Friday 30 April 2021

अफ़सोस कि पंजाब की हिंदी कविता को साहित्य-जगत में लाने वाले अभी फिलहाल सो रहे हैं

 

पंजाब की हिंदी कविता जगत पर इधर लगातार चर्चा हो रही है| सार्थक चर्चा हो रही है| होनी भी चाहिए| मजेदार बात तो यह है कि जिन्हें कविता लिखना और समझना नहीं आता, वे भी कविता के महत्त्व और कवि-सक्रियता की बात कर रहे हैं| यही कवि और कविता की ताकत है| जिनकी नज़रों में कवि पागल और मूर्ख थे, वे भी उनमें अब लोक-जीवन का अंश देख रहे हैं| मूर्ख पाठक से औसत दर्जे के रचनाकार कहीं अधिक श्रेष्ठ होते हैं| जो औसत होते हैं वह बाद में श्रेष्ठ भी हो सकते हैं| होते भी हैं| उन्हें माहौल मिलता है| नहीं मिलता तो वहां के जिम्मेदार लोग मिलकर बनाते हैं|

इधर रचना और रचनाकारों पर लम्बे समय से चर्चा-परिचर्चा कुछ हुई नहीं| इसी प्रवृत्ति ने यहाँ के जिम्मेदार और ईमानदार रचनाकारों को नेपथ्य में लाकर खड़ा कर दिया और खेल का मालिक किसी और को बना दिया गया| हमें खेल नहीं खेलना है| रचनाकारों का सम्यक और निरपेक्ष मूल्यांकन करना है| मूल्यांकन प्रक्रिया से गुजरते हुए उन रचनाकारों की भी चर्चा की जानी चाहिए, जिनकी वजह से पंजाब का कविता जगत चर्चा में रहता है| रचना या रचनाकार का अच्छा या बुरा होना आलोचक की मानसिकता और जरूरत पर निर्भर करता है| ऐसा होना भी चाहिए|

किसी भी विषय, क्षेत्र में सक्रिय रचनाकारों की सूची-निर्माण की प्रवृत्ति से हर समय बचना चाहिए हमें| फिर भी कुछ नाम यहाँ जोड़ने का आग्रह करता हूँ ताकि भविष्य में कुछ अध्येता भटकें नहीं| जिन्होंने श्रम किया है, इस धरा पर कविता की धार बहाई है, उनका नाम जरूर लेना चाहिए| कार्यक्रम समाप्ति पर ही नहीं प्रारंभ और बीच में भी लेना चाहिए| जो नाम इधर अच्छे से सक्रिय हैं, इनमें कुछ हिंदी ग़ज़लकार भी शामिल हैं- वे नाम इस प्रकार हैं-मोहन सपरा, राजेन्द्र टोकी, कीर्ति केसर, अनिल पठानकोटी, राजेन्द्र सिंह 'साहिल', शैली बलजीत, तरसेम गुजराल, संजीव डाबर, हरमोहिंदर सिंह बेदी, बलविंदर सिंह अत्री, नीलम जुल्का, निर्मल जसवाल राणा, सुरेश सेठ, रमेश विनोदी, कमलपुरी, मनोज फगवाड़वी, बिशन सागर, किरण वालिया, वीणा विज, शुभदर्शन, राकेश प्रेम, डॉ विनोद कुमार, बल्वेन्द्र सिंह, रश्मि खुराना, कमलेश आहूजा, सरला भारद्वाज, देविन्दर बिमरा, सत्य प्रकाश उप्पल, अमिता सागर (रचनाकार कमजोर हैं यह मजबूत, छोटे हैं या बड़े, इसका निर्धारण आलोचक लोग करें| ध्यान देने की बात यह है कि सभी नाम क्रम से नहीं हैं| क्रम आदि को लेकर भी यहाँ लड़ने की प्रवृत्ति होती है, इसलिए यहाँ कहना उचित समझा|) अभी मैं और भी नामों की खोज में सक्रिय हूँ| कुछ नाम हैं जो भूल भी रहा हूँ|

राजवन्ती मान को आप अब पंजाब से अलग नहीं देख सकते| फूलचंद मानव जैसे रचनाकार यहीं से हैं| अमरजीत कौंके इसी पंजाब के हैं| माधव कौशिक भी यहाँ के साहित्य शिरोमणि रहे हैं| आप उन्हें पंजाब से अलग कैसे कर सकते हैं? कृष्ण कुमार रत्तू जैसे रचनाकार यहाँ की ज़मीन को उर्वर बनाने में अपना योगदान दिया है| ये सभी कवि बगैर आलोचना की सहारा के सक्रिय रहे| इस प्रकार की सक्रियता कितनी मुश्किल होती है, हम आपसे अच्छा कौन जानता है भला? कोई भी रचनाकर यह मांग नहीं करता कि उसे बहुत धन कोई दे दे और न ही तो वह किसी से अपेक्षा करता है कि देगा कोई| वह महज शब्द-शक्ति के आसरे रहता है और उसी को अपना सब कुछ समझता है| यह तय है कि रचनाकार को प्रशंसा के अतिरिक्त कोई सैलरी नहीं चाहिए| उन्हें चर्चा-परिचर्चा चाहिए जो इधर न के बराबर होता है| रचनाकारों के साथ उनकी रचनाओं का मूल्यांकन होता रहे तो बेहतर से बेहतर हो सकता है|

