Sunday 25 April 2021

अनुशंसा-प्रशंसा के व्यामोह में उलझा पंजाब के हिंदी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य

एक समय था जब पंजाब की रचनाधर्मिता की चर्चा किये बगैर हिंदी साहित्य का कोई विमर्श पूरा नहीं होता था| चर्चाएँ अधूरी रहती थीं| कमजोर से कमजोर लेखक की भी अपनी सहभागिता होती थी बौद्धिक विमर्शों में| उन्हीं विमर्शों की वजह से दूर-दूर तक लोग जानते थे| आज ऐसा भी समय आ गया है कि दूर बैठे लोग कई बार पूछते हैं कि कोई अच्छा लेखक बताइए पंजाब से, इन दिनों जो सक्रिय हो लेखन जगत में| किसी एक विषय को लेकर जरूरी लेखकों की सूची तैयार करनी हो तो हाथ-पैर फूलने लगते हैं|

सक्रियता के नाम पर तो कई रचनाकार दिखाई दे जाते हैं इधर| अब सक्रियता किस प्रकार की है इस पर सोचना पड़ता है| इधर लगभग तीन वर्ष रहते हुए यह देखने में आया है कि रचनाकारों की अधिकांश सक्रियता अपने द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में रहती है| कोई भी विमर्श यहाँ के अधिकांश रचनाकारों के लिए उनसे शुरू होकर उन्हीं पर ख़तम हो जाती है| ऐसा वे भी मानते हैं और उनके पाठक भी ऐसा ही उनके विषय में जानते हैं| पाठक जब तक रचनाकार के व्यक्तिगत संवाद में होता है तब तक वही इस साहित्यिक संसार के कर्ता-धर्ता दिखाई देते हैं, जैसे रचनाओं को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता है उन्हीं रचनाकारों की छवि उनके लिए घुसपैठिये की तरह हो जाती है|



यह परिदृश्य हर शहर के रचनाकारों की हकीकत हो सकती है लेकिन इधर के विषय में यथार्थ है| यहाँ अरसा गुजर जाता है स्वतंत्र विषय पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता| बाहर से आने वाले रचनाकार के लिए संवाद-आदि की व्यवस्था महज “व्यक्तिगत हानि-लाभ” की रणनीति पर होती है| अपना  पुस्तक लोकार्पण की रस्में ऐसी निभाई जाती हैं जैसे अमुक लेखक के बिना साहित्य अनाथ हो जाता, लेकिन जैसे ही उस पुस्तक के पन्ने पलटिये तो सिर पकड़ कर बैठने का मन करने लगता है| यह हताशा और निराशा नहीं है| एक ऐसी सच्चाई है जिससे हर सम्वेदनशील व्यक्तित्व यहाँ का परिचित है| परिचित तो वे लोकार्पणजीवी रचनाकार भी हैं ऐसे हालात से, लेकिन सोचते अथवा विचारते नहीं| उन्हें पता होता है कि अगली पंक्ति में वे भी खड़े हैं और उन्हें भी इस रस्म-अदायगी का हिस्सा होना है|

यह किसी विडंबना से कम नहीं है कि पास का लेखक अपने प्रदेश के लेखकों को तो छोडिये अपने पड़ोसी लेखक की सक्रियता का अंदाजा भी नहीं लगा पाता| यह पता होता है कि फेसबुक पर आज किसने किसकी टांग खिचाई की लेकिन यह नहीं पता होता कि उसकी जो पुस्तक अभी प्रकाशित होकर आई है, उसका विषय वस्तु क्या है? परिदृश्य तो ऐसा भी बना दिया गया है कि यहाँ दूर-दूर तक समकालीन पत्रिकाएँ नहीं मिलेंगी आपको| वह ठिकाने, जहाँ पत्रिकाओं की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकती थीं या तो गायब हो गए या फिर लोग ऐसे स्थानों पर जाना ही छोड़ दिया| बहुत कम रचनाकार ऐसे हैं जिनके घर पर एक-दो पत्रिकाएँ आती हों तो आती हों, समय वह भी नहीं पाते होंगे पढने के लिए|  

