Monday 2 May 2016

महाकवि तुलसीदास : समझ और सार्थकता

     
       साहित्य का मूल उद्देश्य ‘सबके हित’ को वरीयता देना है| नाम की सार्थकता भी इसी में है कि उसके माध्यम से वर्णित या विषय प्रतिपादन की दृष्टि से चयनित विषयों के प्रति, चाहे वह मानव हो, चिर प्रकृति हो, या अन्य कोई प्राणी ही क्यों न हो, समय समाज में उनके प्रति एकत्व का भाव रखे| यह जरूरी चाहे न हो कि वह (रचनाकार) उस स्थिति विशेष की समानता का आग्रही है भी कि नहीं पर जहां बात रचनात्मकता की आती है वहां रचनाकार को यह भाव दिखाना ही पड़ेगा| समाज में ये विभेदता होना कोई बड़ी बात नहीं है और यथार्थतः होता भी है ऐसा, जाति-वर्ग, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा ये सभी उन्हीं विवेधताओं के रूप हैं| यहाँ रचनाकार का कर्तव्य ही नहीं अपितु एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर यह उसका सामाजिक दायित्व भी बनता है कि जहां कहीं इस प्रकार की असमानताए दिखे भी, उसकी तरफ से यह बराबर की कोशिश होनी चाहिए कि उन विद्यमान असमानताओं के बीच भी समानता की कोई न कोई लकीर खीचे| ‘कीरति भनिति भूति भली सोई, सुर सरि सम सब कह हित होई|” जैसी उदात्त भावना का साकार रूप तभी दिखाई देगा| सत्यं, शिवं, सुन्दरं की आकांक्षा तभी प्रतिफलित होगी| वसुधैव कुटुम्बकम का स्वप्न तभी साकार होगा और तभी होगा यथार्थ धरातल पर प्रतिष्ठापित राम-राज्य की परिकल्पना|
      क्योंकि ये ऐसे स्वप्न है जो सिर्फ सैद्धांतिक स्तर पर नहीं, अपितु व्यावहारिक स्तर पर प्रयत्न करने की मांग करते हैं| भक्तिकालीन साहित्य इन प्रयत्नों का ही साकार रूप है|  लोकमानस की स्थिति और परिस्थिति का जो यथार्थ अंकन इस युग के साहित्य में, जिस गहरे आत्मीयता के साथ दिखाई देता है वैसा किसी अन्य युग के साहित्य में मिल पाना शायद ही संभव हो| यह इसलिए भी है कि इस युग के कवि यश, लोभ, लालच और तृष्णा के आवरण में न पड़कर ‘स्वानुभूति’ के आधार पर ‘पर-हित’ की भावना से प्रेरित होकर काव्य-सृजन में लगे हुए थे| ये जनता के बीच से उठकर, जनसामान्य की स्थिति में आम आदमी के लिए आम होकर अपनी आलोकमयी प्रतिभासंपन्न बौद्धिक क्षमता के प्रयोग में संलग्न थे| इसलिय इन्हें अन्य युग के साहित्यकारों की अपेक्षा जनसामान्य के दुःख-दर्द, स्थिति-परिस्थिति, वेदना-संवेदना की कहीं अधिक समझ और पकड़ थी| साहित्यिक गलियारों में आज के ‘दलित विमर्श’ से लेकर ‘स्त्री-विमर्श’ और ‘आदि-विमर्श’ से लेकर विमर्शों के समस्त आयामों तक स्वानुभूति और सहानुभूति का जो प्रश्न है, जो विवाद है वह भक्तिकाल में पहले ही विद्यमान थी| ‘तूं कहता कागद की लेखी, मैं कहता आखिन देखी” कबीर का यह स्पष्ट उद्घोष उस समय के सम्पूर्ण साहित्य-यथार्थ का निचोड़ है| पर ऐसा कहना कि यह भावना सिर्फ और सिर्फ निर्गुण-साहित्य में ही परिलक्षित होता है, न मात्र उस समय के साहित्यिक ज्ञान-क्षेत्र की अल्पज्ञता प्रमाणित होगी, अपितु एक विशेष प्रकार की हठधर्मिता भी दिखाई देती है जो इन दिनों के आलोचकों एवं साहित्यिक ठेकेदारों में कहीं अधिक गहरे में विद्यमान दिखाई देती है|
           हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में स्थापितों को विस्थापित करने का जितना प्रयत्न किया गया उतना प्रयत्न शायद ही किसी दूसरी भाषा-साहित्य में दिखाई दे| सोचने की बात ये है कि, जिन्होनें अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता केन्द्रित पर-हित और विश्व-हित की कामना में व्यतीत कर दिया उन्हीं को आलोचना जगत में प्रतिष्ठापित होने का स्वप्न संजोए कितने ही भटके हुए आलोचक कभी वादों के घेरे में कसकर, तो कभी विवादों के आवरण में लपेटकर बेइज्जत, बदनाम और बर्खास्त करने की हठधर्मिता दिखाते रहे| इसके बावजूद कि आलोच्य व्यक्तित्व संसार-संसृति में निवास करने वाले तथा जन-संवेदना की थोड़ी भी परख रखने वाले मानव-मन के ह्रदय और मस्तिष्क का हार बना रहा| हजारों, करोणों दीन-हीन, दलित-पददलित, स्थिति-परिस्थिति से ग्रसित, शोषित-अवशोषित जनों का श्रृंगार बना रहा| बात यहाँ किसी और की नहीं उसी मानवता प्रेमी महामानव, कवि-सम्राट गोस्वामी तुलसीदास की हो रही है जिनके साहित्य के आवरण में मानवीय सभ्यता और संस्कार के धरातल पर जीवन यापन करने वाले हजारों लोगों के वेदना-संवेदना से संदर्भित कल्याण की भावनाएं हिलोरे ले रही हैं| जिनके उदार मानवीय संकल्पनाओं के आवरण में पशु-पक्षी, जीव-जंतु से लेकर इस धरा पर निवास करने वाले कीट-पतंगे तक मानव की मानवीयता का अनुसरण करते दिखाई दे रहे हैं| भारतीय सन्दर्भ में सभ्यता, संस्कार और परिवेश की बात करें तो तुलसीदास का कोई विकल्प ही नहीं है | विश्वनाथ त्रिपाठी जी के शब्दों में कहें तो, “यद्यपि तुलसी के राम त्रिभुवन और चराचर के स्वामी हैं, किन्तु तुलसी ने जिस देश का चित्रण किया है, वह भारत-विशेषतः हिंदी प्रदेश है | इस देश से तुलसी को अपार प्रेम था | यहाँ के मनुष्य, यहाँ की प्रकृति, यहाँ की नदियाँ, यहाँ की धरती, फसल, भाषाएँ, वन, उपवन, खग-मृग उनके बहुत आत्मीय और प्रिय थे | तुलसी की रचनाओं में देश अपने विविध रूपों में मौजूद है | तुलसी साहित्य का प्रेमी पाठक उनकी रचनाओं के माध्यम से अपने को और अपने देश को ही पढ़ता और देखता है | तुलसी साहित्य में हमारा देश जितनी विविधता और सम्पूर्णता के साथ चित्रित है उससे अभिभूत और विभोर होना जितना स्वाभाविक है, उसे आंक पाना उतना ही दुस्साध्य है | कौन पाठक और आलोचक अपने को इतना भारतमय बना पायेगा?”1 यह प्रश्न तुलसी को ख़ारिज करने की तरफ नहीं उन्हें समझने की तरफ इशारा करता है |  
        अब यह साहित्य जगत की विडंबना ही हो सकती है कि ऐसे लोक-चेतना संपन्न कवि-ह्रदय को सामंतवादी, ब्राह्मणवादी तथा पूंजीवादी खांचे में फिट करके उसके अंतर्गत निहित पावन-पवित्र भावनाओं को गलत ढंग से पेस किया जा रहा है| आज के इस उत्तराधुनिक युग में सच्चा समाज-आदर्श तो लोगों में रहा नहीं और जहां से कुछ प्राप्त करने की संभावनाएं बची भी हैं उन्हें परम्परावादी, सम्प्रदायवादी अथवा मिथक-मात्र कहकर ख़ारिज किया जा रहा है| इस तरह नई पीढ़ी को किस प्रकार की वैचारिकता प्रदान की जा रही है, उनके समाज का, उनके भविष्य का और स्वयं उनका कौन सा आदर्श निर्धारित किया जा रहा है, यह आज के समय में एक गहरे चिंतन का विषय है|
