Sunday 24 April 2016

समय के निकष पर समकालीन हिन्दी कविता

  

           समकालीन हिन्दी कविता का साहित्य-जगत् में एक बड़ा दायरा रहा है | इसके समय को लेकर आलोचकों एवं विद्वानों में अब भी निश्चितता नहीं पायी गयी है | सबसे बड़ी बात तो ये है कि समकालीन कहा किसे जाय? क्या समकालीनता को किसी समय-विशेष के दायरे में रखकर आंकलित करना आवश्यक है? या फिर इसके निर्धारण में प्रवृत्ति विशेष को माध्यम बनाया जाय? ये अपने समय के बड़े प्रश्न हैं जिसके पक्ष या विपक्ष में काफी लम्बे समय से वाद-संवाद होता आया है और आज भी शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों के मध्य समकालीन आन्दोलन के प्रेरक हस्ताक्षरों के माध्यम से यह प्रश्न तर्क-वितर्क के केंद्र में बना हुआ है | आलोचक पुष्पपाल सिंह के हवाले से कहें तो-साहित्यिक दुनिया में जिस प्रकार ‘आधुनिक’ और ‘आधुनिकता’ के प्रति एक व्यामोह सुदीर्घ समय तक परिव्याप्त रहा, उसी प्रकार ‘समकालीन’ और ‘समकालीनता’ की अनेक भ्रांत धारणाएँ समय-समय पर सामने आयीं | हिंदी शोध और समीक्षा—दोनों में धड़ल्ले से इसका प्रयोग हो रहा है और कभी उसकी सीमा रेखा 1950 से बाद के साहित्य के लिए स्वीकार कर ली जाती है तो कभी 1960 के बाद के साहित्य को ‘समकालीन’ कहा जाता है | अब समय आ गया है कि हिंदी-समीक्षा इस शब्द का सुनिश्चित अर्थ निर्धारण करे |”[1] 
      ‘समसामयिकता’ और ‘समकालीनता’ अपने मूल अर्थ में अंग्रेजी के ‘कोइवल’ (coeval) अथवा ‘कन्टेम्पोरेनिटी’ (contemporaneity) शब्दों के समवाची हैं जिनका अर्थ है “उसी समय या कालखण्ड में होने वाली घटना या प्रवृत्ति या एक ही कालखण्ड में जी रहे व्यक्ति |” किन्तु आज के साहित्य-सन्दर्भ में बहुत कम लेखकों ने इसके मूल अर्थ को ग्रहण किया |”[2] आखिर वजह क्या है कि सन् 1960 और 70 के आसपास ही समकालीनता की खोज करते करते हुए हम अपनी यात्रा को पूर्ण मान बैठते हैं और उसके बाद की स्थिति को फिर उन्हीं घटनाओं एवं समस्याओं में देखने का अभ्यास करने लगते हैं | हम यह समझने या विचारने का साहस आखिर क्यों नहीं कर पा रहे हैं कि उन कवियों या आलोचकों का समय कुछ और था जब वे अपने समय में रचनाकारों को समकालीन कहने का उपक्रम किया करते थे; हमारा समय कुछ और है; हमें एक अलग तरह से समकालीनता का पैमाना सुनिश्चित करना होगा|
      जाहिर सी बात है कि समकालीन आन्दोलन का प्रारंभ कहने को तो कबीर से भी कहा जा सकता है रैदास और गुरुनानक से भी, यदि हम अपनी समझ का आधार प्रवृत्ति विशेष को बनाते हैं तो | क्योंकि अपने समय के सच्चाई से टकराने का साहस इनमे खूब रहा है, जिस साहस की पैरवी अधिकांशतः लोग आज के कवियों के सन्दर्भ में या सन् 60 के आसपास या उसके बाद के कवियों के सन्दर्भ में करते हैं | परन्तु यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि कबीर के विचार तो कुछ हद तक समकालीन हो सकते हैं पर कबीर नहीं | कबीर को मध्यकाल की समय सीमा में रखकर ही उनका अध्ययन अपेक्षित होगा | ठीक उसी तारह जैसे भूषण की कविता थी तो बीरगाथात्मक कविता (रीतिकाल की सम्पूर्ण प्रवृत्ति स्रैंगारिकता के केंद्र में थी ) लेकिन उन्हें रीतिकाल का ही कवि घोषित किया गया न कि आदिकाल का | और यह इसलिए भी क्योंकि ये उस समय के घटनाओं तथा समस्याओं की उपज थे न कि आदिकाल के | हमारी मानसिकता को विकसित करने के सन्दर्भ में ये हमारे विचारों के प्रेरक हो सकते हैं, समकालीन या समकक्ष नहीं |
