Wednesday 30 November 2016

एक कवित्त

  
बार बार रूठ रूठ कहते मनाते नहीं
घंटा चार बीते पास रात में तुम आते हो
बीच-बीच किवाड़ खोल देखती हूँ तुमको मैं
मुझ कमसिन को ऐसे रोज क्यूं सताते हो
घुंघटे की नेह और चेहरे की उजास मेरे
प्रणय के प्रयास में निराश छोड़ जाते हो
आती है सरम रोज कहने में मुझे कुछ
बेसरम आखिर तुम क्यों न सरमाते हो?

दोष नहीं मेरी प्रिये रहूँ देखता मैं तुम्हें
रोज रोज ऐसी बात मुझे क्यों सुनाती हो
माता मेरी दरद से पड़ी वा कराहि रही
मेरे बदले में नेह न उससे क्यों लगाती हो
मानता न देखे बिन लगता तुम्हारा दिल
मेरे इंतज़ार में तुम भूखे ही सो जाती हो
पड़ी माँ बरामदे में अकेले ही रोई रही
पास वाके सुख दुःख क्यों न बतलाती हो?

कैसे जाऊं पास वाके सुनती नहीं है कुछ
अपनी ही बार बार मुझको सुनाती है
खुद को तो इज्जतदार मानती है और, सुनो
अनपढ़ गँवार मुझे कुलक्षिणी बताती है
रोज रोज ताने देती मेरे मायके के औ
भाई बाप को मेरे वो पापी ही बुलाती है
कहती है सब कुछ मेरा है क्या तेरा यहाँ
साम्राज्य अपना वो मुझपे जताती है |


देखो देवि तुम तो समझदार बहुत हो
माता मेरी अब अंतिम दौर पे सवार है
युवा हो तुम बात बुरी लगती है मानता मैं
जिंदगी है थोड़ी वाकी साठ के अब पार है
जो कुछ कहती वा चुप चाप सुनो गुणों
सुनता न समाज अपनी कोई भी पुकार है
रात दिन सेवा में लगाए रखो स्वयं को
याही में हमार और तुम्हार उद्धार है


जब रास्ते से गुजर रहा था




सुबह निकला घर से आसमान साफ़ था
न बदली छाई थी न कोहरा घना था
साफ़ था सबकुछ मन अनमना था
कुछ देर बे-मन खड़ा था
मन किया घूम आएं
शहर के इस छोर से लेकर उस छोर तक
शान्ति थी कोई शोर-शराबा नहीं
बड़े दिन बाद ऐसा सुयोग बना था |


कुछ लोग चर्चा में व्यस्त थे
देखा, जब रास्ते से गुजर रहा था
मौसम खराब हो सकता है
बादल बरस सकता है
आज की रात में कुछ ऐसा आभास हो रहा था
कुछ लोग कह रहे थे और कुछ लोग सुन रहे थे

कुछ और आगे बढ़ा तो देखा कि
एक परिवार के कुछ लोग चिल्ला रहे थे
कुछ को चिल्लाहट से घबड़ाहट भी हो रही थी
कपड़ा हटाया नहीं सारा भीग गया
बादल यहाँ बरस चुका था, कुछ कह रहे थे
क्या भरोसा है उसका; कब क्या कर दे?

यह भी दिखाई दिया कुछ और दूरी पर...
भीगे हुए थे कई लोग, और कोश रहे थे बादल को
सब के सब एक स्वरों में  
जैसे जमीं पर आ जाता तो मार ही डालते
न रहता बादल, न बरसता पानी और
न ही तो दुबारा कोई उठाता परेसानी

बे-मौसम बरसात!
क्या कारण था भला बरसने का
यह भी बउरा गया है, पगला गया है
कह रहे थे सभी आपस में
जब जरूरत थी नहीं बरसा, सारी खेती चौपट हो गयी
धान खलिहान में गेहूँ दूकान में
आलू का तो कर ही दिया सत्यानाश

नाशपीटा, यही तो करता आया है
हर समय दिया है धोखा
खड़ी  खेत पर गड़ाए रहा है नजर
मौका मिलते ही कर देता इधर से उधर
देखकर यह हाय-तौबा
मन तो विचलित था पर कह न सका  


अब लोग नहीं रोएँगे



अभी अभी वे मिले थे चेहरा खुश था
हँस रहे थे ठहाका मारकर
यह पता चला कल चुप रहे थे सारा दिन
एकदम मौन थे, बात भी नहीं कर रहे थे किसी से 
उसके एक दिन पहले ही मुस्कुरा रहे थे पता यह भी चला है किसी से