     किसी भी कवि या साहित्यकार के प्रसिद्धि का आधार उसका कुल या गोत्र नहीं होता, उसके साहित्य में निहित उस समाज की स्थिति-परिस्थिति का, लोक-परंपरा और जन-संघर्ष का, जिसमे वह वर्तमान होता है, कितने गहरे और कितने यथार्थ-रूप में कितनी जीवंतता के साथ चित्रण और अंकन हुआ है, उसके मूल्यांकन का आधार यह दृष्टि तथा यह भाव होता है| इन भावों को तुलसीदास जी ने मात्र देखा ही नहीं था, महसूस ही नहीं किया था अपितु भोगा भी था और यदि शिवकुमार मिश्र के शब्दों में कहें तो “दारिद्रय उन्होंने देखा ही नहीं भोगा भी था, भूख की यातना उन्होंने सुनी ही नहीं थी, अनुभव भी की थी| उन्हें द्वार द्वार भटकते हुए भिक्षा पर गुजरा करना पड़ा था; साधारण व्यक्तियों के सुख-दुःख से उनका सीधा परिचय था| उनके जीवन के बारीक से बारीक पक्षों से वे उन्हीं का एक अंग होने के नाते परिचित थे| यही कारण है कि उनकी रचनाओं में लोक जीवन के चित्र जो साधारण जन के अपने अनुभवों के दायरे के भीतर है, तथा लोक-मन की जो अभिव्यक्ति हुई है, उसमे भी उनकी उतनी ही अंतरंगता है|”2  जनसामान्य के भूख और दर्द का जो यथार्थ बोध तुलसी को हुआ है, वैसा यथार्थबोध क्या कहीं देखने को मिलेगा क्या| ‘कवितावली’ की ये पंक्तियाँ ऐसे ही प्रस्फुटित नहीं हुई हैं तुलसी के कवि-ह्रदय से-
    खेती न किसानको, भिखारी को न भीख, बलि,
    बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी|
    जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
    कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?”
       अपितु ये युग-समाज में विद्यमान समस्याओं एवं संकटों की अभिव्यक्ति है | अपने समय की सबसे प्रगतिशील और यथार्थ-बोध से उपजी मानसिकता की छटपटाहट है, और यदि और भी यथार्थ में जाएँ तो एक साहस है जो कहीं न कहीं समाज की दशा और दिशा बदलने की दृष्टि रखता है | जीविका विहीन लोग यानि बेरोजगार और उसपर भी भूंख की मार, साधारण जनसमुदाय के लिए किस अभिशाप से कम है भला? क्या तुलसी की ये पंक्तियाँ वर्तमान समय-सन्दर्भ पर नहीं लागू होती? तब जब आये दिन किसानों की आत्महत्याएँ होती हों, रास्ता लखते-लखते किलो भर चावल और पाँव भर आंटे का सुबह रात्रि में और फिर रात्रि सुबह में परिवर्तित हो जाती हो, गरीब परिवार का कोई सदस्य अपने जीवन की अंतिम सांसे ले रहा हो और उसके लिए ऐसा विल्कुल भी संभव न हो सके, कभी पैसे के अभाव में तो कभी संसाधनों के अभाव में, कि वह आगे बढ़कर उसकी दवा तक करा सके ऐसी स्थिति में जीविका विहीनता और अभावग्रस्त समय का चित्रण करके तुलसी जी ने अपने देश और समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ही जाहिर की है | इसमें कोई शक नहीं है कि तुलसीदास जी का समय धर्म, संस्कृति, सभ्यता और संस्कार की दृष्टि से संक्रान्तिकाल का समय था जिसमे हर कोई क्या गरीब, क्या अमीर, क्या राजा, क्या प्रजा, क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र सभी पेट पालने की स्थिति को ही प्रमुख कार्य मानते थे | इसके अतिरिक्त सोचने और समझने के लिए लोगों पास विल्कुल भी विवेक नहीं हुआ करता था | यह बात तुलसी के कवितावली में चित्रित इस पद के माध्यम से होता है. यथा-