ऐसे जगह पर आलोचक की सक्रियता मायने रखती है| वह प्रचार नहीं करता लेखक और पुस्तक की लेकिन लोगों को यह तो बताता ही है कि अमुक के साहित्य में कौन-सी दृष्टि है अमुक के साहित्य में कौन-सी दृष्टि| उसका लिखा हुआ पत्रिकाओं में प्रकाशित होता है, ब्लॉग पर प्रकाशित होता है तो तमाम क्षेत्र के पाठक उन्हें पढ़ते हैं| सही और गलत का अर्थ लोग निकालते हैं| अब जब आलोचक ही अपनी ज़िम्मेदारी से भागते रहे तो रचनाकार करें क्या आखिर? हालांकि आत्ममुग्ध रचनाकारों ने यहाँ की रचनात्मक परिदृश्य को बहुत अधिक नुकसान पहुँचाया, फिर भी आलोचक और आलोचना की जिम्मेदारी तो बनती ही है? जो अच्छा होता है उसे अच्छा बताया जाना चाहिए| जो गलत है उसे गलत भी कहा जाना चाहिए| यह आलोचना की जिम्मेदारी है| पंजाब के हिंदी साहित्य को इस जिम्मेदारी की सबसे बड़ी आवश्यकता है| लोग यह नहीं समझ रहे हैं तो समझने की आवश्यकता है|

पंजाब के कविता जगत में दरअसल किसी आलोचक का ठहराव ठीक से नहीं हुआ| कोई आया होता और नकारात्मक बात भी करता तो ये कवि किसी अन्य प्रदेश के कवियों से कमजोर नहीं हैं और न ही तो इनमें उस दृष्टि का अभाव है| अन्य प्रदेशों के रचनाकर कोई तोप नहीं हैं| फर्क बस यही है कि उन्हें आलोचक मिलते गए| नहीं थे तो लोगों ने खोजा| किसी भी माध्यम से लेकर भी आए| नए नए आलोचकों को खड़ा किया यहाँ की तरह लाठी लेकर खदेड़ा नहीं| आए हुए रचनाकारों ने साहित्य को समृद्ध ही किया है, सीमित ही नहीं| यदि किसी रचनाकार की कड़ी आलोचना की गयी तो उसका विस्तार ही हुआ, संकुचन नहीं| आलोचना की प्रवृत्ति और जरूरत को लेकर यहाँ के साहित्य-जगत को समझने की जरूरत है|

सच्चाई तो यह है कि हमारे यहाँ आलोचक आए भी तो टिकने नहीं दिया गया या फिर क्षेत्रीय राजनीति का शिकार होने के भय से बाहर का रास्ता अपना लिया और यहाँ के विषय में चुप्पी साध ली| उनका भी इज्जत और अस्तित्व होता है| इज्जत और अस्तित्व को बचाए रखने के लिए साधी गयी 'चुप्पी' ने इतना खतरनाक कार्य किया कि बड़े और समर्थ कवि तो उपेक्षित हुए ही, पूरी की पूरी युवा पीढ़ी भी


हाशिए पर धकेल दी गयी| जालंधर आदि में कहीं कोई कार्यक्रम होता है तो युवाओं की उपस्थिति नदारद होती है| कभी कोई भूला-भटका आता भी है तो दुबारा लौटकर नहीं आता| कारण यह कि सार्थक विमर्शों पर चर्चा नहीं है, यह बात मैं पिछले लेख में कह चुका हूँ| यहाँ के वरिष्ठ भी युवाओं को आगे लाने का कार्य नहीं किये| यह भी एक बड़ा अपराध हुआ| लोग बच्चों को भी अपना प्रतियोगी बना लेते हैं और फिर धीरे-धीरे एक फ़ौज सक्रिय होती है जो विस्थापन पर धकेलने का षड्यंत्र करने लगते हैं| इधर पिछले तीन वर्षों से मैंने कोशिश की थी इन अपेक्षाओं पर कार्य करने के लिए लेकिन लोग मुझे भी विवादों में उलझा दिए| हालांकि मैं ऐसा होने नहीं दूंगा लेकिन सकारात्मक कार्यों में बाधा पहुँचती है|

हम-आप सक्रिय-निष्क्रिय रचनाकारों का नाम लेने और उनका गंभीर-विश्लेषण करने की जिम्मेदारी से स्वयं को अलग नहीं कर सकते| हमारे जालंधर में ऐसा ही गेम प्लेन लोगों ने तैयार किया था जिसका परिणाम आए दिन देखने को मिलता है| हालांकि अब परिदृश्य बदल रहा है| बदलना भी चाहिए| रचनाकार का नाम और विश्लेषण हर हाल में होना चाहिए, यह बात और है कि रचनाकार अच्छा लगे या बुरा| कुछ नाम तो ऐसे हैं जिन्होंने इधर अच्छा प्रतिनिधित्व किया है| हिंदी की समकालीन कविता पंजाब के कुछ रचनाकारों पर गर्व कर सकती है| अफ़सोस कि पंजाब की हिंदी कविता को साहित्य-जगत में लाने वाले अभी फिलहाल सो रहे हैं| वे कब जागेंगे, यह प्रतीक्षा लम्बे समय से थी, अभी भी बनी हुई है|

कोरोजीवी कविता और नवगीत विधा का सामाजिक संघर्ष


1.

