Monday 7 September 2015

चार कविताएँ

1.  भूकंप के बाद
क्या कहूं 
डर सा लग रहा है 
कुछ भी कहने से मन घबड़ा रहा है 
डर इसलिए भी कि भूकंप के कहर का मंजर 
रह रह कर मेरे स्मृति पटल पर छा रहा है और 
कोई आ रहा है जैसे भीतर से मेरे यह कहते हुए कि 
समय अब रहने का धीरे धीरे जा रहा है 
पर कैसे कहूं किसी से 
क्या कहूं किसी से कि मुझे 
मजा ही मजा आ रहा है 
कि रोज रोज घुट घुटकर मरने से अच्छा है 
एक ही पल में मरना, एक ही झटके से 
विलीन हो जाना ममता मयी मिट्टी से चिमटकर 
इश्वर के अखंड स्वरुप में लींन हो जाना 
ऐसे जीते रहकर मिलता ही क्या आखिर 
दो वक्त की रोटी या 
दो टूका कपड़ा तन ढकने का 
कैद खाना कर्ज के न चुकता कर पाने पर या 
अस्पताल के दरवाजे की फर्श पर रहने के लिए
दर्द से चीखते चिल्लाते लावारिस जानो के साथ 
मजबूर होकर स्वयं के चीखने की 
सजा, अनवरत बिना खाए पिए भूखे रह जाने का 
मरता तो आखिर रोज ही 
रह रह कर , थोड़ी थोड़ी देर बाद तक
अपने ही लोगों को जलते देख हैवानियत की आग में 
पिसते देख मासूमों को 
षड्यंत्रकारी लोगों के चक्रव्यूह में, मासूमियत की आड़ में 
झाड़ में झंखाड़ में दम तोड़ते सपनो को 
आँखों के सामने से गुजरते देख 
इस देश और इस जमीन के अपनों को 
कैसे कहूं किसी से कि 
है अच्छा अभी किसी मलबे के नीचे दबकर मर जाना 
कम से कम लोग यह तो नही कहेंगे 
इस तरह जीने से अच्छा तो 
मर जाता तूं चुल्लू भर पानी में कहीं डूबकर






2.  माँ, मुझे याद है
माँ 
मुझे याद है 
तेरा यह कहना
कि समय बपौती नही 
किसी के बाप की 
कि रखे वह सम्हालकर 
और दे उसे 
जो चाहने वाला हो उसका
माँ 
मुझे याद है 
तेरा यह कहना 
कि निराशा परिणति नहीं है 
आशा की 
बैठना छोड़ कर सबकुछ 
कि आगे और नहीं अब रास्ता 
अंत जीवन का यहीं 
अंत आशा की नही
माँ 
मुझे याद है 
कि उन कहे गए बातों से 
आगे बढ़कर 
और आगे बढ़ते रहना 
ढलते रहना चाँद की तरह और 
सूरज सा उगते रहना 
बढ़ते रहना अनवरत 
एक नये राह की चाह में 
अंत राह की नहीं 
अंत चाह की नहीं
माँ 
मुझे याद है 
आज इस अनंत राह पर चलते हुए 
अनंत चाह की टोह में 
अनंत पथ पर बढ़ते हुए
अनंत इक्षाओं
अनंत ख्वाबों और 
अनंत स्वप्नों को 
पूरा करने की प्रतिबद्धता लिए 
अनंत आँखों को खटकते 
अनंत हृदयों में सुलगते हुए
माँ 
मुझे याद है 
कहा था तुमने 
जब तप रहा था मैं 
अपने संघर्ष के दिनों में 
जब पकड़ कर आँचल तेरा रोया था मैं 
और कहा था तुझसे 
मानूंगा न हार कभी मैं 
मुसीबत के दिनों में, पर 
क्या तुझे याद है 
उस समय कही थी जो बात तूं ?




3.   विदाई
वे कहते हैं 
विदाई के समय अपने 
कुछ भी न कहना मुझे, अन्यथा 
उपस्थित समुदाय न जाने क्या समझेगा 
बस बहा देना आंसू थोड़ा सा और हम
समझ लेंगे दर्द तुम्हारा
और यह भी कि
मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम कितना है
पर मैं कैसे कहूं और कैसे मांन लूं उनकी यह बात 
और अब कैसे दिखाऊँ उन्हें कि
उनके प्रति कितना प्रेम है मेरे ह्रदय में 
उनके इस चाहत का इन्तेजार करते करते ही तो 
सूख गये आंसू मेरे 
और जो बचा भी था वह समर्पित हो चुका माता और पिता को 
समर्पण मेरा उनके प्रति भी तो था 
पर समझे नही वे मेरे इस भाव को 
अभाव उनका आज खलता रहा मुझे और
रोती रही मैं उनकी ही याद में 
अब जब नही रह गए आंसू भी
तो वे बात रोने की करते हैं 
न कहूँगी मैं किसी के सामने और 
किसी से कुछ भी न बोलूंगी 
अब तो पास मेरे बस वेदना ही यथार्थ है 
कोई क्या समझेगा इसे 
पर उसे तो समझना ही चाहिए 
जिसका इन्तेजार अब तक मैं करती रही 
और जा रही हूँ आज मैं उसके मिलन की एक बड़ी प्यास लिए
जिसके लिए आज तक मरती रही 
क्या समझेगा भी वह हमारे इस नेह को 
क्योंकि सत्य मौन है, यथार्थ मौन है और मौन है दर्द मेरा
स्थित हमारी है नहीं परिस्थिति का पड़ा है घेरा




4.  कह नहीं सकता

कह नहीं सकता 
जो मुझे मिला है 
सबको मिलेगा 
जो फूल खिला है फुलवारी में 
मेरे लिए 
सबके लिए वैसा खिलेगा 
कह नहीं सकता 
कहूं भी यदि 
हठ धर्मिता होगी मेरी यह 
जिसके योग्य नहीं मैं
क्यों मिले मुझे वह 
और यदि मिले भी 
किस पुरुषार्थ पर ? 
अकर्मण्यता पर 
अयोग्यता पर 
भाग्य पर या 
दुर्भाग्य पर 
कह नहीं सकता









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