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी |
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ||
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी |”4
        यह मानव-जीवन की विडंबना नहीं तो आखिर क्या थी? रंच-मात्र की सुख और सुविधा का प्रबंध स्वयं न कर पाना और इस स्थिति की प्राप्ति मात्र के लिए स्वयं को पशुता से भी बदतर बना देना क्या आज भी नहीं पाया जा रहा है? यदि पाया जा रहां है तो फिर इसका सुधार कैसे हो? इसका परिष्कार कैसे हो? कौन बढाए कदम जब सभी स्वयं के दुःख में उलझकर व्यथित हुए हों? जिस प्रकार के प्राणी आज विद्यमान हैं उसी प्रकार के प्राणी तब भी तो विद्यमान थे | पर ये तुलसी की दूरदर्शिता ही कही जाएगी जो उन्होंने स्वयं को उन सबसे अलग-थलग रखते हुए वर्ण-व्यवस्था की अनुपालना पर जोर दिया | ऐसा नहीं है कि इसके पीछे तुलसी के ह्रदय में एक वर्ग विशेष के प्रति संवेदना और दूसरे के प्रति दुर्भावना की प्रतिबद्धता रही हो, वे तो सबको एक समान समझते थे और सबकी सुख और सुविधा में ही समाज के सुख और समृद्धि की परिकल्पना करते थे |
       भक्ति का आदर्श भी तुलसी के इसी परिकल्पना का प्रतिफल है | पूजा, जप, तप, नेमि, आचार, संस्कार आदि जैसी मौलिक उद्भावनाएँ इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ती के लिए की गयी | नियम किसी भी स्थिति से मानव को चैतन्यता प्रदान करते हैं | उनके अन्दर शक्ति और ऊर्जा का संचार करते हैं| समृद्धि और विकास से सम्बंधित होकर चलने के लिए प्रेरित करते हैं | लेकिन जब किसी कार्य को करने या समाज में रहने के लिए व्यक्ति का अपना कोई नियम नहीं होता तब वहीं कुंठा, भय, हताशा, और निराशमय वातावरण का प्राधान्य होना शुरू होता है | किसी भी परिस्थिति के निदान और स्थिति विशेष के सृजन के लिए आस्था और विश्वास का होना सबसे बड़ी आवश्यकता है | तुलसीदास इसी आस्था और विश्वास को मूर्तिमान करने के लिए राम-चरित्र का निर्माण करते हैं | एक ऐसा चरित्र जिसके सम्पूर्ण का यदि एक चौथाई हिस्सा भी व्यक्ति के अन्दर समाहित हो जाए, शायद ही समय-समाज में रहते हुए उसकी कोई इक्षा अधूरी रह पाए | तुलसी के राम की आदर्शतामय सवरूप का वर्णन करते हुए संतोष कुमारी शर्मा जी कहती हैं कि “श्रीरामचरितमानस के कथा नायक श्रीराम अपने प्रत्येक रूप में मानवीय आदर्श की पराकाष्ठा हैं | श्रीराम आराध्य के रूप में तो अद्वितीय हैं ही, वे पुत्र के रूप में, भाई की भूमिका में, राजा का दायित्व निभाने में, पति के रूप में, मित्र के रूप में, स्वामी के रूप में, सखा के रूप में और यहाँ तक की शत्रु के रूप में भी वे अपने उदात्त मानव रूप का त्याग नही करते |”5  यह निहायत ही एक प्रकार की विडंबनामय स्थिति ही है कि ऐसे महानायक का अनुसरण करने के बजाय लोग उनके सम्पूर्ण और सार्थक पात्रिक संरचना को ही सामंतवाद का प्रतीक माम बैठे हैं | तुलसी किसी भी स्तर से सामंतवाद के समर्थक नहीं है वे जनसंवेदना के रक्षक है और जनांदोलन के समर्थक | आज के भयानक आधुनिकतम परिदृश्य में भी यहाँ यह समझना आवश्यक है कि