कोरोजीवी कविता अपनी सम्पूर्ण ईमानदारी में जन-जीवन के साथ है| यदि यह कहूं कि सत्ता के तमाम साधनों-संसाधनों-माध्यमों से कहीं अधिक ईमानदार, तो अत्युक्ति न होगी| सड़कों और हॉस्पिटल आदि जगहों पर पड़ी असहाय और असमर्थ जनता के दुःख-सुख यदि कोई सुन रहा है या कह रहा है तो वह कोरोजीवी कविता है| इसके पूर्व के कई लेखों में मैं यह बात कह चुका हूँ कि मीडिया ने भी अपनी जिम्मेदारी से दूरी बना लिया है| वह या तो तांडव कर रही अथवा दिखा रही है| उससे जन-समर्थित आह्वान की अपेक्षा करना बिलकुल हितकर नहीं है| उसका सत्ता-पक्ष में बोलना जितना अहितकर, विपक्ष-पक्ष में खड़े होना उतना हानिकारक|

बिके हुए लोग मात्र व्यापार-सहयोग का आचरण करना जानते हैं, जनधर्म उनके लिए महज एक नाटक होता है| निरपेक्ष की भूमिका उसके बस की बात नहीं रह गयी है| कवि न तांडव पसंद करता है और न ही तांडव रचाने वाले को| वह न तो पक्ष के साथ खड़ा होता है और न तो विपक्ष का पक्ष बनकर ‘ईमानदार’ दिखने का नाटक करता है| वाद और गुट-मुक्त के सिद्धांत पर सक्रिय रहते हुए वही कहता है जो देखता और एक हद तक जिसे भोगता भी है|


इधर नवगीत विधा ने अपनी इसी निरपेक्ष भूमिका का परिचय दिया है| यथार्थ अभिव्यक्ति की ‘मांग’ पर नहीं एक व्यावहारिक दृष्टि के साथ-साथ समय की जरूरत और समाज की यथास्थिति को सुधारने की आवश्यकता पर| घर में या ऑफिस में बैठकर ‘कल्पना’ से यथार्थ का पैमाना गढ़ने वालों के सूत्र से दूरी बनाए, इधर भूख, प्यास, दवा, ऑक्सीजन तथा दैनिक जरूरत की अन्य चीजों के अभाव को जूझते-झेलते आम आदमी के सच को उनके पास से देख रहे हैं| अपने आस-पास से रोज गुजरती अर्थियों के साथ निकलने वाली उस आवाज़ में स्वयं को देख रहे हैं, जिनका इस संसार में कोई बचा ही नहीं| न स्वप्न, न यथार्थ, न अतीत, न वर्तमान, न भविष्य| हर तरफ जिनके लिए मात्र अँधेरा है और यह दुनियादारी महज एक स्मशानघाट, उनकी वेबस आंसुओं की अभिव्यक्ति बन उन्हें नयी दुनिया के निर्माण के लिए साहस दे रहे हैं, शब्द दे रहे हैं, सहारा बन रहे हैं और हो रहे हैं साबित एक जिम्मेदार अभिभावक|

मैंने ऐसे बहुत-से लोगों को देखा है जो मीडिया की आवाज़ पर नहीं कवि और कविता के विश्वास पर एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं| कई ऐसे गीतकार हैं जो अब भी अपना या अपने व्यक्तिगत सुख-सुविधा का आत्मप्रचार कर रहे हैं| उनका उल्लेख यहाँ जरूरी नहीं| न ही तो उन पर ठहरकर सोचने का अवकाश है अभी| जो जन के लिए समर्पित और उनके जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन कुछ नामों में, मधुकर अष्ठाना, सुभाष वशिष्ठ, माधव कौशिक, रवि शंकर पाण्डेय, ओम धीरज, बृजनाथ श्रीवास्तव, जगदीश पंकज, अजय पाठक, रवि खण्डेलवाल, मनोज जैन ‘मधुर’, अवनीश त्रिपाठी, राहुल शिवाय, योगेन्द्र मौर्य, रविशंकर मिश्र, चित्रांश वाघमारे, गीता पंडित, गरिमा सक्सेना, अनामिका सिंह ‘अना’, आदि ने महत्त्वपूर्ण और विशेष कार्य किया है| ये कार्य संख्यात्मक न होकर गुणात्मक हैं|

इन रचनाकारों को पढ़ते हुए आप अपने वर्तमान को ही नहीं अपितु अतीत-षड्यंत्रों को भी देख और समझ सकते हैं| भविष्य के अधिक दुर्दांत होने की परिकल्पना का यथार्थ महसूस सकते हैं| मनुष्यता के गायब होने और सब कुछ मटियामेट होने के आहट पा सकते हैं| यह जान सकते हैं कि अंततः लड़ना है प्रत्येक व्यक्ति को ही अपने हिस्से की लड़ाई| न तो सत्ता, न परिवार और न ही तो समाज व्यक्ति के अस्तित्व को लेकर स्वयं की जवाबदेही तय कर पायेंगे| नवगीतकार का विश्वास सबसे है भी, पर सत्ता से नहीं है| सच यह भी है कि ऐसे कवि एवं कवयित्रियों ने निंदा-कर्म से दूर रहते हुए इन मुद्दों पर विमर्श किया है| इन रचनाकारों ने एक जिम्मेदार कवि होने का कर्तव्य दिखाया है| इस बात की कोई परवाह किये बगैर कि सत्ता-पक्ष से देश निकाला मिलेगा या उपेक्षा| विपक्ष से सहयोग मिलेगा या धमकी|  