पत्रिकाओं आदि की समृद्धि और विकास के लिए यह अपेक्षा की जाती है कि प्रबुद्ध वर्ग आएगा और पत्रिकाओं को क्रय करके ले जाएगा| जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है| यहाँ का अधिकांश बौद्धिक वर्ग यह मानता है कि यदि दूसरों को पढ़ेंगे तो उसका प्रभाव उस पर पड़ जाएगा| इस तरह वह उचित लेखन नहीं कर पाएगा| उसकी सारी साधना पर नकल का आरोप लग जाएगा| ऐसी मूर्ख सोच पहली बार हमें पंजाब में सुनने और देखने को मिलती है तो यथार्थ की परिकल्पना करिए आप कि सब कुछ कितना मूर्खतापूर्ण घटित हो रहा होगा? यहाँ के अधिकांश नए और वरिष्ठ रचनाकारों से वर्तमान पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री के विषय में जब आप जानना चाहेंगे तो वे उतनी ही निर्लज्जता से जवाब देंगे “समय ही कहाँ मिलता है|” “कौन पढ़ता है आजकल पत्रिकाओं को| व्यक्तिगत समस्याएँ वैसे ही परेशान करके रखी हुई हैं| अब वैसे भी पहले का ज़माना तो रहा नहीं|” यहीं से वह अपने अतीत-स्मृति में डूबता है तो जब तक आपको भी न डुबा कर गायब का करने का षड्यंत्र रच ले, संतोष नहीं मिलता|

समय नहीं मिलता लेकिन काम भी कोई नहीं होता| किसी की ईर्ष्या में किसी से संवाद करते हुए दो घंटे बिता देंगे| किसी को गिराने के लिए तमाम षड्यंत्र रचने में हफ्ता गुजार देंगे| किसी को उठाने के लिए (नीयत में तो यह है ही नहीं) एडी-छोटी का जोर लगाते हुए कई कई महीने व्यतीत कर देंगे लेकिन सही और सार्थक परिचर्चा नहीं करेंगे| किसी भी जूनियर अथवा सीनियर से चर्चा करते हुए चुगली तो करेगे अपने से विपक्ष में रहने वाले रचनाकारों की लेकिन किसी साहित्यिक प्रवृत्ति पर परिचर्चा न करने की जैसे कसमें खा रखे हों| पुरस्कार-दाताओं की परिक्रमा जरूर करते हुए दिखाई देंगे| कोई किसी बड़े की पुस्तक का प्रूफ करते हुए यहाँ दिख जाएंगे| संवाद और चर्चा के समय अलग रहना और करना दोनों उन्हें पसंद होता है| यही वजह है कि यहाँ का साहित्य अँधेरे में है और रचनाकार नेपथ्य में|

यहाँ कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं, दिन भर में आत्ममुग्धता से भरकर अपने प्रचार में दसों पोस्ट लगा देंगे लेकिन किसी सार्थक पुस्तक की चर्चा में दो शब्द में नहीं बोलेंगे| यह आत्मालाप की दुनिया इधर के दिन अधिक समृद्ध हुई है पंजाब के हिंदी साहित्य-दुनिया में, पहले ऐसा बहुत कम होता था| बड़े हस्ताक्षरों की उपस्थिति में छोटे हस्ताक्षर पूर्ण स्पेस पाते थे संवाद करने के लिए| इधर तो यदि पता चल जाए कि कनिष्ठ वरिष्ठं से किसी मायने में आगे हैं तो वरिष्ठ शिकार करने के लिए गोटियाँ बिछाने लगते हैं| शिकार न फँसा तो लोगों को भड़काने में लग जाते हैं| लोग नहीं भड़कता तो किसी न किसी षड्यंत्र में फांसने के लिए संघर्ष करने लगते हैं| यही संघर्ष यदि साहित्यिक सरोकारों के लिए हो परिदृश्य कितना उजला और समृद्ध हो, इसकी परिकल्पना सहज ही की जा सकती है|