मुस्कुराने, चुप होने और ठहाका मारकर हँसने के बीच
उनका चेहरा लेता रहा है कई कई रूप
कई कई आकर में परिवर्तित होता रहा है हृदय उनका

अब सुन रहा हूँ वे रुआँसे हैं
बार बार घुमा ले रहे हैं अपना चेहरा लोगों के सामने से
और लोग हैं कि रोए जा रहे हैं

चेहरा घुमाकर लोगों से ओझल होना
रोते हुए के बीच हँसना भी है, और
लोगों को अपने बस में करने का एक साधन भी
सुना था अभी अभी कुछ लोग कह रहे थे

यह भी सुनाई दे रहा है
नहीं देखा जा रहा है लोगों से दुःख उनका
 वे रो रहे हैं तो अपने लिए नहीं, सबके लिए
उनके लिए भी जिन्हें न तो वे जानते हैं
और न ही तो वह जिनके लिए वे रो रहे हैं

सबके दुःख, सबके गम, वेदनाएँ सबकी उनकी अपनी हैं
वे रो रहे हैं तो सब होंगे भय-मुक्त, शोषण मुक्त
यह हथियार उनका अपना है और तरीका भी आतंक को ख़त्म करने का
यह बात और है कि लोग और भी अधिक आतंकित हुए हैं
उनके हंसते और रोते हुए के बीच स्वयं को घुटता हुआ महसूस किये हैं

कह रहे थे कुछ लोग सुना मैनें अभी अभी
अब लोग नहीं रोएँगे उनको रोना है तो रोएँ
भाउकता में सिसकते सिसकते मर गया पूरा का पूरा अतीत

अब भविष्य को भी रोता हुआ क्यों बनाएँ? उनको रोना है वो रोएँ  

Tuesday 15 November 2016

यह सच है कि...


हाँ, ये सच है
कि, वह है
सच ये भी है
कि, वह नहीं है
तो क्या ये सच नहीं है
कि, वह है भी और
नहीं भी है

यह सच है कि
सच के आस-पास ही
मंडराती है दुनिया
यह भी सच है कि
सच के पास जाने से
कतराती है दुनिया
तो क्या सच यह नहीं है कि
सच है, इसलिए सब हैं
सच के साथ हर समय
रहना चाहती है दुनिया

तो फिर
सच पर प्रश्न है
कि, वह सच्चाई नहीं कहती
सच से इसीलिए घबराती है दुनिया

Saturday 12 November 2016

अपनत्व में दूर हो जाता है अलग होने का भाव



हाँ यह सच है
और स्वीकारता हूँ मैं यह बात कि
तुम मेरे उतने ही करीब हो जितना कि
वह क्षितिज जो दिखाई दे रहा है, दूर सामने से
पास, बहुत पास, हमारे और तुम्हारे आँखों के सामने

स्वीकार यह भी करता हूँ मैं कि
तुम मुझसे दूर हो उतना ही जितना कि वह क्षितिज
जितना पास आने की कोशिश करता हूँ,
दूर होते जाते हो
मैं चलता जाता हूँ
तुम बढ़ते जाते हो, बढ़ते जाते हो,
हताश होता हूँ तुम्हारी इस प्रतिभा को देखकर,
निष्ठुरता को देखकर और समझकर भी
यह आदत कि एक आकर्षण भर देते हो अपने पास बुलाने का और बाद में
गायब हो जाते हो, कि, भटकन का रास्ता अपना ले,
चाहने वाला तुम्हें, ताकि दूसरा तुम्हें चाहने की कोशिश न करे,
बरक़रार रहे रहस्य तुम्हारा अदृश्य रहने का
    
कभी कभी ऐसा लगता है
परखना चाहते हो मेरे चलते रहने के प्रक्रिया को
और अनवरत जारी रखना चाहते हो अपना आगे बढ़ते रहना,
लेकिन फिर भी मनुष्य हूँ मैं, मनुष्यता की पहचान नहीं गायब होने देना चाहता,
चलते रहने की जिद है मैं नहीं छोड़ता, नहीं हारता, नहीं करता समाप्त
अपनी जिजीविषा को और उस चाहत को भी,
जो तुम्हारे पास तक आने के लिए मजबूर करती रही, दूर करती रही अपनों से और 
बेगानों के करीब करती रही, तुम्हारे इस आदत से इतना तो फायदा हुआ ही
कि नहीं था पहचान जिनसे वे पहचानने लगे, ग्रह, नक्षत्र, तारे
सब अपने लगे और सब मुझे अपनाने लगे,        
अपनत्व में दूर हो जाता है अलग होने का भाव

