Tuesday 3 May 2016

सृजन, समय और समाज के आईने में ‘तम भाने लगा’

           

           समकालीन समय का मनुष्य आज इसलिए अधूरा, भटका और अकेला महसूस कर रहा है क्योंकि वह समय और समाज दोनों की विपरीत धारा में विचरण करने लगा है | समय के विपरीत होने पर जहां वह बहुत पीछे की तरफ धकेला गया है वहीँ समाज के विपरीत होने पर वह एकांतप्रियता और वैयक्तिकता के अधिक निकट पहुँच गया है | दोनों स्थितियां मानवीयता के लिए घातक हैं | यहाँ एक प्रवृत्ति का अधिक विकास हुआ है और वह है पाशुविकता का अर्थात् हम जहां से चले थे वहीँ वापस पहुँचने का यत्न शुरू कर चुके हैं | वर्तमान साहित्य की चिंता का प्रमुख आधार यही होना चाहिए | गद्य साहित्य में ऐसा है कि नहीं; यह विमर्श का मुद्दा है पर काव्य साहित्य में यह चिंता बराबर वर्तमान रही है | कविता मनुष्य को मनुष्यता ही देखने की हिमायती है | बात जब गीत की हो तो यह बात और भी प्रमाणित हो उठती है | गीत विधा अपनी संरचना में उतनी ही पुरानी है जितना कि मनुष्य या मनुष्यता के लिए किया गया उसका प्रयास |
           मनुष्य जब जब टूटा है, बिखरा है, गीत ने उसे संबल प्रदान किया है | इस पुस्तक की भूमिका में अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए नचिकेता जी कहते हैं “यह निर्विवाद है कि गीत की रचना का सम्बन्ध लोक (जन)-मन की गति से होता है | गीत में जनमन के अवसाद-उल्लास, सुख-दुःख, उमंग-उत्साह, आशा-आकांक्षा, जय-पराजय और परिवर्तनकामी संघर्ष-चेतना की अभिव्यक्ति होती है, साथ ही जन आन्दोलन में गीत-रचना की लोकप्रियता, रचनात्मक गतिशीलता और विकास को सही दिशा मिलती है | तात्पर्य है कि गीत जब-जब जनमन और जन आन्दोलनों के करीब आया है उसकी रचनाशीलता गतिशील हुई और उसकी लोकप्रियता भी बढ़ी |”1 आज भी जब मनुष्य लगभग भटकाव की स्थिति में है, गीत विधा उसे मानव-पथ पर लाने के लिए अनवरत संघर्षरत है | संघर्ष की भावना को समझाने का कार्य हमारा है | गीत अपना कार्य कर रही है | गीत के सर्जक इसी विघटित हो रहे समाज के सदस्य हैं | यह समाज में व्याप्त समस्याओं से, स्थितियों एवं परिस्थितियों से वे रोज ही, दिन-प्रतिदिन दो-चार हो रहे हैं | कवि-हृदय का दो-चार होना एक बड़े परिवर्तन का संकेत माना जाता है | आने वाला समय किस नए समय में परिवर्तित होने जा रहा है, यह तो समय बताएगा पर गीत विधा समाज को किस नए ढांचे में ले जाना चाहती है यह डॉ० जयशंकर शुक्ल जी के नवगीत-संग्रह “तम भाने लगा” को पढ़कर समझा जा सकता है |