देश के तमाम अंचलों में सक्रिय साहित्यिक संवाद होता है/ हो रहा है| हमारे यहाँ उसकी परिकल्पना करना भी बेकार है| कारण कि कोई भी साहित्यकार अगले साहित्यकार के साथ व्यावहारिक नहीं है| अन्य जगहों पर पाठक या श्रोता बचे रहते हैं यहाँ तो उन्हें भी बाँट लिया जाता है| पाठक या श्रोता भी अच्छे की उम्मीद में रचनाकारों से संवाद नहीं स्थापित करते| सही को सही और गलत को गलत कहने से हर समय जैसे डरते रहते हैं| अब उनके हिस्से ये डर क्यों है यह तो वही जानें| मैं यदि कुछ जानता हूँ तो इतना भर कि उन्हें डर होता है कि आयोजक/संयोजक/प्रायोजक नेक्स्ट कार्यक्रम में बुलाने से मना कर देगा| कोई पुरस्कार बंटेगा तो उसका हिस्सा नहीं लगेगा| हालांकि ऐसी प्रवृत्ति हर अंचल की बन चली है लेकिन इधर कुछ अधिक ही है| यही अधिकता साहित्यिक संवाद में बाधा बन रही है| जानते सभी हैं लेकिन सोचता कोई नहीं|

अन्य अंचलों में रचनाकारों में लड़ाई होती है तो विमर्श केन्द्रित होती है अथवा वैचारिकता से सम्बन्धित होती है| यहाँ व्यक्तिगत हानि-लाभ के लिए लोग लड़ते हैं| छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते हैं| यहाँ बड़ा दिखने और होने के लिए लोग लड़ते हैं| ऐसे परिदृश्य में यहाँ हर कोई स्वयं को नामवर सिंह से वरिष्ठ मानकर चलता है लेकिन जब बात गुणवत्ता आदि की आती है तो एकदम फिसड्डी साबित होते हैं| यहाँ का साहित्यिक माहौल यही है और इसी में यहाँ के लोग जी रहे हैं| यदि ये एक दूसरे की टांग खिंचाई न करें तो इनका पेट तक न भरे| यही यहाँ की विशेष साहित्यिक प्रवृत्ति है| यह कहा जाता है कि जिनके पास कहने और लिखने के लिए कुछ नहीं होता वही ऐसे परिवेश-निर्माण में सहायक होते हैं, अब इनके विषय में सच्चाई क्या है? यह समझने और सोचने का विषय है|  

यहाँ की सामान्य चर्चा भी हाई-फाई होती है जिसमें केवल व्यक्तिगत छींटाकसी को शामिल किया जाता है| साहित्यकार होते हैं लेकिन साहित्य नहीं होता| कवि होते हैं कविता नहीं होती| कथाकार होते हैं कहानियां नहीं होती| उपन्यासकार होते हैं उपन्यास नहीं होता| सम्पादक होते हैं सम्पादकीय दृष्टि नहीं होती| सवाल आप यह कर सकते हैं कि तो फिर होता क्या है? मेरा जवाब होगा कि मूर्खताएं, जो लोग अक्सर दूसरे को नीचा दिखाने के लिए करते रहते हैं| गुरु बहुत हैं यहाँ शिष्य नहीं हैं| सिखाने वाले की भीड़ है सीखने वालों का अकाल है| सीनियर हैं जूनियर नहीं हैं| दरअसल यहाँ के खामियों-खूबियों का समीकरण भी संतुलित नहीं है|  

कविता विधा की बात करें तो अधिकांश कवियों के पास कोई कविता नहीं है| अतीत-मुग्धता की थाती से समृद्ध यहाँ की बड़ी संख्या ऐसी है जिनके पास न तो उनका अपना परिवेश है और न ही तो उनका अपना समाज| राजनीति आदि विमर्शों पर पूरी तरह गायब यहाँ के अधिकांश रचनाकार या तो गमलों को संजोने में खपते रहते हैं या फिर ग्लैमरस वर्ल्ड का हिस्सा बन स्वयं को सजाने-संवारने में| कविता स्वयं में एक सौंदर्य है, यह आभास उनको नहीं होता| व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं में रमें रहने वाले अधिकांश रचनाकारों के यहाँ जीवन का सौंदर्य, धरती का सौंदर्य, श्रम का सौंदर्य नदारद मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए|

