कोरोना समय में जितनी भी कविताएँ लिखी गयीं या
लिखी जा रही हैं उन्हें ‘कोरोजीवी कविता’ के नाम से सम्बोधित किया जाना चाहिए| कवि की सम्पूर्ण
संवेदना, कोरोना का जिक्र कविता में हो या न हो, कोरोना से प्रभावित थी और है भी|
समकालीन हिंदी कविता के ख्यात कवि श्रीप्रकाश शुक्ल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के लिए एक
साक्षात्कार ले रहा था मैं| कोरोना का दौर प्रारंभ हो चुका था| नब्बे के दशक के
बाद की हिंदी कविता के नामकरण पर जब उनसे चर्चा की गयी तो उन्होंने तीन नाम सुझाए
थे, तब से लेकर अब तक की कविताओं के लिए| 1. अस्मितामूलक कविता, 2. प्रयोजनिक
कविता 3. कोरोजीवी कविता|
जिस समय उन्होंने कोरोना-समय की कविताओं को कोरोजीवी कविता कहना शुरू किया उस समय तक इस नाम पर किसी ने विचार भी नहीं किया होगा| उसके बाद जब लाइव कविता का प्रसारण तीव्र गति से होने लगा सोशल मीडिया पर, उस समय महत्त्वपूर्ण फेसबुक पेज पर उनके व्याख्यान आयोजित किये गए| इन कार्यक्रमों में उन्होंने विधिवत सैद्धांतिकी को न सिर्फ प्रस्तुत किया अपितु पूरी संवेदना के साथ उसकी सम्भावनाओं को भी उन्होंने रखा| जिन प्लेटफ़ॉर्म पर ये व्याख्यान प्रस्तुत किये गए उनमें शब्द-रंग फेसबुक पेज, के एल पचौरी प्रकाशन फेसबुक पेज, कंचनजंघा फेसबुक पेज आदि शामिल हैं| इन व्याख्यानों में कोरोजीवी कविता की संकल्पना, चिंतन-क्षेत्र और और उसके शिल्प पक्ष को लेकर विस्तार से चर्चा की गयी|
वस्तुतः
ये बात सच है कि इधर लम्बे समय से समकालीन हिंदी कविता में विषय-प्रस्तुति और
विमर्श-विविध को लेकर ठहराव महसूस किया जा रहा था| कवि सृजन तो कर रहा था लेकिन
उसे मूल्यांकित करने के लिए जिस तत्परता और सक्रियता की जरूरत होती है, किसी भी
रूप में नहीं अपना कर चला गया| मेरे और श्रीप्रकाश शुक्ल के बीच ‘बात में बात’
परियोजना के तहत चल रहे चर्चा-परिचर्चा के अंतर्गत बोलते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल ने
आज के दौर में आलोचना के संशय के दायरे में होने और आलोचक के अपदस्थ होने की बात
कही| ये बात इतनी जरूरी और प्रमाणिक थी कि ठहरकर सोचने पर विवश होना पड़ा| इधर
लम्बे समय से न कविता आन्दोलन में परिवर्तन हुआ और न ही तो कोई ऐसा परिवर्तन महसूस
किया गया जिससे व्यापक कविता जगत का मूल्यांकन सम्भव हो पाता|
समकालीन
कविता-मूल्यांकन की बात जब भी हुई कुछ विशेष कवियों का नाम लेकर और उनका उदाहरण
देकर बात समाप्त कर दिया गया| एक तरह से इस प्रवृत्ति ने कविता के विकास में अवरोध
उत्पन्न किया| समकालीनता के व्यामोह में उलझे रचनाकार इसके दायरे से निकल कर
झाँकने की जोहमत नहीं उठाए| एकरसता इतनी हावी रही कि नए कवियों का मूल्यांकन न के
बराबर हो पाया| हिंदी कविता के एक ठीक-ठीक अध्येता से यदि समकालीन कवियों के विषय
में पूछा जाए तो वे महज पुराने कवियों का नाम लेकर आगे बढ़ जाएंगे-मसलन धूमिल,
लीलाधर जगूड़ी, भगवत रावत, चन्द्रकांत देवताले, राजेश जोशी, अरुण कमल, मदन कश्यप|
अब यह इन विद्यार्थियों को कौन समझाए कि उसके बाद भी कई कवि हुए हैं| उसके बाद भी
कविता की जमीन को निराने-गोड़ने का कार्य किया गया है| उर्वरता इतनी कि प्रतिरोध का
विकल्प सही अर्थों में कविताओं से संचालित हो तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी|
कोरोना
की इस वैश्विक आपदा में मनुष्य ‘कोरोजीवी’ हो गया है| उठते-बैठते, सोते-जागते,
घूमते-टहलते यदि किसी बात की चिंता है तो वह है ‘कोरोना’| आर्थिक, सामाजिक,
राजनीतिक एवं आध्यात्मिक जगत की यथार्थ स्थिति को इस समय की कविताओं ने खुली आँखों
से अभिव्यक्त किया है| 4 से 5 महीने का ये जो समय है, मनुष्य के जीवन में किसी बड़ी
त्रासदी से कम भयानक समय नहीं है| शक्ति और सत्ता के जितने सिद्धांत थे, सब इधर