यह समझने और मन को अपने समझाने लगे ||

देखते आए हो देखते चले जाओगे


हाँ, तो सजीवन जी
वह तुम ही थे न
जो अभी-अभी कुछ समय पहले 
लम्बी कतार में खड़े थे मुंह ओरमाए 
बैंक के सामने पैसे बदलने के लिए
निहायत ही लाचार और विवश होकर

वह तुम्हीं थे न, जो 
कुछ समय पहले कोश रहे थे
सरकार की कारगुजारियों को
और साथ ही अपनी किस्मत को भी
उस ईश्वर को भी जो तुम्हें नहीं जानता
लेकिन तुम जानते थे बचपन से जिसे

सजीवन भाई! याद है
कल के दिन भी तुम्हें देखा था मैनें
झंडा उठाए, भागते, हांफते बीच सड़क पर
चिल्लाते, जो हुआ अच्छा हुआ, सब बाहर आ गया
लूट कर रखा था जो, आज से नहीं वर्षों से,
वह तुम ही थे सजीवन भाई जो कह रहे थे
अब मजा आएगा, जो होगा देखा जाएगा   

ए भाई! सजीवन भाई!
सदियों से देखते आए हो
तब से अब तक क्या कर लिए? हाँ? बताओ?
और आज भी क्या कर लोगे? देखते आए हो
देखते चले जाओगे, फिर आएगा कोई सजीवन 
ठीक तुम्हारी तरह, कुछ करने के लिए नहीं
झंडा उठाने के लिए, चीखने के लिए, चिल्लाने के लिए

तो सजीवन भाई
अभी मुश्किल से तो चाय तुम्हें
नशीब हुई है, क्योंकि जहाँ तुम चाय पी रहे हो
वह दुकानदार तुमको जानता था
खाना मिला कि नहीं यह तो नहीं जानता लेकिन
यह जानता हूँ कि परिवार तुम्हारा अब भी
इंतज़ार कर रहा है आटा और चावल का
जब तुम जाओगे तो बच्चे मुस्कुराएँगे,
थोड़ा राहत की सांस लेगी धरम पत्नी तुम्हारी

लेकिन यह क्या सजीवन भाई
जो मैं देख रहा हूँ, तुम्हारे थके हारे शरीर के तंतुओं में
एकाएक जाग उठा है राष्ट्रवाद तुम्हारा
तुम गाली देने लगे हो एक ही सुर में नेहरू, गांधी, इन्दिरा को
यह कहने लगे हो एकाएक कि बचा लिया डूबते देश को मोदी ने
उनका क्या है? वे जहाँ थे वहीं हैं बल्कि और भी मजबूत हुए हैं
जो चले गए वो आने से रहे और जो हैं वो जाने से रहे

लेकिन सजीवन भाई यह मैं देख रहा हूँ
तुम स्वयं को भूल गए, जहाँ से चले थे वहीँ झूल गए  
कुछ दिन और रहोगे; खाद, पानी, बिसार देते रहोगे नेताओं को
उसके बाद वही तुम्हारे भूखे बच्चे तुम्हारी ही जगह कतार में होंगे
उनके बीबी बच्चे खाने के इंतज़ार में मर रहे होंगे और वह तुम्हारी तरह
उधार के चाय की चुस्की लेते हुए कोश रहा होगा सरकार को, व्यवस्था को
 शांत होगी क्या तुम्हारी आत्मा? जैसे आज भटक रही है तुम्हारे पूर्वजों की आत्मा

तुम्हारे ऊपर, वैसे तुम्हारी भटकेगी उनके ऊपर, तब बताओ सजीवन भाई......?  

