Monday 7 September 2015

कुछ समझ न आया...........


मन-मंदिर में
बसे सुमन
अब कांटे बनकर उभर रहे 
खा खाकर ठोकर
जीवन की
अनसुलझे से हम सुधर रहे
बचपन था
कुछ समझ न थी
समझ बढ़ी
हम जवान हुए
दुनिया का दायरा बढ़ा जरा
जब मुझसे
अपने मेरे अनजान हुए
सब कहते रहे
तुम बिगड़ रहे
हम समझते रहे न है ऐसा
वे संसाधन हैं कहाँ मुझमें
सब लोग समझते हैं जैसा
ये प्रश्न भी आज अकेली है
ये बात भी अब तक पहेली है
नहीं पता चला मुझे
हम बिगड़ रहे या सुधर रहे
तिल तिलकर जीना
जीवन को
जीने का हमने अर्थ लिया
सुख साधन सब
संशय में रहे
यह जीवन मुझको
व्यर्थ मिला
थोडा भी मिला
हम ख़ुशी रहे
कुछ ना भी मिला
हम सुखी रहे
सबका कहना है
हम बने ठने
हम ठनने बनने में
उजड़ रहे
कुछ बात भी थी
अब क्या बोलूं
कुछ राज भी थे
अब क्या खोलूँ
कुछ दुःख भी था
किसको कह दूं
कुछ सुख भी है
किसको दे दूं
यह लेन देन का सफ़र जटिल
खुद से सुन
खुद ही ले लूं
शायद जाऊं सुधर अभी
लोग कहते रहें
हम बिगड़ रहे |