            डॉ० जयशंकर शुक्ल वर्तमान समय के एक सशक्त नवगीतकार हैं | वे समय-समाज में हो रहे तमाम परिवर्तनों के सीधे तौर पर प्रत्यक्ष गवाह हैं | इनके कवि-हृदय को समझने का प्रयास किया जाए, यह आसानी से समझा जा सकता है, उनकी चिंता मनुष्य को मनुष्य रूप में देखने की चिंता है | वे नहीं चाहते कि आदिम सभ्यता एवं संस्कारों से विमुक्त हो चुका मानव पुनः उसी सभ्यता एवं संस्कार का पोषक बने | दरअसल सभ्यता एवं संस्कार में जितने हद तक मानव-समाज अपने अतीत के दहलीज पर या यों कहें कि ड्योढी पर कदम रखने के लिए लालायित हुआ है उससे अधिक कविता भी उसी रूप के निकट पहुँचती जा रही है | दोनों को संवारने और सुन्दर रूप में यथावत बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि स्वच्छंद प्रवृत्ति की तरफ बढ़ रही सामाजिक मांग को नियंत्रित किया जाए और इस प्रकार आदर्शों का सीमांकन किया जाए कि कविता का कवित्व भी बना रहे, नित-प्रतिदिन समृद्ध होता रहे, मानव की मानवीयता और उसका समाज भी | कवि का यह सुझाव कितना सार्थक हो सकता है इस उद्देश्य में-
“घर के चौखट मौन हुए
वातायन बोल रहे
दरवाजों से सांकल अपने  
रिश्ते तोल रहे
मुख्य द्वार की लाज
सुरक्षित भीतों में है
आओ इनको समरूपी  
संसार दिखाएँ
बड़े बड़े अनुबंधों में
अब सुचिता नहीं रही
सौदागर के मन में  
कोई गुरुता नहीं रही
मूल्यों की है हार
सिसकता जीतों में है...
लुप्त हो रही मानवता
दानवता खूब बढ़ी
ज्यों कटते पेड़ों की
पीड़ा सबने यहाँ पढ़ी
खो जाने की चिंता  
अब तो चीतों में है
अर्थ नहीं देता जीवन  
कमियाँ बतियाती है
छंदहीन संबंधों में
कविता सकुचाती है ||”2
            छन्दहीन हो जाना कविता के अभिव्यक्ति और सौन्दर्य से हीन होना है | परिवार-विहीन होना मनुष्य के अस्तित्व और आधार से हीन होना है | दोनों में रागात्मक संबंधों का होना आवश्यक है | लय और सुर का सामंजस्य आवश्यक है | सामंजस्य से ही विकास की संभावना होती है | विकास उसी की होती है जो सामंजस्य पूर्ण वातावरण में रहने का अभ्यास करता है | विडंबना की स्थिति ये है कि आज दोनों को, कविता और मनुष्य को, लय, सुर और सामंजस्य से दूर रखने की बात की जा रही है | अभ्यास करने की क्षमता से हम क्षीण हुए हैं | अभ्यास की क्षमता से क्षीण होना संवाद हीन होना है | सम्वाद्धीनता से जितने हद तक सामायिक मनुष्य विचलित हुआ है उससे कहीं अधिक समसामयिक कविता के विभिन्न रूप भी | आज के इस विसंगतिपूर्ण वातावरण में इन दोनों को रूप एवं सौन्दर्य प्रदान करने वाले प्रतिमानों एवं संसाधनों को उसके विकास तत्व में बाधक स्वीकारा जा रहा है | पर क्या परंपरा