तुलसी का साहित्य निराशा और कुंठा का साहित्य नहीं है | यह शक्ति और ऊर्जा का साहित्य है |अब यदि लोगों की दृष्टि में स्वस्थ सामाजिक परिवेश की परिकल्पना करना भी अनैतिक है तो इसमें तुलसी का क्या दोष? जबकि सच्चे अर्थों में जाना जाय तो “तुलसी लोक जीवन की मधुस्तिक्त अनुभूतियों के मुग्ध और सजग गायक हैं| लोक जीवन की नाना छवियों को उनकी रचनाओ में उनकी जीवन्तता में देखा जा सकता है| वे अन्याय का सक्रिय प्रतिरोध करने की सलाह देने वाले और राम के रूप में उसका उदहारण पेश करने वाले समाज-द्रष्टा हैं|...वे जीवन की बहुरंगी छवियों के, उसकी समग्रता के कवि हैं| लोकचित्त में उनकी पैठ का मिशाल नहीं, लोकप्रियता में वे अनन्य हैं|”6
         जहां तक कहा जा सकता है रचनाकार को कभी भी एक खांचे में फिट करके नहीं देखना चाहिए | हालाँकि कभी कभी भावावेश में आकर रचनाकार कुछ अधिक कह जाता है पर उसका वह कथन भी किसी न किसी विषय से संदर्भित ही होती है, समय समाज में घटित होने वाली घटनाओं का बहुत कुछ लेखा-जोखा, नितांत वैयक्तिक या कल्पना मात्र नहीं | इसमें कोई शक नहीं कि तुलसी द्वारा कही गयी कई एक बातें आज भी उतनी ही यथार्थ हैं जितना तुलसी के समय में हुआ करती थी | नारी के प्रति तुलसी की दृष्टि को लेकर आज भले ही उन्हें कटघरे में खड़ा करने की असफल चेष्टा की जाए पर बात सौ टके की है कि “जिमी स्वतंत्र होई उघरहिं नारी |” पश्चिमी सभ्यता में और भारतीय सभ्यता में कुछ तो खास है जो सभ्यतिक दृष्टि से हमे उच्च ठहराती है | हमारे उच्चता की निशानी, हमारी पहचान, हमारी सभ्यता, हमारी स्वतंत्रता स्वच्छंदता में नहीं समर्पण में सुरक्षित है जिसमे लज्जा, शर्म, लिहाज और संस्कार प्रथम स्थान रखते हैं | इनका परित्याग करने के बाद व्यक्ति व्यक्ति न रहकर जानवर हो जाता है | भारतीय दृष्टि हमारी यही कहती है | जबकि पश्चिमी सभ्यता इन सब कारकों का बंधन के रूप में स्वीकार करती है | उनके लिए लज्जा शर्म कोई खास मायने नहीं रखता शिवाय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के | हमारे देश में भी उसी स्वतंत्रता की जरुरत महसूस की जा रही है | मर्द जहां सब प्रकार के वहासीपन के समस्त हदों को पार कर गए हैं वहीँ औरतें कपड़े उतरना ही सभ्यता की अंतिम परिणति मान बैठी हैं | एक समय वह भी था जब पति का नाम लेना भी गुनाह समझा जाता था और एक समय यह भी है जब पति की नाम लेना तो दूर उन्हें बदनाम करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती | वनगमन करती तुलसी की सीता में जो शर्म और समाज का जो लिहाज दिखाई देता है क्या आज भी वह स्थिति कहीं वर्तमान है क्या –
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहै|
पूँछति ग्रामबधू सिय सों, कहौ, सांवरे-से, साखि ! रावरे को हैं ||
सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने सायानी हैं जानकीं जानी भली |
तिरिछे करि नैन, दै सैन, तिन्हैं समुझाइ कछू, मुसुकाइ चली ||7