Wednesday 2 November 2016

सामाजिक परिवर्तन के नए सन्दर्भों को रेखांकित करती कविताएँ


        अपने समय के यथार्थ को जीना और सार्थकता के साथ उसे सामाजिक अभिव्यक्ति प्रदान करना कवि और कविता का स्वभाव होता है | स्वभाव का निर्माण घटनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है और जब प्रतिक्रिया की स्वाभाविक स्थिति एक समय-विशेष में निवास करने वाले लोगों की अभिव्यक्ति का साधन और विश्वास का माध्यम बनती है तो व्यावहारिक जीवन में उसकी उपस्थिति और प्रभावशीलता बढ़ती जाती है | यह जानना स्वाभाविक ही नहीं अपितु आवश्यक भी है कि जिन विशेष परिस्थितियों में कवि स्वयं को जीने लायक बना रहा होता है कविता उन्हीं परिस्थितियों में आकार ग्रहण कर रही होती है| निर्माण और विस्तार की प्रक्रिया कवि एवं कविता दोनों पर लागू होती है | इनके मध्य घटित होने वाली घटनाएँ दोनों के स्वरूप-निर्माण में बराबर की भूमिका निभाती हैं | यह भूमिका उनके लिए तो हितकर होती ही है, जो उनके केन्द्र में होते हैं, उनके समय-परिवेश में वर्तमान लोगों के लिए भी एक बड़ी परिधि का निर्माण करती हैं | समकालीन हिन्दी कविता में यही ‘बड़ी परिधि’ अपनी विशेष जनधर्मिता के लिए लोगों को आकर्षित करते प्रतीत होती है | इसी ‘बड़ी परिधि’ से गुजरते हुए जीवन के छोटे-छोटे प्रश्नों से टकराते कवि-हृदय कभी समाज के बड़े प्रश्नों का निदान खोजते प्रतीत होते हैं तो कभी बड़े प्रश्नों को चुनौती देते हुए दिखाई देते हैं |
         कवयित्री मालिनी गौतम की रचनाधर्मिता इन्हीं दृष्टि-बिन्दुओं को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ती है और एक लम्बे सामाजिक विस्तार को अभिव्यक्ति प्रदान करने का सार्थक प्रयास करती है | यह प्रयास इसलिए भी सार्थक है क्योंकि आज के इस संवेदनशील समय में ऐसा कोई नहीं है जो अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वहन कर पा रहा हो | प्रत्येक व्यक्ति या तो स्वयं को देवता माने बैठा है या फिर एक विशेष प्रकार का अपराधी; जिसे बाहर निकलकर अपनी स्थिति अभिव्यक्ति करने का कोई अधिकार नहीं है | समाज यदि अपनी विविधताओं की वजह से विखंडित होता दिखाई दे रहा है तो राजनीति विखंडन का प्रमुख स्रोत बनकर उभर रही है | एक कवि ही है जिसे न तो सत्ता का भय है और न ही तो अपराध-बोध से घिरे होने का डर | हाँ, समाज के विखंडन का दर्द जरूर उसे सालता है | मालिनी गौतम द्वारा लिखी गयी यह कविता संग्रह ‘एक नदी जमुनी-सी’ विखंडित हो रहे समाज को एकता के सूत्र में पिरोने का निःसंदेह सफल उपक्रम है |
           घर परिवार से लेकर समाज तक की जद्दोजहद को जीना न तो आसान कार्य है और न ही तो पूर्ण-रूपेण संभव ही | कहाँ तो व्यक्ति पारिवारिक विसंगतियों में ही टूटकर बिखरने लगता है और कहाँ सामाजिक स्थितियों को बचाए रखने की प्रतिबद्धता में पारिवारिक खुशियों एवं उनमें निहित संभावनाओं तक को तिलांजलि देने के लिए तत्पर हो पड़ता है | ऐसे में अपनों से टूटने और बिखरने का डर बराबर वर्तमान रहता है | यह डर मालिनी के हृदय में भी वर्तमान है और इसलिए भी क्योंकि सामाजिक सहस्तित्व और सामाजिक सहभागिता का उपक्रम एक स्त्री द्वारा किया जा रहा है | एक विशेष अजनबी से, जो सम्पूर्ण जीवन कवयित्री के साथ रहने की प्रतिबद्धता दिखाता है, यह पूछना इसी साहस के सार्थक पहल का सुन्दर नमूना है-