और समाज से अलग-थलग होकर रहना किसी भी स्थिति से हमारे लिए हितकर है? आज के समय में सबसे बड़ी विसंगति इसी बात की है | नई पीढ़ी पूर्ण स्वतंत्रता की चाह में स्वच्छंद हो जाना चाहती है |  नयी कविता स्वच्छंद हुई | आज वह स्वच्छंदता से भी स्वच्छंद होने की मांग कर रही है | परिणामतः एक पूरी की पूरी समृद्ध परंपरा का क्षरण हो रहा है | इसके आवरण में हमारे आचार, विचार एवं संस्कारों की परिभाषा बदलती जा रही है | यह एक और विडंबना की स्थिति है कि इस भयावह बदलाव की स्थिति में सिद्धस्थ कविगण मौन हैं | सत्य यह भी है कि परिवर्तन मनुष्य के हृदय पर सीधे चोट करते हैं | चोट लगने की स्थिति में व्यक्ति चिंतन के धरातल पर सक्रिय नहीं हो पाता, चिंताओं में मशगूल अवश्य हो जाता है |-
चाक पर चलते हुए 
दो हाथ        
हमसे पूंछते हैं  
अनगढ़ों के दौर में
कैसे
सृजन की बात संभव
चल रहे सम्बन्ध शर्तों पर
सतत अनुरागियों के
भ्रष्ट होते जा रहे आचार
अब बैरागियों के
द्वेष के साम्राज्य में
कैसे
मिलन की बात संभव ||”3
          ‘मिलन’ और ‘सृजन’ मानवीय चेतना के दो मुख्य आयाम हैं | ‘मिलन’ में ‘सृजन’ की संभावना कम होती है | सृजन के माध्यम से मिलन के लिए प्रयास किया जा सकता है लेकिन ‘अनगढ़ों के दौर में’ इस प्रयास की सार्थकता साकार रूप ले सके; यह कार्य कुछ असंभव तो नहीं पर कठिन जरूर है | तीर सबके कमान में है | जो निपुण और दक्ष हैं उनके भी और जो नौसिखिए हैं उनके भी | निशाने भरपूर लगाए जा रहे हैं | सवाल ये है कि निशानों की ये आजमाइस हो किसके लिए रहा है? वर्तमान सृजन की जो चिंता होनी चाहिए, जिसकी चिंता होनी चाहिए वह इनके चिंतन-प्रक्रिया से बाहर है | तो क्या यह सही नहीं है कि जितने भी कविगण, साहित्यकार एवं साहित्य चिन्तक हैं वे कहीं न कहीं अनुबंधों के दायरे में बंधकर अपना सृजन कर्तव्य पूरा कर रहे हैं? जबकि एक सत्य यह भी है कि जिनके चिंतन और विचारों में ये क्षमता है वे या तो चुप मारकर बैठ गए हैं अथवा उन्हें कोई सुन नहीं रहा है | इस प्रसंग में महाकवि तुलसी की ये पंक्तियाँ बार-बार याद आती हैं-तुलसी पावस के समय धरी काकुलनि मौन | अब तो दादुर बोलिहैं, हमे पूछिहैं कौन|” मेढकों के टर्रटोईं में कोयलों की सरस आवाज कहाँ किसके कान तक पहुँच पाती है और फिर जब स्वार्थता की स्थिति दोनों तरफ से बराबर की हो; फिर ऐसी बात करना तो दूर इस बात की परिकल्पना करना भी निरर्थक है | ‘मैं चुप रहता हूँ’ सृजन के इन्हीं बुनियादी प्रश्नों की तहकीकात करती अभिव्यक्ति है-
सब कहते हैं-
कुछ तो बोलो
मैं चुप रहता हूँ ....?