          डॉ० सुखबीरसिंह समकालीनता का अर्थ “कविता और विविध आन्दोलन” में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-“समकालीनता का अर्थ समसामयिकता नहीं होता है | तात्कालिकता से इसका अर्थ लेने से भी इसके अर्थ का बहुत संकोच हो जाता है | वस्तुतः समकालीनता एक व्यापक एवं बहुआयामी शब्द है और आधुनिकता का आधार तत्त्व है | जो समकालीन है, वह आधुनिक भी हो, यह आवश्यक नहीं है, किन्तु जो आधुनिक चेतना से संवलित दृष्टि है, वह निश्चित रूप से समकालीन भी होती है | इसी सन्दर्भ में समकालीनता के अर्थ एवं तात्पर्य को थोड़ा व्यापक करके ही ग्रहण करना चाहिए |”[3] ध्यान से समझने का प्रयत्न करें तो डॉ० सुखबीर सिंह की इस स्थापना में एक विशेष प्रकार का विरोधाभास दिखाई देता है| यहाँ वे एक तरफ तो समकालीनता का ‘अर्थ संकोच’ नहीं होना देना चाहते और “जो समकालीन है, वह आधुनिक भी हो, यह आवश्यक नहीं है, किन्तु जो आधुनिक चेतना से संवलित दृष्टि है, वह निश्चित रूप से समकालीन भी होती है|” कहकर समकालीनता के अर्थ को अर्थ विस्तार देते हैं | इस प्रकार का अर्थ विस्तार आखिर किस काम का जो न तो समय का बोध करवा सके और न ही तो उस समय के समाज का ही, जिसको केंद्र में रखकर साहित्य-सृजन होता है| यहाँ ‘अर्थ विस्तार’ देने का तात्पर्य या ऐसा करने के पीछे कहीं यह मंशा तो नहीं कि एक विचारधारा विशेष के लोगों को आसानी से शामिल किया जा सके और आने वाली पीढ़ी को उस पर चिंतन करने और सोचने के लिए दबाव डालकर मजबूर किया जा सके?
          यहाँ एक बात और स्पष्ट करना आवश्यक है; हिन्दी साहित्य के कई ऐसे कवि रहे हैं जो काल की दृष्टि से और बहुत हद तक प्रवृत्ति की दृष्टि से भी समकालीन आन्दोलन (जिसे समकालीनता के केंद्र में माना गया) में सक्रिय और वर्तमान थे, पर शायद इसलिए यहाँ उनका मूल्यांकन नहीं किया गया या ऐसा करने से परहेज किया गया क्योंकि वे उस प्रवृत्ति और रिवाज से सोचने के लिए प्रतिबद्ध अथवा बाध्य न थे | मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि अपने समय के बड़े कवियों को समकालीनता में सोचने और समझने का कष्ट हमारे समकालीन आलोचक क्यों नहीं उठाते यह एक बड़े विमर्श का विषय है | इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि ये कवि अपने मूल स्वभाव में द्विवेदी युग और छायावादी युग के पुरस्कर्ता में थे | इनके समस्त योगदान को आदर्शवादिता या फिर अधिक से अधिक राष्ट्रीय-चेतना के सन्दर्भ तक सीमित रखने का प्रयत्न किया गया और यह उसी रूप में आज भी जारी है | आज भी जो कवि भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और संस्कार की बात कर रहा है उसे समकालीन न मानकर पुरातन माना जा रहा है| जो ऐसा नहीं मान रहा या ऐसा मानने के पक्ष में नहीं है या तो फिर उसे कवि विरादरी से बर्खास्त कर दिया जा रहा है या फिर उसके साथ साहित्यिक समझदारी का व्यवहार न करके ‘बिरादरी की बेवफाई’ के तहत व्यवहार किया जा रहा है |
           यदि इस दृष्टि से सोचने का प्रयत्न किया जाय तो नागार्जुन (1911)आदि कुछ प्रगतिवादी कवियों को भी समकालीन कवि कहने में मुझे संकोच होता है | खासकर इनके साथ-साथ बात जब केदारनाथ अग्रवाल (1911) और त्रिलोचन शास्त्री (1917)का किया जाय, तब मेरा यह संकोच और भी तीव्र रूप ले लेता है और इन कवियों को प्रगतिवाद की सीमाओं में ही रोकने और रखने को बाध्य होता है | हिन्दी साहित्य में यही तीन कवि ऐसे हुए जो अपनी प्रवृत्ति और स्वभाव को त्याग न सके अपितु अपने जीवन के अंतिम दिनों तक उसके पक्ष में खड़े रहे| इस दृष्टि से इनकी प्रवृत्तियाँ प्रगतिवादी रचनाधर्मिता तक इन्हें रोकती हैं लेकिन यहाँ समकालीन आलोचकों का ‘मोह’ हमारे सामने मुखर होता है और यहाँ आकर हम इन्हें समकालीन कवि मानने को मजबूर होते हैं| इस मजबूरी को दूर करने का प्रयत्न हम सबको करना होगा | इसलिए भी क्योंकि हमारे पास विकल्प है और विकल्प को हर समय आजमाया जाना चाहिए | एक परम्परा की शुरुवात पिछली परंपरा पर प्रश्न खड़ा करने से होता है | हम अभी तक स्वयं को प्रश्न खड़ा करने से रोकते रहे हैं |