“अपना अंश-अंश, कतरा-कतरा
लुटा कर भी
सदियों से न जाने कितने ही चरित्रों का
निर्माण करने वाली मुझ वसुंधरा को जब
चरित्रहीन करार कर दिया जायेगा
तब मेरे मौन को मुखरित करने के लिए
क्या तुम नजर आओगे अजनबी?”
      यह जानने का साहस स्त्रीगत सामाजिक मजबूरी को भी दर्शाता है | अजनबी के साथ सहारे की मर्यादित अनुबंध को बरकरार रखने की मजबूरी कविता से ज्यादा एक स्त्री की मजबूरी है | कविता जैसे जैसे आगे बढ़ती है यह मजबूरी दृढ़ संकल्पों में परिवर्तित होती जाती है | स्त्री से हटकर यदि कविता की बात करें तो कवयित्री अपनी कविताओं के माध्यम से पारंपरिक सामाजिक मर्यादाओं को तोड़कर नवीन मर्यादाओं को प्रतिष्ठापित करने के लिए आप्लावित है | उसका यह कहना कि “मैं निपट अकेली/ सिर्फ वर्तमान को जीने की ख्वाहिश में/ भर-भर अंजुरी उलीचती हूँ/ उदासियों को”, पारंपरिक दहलीज को लांघने की स्वीकारोक्ति है अन्यथा भारतीय परिवेश में स्त्रियाँ अतीत के सुख और भविष्य के स्वप्न को संजोने के अतिरिक्त वर्तमान को कहाँ जी पाती हैं | वह वर्तमान की आकांक्षी है इसलिए उसका यह समय परिवर्तन का समय है | यहाँ उसके लिए “हद, लिमिट या सीमा जैसे शब्द/ हो जाते हैं अस्तित्वहीन |” वह किसी द्वारा सुनाए गए फरमान को अपनी जीवन-जिंदगी नहीं मान बैठती है बल्कि ऐसी “न जाने कितनी ही कच्ची पक्की यादें” जो उसे विवशता की जंजीर में कैद करना चाहती हैं, बिसारकर आगे बढ़ जाती है |
      यह इक्कीसवीं शताब्दी है और इस शताब्दी में अब तक बने बनाए परतिमानों एवं परिभाषाओं को वह उसी रूप में नहीं देखना चाहती और न ही तो बंधी-बंधाई लीक पर चलने के लिए ही स्वयं को अभिशप्त पाना चाहती है | यह उसकी  सामाजिक संलग्नता और उससे संदर्भित साहसिकता ही कही जायेगी कि किसी के साये के सहचर में रहते हुए कभी जो आँखें बंद रहा करती थीं अब वे जागकर अभिव्यक्ति-श्रम के माध्यम से अंधियारे को ख़त्म कर रोशनाई लाने के उद्यम में सक्रिय हैं,
 “न जाने कितनी ही शीतल बयारें  
जल के हो गयी ख़ाक इसमें
न जाने कितनी ही सदियाँ
काट दी आँखों में मैंने
अब जाकर रोशनाई में समाया है यह दर्द
और सदियों बाद
इन बंद आँखों ने
फिर से देखा है कोई ख्वाब |’
       यह ख्वाब व्यक्तिगत हित के लिए नहीं सामाजिक परिवर्तन के लिए देखा हुआ ख्वाब है जिसे साकार करने के लिए कटु यथार्थ का आकलन जरूरी प्रतीत होता है | यथार्थ हर समय कचोटता है | जहाँ आम इंसान इस कचोट को अपनी लाचारी में तब्दील कर बेगारी की प्रवृत्ति से बोझिल हो उठता है वहीं कवि-हृदय संपन्न व्यक्तित्व इससे उपजे दंश को परिवर्तन का माध्यम बनाता है | आलोच्य काव्य-संग्रह में इन माध्यमों की उन्मुखता को बड़े प्रभावी ढंग से अपनाया गया है | ‘एक और पन्द्रह अगस्त’ की यथास्थिति में जितने हद तक जन-मानस स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है और यह प्रश्न बराबर उसके हृदय में खटकता है “कि भैया जे आजादी का होवे है”, रचनात्मक व्याकुलता उससे कहीं अधिक तीव्र रूप से रचनाकार के हृदय को यथार्थ स्थिति अभिव्यक्त करने के लिए बाध्य करती है | यथार्थ स्थिति में जहाँ एक तरफ दयनीय भारत की तस्वीर है, शोषण है, भ्रष्टाचार है तो दूसरी तरफ हाशिए पर आ चुकी शिक्षण-व्यवस्था और उसके इर्द-गिर्द मंडराती मानवीय विवशता है जो न तो खुश होने दे रही है और न ही तो चिंता में व्याकुल हृदय को चिंतन करने की आजादी दे रही है | ऐसे वातावरण में एक विशेष प्रकार के भ्रम की स्थिति बनाए रखने की प्रवृत्ति जरूर विकसित हो रही है | 