समझौतों की
परतें खोलो
मैं चुप रहता हूँ .....|
कवियों की चौपालों में अब  
गीत नहीं अनुबंध गूंजते
चमत्कार की प्रत्याशा में
ऊंचे स्वर में छंद झूमते
वे छंद कहें-  
कुछ नवता घोलो  
मैं चुप रहता हूँ
मंचों ने फूहड़ता ओढ़ी  
दो अर्थी संवाद बढ़े हैं
इन्हीं पथों का आलंबन ले
कितनों ने अनुवाद गढ़े हैं
अनुवाद कहें-
मौलिकता को लो
मैं चुप रहता हूँ ||”4  
             नव्यता की चाह आज के रचनाकारों में कुछ अधिक शुमार है | जनवादी, प्रगतिवादी, प्रगतिशील वादी कहने, कहलाने और बनने की चाह सबमें उपजी है | चाहत की अंधी दौड़ में सृजन-धर्मिता कुंठित हुई है | कुंठा में सामाजिकता का निर्वाह होना कठिन होता है | यह प्रवृत्ति नया गुट बनाने के लिए तो सार्थक हो सकती है पर सृजन-संवाद के लिए सर्वथा घातक होती है | शुक्ल जी के यहाँ यह प्रवृत्ति नहीं है | यहाँ ईमानदारी है | गीत/नवगीत के कथ्य एवं शिल्प को यथार्थ के धरातल पर पिरोने के लिए सार्थक प्रयत्न किया गया है | मधुकर अष्ठाना जी के शब्दों में कहें तो “नवगीत अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से जूझते हुए, भावानुकूल भाषा, शिल्प एवं कथ्य की नए रूप में तलाश करता है | इसमें रचनाकार की अन्तश्चेतना सम-सामयिक सम्वेदना का विस्तार करती है और वर्तमान शोषण-उत्पीड़न, त्रासदी, विसंगति, विषमता, विघटन, विरूपता, विकृति, विवशता, मानवीय मूल्यों में हास, सांस्कृतिक पतन आदि के मध्य आम-आदमी के जीवन-संघर्ष को चित्रित कर चिंतन हेतु पाठक को अभिप्रेरणा प्रदान कर प्रतिरोध-प्रतिकार का सन्देश देती है |”5 शुक्ल जी का यह संग्रह इन सभी उपादानों से समाविष्ट है | इसमें सामाजिकता की भावना से इस तरह जुडाव हुआ है कि ऐसा प्रतीत होता है, हम नवगीत नहीं वर्तमान समय को पढ़ और देख रहे हैं, क्योंकि “आजकल नवगीत जब भी लिखा और पढ़ा जाता है, तब यह मान लिया जाता है कि हम आज को पढ़ रहे हैं, आज की विसंगतियों को देख रहे हैं, समकालीन जीवन और उसकी परिस्थिति को परख रहे हैं, समझ रहे हैं |”6  आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता की तरफ कदम बढ़ाते हुए समाज के प्रमुख परिवर्तन इनके कवि-हृदय से अभिव्यक्ति पाकर बहुत कुछ कहने और समझने के लिए प्रेरित करते हैं | यह इसलिए कि हम समय समाज में वर्तमान रहते हुए भी वर्तमान समय और समाज में नहीं हो पा रहे हैं | यह चिंता न तो आज के साहित्य में दिखाई दे रहा है और न ही तो समाज में रहने वाले तथा सामाजिक परिवर्तन की पक्षधरता करने वाले विशेष तथाकथित बुद्धिजीवियों में ही | जनसेवी और बुद्धिजीवियों की जितनी परिभाषाएँ कभी की जाती थीं, वे सब आज के इस समय में परिवर्तित हो चुकी हैं | व्यक्ति-सत्ता-समाज के मध्य जो रिश्ते एक आधार का कार्य करते थे वे विघटित होकर वैयक्तिकता और लोलुपता की भेंट चढ़ गए हैं | समय-समाज में परिव्याप्त स्वार्थता की ऐसी दौड़ को शुक्ल जी कितने सुन्दर तरीके से अभिव्यक्त करते हैं | इस एक गीत में सम्पूर्ण समाज के दर्शन हो उठते हैं-
स्वार्थी युग हो गया है
मर रही संवेदना
अब हलाकू घूमते हैं
मौत की टोली बना
हर तरफ संत्रास का
फैला हुआ है कोहरा
फूल लगते कागजी सब
सब्जियों पर रंग हरा
सच अनावृत हो रहा है
झूठ की टोली बना
झुग्गियों में फैलती
आँचल पसारे क्रन्दना
मायावी दुनिया हुई
सब लुप्त होती भावना
सत्य भी मिलता कही पर  
फूस की खोली बना
अस्पतालों में चिकित्सक
कर रहे व्यापार हैं
कैशलेस की ओट में?