क्रमशः 

Wednesday 28 April 2021

उत्तर-बाज़ार युग है

 किसी को बुलाओ मत

खुद परेशान हैं 

जैसे हम, सब वही हैं


आवाज़ के अर्थ इधर नहीं हैं

जैसे नहीं हैं अर्थ

सरकार और 

सामाजिक व्यवहार के कोई भी


डूब रहे हो तो गुहार मत लगाओ

कोशिश करो कि 

लग जाओ किनारे पहले

कोई दूसरा मझधार में ही धकेलेगा


यह उत्तर-बाज़ार युग है

मनुष्य नहीं

जरूरी हैं उसके नाम पर बहने वाले

घड़ियाली आँसू


कोई मरे तो 

संवेदना की फेहरिस्त हो जाती है बड़ी

जीते जी एक रोटी भी 

कौन पूछता है यहाँ

Monday 26 April 2021

निर्जन-वन-सा

कुछ नहीं

बस चाहता हूँ 

कोई न बोले कुछ मुझसे 

मैं न बोलूँ

इधर किसी से 


शांति हो हर तरफ़

मौन हो 

निर्जन-वन सा 

सब कुछ इधर का 


जो बोलते रहे 

वे जा रहे हैं 

मौन थे जो 

वे लगातार दबे जा रहे हैं


क्या करूँगा मैं बोलकर

सुनेगा नहीं

इधर कोई जब

सुनूँगा किसे अब यहां

रहेगा नहीं जब 

बोलने वाला कोई भी

Sunday 25 April 2021

अनुशंसा-प्रशंसा के व्यामोह में उलझा पंजाब के हिंदी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य

एक समय था जब पंजाब की रचनाधर्मिता की चर्चा किये बगैर हिंदी साहित्य का कोई विमर्श पूरा नहीं होता था| चर्चाएँ अधूरी रहती थीं| कमजोर से कमजोर लेखक की भी अपनी सहभागिता होती थी बौद्धिक विमर्शों में| उन्हीं विमर्शों की वजह से दूर-दूर तक लोग जानते थे| आज ऐसा भी समय आ गया है कि दूर बैठे लोग कई बार पूछते हैं कि कोई अच्छा लेखक बताइए पंजाब से, इन दिनों जो सक्रिय हो लेखन जगत में| किसी एक विषय को लेकर जरूरी लेखकों की सूची तैयार करनी हो तो हाथ-पैर फूलने लगते हैं|

सक्रियता के नाम पर तो कई रचनाकार दिखाई दे जाते हैं इधर| अब सक्रियता किस प्रकार की है इस पर सोचना पड़ता है| इधर लगभग तीन वर्ष रहते हुए यह देखने में आया है कि रचनाकारों की अधिकांश सक्रियता अपने द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में रहती है| कोई भी विमर्श यहाँ के अधिकांश रचनाकारों के लिए उनसे शुरू होकर उन्हीं पर ख़तम हो जाती है| ऐसा वे भी मानते हैं और उनके पाठक भी ऐसा ही उनके विषय में जानते हैं| पाठक जब तक रचनाकार के व्यक्तिगत संवाद में होता है तब तक वही इस साहित्यिक संसार के कर्ता-धर्ता दिखाई देते हैं, जैसे रचनाओं को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता है उन्हीं रचनाकारों की छवि उनके लिए घुसपैठिये की तरह हो जाती है|



यह परिदृश्य हर शहर के रचनाकारों की हकीकत हो सकती है लेकिन इधर के विषय में यथार्थ है| यहाँ अरसा गुजर जाता है स्वतंत्र विषय पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता| बाहर से आने वाले रचनाकार के लिए संवाद-आदि की व्यवस्था महज “व्यक्तिगत हानि-लाभ” की रणनीति पर होती है| अपना  पुस्तक लोकार्पण की रस्में ऐसी निभाई जाती हैं जैसे अमुक लेखक के बिना साहित्य अनाथ हो जाता, लेकिन जैसे ही उस पुस्तक के पन्ने पलटिये तो सिर पकड़ कर बैठने का मन करने लगता है| यह हताशा और निराशा नहीं है| एक ऐसी सच्चाई है जिससे हर सम्वेदनशील व्यक्तित्व यहाँ का परिचित है| परिचित तो वे लोकार्पणजीवी रचनाकार भी हैं ऐसे हालात से, लेकिन सोचते अथवा विचारते नहीं| उन्हें पता होता है कि अगली पंक्ति में वे भी खड़े हैं और उन्हें भी इस रस्म-अदायगी का हिस्सा होना है|

यह किसी विडंबना से कम नहीं है कि पास का लेखक अपने प्रदेश के लेखकों को तो छोडिये अपने पड़ोसी लेखक की सक्रियता का अंदाजा भी नहीं लगा पाता| यह पता होता है कि फेसबुक पर आज किसने किसकी टांग खिचाई की लेकिन यह नहीं पता होता कि उसकी जो पुस्तक अभी प्रकाशित होकर आई है, उसका विषय वस्तु क्या है? परिदृश्य तो ऐसा भी बना दिया गया है कि यहाँ दूर-दूर तक समकालीन पत्रिकाएँ नहीं मिलेंगी आपको| वह ठिकाने, जहाँ पत्रिकाओं की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकती थीं या तो गायब हो गए या फिर लोग ऐसे स्थानों पर जाना ही छोड़ दिया| बहुत कम रचनाकार ऐसे हैं जिनके घर पर एक-दो पत्रिकाएँ आती हों तो आती हों, समय वह भी नहीं पाते होंगे पढने के लिए|  

पत्रिकाओं आदि की समृद्धि और विकास के लिए यह अपेक्षा की जाती है कि प्रबुद्ध वर्ग आएगा और पत्रिकाओं को क्रय करके ले जाएगा| जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है| यहाँ का अधिकांश बौद्धिक वर्ग यह मानता है कि यदि दूसरों को पढ़ेंगे तो उसका प्रभाव उस पर पड़ जाएगा| इस तरह वह उचित लेखन नहीं कर पाएगा| उसकी सारी साधना पर नकल का आरोप लग जाएगा| ऐसी मूर्ख सोच पहली बार हमें पंजाब में सुनने और देखने को मिलती है तो यथार्थ की परिकल्पना करिए आप कि सब कुछ कितना मूर्खतापूर्ण घटित हो रहा होगा? यहाँ के अधिकांश नए और वरिष्ठ रचनाकारों से वर्तमान पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री के विषय में जब आप जानना चाहेंगे तो वे उतनी ही निर्लज्जता से जवाब देंगे “समय ही कहाँ मिलता है|” “कौन पढ़ता है आजकल पत्रिकाओं को| व्यक्तिगत समस्याएँ वैसे ही परेशान करके रखी हुई हैं| अब वैसे भी पहले का ज़माना तो रहा नहीं|” यहीं से वह अपने अतीत-स्मृति में डूबता है तो जब तक आपको भी न डुबा कर गायब का करने का षड्यंत्र रच ले, संतोष नहीं मिलता|