      देश स्वतंत्र है; स्वतंत्रता कोई दिखावे की वस्तु नहीं है | इसका सम्बन्ध मनुष्य की चेतनानुभूतियों से है | वर्तमान समय में इसी स्वतंत्रता की मान-मर्यादा मात्र दिखावे की प्रवृत्ति तक सीमित होकर रह गयी है | क्या यह सच नहीं है कि “मन में बिना किसी/ आस्था और भावना के/ एक दिन का वेतन/ काट लिए जाने के डर से/ एकत्रित हुए कर्मचारी/ उपस्थिति कम हो जाने के भय से/ जबरन आये हुए विद्यार्थी/ आजादी का अर्थ तक न जानने वाले/ नन्हें-मासूम बच्चों की प्रभात फेरियां/ व्हाट्सएप और फेसबुक पर/ अपनी प्रोफाइल पिक्चर में तिरंगा लगाकर/ व एक दिन के लिए/ फ़िल्मी गीतों की जगह/ राष्ट्रभक्ति के गीतों को/ अपनी रिंगटोन बनाकर/ अपनी देश भक्ति का परिचय” देने की प्रवृत्ति हमारी स्थाई प्रवृत्ति हो चुकी है? और सच क्या यह नहीं है कि ये प्रवृत्तियाँ हमारी मानसिकता और बौद्धिक क्षमता को पंगु कर रही हैं? आखिर क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि आज भी हम स्वतंत्र देश के वासी द्यूत कीड़ा में हारे हुए पाण्डवों के सामान विवश और असहाय हैं और अपनी मान-मर्यादा किसी दूसरे की इच्छा और दया पर समर्पित कर चुके हैं?-क्या नित प्रतिदिन अपने परिवेश में घटित होने वाली ये घटनाएँ हमारे अपने समय की घटनाएँ नहीं हैं--
आज भी बिछी हुई हैं
शकुनि की बिसातें
नित्य खेला जा रहा है द्यूत
दुह्शासन का आट्टाहास
अब किसी को सुनाई नहीं देता
हर रोज होता है
एक द्रौपदी का वस्त्रहरण
इस बार तो दुर्योधन की
जंघा भी हो जायेगी वज्र की
अपने गांडीव की प्रत्यंचा चढ़ाए
विवश खड़े हैं पांडु-पुत्र |”
         इसी कविता की आगे की पंक्तियों में कवियित्री द्वारा किया गया यह प्रश्न क्या राष्ट्रीय चिंता का प्रश्न नहीं बन जाता है “कृष्ण की सहायता के बिना/ क्या संभव होगा जीतना महाभारत/ आखिर कब तक हम/ करते रहेंगे इंतज़ार एक और कृष्ण का?” ऐसे प्रश्नों से टकराने का साहस दिखाना और उसके प्रतिरोध में सार्थक एवं विश्वसनीय समाधान की तलाश करना हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी तो बनती ही है | एक सत्य हमारे परिवेश का यह भी है कि हम तलाश की नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त रखना चाहते हैं | जो इस जिम्मेदारी को उठाने का प्रयास करते भी हैं उन्हें गुमनामी का शिकार होना पड़ता है | ‘व्यवस्था में सब कुछ जायज है’ जैसी प्रवृत्ति को अपनी जीविका का साधन बनाने वाला सभी सुख-सुविधाओं का लाभ उठाता है और ‘नाजायज’ के प्रति आवाज उठाने वाला ‘विक्षिप्त’ होकर अपनी कुंठित हो रही प्रतिभा की तलाश में ‘भाग्य’ की ठोकरें खाता फिरता है | ‘हार द्रोणाचार्य की’ इन पंक्तियों में इस स्थिति को सुन्दर तरीके से अभिव्यक्त किया गया है—यथा
हाँ...
अर्जुन लौट आया था,
महाविद्यालय का मेधावी छात्र अर्जुन
अर्धविक्षिप्त, पागल-सा
न जाने किन विषम परिस्थितियों
का शिकार...लौट आया था,
तब से अब तक कहीं नहीं जाता
यहीं घूमता है...
जैसे कुछ अटक-सा गया है यहाँ
क्या हुआ होगा इन बीते बरसों में?
किन हालात ने बना दिया
अर्जुन को विक्षिप्त?”