करते विविध व्यापार हैं
पीड़ितों से लूटते ये
द्रव्य को, झोली बना
राजपथ अब हो गए हैं
मौत की खूनी डगर
जनपथों पर घूमती है
काल की पैनी नजर
दौड़ चूहों की निकलती  
खून की होली मना ||”7      
         सामयिक दृश्य हमारे समाज का यही है | डॉ० अजय पाठक जी की यह अभिव्यक्ति कितनी सच है “आज हम जिस कालखण्ड में जी रहे हैं, अथवा कहें कि जीने को मजबूर हैं, वह विखंडन का काल है | हमारी आस्थाओं पर लगातार प्रहार हो रहे हैं, विश्वास दरक रहा है, नैतिक और सामाजिक मूल्यों का सर्वनाश हो रहा है, परिवार टूट रहे हैं, मनुष्य मनुष्य से दूर होता जा रहा है | शोषण, पीड़ा, निराशा और कलह से त्रस्त आम आदमी को इस विपदा से उबरने का कोई विकल्प नहीं सूझ रहा, अंतहीन समस्याओं से घिरा मनुष्य आत्मघात कर रहा है, क्षणिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए अब आदमी एक दूसरे की जान लेने पर आमादा है| समस्याओं के इस मकडजाल से बाहर निकलने का कोई रास्ता भी अब नहीं दिखता |”8  सभ्यता और संस्कार के जो मापदंड कभी निर्धारित किए गए थे आज उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है | ये व्यापक बदलाव इसी समाज में हुए हैं | हम सबके देखते देखते हुए हैं | मनुष्य हद से अधिक वैयक्तिक हुआ है | वैयक्तिकता के आईने में सामूहिकता का अभाव खटकता तो दिखाई दे रहा है, पर वापसी की कहीं कोई गुंजाईस भी नहीं बची है | सभ्यता की अधिक ख्वाहिश ने हमे असभ्य तो बनाया है | इनकार इस बात से भी नहीं किया जा सकता है | हम अपनों से पराए हो चुके हैं | पराए हमारे अपने हो रहे हैं | जब दूसरों के प्रति हमारा आकर्षण बढ़ता है, यह सत्य है कि, सही-गलत का निर्णय करने की स्थिति में हम नहीं होते | यह विसंगति नवांकुरों के लिए अधिक संकटमय है | वे अपने ही बनाए गए मार्ग पर न तो चल पा रहे हैं और न ही तो चल पाने वाले मार्गों का वरण करने की स्थिति में हैं | परिणाम साफ है कि-
“नए पौध की बदचलनी
को बरगद झेल रहे |
स्वाभिमान कहकर घमंड को  
ये इतराते हैं
परंपरा को भूल नए
 अनुबंध बनाते हैं
अपने मन की करने में  
होते बेमेल रहे ....
सीख नहीं, इनको, मन  
की करने की छूट मिले
मेल मिले अपने कामों में
या फिर फूट मिले
रहें अकेले खुश, समाज
में ये तो फेल रहे |”9
बच्चे गलतियां पर गलतियां कर रहे हैं और झेल उसको माता-पिता रहे हैं | इन्हें अपनी गलतियां कभी गलती के रूप में दिखाई ही नहीं देती | समाज में इनका फेल होना इनके लिए सहज और सुन्दर भविष्य का सृजन दिखाई दे रहा है | सृजन नक़ल में नहीं चिंतन में होता है | हमारे परिवेश में चिंतन की परम्परा पर पश्चिमी सभ्यता का आतंक मडराने लगा है | हम सब उसके गिरफ्त में अब साँसे लेने को मजबूर हैं | शुक्ल जी के ‘बरगद’ का झेलना परम्पराओं के पोषक भारतीय  मानस का झेलना है और ‘नए पौध की बदचलनी’ नवयुवकों / युवतियों द्वारा अपनी परम्परा को तिलांजलि देते हुए पश्चिमी