फीके पड़े हैं| आज यदि राजनीतिक विचारकों में शुमार थामस हाब्स, लॉक और रूसो होते
तो अपनी सिद्धांतों की इस तरह धज्जी उड़ते देख बहुत दुखी और परेशान होते|
मामला
यहीं तक होता तो फिर भी सुकून होता| सदियों से रक्षित ईश्वरीय सत्ता से लोगों का
विश्वास इधर एकदम से टूटा है| जिस विज्ञान के आतंक से लोग डरे हुए थे, जिस पर
गुमान करते हुए पूरा आधुनिक समाज टिका था, वह विज्ञान कुछ न कर सका| मन्त्र से
लेकर मेडिकल तक की यात्रा हमारी हमें यह बता गयी कि प्रकृति के सामने वास्तविकतः
हमारी कोई औकात नहीं है| जीवन-प्रक्रिया में सुधार और विचारों में संतुलन ही वह
स्थिति है जो मनुष्य समाज को तमाम भय और संकट से सुरक्षित रख सकती है|
सरकारों
का चयन मनुष्य समाज को संतुलित रखते हुए उसे दिशा-निर्देश के लिए हुआ था| ताली और
थाली जैसी पारम्परिक विधाओं को आजमाते हुए भारत सरकार ने आपदा में अवसर तलाशने की
बात कही, आत्मनिर्भर होने के मन्त्र दिया तो विश्व के अधिकांश सरकारों ने जीते
नागरिकों को मृत्यु के मुँह में धकेल कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा ली| जनता
ने यह पूरी तरह से जान लिया कि अब उसे करना क्या है? राजपथ से लेकर जनपथ तक भुखमरी,
बेरोजगारी, बेगारी और कंगाली जो तांडव मचा कि अभी तक हम उसी में रमे हुए हैं| अब
जनता भी जान गयी है कि उसे मरना है तो अपनी शर्तों पर और जीना है तो अपनी शर्तों
पर|
राजनीतिक
आत्मनिर्भरता के नारे का स्थान सामाजिक आत्मनिर्भरता ले लेगी, किसी ने कहाँ सोचा था?
कहाँ सोचा था किसी ने कि जिस संस्कृति और जीवन-मूल्य को हम दस-बीस वर्षों से एकदम
त्यागते जा रहे हैं, वह सब हमें पुनः अपनाना पड़ेगा? इन सभी चिंताओं से रू-ब-रू
होते हुए यह ध्यान रखना है कि संकटों से लड़ना मनुष्य का स्वभाव है| विसंगतियों से
जूझते हुए जीने लायक परिवेश का निर्माण मनुष्य हर हाल में कर ही लेता है| इधर की
कविताएँ सही अर्थों में इसी प्रकार के परिवेश-निर्माण पर बल दे रही हैं| यहाँ
मनुष्य है और उसका संघर्ष है| वह तमाम स्थितियां मृतप्राय हो गयी हैं जो मनुष्य को
सुरक्षा और रक्षा दिलाने का आश्वासन दिया करती थीं|
शक्ति
और सत्ता में वह सामर्थ्य नहीं है| कविताओं में है| इधर की कविताओं ने संघर्ष का
मार्ग दिया है| कैसे जीना है और किस प्रकार रहते हुए अपने जन-जीवन को समृद्ध करना
है यह भी इधर कविताओं में स्पष्ट हो रहा है| यह कोरोजीवी कविता ही है जिसने वैशाखी
के सहारे रहने की अपेक्षा ‘अपनी सुरक्षा स्वयं करों’ और अपने पैरों पर खड़ा होने
जैसी सीख दे रही है| ये सीख निश्चित रूप से हमें समृद्ध कर रही है, यह अब पता चल
रहा है|
श्रीप्रकाश
शुक्ल के ‘कोरोजीवी कविता’ नामकरण पर अपना विचार व्यक्त करते हुए मदन कश्यप ने
अपने फेसबुक वाल पर कहा था कि “कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के बाद दुनिया का
बदलना तय है। संवेदनशील विधा होने के नाते कविता उस बदलाव को लक्षित कर रही है। हिन्दी
के यशस्वी कवि एवं आलोचक श्रीप्रकाश शुक्ल ने
कविता में आ रहे बदलावों को आधार बनाकर एक नयी सैद्धान्तिकी गढ़ी है,
जो स्वागत योग्य है|” यह सैद्धांतिकी कोरोजीवी कविता की सैद्धांतिकी
है, जिसका हिंदी जगत अपनी तरह से स्वागत कर रहा है|
3 comments:
#कोरोजीवी कविता पर बहुत संतुलित और साफ लेख है।बधाई।
अब बात चल ही पड़ी है तो पाठकों को विषय के मूल या यूं कहूं उद्गम से अवगत करवाना भी जिम्मेदारी है। कोरोजीवी कविता पर लिखा गया बहुत ही अच्छा आलेख।
जी बिलकुल| वैसे तो यहाँ भी विषय के मूल से परिचय करवाने का कार्य किया गया है| फिलहाल जल्द ही विस्तार से इस विषय की सैद्धांतिकी लेकर हम आ रहे हैं जिसका सूत्र भी इस लेख में मौजूद है| आभार आपका|
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