ऐसे एक अर्जुन नहीं है बल्कि हजारों हैं जो अपनी योग्यता के किसी सार्थक जगह न लग पाने की व्यथा से व्यथित हैं, इस व्यथा को पहचानने का उपक्रम, जहाँ तक मुझे लगता है, पहली बार समकालीन कविता में किया गया है अन्यथा अभी तक तो मात्र एकलव्य का ही रोना रोया जाता रहा है | यह वर्तमान समाज की एक जटिल समस्या है जिसमें योग्यताएं दम तोड़ रही हैं तो अयोग्यताएँ पुरस्कृत हो रही हैं | यह मालिनी गौतम की काव्यात्मक सफलता ही कही जायेगी कि उनकी संवेदना झंडा लेकर चलने वालों की संवेदनाओं से आच्छादित न होकर सार्थक विमर्श-बिन्दु को प्रतिष्ठापित करने वाली संवेदनाओं से प्रभावित है | यही वजह है कि कवयित्री को ऐसे रास्तों का वरण करने में संकोच है जो मानव की मानवीयता को विस्तार पाने में अवरोध उत्पन्न करे | इस प्रयास में उसे कई बार निराश होना पड़ता है, यह निराशा सामाजिक अभिव्यक्ति के क्षण का नहीं वैयक्तिक अभिव्यक्ति के क्षण हावी होती है जो सामाजिकता से परिपूर्ण है | इन काव्य पंक्तियों से दो-चार कहीं न कहीं उन सभी स्त्रियों को या फिर उन सभी प्रेम करने वाली प्रेमिकाओं को होना ही पड़ता है-अविश्वास का यह कारण कहीं न कहीं बेधता तो सबको है कि-
तुमने कहा मुझसे
कि जब भी कभी आसमान से
कोई तारा टूटता दिखे...
तुम आँखें बंद कर खुदा से
माँग लेना मुझे...
सदियाँ बीत गयीं
टूटते तारे के इंतज़ार में...
इन पथरीली आँखों ने अब जाना
कि तारे टूटकर
गिरते ही नहीं
इस दुनिया में कहीं भी...  
      तारे को टूटकर गिरते हुए देखने की स्थिति में कितने ही व्यक्तित्व को विनष्ट हो जाना पड़ा | यह वे अच्छी तरह से बता सकते हैं जो इस प्रलोभन के शिकार हुए हैं | ‘तारे टूटकर गिरते ही नहीं इस दुनिया में कहीं भी’ यह विश्वास मात्र मालिनी गौतम का विश्वास न होकर भारतीय समाज के एक बहुत बड़े हिस्से का विश्वास है | ये काव्य-पंक्तियाँ यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं कि काव्य-सृजन भले ही व्यक्ति स्तर पर हुआ हो लेकिन वह वैयक्तिक कभी नहीं हुआ करती | और मालिनी गौतम का यह कहना भी कि ‘संबंधों में जोड़-घटाव/ मुझे कभी आया ही कहाँ/ हमेशा ही कर देती थी/ एक और एक ग्यारह/ और दो और दो बाईस/ बस इतना ही जानती थी कि/ तुम्हारी खुशियों से जुड़कर/ मेरी खुशियाँ होती हैं विस्तृत/ बस इसी तरह/ तय करना चाहती थी/ शून्य से सर्जन तक का सफ़र |’ शून्य से सर्जन तक के सफ़र को तय कर जाने की प्रतिबद्धता उनके अपने स्वभाव को तो दिखाता ही है सामाजिक संबंधों को दृढ तथा मजबूत बनाने के उनके इरादे को भी एक नया भाव देता दिखाई देता है | समष्टि के भाव से आप्लावित कवि-हृदय इसीलिए आगे चलकर इस तरह आशान्वित दिखाई देता है कि ‘क्यों न इस दीवाली/ सबको मिल जाएँ/ अपने अपने हिस्से के उजाले/ और अपने-अपने हिस्से की रोशनियाँ/ न दीया तले अँधेरा हो/ और न ही मन तले हो कोई कालिख |’
      जब व्यक्ति या रचनाकार उम्र के अंतिम पड़ाव पर हो निराशा यकायक बढ़ती जाती है लेकिन जब वह युवा हो और उसमें युवापन की संभावनाएं अपने सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ हिलोरे ले रही हों; वहां निराशा दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती | मालिनी गौतम इस बात की सशक्त प्रमाण हैं | उनका व्यावहारिक जीवन जितना दृढ और अपने भविष्य को लेकर जितना अधिक आशान्वित और स्पष्ट है ‘कुछ यूं कहते हुए...कि “मेरी जिंदगी एक खुली किताब है” उनका रचनात्मक हृदय उससे कहीं अधिक स्पष्ट और समय-समाज के भविष्य को लेकर आशान्वित है |
  यही वजह है कि रचनात्मक धरातल पर कारवां उसका न तो रुकता है और न ही शिथिल पड़ता दिखाई देता है | वह कदम बाहर निकालती है तो लगातार चलते हुए मंजिल को तय भी कर लेना चाहती है | कवयित्री को यह पता है कि ‘वक्त का एक बड़ा-सा टुकड़ा/ बेरहमी से भाग रहा है/ हमारे बीच’ इसलिए वह भविष्य के पुलिंदों को बाँधने और अतीत को बार-बार अपने दुनिया में आने देने के बजाय वर्तमान को ठीक तरीके से जी लेना चाहती है | वह नहीं चाहती कि भविष्य के खयाली दुनिया को सजाने और बीते जीवन-पलों की याद में वर्तमान की विकराल हो रही विसंगतियों को नजर अंदाज किया जाए |