परंपरा को अपनाना है | लज्जाशीलता, मान-मर्यादा, शील-संकोच हमारे परंपरा की देंन है | इनके प्रतिकूल जितने भी आचरण हैं वे पश्चिमी सभ्यता की देंन हैं | दूर के ढोल सुहावने होते हैं | असलियत उसके पास जाने के बाद ही पता चलती है | ढोल तक पहुंचकर लौटना हम अपनी तौहीनी भी समझते हैं और अपमान भी | उसको सुनना और झेलना हमारी मजबूरी बन जाती है यही मजबूरी इस दूर की (पश्चिमी) सभ्यता के साथ है | आने को तो हम इसके पास तक आ ही गए | अब जब इसके प्रभाव से पशुविकता के लिबास में हमारा कायांतरण होने लगा है, चिंता की लकीरें माथे पर साफ़ झलकने लगी हैं | शुक्ल जी की चिंता कितनी प्रासंगिक, सामयिक और सार्थक है कायापलट हो रहे “इस दौर में” समाज के प्रति- 
“सभ्यताएँ,
नग्न होती जा रहीं इस दौर में
आचरण,
खोया न जाने कब कहाँ किस शोर में,
पार्टियों में
मय थिरकता,
पश्चिमी संगीत में,
नृत्य करतीं
युवतियाँ,
मदहोश होकर प्रीत में,
नशे के
सौदागरों की,
छवि न मिलती भोर में,|”10 
हवा कोई भी हो, मौसम की, समय की, अनगढ़ता और अराजकता को आमंत्रित करती है | इस हवा के झोके में एक तरफ जहां कूड़े-करकट का जमावड़ा होता है वहीँ बड़े से बड़े वृक्ष, महल और अमूल्य इमारतों का हास और क्षरण भी होता है | हालांकि जो उस हवा के झोकों को झेलता है, सहता है और किसी तरह बच भी जाता है, पर उस समय समाज में उपस्थित लोगों के मध्य उपेक्षा और कुदृष्टि का भाजन उसे होना जरूर पड़ता है | यही कुछ आज हमारे परिवेश में हो रहा है | इस देश की परंपरा और संस्कृति को बचाने वाले आज नवीनता के नाम पर उपेक्षित हो रहे हैं | लोग उनके प्रतिमानों एवं आदर्शों के खिलाफ चलना अपना शौक और फैशन समझ बैठे हैं | दूसरों को मार्ग और दृष्टि प्रदान करने वाली सभ्यता और संस्कृति इतिहास होती जा रही है और जो हमसे सीखे हमारा वर्तमान | इससे बड़ी आश्चर्य की बात और क्या होगी कि-
पछुहाँ के आने से
पुरवा हैरान है
सीमा पर सहमा-सा  
बैठा जवान है ....|
लाजों के गहने अब
बातें इतिहास की
सबको ही छलती है  
रातें उल्लास की
जो भी अब घटता है  
सब कुछ दिनमान है ...|
पश्चिम के बसनों ने
पूरब को ताका है
अंग सभी उघरे हैं
सहमा हर नाका है  
अपनाए व्यसनों से
दुनिया हैरान है ....|
उच्छ्रिंखलता बनती
बाधक सम्मान में
लाज को गँवा बैठे
अधुनातन शान में  
बदला कैसे जाए
रात तो बिहान है ....|
मोबाइल बन आया
व्यक्ति का रहस्य अब
कीड़ा नित खाता है  
जीवन की सस्य नव  
कहाँ तक चलेगा
यह डूबता विमान है ....|”11
