Thursday 17 September 2015

अभी और चलना है मुझे ...

अभी और चलना है मुझे 
रुकना नही है 
तब तक 
जब तक कि 
क्षितिज स्वयं आकर पास मेरे 
कह न दे यह कि
तुम आगे न बढ़ो ,कि
तुम रुक जाओ , कि
रास्ता दूसरा भी है
वहीँ से गुजर जाओ
हिस्सा मेरा
रहने दो मेरे पास, कि
स्तित्व मेरा भी है तुम्हारे इस जहां में
रहते हुए साथ तुम्हारे
सीखना है मुझे भी
चलने की यह सम्पूर्ण प्रक्रिया
गुजरने की, रहने की और एक हद तक
सहने की वह सम्पूर्ण स्थिति
सहते सहते जिसे तुम
आज यहाँ तक पहुंचे हो
पास मेरे , रुक जाओ
पर मुझे
रुकना नही है
पूछना है बढ़ते हुए और भी आगे, कि
तुम क्यों नही बढे अभी तक
थे जहां, रहे खड़े वहीँ
इन्तजार करता रहा मै तुम्हारा
कि अब आओगे और
करवाओगे परिचय हमारा
अपनी स्थिति और परिस्थिति से
बताओगे मुझे भी वह सब
अनजान रहा मै जिससे , व्यवस्थित से
समझाओगे मुझे भी अपनी तरह
देखते हुए भी पास में रहकर
सबसे ऊंचा दिखना
मै बढूंगा
तब तक
जब तक कि
समान तुम्हारे मै भी न हो जाऊं
जहां तक खड़े हो तुम
और दिख रहे हो आश्चर्य सा
मेरे हिस्से का अंश लेकर
वहाँ तक पहुँच कर
न कर लूं प्राप्त मै
अपनी स्थिति
अपना अंश और
और यथार्थ अपना ठीक तुम्हारी तरह
अडिग रहने की
बगैर किसी सोच और पश्चाताप के |

सत्ता की आड़ में



यह कहना
कि विकास किया है हमने
निश्चिन्त रहें सब
चिंता करना है कर्त्तव्य हमारा
सुख-दुःख ,
स्थिति परिस्थिति में
देंगें साथ उनका
यह विश्वास दिया है हमने
यह कहना
कि अपना कर दर्द दूसरों का
झेलकर पीड़ा
किया है उद्धार दूसरों का
नियति है हमारी
वेदनाओं से होकर गुजरना
वे रहें सुखी इसलिए
सुख अपना उधर दिया है हमने
यह कहना
कि सोचते हैं लोग
गलत हूँ मै
सोचते रहना काम है उनका
चिंता नही मुझे
सोचने से लोगों को फुर्सत कहाँ
सोच, सोच ही बनी रहे उनकी
बढ़ा कर कदम अपनी गिरेबान तक उनके
जागरण के इस दौर में भी
जीवन-पथ को धार दिया है हमने
यह कहना
कि दयालुता भी चीज है कोई
बची और अभी इस धरती पर
निरंकुशता के हद तक जाकर
पशुविकता के मुहाने पर खड़ा होकर
सबकी नज़रों से लड़ते हुए
गिरते हुए सबकी नजरों में
लाँघ कर सीमा दानवता की
ह्रदय का विस्तार किया है हमने
सोचे लोगबाग
सार्थक हो सोचना उनका
निरर्थक न जाए
यह कहना
कि पाकर सत्ता आज
साथ मानव के मानवता से
अमानवीय व्यभिचार किया है हमने
ह्रदय काँप उठे उसका भी
दिया जिसने साहस सोचने का
आज ऐसा ,
आज ऐसा अत्याचार किया है हमने
अनिल पाण्डेय

Monday 7 September 2015

चार कविताएँ

1.  भूकंप के बाद
क्या कहूं 
डर सा लग रहा है 
कुछ भी कहने से मन घबड़ा रहा है 
डर इसलिए भी कि भूकंप के कहर का मंजर 
रह रह कर मेरे स्मृति पटल पर छा रहा है और 
कोई आ रहा है जैसे भीतर से मेरे यह कहते हुए कि 
समय अब रहने का धीरे धीरे जा रहा है 
पर कैसे कहूं किसी से 
क्या कहूं किसी से कि मुझे 
मजा ही मजा आ रहा है 
कि रोज रोज घुट घुटकर मरने से अच्छा है 
एक ही पल में मरना, एक ही झटके से 
विलीन हो जाना ममता मयी मिट्टी से चिमटकर 
इश्वर के अखंड स्वरुप में लींन हो जाना 
ऐसे जीते रहकर मिलता ही क्या आखिर 
दो वक्त की रोटी या 
दो टूका कपड़ा तन ढकने का 
कैद खाना कर्ज के न चुकता कर पाने पर या 
अस्पताल के दरवाजे की फर्श पर रहने के लिए
दर्द से चीखते चिल्लाते लावारिस जानो के साथ 
मजबूर होकर स्वयं के चीखने की 
सजा, अनवरत बिना खाए पिए भूखे रह जाने का 
मरता तो आखिर रोज ही 
रह रह कर , थोड़ी थोड़ी देर बाद तक
अपने ही लोगों को जलते देख हैवानियत की आग में 
पिसते देख मासूमों को 
षड्यंत्रकारी लोगों के चक्रव्यूह में, मासूमियत की आड़ में 
झाड़ में झंखाड़ में दम तोड़ते सपनो को 
आँखों के सामने से गुजरते देख 
इस देश और इस जमीन के अपनों को 
कैसे कहूं किसी से कि 
है अच्छा अभी किसी मलबे के नीचे दबकर मर जाना 
कम से कम लोग यह तो नही कहेंगे 
इस तरह जीने से अच्छा तो 
मर जाता तूं चुल्लू भर पानी में कहीं डूबकर