समय नहीं मिलता लेकिन काम भी कोई नहीं होता| किसी की ईर्ष्या में किसी से संवाद करते हुए दो घंटे बिता देंगे| किसी को गिराने के लिए तमाम षड्यंत्र रचने में हफ्ता गुजार देंगे| किसी को उठाने के लिए (नीयत में तो यह है ही नहीं) एडी-छोटी का जोर लगाते हुए कई कई महीने व्यतीत कर देंगे लेकिन सही और सार्थक परिचर्चा नहीं करेंगे| किसी भी जूनियर अथवा सीनियर से चर्चा करते हुए चुगली तो करेगे अपने से विपक्ष में रहने वाले रचनाकारों की लेकिन किसी साहित्यिक प्रवृत्ति पर परिचर्चा न करने की जैसे कसमें खा रखे हों| पुरस्कार-दाताओं की परिक्रमा जरूर करते हुए दिखाई देंगे| कोई किसी बड़े की पुस्तक का प्रूफ करते हुए यहाँ दिख जाएंगे| संवाद और चर्चा के समय अलग रहना और करना दोनों उन्हें पसंद होता है| यही वजह है कि यहाँ का साहित्य अँधेरे में है और रचनाकार नेपथ्य में|

यहाँ कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं, दिन भर में आत्ममुग्धता से भरकर अपने प्रचार में दसों पोस्ट लगा देंगे लेकिन किसी सार्थक पुस्तक की चर्चा में दो शब्द में नहीं बोलेंगे| यह आत्मालाप की दुनिया इधर के दिन अधिक समृद्ध हुई है पंजाब के हिंदी साहित्य-दुनिया में, पहले ऐसा बहुत कम होता था| बड़े हस्ताक्षरों की उपस्थिति में छोटे हस्ताक्षर पूर्ण स्पेस पाते थे संवाद करने के लिए| इधर तो यदि पता चल जाए कि कनिष्ठ वरिष्ठं से किसी मायने में आगे हैं तो वरिष्ठ शिकार करने के लिए गोटियाँ बिछाने लगते हैं| शिकार न फँसा तो लोगों को भड़काने में लग जाते हैं| लोग नहीं भड़कता तो किसी न किसी षड्यंत्र में फांसने के लिए संघर्ष करने लगते हैं| यही संघर्ष यदि साहित्यिक सरोकारों के लिए हो परिदृश्य कितना उजला और समृद्ध हो, इसकी परिकल्पना सहज ही की जा सकती है|

देश के तमाम अंचलों में सक्रिय साहित्यिक संवाद होता है/ हो रहा है| हमारे यहाँ उसकी परिकल्पना करना भी बेकार है| कारण कि कोई भी साहित्यकार अगले साहित्यकार के साथ व्यावहारिक नहीं है| अन्य जगहों पर पाठक या श्रोता बचे रहते हैं यहाँ तो उन्हें भी बाँट लिया जाता है| पाठक या श्रोता भी अच्छे की उम्मीद में रचनाकारों से संवाद नहीं स्थापित करते| सही को सही और गलत को गलत कहने से हर समय जैसे डरते रहते हैं| अब उनके हिस्से ये डर क्यों है यह तो वही जानें| मैं यदि कुछ जानता हूँ तो इतना भर कि उन्हें डर होता है कि आयोजक/संयोजक/प्रायोजक नेक्स्ट कार्यक्रम में बुलाने से मना कर देगा| कोई पुरस्कार बंटेगा तो उसका हिस्सा नहीं लगेगा| हालांकि ऐसी प्रवृत्ति हर अंचल की बन चली है लेकिन इधर कुछ अधिक ही है| यही अधिकता साहित्यिक संवाद में बाधा बन रही है| जानते सभी हैं लेकिन सोचता कोई नहीं|

अन्य अंचलों में रचनाकारों में लड़ाई होती है तो विमर्श केन्द्रित होती है अथवा वैचारिकता से सम्बन्धित होती है| यहाँ व्यक्तिगत हानि-लाभ के लिए लोग लड़ते हैं| छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते हैं| यहाँ बड़ा दिखने और होने के लिए लोग लड़ते हैं| ऐसे परिदृश्य में यहाँ हर कोई स्वयं को नामवर सिंह से वरिष्ठ मानकर चलता है लेकिन जब बात गुणवत्ता आदि की आती है तो एकदम फिसड्डी साबित होते हैं| यहाँ का साहित्यिक माहौल यही है और इसी में यहाँ के लोग जी रहे हैं| यदि ये एक दूसरे की टांग खिंचाई न करें तो इनका पेट तक न भरे| यही यहाँ की विशेष साहित्यिक प्रवृत्ति है| यह कहा जाता है कि जिनके पास कहने और लिखने के लिए कुछ नहीं होता वही ऐसे परिवेश-निर्माण में सहायक होते हैं, अब इनके विषय में सच्चाई क्या है? यह समझने और सोचने का विषय है|  