          अजय तिवारी ने समकालीन कविता के समय को 1950 और 60 से ऊपर उठकर 1970 के बाद की रचनाओं को समकालीन कविता आन्दोलन से जोड़ने का प्रयत्न, ‘मोटे तौर पर’ ही सही, करते दिखाई देते हैं; उनके अनुसार--“आजकल जिसे समकालीन कविता कहा जाता है, वह मोटे तौर पर  1970 के बाद लिखी गयी कविता है| जो बात सबसे पहले ध्यान खींचती है, वह है स्वतंत्रता आन्दोलन की स्मृति और मोहभंग के हैंग-ओवर से उसका पूरी तरह मुक्त होना | उसके काव्य-विवेक की सीमाएँ और शक्तियाँ दोनों इसी बिंदु से निःसृत हुई हैं | यह पूरी तरह स्वातंत्र्योत्तर पीढ़ी की रचना है |”[4] यहाँ दो चीजें निकलकर सामने आती हैं एक-स्वतंत्रता आन्दोलन की स्मृति, दूसरे, मोहभंग के हैंग-ओवर; इन दोनों स्थितियों से निकलने कोशिश सन् 70 के बाद शुरू तो होती है कवियों में पर सफलता 80-85 के बाद के कवियों को ही मिलती है | फिर जिस तरीके से अजय तिवारी की यह पुस्तक सन् 2010 में प्रकाशित होती है, जाहिर सी बात है कि उस समय हम इंदिरा गाँधी के शासन में नहीं अपितु कांग्रेस के गठबंधन सरकार में जी रहे होते हैं; हमारे पास सन् 84 का सांप्रदायिक दंगा नहीं अपितु सन् 92 का बाबरी मस्जिद काण्ड और फिर उसके बाद गोधरा काण्ड और कई अन्य प्रकार की घटनाएँ और समस्याएँ होती केंद्र में होती; जिनमें कई ऐसे कवि नहीं आते जिन्हें हम समकालीन कवि कहना और कहलवाना पसंद करते हैं, समकालीनता का निर्धारण यहाँ से करने का प्रयत्न इनके द्वारा क्यों नहीं किया गया? निश्चित ही यह अजय तिवारी का और उनके साथ-साथ एक विचारधारा विशेष तक सीमित कुछ आलोचकों का  मोह ही समझा जाएगा जिसकी वजह से इस समय के कुछ कवियों की कविताई को छोड़ नहीं पाते तथा कुछ और प्रगतिवादी कवियों  को समकालीनता का जामा पहनाने के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं | यहाँ यदि अजय तिवारी 1970 के बाद न कहकर 1980 या 1985 के बाद कहते तो समकालीन समय और उसके बाद बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया में संलग्न समकालीन समाज को साहित्य के नजरिये से देखने में बहुत आसानी होती |
         1980-85 के बाद का दौर हिंदी-कविता का वह दौर है जहाँ पहली बार वर्तमान परिस्थितियों से लड़ने की जद्दोजहद समाज से लेकर साहित्य तक में पायी जाती है | यह वही समय है जब एक साथ कई प्रवृत्तिया, आन्दोलन और उसके अगुवाई करने वाले कवि हमारे सामने आते हैं | यहीं के आसपास दलित आन्दोलन की शुरुवात होती है और फिर उसके बाद स्त्रियाँ अपने भावनाओं को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करना शुरू करती हैं| “दलित का दुःख दलित का है उसे वही अभिव्यक्त कर सकता है तो स्त्री का दुःख स्त्री का है | उसे छोड़कर दूसरा उसके दर्द को क्या समझे?” ये प्रश्न अपने मूल स्वरूप में समकालीन भी हैं, समसामयिक भी | कमोबेस ये दोनों आन्दोलन ‘स्वानुभूति और सहानुभूति’ के माध्यम से चर्चा-परिचर्चा का माध्यम बनते हैं | समीक्षा-जगत् या फिर आलोचना जगत् में इस प्रकार आन्दोलनों को शायद तात्कालिक आन्दोलन समझा गया और इसीलिए शायद यहाँ से समकालीनता का पैमाना निर्धारित करने की जोहमत हमारे द्वारा नहीं उठाया जा रहा है और हम कुछ ही सही पुरानी घिसी-पिटी मान्यताओं को ढोने के लिए विवश हो रहे हैं |