2.  माँ, मुझे याद है
माँ 
मुझे याद है 
तेरा यह कहना
कि समय बपौती नही 
किसी के बाप की 
कि रखे वह सम्हालकर 
और दे उसे 
जो चाहने वाला हो उसका
माँ 
मुझे याद है 
तेरा यह कहना 
कि निराशा परिणति नहीं है 
आशा की 
बैठना छोड़ कर सबकुछ 
कि आगे और नहीं अब रास्ता 
अंत जीवन का यहीं 
अंत आशा की नही
माँ 
मुझे याद है 
कि उन कहे गए बातों से 
आगे बढ़कर 
और आगे बढ़ते रहना 
ढलते रहना चाँद की तरह और 
सूरज सा उगते रहना 
बढ़ते रहना अनवरत 
एक नये राह की चाह में 
अंत राह की नहीं 
अंत चाह की नहीं
माँ 
मुझे याद है 
आज इस अनंत राह पर चलते हुए 
अनंत चाह की टोह में 
अनंत पथ पर बढ़ते हुए
अनंत इक्षाओं
अनंत ख्वाबों और 
अनंत स्वप्नों को 
पूरा करने की प्रतिबद्धता लिए 
अनंत आँखों को खटकते 
अनंत हृदयों में सुलगते हुए
माँ 
मुझे याद है 
कहा था तुमने 
जब तप रहा था मैं 
अपने संघर्ष के दिनों में 
जब पकड़ कर आँचल तेरा रोया था मैं 
और कहा था तुझसे 
मानूंगा न हार कभी मैं 
मुसीबत के दिनों में, पर 
क्या तुझे याद है 
उस समय कही थी जो बात तूं ?




3.   विदाई
वे कहते हैं 
विदाई के समय अपने 
कुछ भी न कहना मुझे, अन्यथा 
उपस्थित समुदाय न जाने क्या समझेगा 
बस बहा देना आंसू थोड़ा सा और हम
समझ लेंगे दर्द तुम्हारा
और यह भी कि
मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम कितना है
पर मैं कैसे कहूं और कैसे मांन लूं उनकी यह बात 
और अब कैसे दिखाऊँ उन्हें कि
उनके प्रति कितना प्रेम है मेरे ह्रदय में 
उनके इस चाहत का इन्तेजार करते करते ही तो 
सूख गये आंसू मेरे 
और जो बचा भी था वह समर्पित हो चुका माता और पिता को 
समर्पण मेरा उनके प्रति भी तो था 
पर समझे नही वे मेरे इस भाव को 
अभाव उनका आज खलता रहा मुझे और
रोती रही मैं उनकी ही याद में 
अब जब नही रह गए आंसू भी
तो वे बात रोने की करते हैं 
न कहूँगी मैं किसी के सामने और 
किसी से कुछ भी न बोलूंगी 
अब तो पास मेरे बस वेदना ही यथार्थ है 
कोई क्या समझेगा इसे 
पर उसे तो समझना ही चाहिए 
जिसका इन्तेजार अब तक मैं करती रही 
और जा रही हूँ आज मैं उसके मिलन की एक बड़ी प्यास लिए
जिसके लिए आज तक मरती रही 
क्या समझेगा भी वह हमारे इस नेह को 
क्योंकि सत्य मौन है, यथार्थ मौन है और मौन है दर्द मेरा
स्थित हमारी है नहीं परिस्थिति का पड़ा है घेरा




4.  कह नहीं सकता

कह नहीं सकता 
जो मुझे मिला है 
सबको मिलेगा 
जो फूल खिला है फुलवारी में 
मेरे लिए 
सबके लिए वैसा खिलेगा 
कह नहीं सकता 
कहूं भी यदि 
हठ धर्मिता होगी मेरी यह 
जिसके योग्य नहीं मैं
क्यों मिले मुझे वह 
और यदि मिले भी 
किस पुरुषार्थ पर ? 
अकर्मण्यता पर 
अयोग्यता पर 
भाग्य पर या 
दुर्भाग्य पर 
कह नहीं सकता









कुछ समझ न आया...........


मन-मंदिर में
बसे सुमन
अब कांटे बनकर उभर रहे 
खा खाकर ठोकर
जीवन की
अनसुलझे से हम सुधर रहे
बचपन था
कुछ समझ न थी
समझ बढ़ी
हम जवान हुए
दुनिया का दायरा बढ़ा जरा
जब मुझसे
अपने मेरे अनजान हुए
सब कहते रहे
तुम बिगड़ रहे
हम समझते रहे न है ऐसा
वे संसाधन हैं कहाँ मुझमें
सब लोग समझते हैं जैसा
ये प्रश्न भी आज अकेली है
ये बात भी अब तक पहेली है
नहीं पता चला मुझे
हम बिगड़ रहे या सुधर रहे
तिल तिलकर जीना
जीवन को
जीने का हमने अर्थ लिया
सुख साधन सब
संशय में रहे
यह जीवन मुझको
व्यर्थ मिला
थोडा भी मिला
हम ख़ुशी रहे
कुछ ना भी मिला
हम सुखी रहे
सबका कहना है
हम बने ठने
हम ठनने बनने में
उजड़ रहे
कुछ बात भी थी
अब क्या बोलूं
कुछ राज भी थे
अब क्या खोलूँ
कुछ दुःख भी था
किसको कह दूं
कुछ सुख भी है
किसको दे दूं
यह लेन देन का सफ़र जटिल
खुद से सुन
खुद ही ले लूं
शायद जाऊं सुधर अभी
लोग कहते रहें
हम बिगड़ रहे |