     सच यह भी है कि भारतीय परिवेश में उनके ‘अपने तमाम प्रयासों के बाद भी/ गहरा नहीं पातीं उनकी जड़ें/ और गदरा नहीं पातीं उनकी शाखाएँ’ जड़ों के गहरा होने और शाखाओं के गदराने का अवसर यदि उन्हें मिलता तो कहीं न कहीं अपने जीवन के तमाम प्रश्नों का हल वे स्वयं खोज लेतीं | प्रश्नों का हल मिल जाने पर समस्याओं का दमन स्वयं हो जाता है | लेकिन जहाँ भी प्रश्नों से टकराने और उनका हल खोजने का प्रयत्न इनके द्वारा किया जाता है ‘व्रत-त्यौहार, रीति-रिवाज/ और संस्कारों की कैंची से’ कंटनी-छंटनी का कार्य पारंपरिक भारतीय मान्यताओं द्वारा प्रारंभ कर दिया जाता है और इन मान्यताओं का असर उन इस तरह पड़ता है कि ‘कटती-छंटती वे/ आखिरकार बन ही जाती हैं/ एक सुन्दर-सा बोनजाई/ और बिता देती हैं सारी उम्र/ एक मुट्ठी मिट्टी की तलाश में |’  
         साधारण जनमानस के लिए जो प्रश्न आम हैं वह मालिनी गौतम के लिए ख़ास हैं | खास प्रश्नों के साथ जद्दोजहद करना उनका स्वभाव ही नहीं एक नैतिक जिम्मेदारी भी है, जिसे उन्होंने कई स्तरों पर कई बार कई जगह स्वीकार भी किया है | मालिनी गौतम का यह मानना कि “जीवन और मृत्यु के/ चक्र में फँसे हम सब/ भटक रहे हैं यहाँ से वहाँ” देश और परिवेश में निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का मानना है लेकिन इस भटकाव के प्रभाव का आकलन तो कवि-हृदय संपन्न व्यक्तित्व ही कर सकता है और वह भी इतने सटीक रूप में “अपनी-अपनी इच्छाओं और लालसाओं का/ जनाज़ा उठाये.../ मद लोभ क्रोध अहंकार और/ स्वार्थ की ज्वालाओं में जलते/ कभी धुआं बन/ आसमान को भी कर आते हैं काला |’’ सच तो यह है कि अपनी सतत विकास यात्रा के निमित्त मनुष्य ने व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति में इतनी तत्परता दिखलाई है कि सार्थक एवं आवश्यक लगने वाले जन-जीवन के प्रश्न उससे दूर होते गए हैं जबकि निरर्थक एवं अनावश्यक बातों को बड़ी सिद्दत से अपनाता गया है | यही वजह है कि आज हमारी स्थिति ऐसी हो गयी है कि “बेजान जिस्म और खोखली-सी हँसी लिये/ हिल-डुल रहे हैं उस बिजूके की तरह/ जो डरा तो सकता है/ अपने आस-पास उड़ती चिड़ियों को/ पर नहीं सुन सकता/ अपनी आत्मा की आवाज |”       
           मालिनी गौतम के इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे कविता कहने के लिए शब्दों को ढूँढती नहीं शब्द स्वयं एक-एक करके काव्यात्मकता का निर्माण करते नजर आते हैं | यह इसलिए भी है क्योंकि लोक-संवेदना और लोक-जीवन की सीधी और निःस्वार्थ प्रेम-भावना व्यक्ति के हृदय में अपनेपन की सघनता को मजबूत करते जाते हैं | यही मजबूती जब अनुभूति का साथ पाती है तो सामाजिक क्रिया-कलापों के साथ उसका तादात्म्य बैठाना एक कवि की स्वाभाविक विशेषता बन जाती है | कहीं कहीं इस स्वाभाविक स्थिति से मालिनी गौतम की रचनात्मक प्रक्रिया भटकाव लिए हुए है | निःसंदेह ऐसे स्थान पर  काव्यात्मकता भी बाधित हुई है | काव्यात्मकता को बँधाए रखने के लिए शब्दों का आवरण बिछाने का जो प्रयत्न कवयित्री द्वारा किया गया है वह पाठक-हृदय में उलझाव पैदा करता है| यह उलझाव हालाँकि कविता के लिए आवश्यक होता है | पाठक के जुड़ने से लेकर कव्यार्थों से जूझने तक में यही उलझाव मुख्य भूमिका निभाते हैं | निश्चित ही मालिनी गौतम इस काव्य-संग्रह के माध्यम से समकालीन जीवन-दर्शन को परिभाषित करने में सफल हुई हैं यदि पाठक उसे इस दृष्टि से अपनाते हैं तो निःसंदेह सामाजिक परिवर्तन के नए सन्दर्भों को व्यापकता के साथ हृदयांकित करने का अवसर प्राप्त होगा |