        यह है लोक-लाज यह है मर्यादा, यह है प्रेम जो ऐसा नहीं है कि मात्र राजघरानों तक ही रहा हो सच तो यह है कि ये स्थिति तुलसी के सम्पूर्ण जीवन-समय में विद्यमान थी | आज ये लोक-लाज कहाँ और किस दिशा में परिवर्तित हो रहे हैं किन अर्थों में जा रहे है यह एक चिंता का विषय है | आज चारों तरफ स्वतंत्रता के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह भी किसी से छिपी नहीं है | दरअसल तुलसी की नीतियों और उनके विचारों को आलोचना का विषय बनाए जाने से पहले इतना तो सोचा जा सकता है कि जब हम तुलसी के आदर्शों और उनकी मान्यताओं को खण्डित करेंगे, समाज को कौन सा रूप दिया जाएगा? उस समाज के अपने नियम और नीतियाँ क्या होंगी ? उन तमाम मानवीय रिश्तों के प्रति जो प्रेम भाव हमारे ह्रदय में विद्यमान है उसका अपना स्वरुप क्या होगा? हम तो चलो हम हैं लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ी किस दिशा और किस रूप में अपना आधार निर्मित करेगी, इन सब बातों को तुलसी के केंद्र में समझने की आवश्यकता है | यह दृष्टि और इस प्रकार की समझ कोई दूसरा कवि नहीं दे सकता | पर तुलसी दे सकते हैं क्योंकि संस्कारप्रियता है इनमे | सभ्यता और संस्कार बड़े मायने की चीज है | अन्य वस्तुएं हमें सहज ही प्राप्त हो सकती हैं | धन-दौलत भी हम प्राप्त कर सकते हैं और यदि हम अक्षम हैं तो कोई और भी दे सकता है जबकि सभ्यता और संस्कार कमाना पड़ता है | व्यक्तिगत श्रम और व्यक्तिगत सक्रियता से | तुलसी ने कमाया है | इसीलिए ये आदर्श, ये संस्कार और ये मर्यादाएं उनमे वर्तमान हैं | जिन्हें आज गहरे अर्थों में तुलसी से सीखने की आवश्यकता है | और यह तभी सीखा जा सकता है जब हम उनके साहित्य और उनको पूर्ण रूप से समझने की प्रतिबद्धता दिखाएँगे |
         रामराज्य का आदर्श परिकल्पित करने के पीछे तुलसी की यही भावना थी | आज भले ही लोग ईर्ष्यावस तुलसी के आदर्शों को मानने से इंकार करते हों, लेकिन बात जब भी मानव धर्म और संस्कार विशेष की की जाएगी, तुलसी के रामराज्य की बात अवश्य की जाएगी | आज यदि हम कहें कि तुलसी मनुष्यता के कवि हैं, तुलसी विश्वबंधुत्व के कवि हैं, तुलसी भारतीय संस्कृति के कवि हैं, तुलसी कवि हैं सम्पूर्ण मानव समाज के, तो यह न तो हमारी अतिश्योक्ति पूर्ण भावनात्मक निर्णय है और न ही तो किसी पूर्वाग्रह या दुराग्रह से ग्रसित काल्पनिक उड़ान| यह एक वास्तविकता है, एक यथार्थ है, एक सच्चाई है जिससे वह हर एक व्यक्तित्व परिचित है जिसने तुलसी साहित्य का निरपेक्ष भाव से, बगैर किसी दुर्भावना के अध्ययन किया है|

1.   त्रिपाठी, डॉ० विश्वनाथ, लोकवादी तुलसीदास, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1974, पृष्ठ-36  
2.   तिवारी, अजय (सं), तुलसीदास एक पुनर्मूल्यांकन, पंचकूला, आधार प्रकाशन, 2006, पृष्ठ-283
3.   इन्द्रदेवनारायण (अनु०), कवितावली, गोरखपुर, गीताप्रेस, सं. 2070, पृष्ठ-116
4.   वही,
5.   शर्मा, कुमारी संतोष, राम रूप दूसर नहिं देखा, चण्डीगढ़, न्यू इरा इन्टरनैशनल इम्प्रिन्ट, 2014, पुरोवाक] पृष्ठ-23
6.   तिवारी, अजय (सं), तुलसीदास एक पुनर्मूल्यांकन, पंचकूला, आधार प्रकाशन, 2006, पृष्ठ-283
7.   इन्द्रदेवनारायण (अनु०), कवितावली, गोरखपुर, गीताप्रेस, सं. 2070, पृष्ठ-25 








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