[1] सिंह, पुष्पपाल, समकालीन कहानी : रचना मुद्रा, नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन, 1986, पृष्ठ-20                    
[2] वही, पृष्ठ-20
[3](सं.) विनय (डॉ०), पाराशर , डॉ० अश्विनी,  समकालीन हिन्दी कविता संवाद, डॉ० सुखबीर सिंह का लेख (कविता और विविध आन्दोलन), दिल्ली सन्मार्ग प्रकाशन, 1983, पृष्ठ-29
[4] तिवारी, अजय, उत्तर-आधुनिकता, कुलीनतावाद और समकालीन कविता, दिल्ली : नई किताब, 2015, पृष्ठ-256 

4 comments:

डॉ जय शंकर शुक्ल said...

अद्भुत अकल्पनी़य कार्य एवं व्यवहार के स्तर पर यह आयोजन उत्कृष्ट है आप के स्तर पर यह आयोजन उत्कृष्ट है अतीत का इतना मार्मिक चित्रण बधाई अनिल जी

डॉ जय शंकर शुक्ल said...

अद्भुत अकल्पनी़य कार्य एवं व्यवहार के स्तर पर यह आयोजन उत्कृष्ट है आप के स्तर पर यह आयोजन उत्कृष्ट है अतीत का इतना मार्मिक चित्रण बधाई अनिल जी

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 27 जून 2020 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.com
पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

रेणु said...

अत्यंत सराहनीय अवलोकन दृष्टि | वाह लेख |