हैं वे सृजन कार्य की बजाय मजदूरी कर रहे हैं| फिर भी लिख रहे हैं विडंबना इस बात का भी है कि उन्हें न तो पत्रिकाएँ तवज्जो दे रही हैं (क्योंकि वे नारेबाजी नहीं कर रहे हैं), न तो प्रकाशक भाव दे रहे हैं (क्योंकि चाटुकारी नहीं कर रहे हैं), न तो सत्ता-प्रतिष्ठान पुरस्कार आदि का व्यवस्था कर रहे हैं (क्योंकि वे राजनेताओं, मंत्रियों के झंडे नहीं उठा रहे हैं), वे लिख रहे हैं, खट रहे हैं और परिवार चला रहे हैं|
देश का कोई भी राजनीतिक दल किसानों के लिए अकादमियां नहीं खोल रही है| कोई भी अकादमियां मेहनतकश मजदूरों को पुरस्कृत नहीं कर रही है| कोई भी मीडिया समाज और संस्कृति के विकास में उन संघर्षरत समाज सेवी का वर्णन नहीं कर रहा है जो दिन रात सड़कों आदि की मरम्मत करता हुआ उनके लिए पथ सुलभ करा रहा है| दरअसल, सारी-की-सारी सुविधाएं मात्र सुविधाभोगियों के लिए है| 
यदि ऐसा है तो इस देश के साहित्य का, इस देश की संस्कृति का, इस देश के भविष्य का बस संयोग ही रखवाला और पोषक है| मुझे यह भी डर है कि जब मैं ये सब बातें लिख रहा हूँ तो कोई न कोई सत्ता विरोधी या फिर विद्रोही भी करार दे सकता है, यह भी कह सकता है कि इसे साहित्य और साहित्यकार का महत्त्व नहीं पता है, लेकिन जब मैं यह कह रहा हूँ तो ये जान लीजिए कि वह सच कह रहा हूँ जो पुरस्कार लेने वाला भी जान रहा है और पुरस्कार देने वाला भी|
आज यदि कोई साहित्यकार प्राप्त पुरस्कारों में से कुछ अंश साहित्य-संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अपने परिवेश को देने का ऐलान करता है, तो सच मानिए मैं सही अर्थों में उसे साहित्यकार मानूंगा| शेष तो बस खेल है| आज कोई खेल रहा है तो कल जो आएगा वह खेलेगा| हम तो बस दर्शक हैं अभी इनके पारी में तालियाँ पीट रहे हैं, वाह वाह कर रहे हैं| कल जो पुरस्कृत होगा उसके लिए वाह-वाह करेंगे| बस इतना ही--






Friday 1 December 2017

जीने के हर तौर तरीके....

हे प्रिये
तुम प्रीति बन कर
रीति अपनी निभा रही
सो चुके 
पर-प्रेम के नित
गीत को गुनगुना रही
हम यहाँ
ठहरे मुसाफिर
गीत के कुछ बोल सुन कर
तू हमारे
सोए दिल को
टेक दे गुदगुदा रही
ये हवाएं
मांगती हैं जब
साथ तेरे नेह का
तू प्रिये
अब आसरा बन
है हृदय को भा रही
कब थी
मुझको जीने की ये
शौक मुझको तू बता
जीने के हर
हर तौर तरीके
तू मुझे सिखला रही ||