यहाँ की सामान्य चर्चा भी हाई-फाई होती है जिसमें केवल व्यक्तिगत छींटाकसी को शामिल किया जाता है| साहित्यकार होते हैं लेकिन साहित्य नहीं होता| कवि होते हैं कविता नहीं होती| कथाकार होते हैं कहानियां नहीं होती| उपन्यासकार होते हैं उपन्यास नहीं होता| सम्पादक होते हैं सम्पादकीय दृष्टि नहीं होती| सवाल आप यह कर सकते हैं कि तो फिर होता क्या है? मेरा जवाब होगा कि मूर्खताएं, जो लोग अक्सर दूसरे को नीचा दिखाने के लिए करते रहते हैं| गुरु बहुत हैं यहाँ शिष्य नहीं हैं| सिखाने वाले की भीड़ है सीखने वालों का अकाल है| सीनियर हैं जूनियर नहीं हैं| दरअसल यहाँ के खामियों-खूबियों का समीकरण भी संतुलित नहीं है|  

कविता विधा की बात करें तो अधिकांश कवियों के पास कोई कविता नहीं है| अतीत-मुग्धता की थाती से समृद्ध यहाँ की बड़ी संख्या ऐसी है जिनके पास न तो उनका अपना परिवेश है और न ही तो उनका अपना समाज| राजनीति आदि विमर्शों पर पूरी तरह गायब यहाँ के अधिकांश रचनाकार या तो गमलों को संजोने में खपते रहते हैं या फिर ग्लैमरस वर्ल्ड का हिस्सा बन स्वयं को सजाने-संवारने में| कविता स्वयं में एक सौंदर्य है, यह आभास उनको नहीं होता| व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं में रमें रहने वाले अधिकांश रचनाकारों के यहाँ जीवन का सौंदर्य, धरती का सौंदर्य, श्रम का सौंदर्य नदारद मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए|

ऐसा भी नहीं है कि अच्छे रचनाकार हैं नहीं यहाँ पर लेकिन फर्जीवाड़े की भीड़ में अच्छे रचनाकारों की उपस्थिति आसानी से महसूस नहीं होती| ऐसा होने के पीछे कारण यह है कि एक तो हम भीड़ को ही इन दिनों वास्तविक मान ले रहे हैं, दूसरे जिस परिवेश में हम रह रहे होते हैं उसके आगे सोचने और देखने की कोशिश नहीं करते| पंजाब का जालंधर तो अपनी विशेष साहित्यिक षड्यंत्रों की वजह से जाना जाता है लेकिन उसके बाहर अच्छे रचनाकारों की अच्छी फेहरिस्त है| अमृतसर, मोगा, पठानकोट, लुधियाना, खन्ना जैसे शहरों में अच्छे रचनाकार हैं जो गंभीरता से कार्य कर रहे हैं| जालंधर में भी कुछ विशेष रचनाकार हैं जो इधर बहुत अच्छा कर रहे हैं लेकिन जोड़-जुगाड़ की राजनीति में दिन-रात रमे लोगों की वहज से वह छवि निर्मित नहीं हो पा रही है, जो वास्त्विक्तः होनी चाहिए|

लगने को यह लोगों को लग सकता है कि यह लेखक की कुंठा है| परिवेश इस तरह का हो ही नहीं सकता लेकिन सच्चाई यही है| फेसबुक पर उम्र और चेहरों को देखकर विद्वान होने का भ्रम पालने की बजाय वास्तविक यथार्थ को देखने और समझने की कोशिश करेंगे तो सब सामने आ जाएगा| वर्तमान समय में जैसी हालात देश की है और यहाँ का भी, रचनाकारों से कुछ लेना-देना नहीं है| कोविड के इस भयंकर दौर में भी प्रेम और श्रृंगार की कविताएँ लिखी जा रही हैं और प्रेम कविताओं के संग्रह आ रहे हैं तो कितनी गंभीरता होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है| पड़ोस में मृत्यु तांडव कर रही है और रचनाकार प्रिय मिलन की आश लिए वियोग-संयोग की रचनाएँ लिखने में अस्त-व्यस्त है, यही सच है और यही यथार्थ है| यहाँ जनसंवेदना की बात करना मोदी विरोधी होना है| रचना में यथार्थ की मांग करना वामपंथी होना है| फिलहाल हिंदी में जो वामपंथी हैं यहाँ के उनकी अपनी खुद की कोई सार्थक ज़मीन नहीं है| विचार-प्रसार की जगह पुस्तकों को भंडारण करने में व्यस्त हैं|

सेल्फी के इस दौर में विमर्शात्मक-सम्वाद की मांग करना यहाँ विशेष प्रकार का पागलपन समझा जाने लगा है| संस्थाएं थोक भाव में बनी हैं जिनका उद्देश्य महज पुस्तकों का लोकार्पण करना और अपनों को खुश रखना है| लोकल अख़बार तीन लोगों के बीच हुए आपसी बातचीत को भी राष्ट्रीय-संगोष्ठी बनाकर प्रस्तुत कर देते हैं क्योंकि जो खबर होता है उनके द्वारा नहीं लेखकों द्वारा तैयार प्रेस-नोट होता है| वास्तविक परिचर्चाओं को इसलिए प्रकाशित करने से मना कर देते हैं कि उसका आयोजक या संयोजक उनसे जुड़ा नहीं होता| जो दीखता है वही बिकता है यह उक्ति यहाँ के लिए एकदम फिट है| एक साहित्यिक और समझदार व्यक्तित्व अपनी रचनाओं पर किसी पाठक की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करता रहता है और एक मीडियाकर रचनाकार लोगों से कहकर स्वयं लिखवा लेता है और फेसबुक पर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ साझा करके तीस मार खान बना फिरता है| ऐसा अभी बहुत कुछ है जो कहा जा सकता है लेकिन कहने का भी अपना एक दायरा होता है| पंजाब का वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य सही अर्थों में किसी विशेष नेतृत्व की तलाश कर रहा है, वह नेतृत्व कब पूरा होगा, यह इन्तजार और इन्तजार का विषय है| फिलहाल तो अच्छे दिन आएँगे, इस उम्मीद के साथ यहाँ के अच्छे रचनाकार अब धीरे-धीरे प्रकाश में आना शुरू हो गए हैं|