ऐसा भी नहीं है कि अच्छे रचनाकार हैं नहीं यहाँ पर लेकिन फर्जीवाड़े की भीड़ में अच्छे रचनाकारों की उपस्थिति आसानी से महसूस नहीं होती| ऐसा होने के पीछे कारण यह है कि एक तो हम भीड़ को ही इन दिनों वास्तविक मान ले रहे हैं, दूसरे जिस परिवेश में हम रह रहे होते हैं उसके आगे सोचने और देखने की कोशिश नहीं करते| पंजाब का जालंधर तो अपनी विशेष साहित्यिक षड्यंत्रों की वजह से जाना जाता है लेकिन उसके बाहर अच्छे रचनाकारों की अच्छी फेहरिस्त है| अमृतसर, मोगा, पठानकोट, लुधियाना, खन्ना जैसे शहरों में अच्छे रचनाकार हैं जो गंभीरता से कार्य कर रहे हैं| जालंधर में भी कुछ विशेष रचनाकार हैं जो इधर बहुत अच्छा कर रहे हैं लेकिन जोड़-जुगाड़ की राजनीति में दिन-रात रमे लोगों की वहज से वह छवि निर्मित नहीं हो पा रही है, जो वास्त्विक्तः होनी चाहिए|

लगने को यह लोगों को लग सकता है कि यह लेखक की कुंठा है| परिवेश इस तरह का हो ही नहीं सकता लेकिन सच्चाई यही है| फेसबुक पर उम्र और चेहरों को देखकर विद्वान होने का भ्रम पालने की बजाय वास्तविक यथार्थ को देखने और समझने की कोशिश करेंगे तो सब सामने आ जाएगा| वर्तमान समय में जैसी हालात देश की है और यहाँ का भी, रचनाकारों से कुछ लेना-देना नहीं है| कोविड के इस भयंकर दौर में भी प्रेम और श्रृंगार की कविताएँ लिखी जा रही हैं और प्रेम कविताओं के संग्रह आ रहे हैं तो कितनी गंभीरता होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है| पड़ोस में मृत्यु तांडव कर रही है और रचनाकार प्रिय मिलन की आश लिए वियोग-संयोग की रचनाएँ लिखने में अस्त-व्यस्त है, यही सच है और यही यथार्थ है| यहाँ जनसंवेदना की बात करना मोदी विरोधी होना है| रचना में यथार्थ की मांग करना वामपंथी होना है| फिलहाल हिंदी में जो वामपंथी हैं यहाँ के उनकी अपनी खुद की कोई सार्थक ज़मीन नहीं है| विचार-प्रसार की जगह पुस्तकों को भंडारण करने में व्यस्त हैं|

सेल्फी के इस दौर में विमर्शात्मक-सम्वाद की मांग करना यहाँ विशेष प्रकार का पागलपन समझा जाने लगा है| संस्थाएं थोक भाव में बनी हैं जिनका उद्देश्य महज पुस्तकों का लोकार्पण करना और अपनों को खुश रखना है| लोकल अख़बार तीन लोगों के बीच हुए आपसी बातचीत को भी राष्ट्रीय-संगोष्ठी बनाकर प्रस्तुत कर देते हैं क्योंकि जो खबर होता है उनके द्वारा नहीं लेखकों द्वारा तैयार प्रेस-नोट होता है| वास्तविक परिचर्चाओं को इसलिए प्रकाशित करने से मना कर देते हैं कि उसका आयोजक या संयोजक उनसे जुड़ा नहीं होता| जो दीखता है वही बिकता है यह उक्ति यहाँ के लिए एकदम फिट है| एक साहित्यिक और समझदार व्यक्तित्व अपनी रचनाओं पर किसी पाठक की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करता रहता है और एक मीडियाकर रचनाकार लोगों से कहकर स्वयं लिखवा लेता है और फेसबुक पर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ साझा करके तीस मार खान बना फिरता है| ऐसा अभी बहुत कुछ है जो कहा जा सकता है लेकिन कहने का भी अपना एक दायरा होता है| पंजाब का वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य सही अर्थों में किसी विशेष नेतृत्व की तलाश कर रहा है, वह नेतृत्व कब पूरा होगा, यह इन्तजार और इन्तजार का विषय है| फिलहाल तो अच्छे दिन आएँगे, इस उम्मीद के साथ यहाँ के अच्छे रचनाकार अब धीरे-धीरे प्रकाश में आना शुरू हो गए हैं|

 


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