आंधी और तूफ़ान आने के बाद व्यक्ति अपने घर-परिवार एवं उपयोगी वस्तुओं को सम्हालने के लिए प्रयासरत दिखाई देता है | वह अपने तमाम प्रवृत्तियों पर अंकुश भी लगाता है | यह इसलिए कि आँधियों का स्वभाव है उजाड़ मचाना, विध्वंस करना | मनुष्य का स्वभाव है निर्माण करना | वह अपने परिवेश में आँधियों का आगमन कभी नहीं चाहता | दूर की घटनाओं  से इतनी तो समझ उसमे पैदा होती ही है कि आंधियां अव्यवस्थाओं को जन्म देती हैं | अव्यवस्थाएं कभी भी व्यक्ति को व्यवस्थित नहीं रख पाती | यहाँ भटकाव की संभावना बढ़ जाती है | भारतीय समाज में गाँव का महानगर के रूप में अनवरत परिवर्तित होते जाना यहाँ के निवासियों के लिए किसी तीव्रगामी तूफ़ान से कम नहीं है | इस तूफ़ान से बचना सभी चाह रहे हैं पर सत्य यह है कि इसका झोंका सबके छान-छप्पड़ को झकझोर रहा है |  ग्रामीण परिवेश को जो विविध उपागम रूप और सज्जा प्रदान करते थे, आंधी के बाद आए परिवर्तन के ढाँचे में वे भी ढल गए हैं | क्या गजब कहा है शुक्ल जी ने –
मुर्गे की अब बाँग कहाँ अब  
जो बिस्तर से हमे उठाए
मंदिर की घंटी, अजान भी  
नियत समय पर अब न जगाए
दूर कहीं शुकवा डूबा है
जिसकी अनुपस्थिति में अब तो
भोर रोशनी मगा रही है
काँव काँव की ध्वनि भूली अब
सूनी घर की मुंडेर हैं
चिड़ियों का कलरव भी गम है
डाली पर सूने डेरे हैं |”12
 शुक्ल जी की चिंता स्वच्छ पर्यावरण और परिवेश में निवास करने की चाह में जीने की परिकल्पना संजोए प्रत्येक मानव-मन की चिंता है | यह चिंता गीत या नवगीत विधा में ही संभव है | कविता की स्वच्छंद परंपरा उसे अभिव्यक्ति देने में नाकाम है | कविता की शुष्क एवं नीरस प्रकृति न तो पाठक को तृप्ति देने में सक्षम है और न ही तो उसके जीवन काल में विद्यमान समस्याओं को लोगो तक पहुँचाने में ही | गीत विधा अपने प्रकृति से ही मानव-मन की विधा है | इसमें भाउकता है, बौद्धिकता नहीं  | जहां भाउकता होती है वहाँ अपनापन होता है | जहां बौद्धिकता होती है वहाँ नीरसता होती है | भाउकता के आवरण में ही मनुष्यता की संभावना को जीवित रखने का उपक्रम किया जा सकता है | यह संभावना शुक्ल जी के कवि-ह्रदय में बड़ी सिद्दत के साथ मौजूद है | जरूरत है उसे देखने, पढ़ने और समझने की | मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि पाठक-हृदय “तम भाने लगा” को हृदयंकित करते हुए उजाले तरफ बढ़ने का प्रयत्न करेगा |



सन्दर्भ-सूची
1.   शुक्ल, डॉ० जयशंकर, तम भाने लगा, दिल्ली, पूनम प्रकाशन, 2014-2015, पृष्ठ-13
2.   वही, पृष्ठ-31-32
3.   वही, पृष्ठ- 37
4.   वही, पृष्ठ-85-86
5.   अष्ठाना, मधुकर, हाशिए समय के, लखनऊ, उत्तरायण प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-10 
6.   अधीर, राम, (सं.) संकल्प रथ (मासिक पत्रिका), अंक - जून-2014, डॉ० अनिल कुमार का लेख, (मन-बंजारा : एक नई तजवीज) पृष्ठ-13
7.   शुक्ल, डॉ० जयशंकर, तम भाने लगा, दिल्ली, पूनम प्रकाशन, 2014-2015, पृष्ठ-
8.   पाठक, अजय, बोधिवृक्ष पर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), श्री प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-5-6 
9.   वही, पृष्ठ-134
10.   वही, पृष्ठ-57
11.     वही, पृष्ठ-97-98              
12. वही पृष्ठ-35-36


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