 


Saturday 24 April 2021

यह आलोचना के नालायक और निकम्मा होने का परिणाम है

 

“बात में बात" प्रोजेक्ट के तहत चर्चा करते हुए एक दिन कवि व आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा "फेसबुक और सोशल मीडिया जैसे माध्यम ने आलोचना की सत्ता को अपदस्थ कर दिया| साहित्य में इधर जो अराजकता है, उसी के जरिये है|" मैं इस बात से एकदम सहमत हुआ| आज भी हूँ और बहुत दिन बाद भी, जब-जब आज के साहित्य का मूल्यांकन होगा, चयन के विवेक और प्रस्तुति के साहस का आंकलन होगा, असहमत नहीं हो सकता| यह अकारण नहीं है| इसके अपने कारण और वजहें हैं|

यह सोशल मीडिया की ही मेहरबानी है कि जिन्हें साहित्य और कविता की समझ तक नहीं है, उन्हें आलोचक बनाकर ऐसा उछाला गया कि जैसे वे न होते तो आज के साहित्य का मूल्यांकन ही न होता| हल्की-से-हल्की टिप्पणी करने वाले को युवा आलोचक और एक-दो पेज लिखने वाले को वरिष्ठ आलोचक बनाने का परिणाम यह हुआ है कि ऊल-जलूल जो भी लिखा गया, अनुपम, असाधारण करार दे दिया गया| इन अनुपमेय और असाधारण लोगों ने ऐसे-ऐसे प्रतिमान स्थापित किये कि साहित्य विसंगतियों और अव्यवस्थाओं का मकड़जाल बनता चला गया| परिदृश्य तो यहाँ तक धुंधला हो गया है कि सही और उचित रचना अथवा रचनाकार तक पहुंचना एक चुनौती बनती जा रही है| हर किसी को हीरा बताने की मूर्खता ने तांबे की पहचान को ही संशयग्रस्त बना दिया है| बगुले को हीरा समझने की भूल ने पाठकों को साहित्य से दूर रखते हुए वेब सीरीज आदि की तरफ उन्मुख कर दिया है|



कथा साहित्य को बहुत दिन तक कोई जिम्मेदार आलोचक नहीं मिला| यह अभाव आज भी बना हुआ है अपने उसी रूप में| सही और ज़िम्मेदार आलोचना का न हो पाना यहाँ समझा जा सकता है| तमाम प्रकार की असंगतियों का होना और उसमे अराजकता का रहना माना जा सकता है| कविता जैसी विधा में हर समय सशक्त आलोचक रहे| आज भी बड़े आलोचकों की कमी तो नहीं है इस क्षेत्र में| इस विधा में तथाकथित ‘युवा’ और ‘वरिष्ठ’ तथा ‘गरिष्ठ’ के द्वारा जो भी छीछालेदर की गयी, उसके लिए साहित्य के चौकीदारों को कभी माफ़ नहीं किया जाएगा| यहाँ यह भी जोड़ देना अप्रासंगिक न होगा कि संपादक, प्रकाशक से लेकर साहित्यिक खेवनहार तक के लोग इस प्रक्रिया के बराबर के दोषी हैं|

प्रकाशकों का तो व्यापार होता है, वे कुछ भी बनाकर बेच सकते हैं| उनका स्वभाव और सिद्धांत सब व्यापार पर आधारित होता है लेकिन आलोचक, समीक्षक, संपादक आदि की अपनी जिम्मेदारी होती है जो वे नहीं निभा पा रहे हैं या नहीं निभा पाए| सच यह भी है कि जिन्हें अपने मन-मर्जी से लिखना-पढ़ना था वे प्रकाशकों और लेखकों मिज़ाज पर अध्यवसायी होने का उपक्रम करने लगे| डेस्क पर जिन्हें सम्पूर्ण तनाव या मुक्त मानसिकता के साथ अकेला होना चाहिए वे सम्बन्ध, साहचर्य और सामंजस्य जैसे भावों के साथ विचरण करने लगे| जज या तो सम्बन्धों की रखवाली करेगा या फिर फैसला सुनाएगा| पंच परमेश्वर कहानी का पाठ भी यदि आज के आलोचक करें तो बहुत कुछ सार्थक प्राप्त कर सकते हैं और बहुत कुछ सार्थक तथा सही किया जा सकता है|

यह कम विडंबना की बात नहीं है कि जिनको कविता के वाक्य लिखने नहीं आते उन्हें बड़ा कवि इसी फेसबुक ने बनाया| जो न तो समाज से जुड़े हैं और न ही तो स्वयं से उन्हें अनुपम कवि के रूप में इसी फेसबुक ने निर्मित किया| इसी फेसबुक के कहने पर तथाकथित आलोचकों ने उन्हें सिर पर बिठाया| सिर पर बैठे हुए लोगों ने आलोचकों की आँखों पर पट्टी बांधकर लुका-छिपी खेला| यह सच है कि लुका-छिपी के खेल में अभ्यस्त ऐसे आलोचकों ने नग्नता को सभ्यता का उच्छवास घोषित किया| मूर्खता को बुद्धिमानी का पैमाना बताया| पोर्नोग्राफी को कहन-शैली के रूप में बताते हुए, बिस्तर तक के दृश्य को अभिव्यक्ति-साहस के रूप में दिखाया| जिन चीजों को खोजने के लिए लोग सस्ती पत्रिकाओं के चक्कर लगाते थे, फुटपाथों से लेकर छिपे हुए ठिकानों तक को छान मारते थे, वह सब चीजें सहज और अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ हर जगह उपलब्ध होने लगीं| ध्यान रहे पोर्नोग्राफी सौंदर्य नहीं है जबकि सौंदर्य-अभिव्यक्ति के लिए नग्नता को ही सिद्ध-मन्त्र के रूप में दिखाया गया इधर के दिन कविता में|

जिस कविता ने कल्पना का परित्याग करके यथार्थ परिदृश्य की अभिव्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी माना, उसी कविता को ‘नग्नता’ का लिबास ओढ़ाकर ‘कोठे’ की विषय वस्तु के रूप में चित्रित करने का आवारा-प्रयास हुआ| जिस कविता ने ‘चाँद के पार जाने की इच्छा’ को त्यागकर जन-संघर्ष की ज़मीन को मजबूत करने का वीणा उठाया, उसी कविता को देह-मर्दन के हथियार के रूप में इधर तराशा गया| भूख’ के विकल्प में चेतना-निर्माण का स्वप्न जिस कविता ने देखा उसी कविता को ‘योनि’ और ‘गुदा’ में उलझाकर पहाड़ और सुरंग की बारीकियों में भटकने के लिए छोड़ दिया गया|

वेब सीरीज आदि देखकर आने वाले कवि/कवयित्रियों की युवा पीढ़ी रति-क्रिया को दिखाने में व्यस्त है और आलोचक उस क्रिया के आस्वाद को मिर्च-मशाला लगाकर पाठकों के सामने परोसने का अभ्यास कर रहा है| दिखाने की व्यस्तता और परोसने का अभ्यास उर्वर भूमि को बंजर बनाने का कुप्रयास है| इस कुप्रयास में उसे आप एक ‘ठिकाने’ के रूप में भी चिह्नित कर सकते हैं| कौन-सा प्रोडक्ट किस कवयित्री के पास है और कौन-सा प्रोडक्ट किस कवि के पास, यह आलोचक नाम के गढ़े हुए पुतले को अच्छी तरह से पता है| गढ़ा हुआ पुतला इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि वह स्व-विवेक से कार्य न करके ‘पालकों’ और ‘पोषकों’ के इशारे पर नृत्य कर रहा है| नृत्य करने वाले के लिए हर स्थिति महज मनोरंजन होती है| कविता उसके लिए किसी चेतना का निर्माण-साधन नहीं अपितु मनोरंजन की वस्तु-मात्र है|

आदिकाल में हर राजाओं के अपने कवि हुआ करते थे| उनकी अनुशंसा-प्रशंसा वे बगैर किसी साहस के किया करते थे, क्योंकि इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं होता था| आज हर रचनाकार के अपने सिद्ध आलोचक हैं| यह ऐसा आलोचक है कि या तो पक्ष में है या तो विपक्ष में| इधर लेख की जरूरत हुई नहीं कि उधर कई पृष्ठों का लेख छपकर प्रकाशित हुआ नहीं| ऐसे आलोचकों ने न तो कविता को पढ़ा और न ही तो समझने का प्रयास किया| ‘गुट’ और ‘गैंग’ को देखकर आलोचना का समीकरण निर्धारित करने वाले ऐसे आलोचक ‘सच’ को गिरवी रखकर ‘झूठ’ वास्तविकता का लिबास दिया| जिनके यहाँ शब्द शक्ति और सामर्थ्य है उनकी बात ये पालतू आलोचक नहीं कर रहे हैं| जिनके यहाँ नग्नता है, न्यूडिटी है, निर्लज्जता है उन्हें क्रांतिकारी, उद्धारकर्ता के रूप में दिखा रहे हैं| ये वह लोग हैं जो पढने और लिखने से कहीं अधिक ‘छपने और पाने’ लालसा और वेबसी के साथ आए हैं|    

इतने भयंकर समय में ऐसे कवि-कवयित्री हैं जो ‘योनि’ और ‘गुदा’ की उपेक्षा से संकुचित होते जा रहे हैं| जबकि आदमी भूख के तांडव से इतना दुखी है कि दो वक्त की रोटी भी स्वप्न होता जा रहा है| बेरोजगारी का डर सर पर सवार है और ऐसे लोग ‘योनि को ममता का स्पर्ष” दिलाने के लिए सूखे जा रहे हैं? उन आलोचकों को यहाँ क्या कहें जो उन्हें कठघरे में खड़ा करने के बजाय ‘साहस’, ‘अदम्य जिजीविषा’ ‘भूतो न भविष्यत’ एकमात्र क्रांतिकारी आदि आदि उपमाओं से विभूषित करते जा रहे हैं? उनकी जड़ता पर खीझ तो उठती ही है अंधेपन पर भी तरस आता है|

इतना पंगु और लाचार साहित्य-आलोचक पहले तो नहीं था? इतना जड़ और पिछलग्गू होने का उदाहरण पहले तो नहीं सुना? तो क्या यही है साहित्य का समकाल? सोचिए, विचारिये और तर्क कीजिये| मुझसे नहीं अपने पाठकीय हृदय से और आज के समय में लिखे जा रहे साहित्य की दृष्टि-क्षमता से| मैं तो यही कहूँगा कि यह सब जो कुछ भी हो रहा है-“यह आलोचना के नालायक और निकम्मा होने का परिणाम है|”