Thursday 28 April 2016

आलोचना का भविष्य उज्जवल है, ऐसा मेरा प्रबल मत है (साहित्य के यथार्थ स्थिति पर डॉ० जयशंकर शुक्ल जी से एक साक्षात्कार)




   वर्तमान समय में साहित्य में यथार्थ की बातें की जा रही हैं ; क्या हिंदी साहित्य में यथार्थ की दृष्टि से पूर्ववर्ती मध्यकाल या आदिकाल का अध्ययन नहीं किया जा सकता?
  अनिल जी आपका यह प्रश्न अपने आपमें एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है | इसमें एक आन्दोलन की सूत्रपात को महसूसा जा सकता है | साहित्य को निरूपित करने वाले सोपानों में प्रमुखतया कथ्य, शिल्प एवं शैली महत्वपूर्ण हैं | आपका प्रश्न कथ्य केन्द्रित है | वास्तव में जब हम कथ्य का शाब्दिक अर्थ देखते हैं तो वह है–यथा-अर्थ | जिसका अभिप्राय है, जैसा देखा, जाना, समझा, महसूसा जाय वैसा अर्थ | अब यह निर्धारण साहित्य के कर्ता पर जाकर रुकता है कि वह तथ्यों, सूचनाओं, सारणियों, सत्यों को किस तरह अनुभव करके अपने अनुभूति को कहाँ, कैसे, कब निरूपित करता है | उसे अपने निरूपण में अब कथ्य को किसी शिल्प व शैली में बांधना होता है | हिंदी साहित्य की प्रमुख विधाएँ, गद्य, पद्य, एवं मिश्रित (चम्पू) मानी जा सकती है | अब इन विधाओं के विविध रूपों पर विमर्श करने पर हमारे सामने शैलियों का प्राकट्य होता है | अनिल जी यथार्थ की चर्चा में हम गल्प एवं कल्पना को नजर अंदाज नहीं कर सकते | पूर्ववर्ती मध्यकाल अथवा आदिकाल में लेखन का स्वरुप हमे ध्यान से विवेचित करना होगा | उन  काल खण्डों में रचनाकार हमेशा की तरह दो प्रकार के रहे हैं, एक राज्याश्रयी रचनाकार तथा दूसरे स्वतंत्र व जन धर्मी साहित्यकार |
        अब इन कोटियों में यथार्थ चित्रण की जब हम बातें करते हैं तो दोनों ही यथार्थ का सटीक चित्रण करते हैं ; वह यथार्थ जो उन्होंने अनुभव किया है | राज्याश्रयी रचनाकार जहां शासन सत्ता के लिए विरुदावलियाँ तैयार करते रहे वहीँ लोक कवि आम जनता के बीच रहकर उसका यथार्थ निरूपित करते रहे | आज के दौर में उस काल का मूल्यांकन करें तो रासो के रचनाकार हों या जयदेव, विहारी, खुसरो अपने अपने कथ्यों के माध्यम से अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं, यह जन मूल्यांकन में अहसास किया जा सकता है | इन काल खण्डों के कवियों की कालजयिता आज भी अनुकरणीय बनी हुई है | विभिन्न विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों के अंतर्गत उनकी स्वीकार्यता उनके सार्वभौमिकता को बताती है, जो यथार्थता का पर्याय है | हाँ कल्पनाशीलता, अभिव्यंजना, गल्प, विवेचना, विवरण, संवेदनशीलता का अंकन/ चित्रण/ आरेखन रचनाकार द्वारा शब्द गुणों तथा शब्द शक्तियों के माध्यम से किया जाता रहा है | आज के परिदृश्य में यह कोई नया शब्द नहीं है | हाँ कुछ नव साहित्यकारों ने अपनी पहचान को विशेषी कृत करने हेतु जिस प्रकार से विविध विमर्शो का प्रचालन किया है, यथार्थ का नव-उद्भव उसी का एक हिस्सा मात्र है और कुछ नहीं |
    समकालीन काव्यधारा में आप यथार्थ को किस दृष्टि से देखते हैं? विशेषकर ऐसे समय में जबकि लोग साहित्य से ही सबकुछ पाने की अपेक्षा कर रहे हैं ?
   अनिल जी सबसे पहले तो समकालीनता को ही परिभाषित करने की आवश्यकता है | वस्तुतः काव्य आन्दोलन में समकालीनता एक युगबोध को एक काल खण्ड को निरूपित/व्यंजित करता है | 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में हुई बैठक | सभा में रचनाधर्मियों द्वारा स्वयं के लिए निर्धारित मानकों एवं भारतीय साहित्य को विश्व साहित्य के साथ जोड़ने के प्रयासों को प्रमुखता से सूचीबद्ध किया गया | यहीं से उत्तर छायावाद जो कि बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल तथा जानकी वल्लभ शास्त्री, शिवमंगल सिंह सुमन के सहभागिता में एक नवीन आन्दोलन के रूप में आता है और यहीं से निराला को अपना आदर्श मानते हुए काव्य की एक नवधारा का सूत्रपात होता है जो केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह के प्रतिनिधित्व में प्रगतिशील काव्य आन्दोलन के रूप में जानी जाती है | यह धारा अज्ञेय के द्वारा तारसप्तक व प्रतीक के संपादन के साथ प्रयोगवादी काव्य आन्दोलन में परिवर्तित हो गयी जहां इसमें – रामविलाश, प्रभाकर माचवे, गिरिजा प्रसाद माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र आदि की भूमिका प्रमुख रही | जगदीश गुप्त के नई कविता नाम देने तक यह आन्दोलन अबाध गति से चलता रहा | इसी के सामानांतर नवगीत का आन्दोलन भी सत्वर गति से आगे बढती रही जिसमे काशी की “नवेगीत की नौका” गोष्ठी 1951 में तथा तथा 1953 में “गीतम” का प्रकाशन वीरेन्द्र मिश्र द्वारा तथा साहित्य सम्मलेन इलाहबाद में नए क्राफ्ट पर सेमिनार में वीरेन्द्र वीरेन्द्र मिश्र का काव्य पाठ व आलेख पाठ प्रमुख रूप से देखा जा सकता है | 1958 में गीतांगिनी द्वारा राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा 1964 में “कविता 64” द्वारा ओम प्रभावर ने इस आन्दोलन को आगे बढाया | इसी के साथ साथ नयी कविता के उपरान्त साठोत्तरी कविता तथा उसके बाद समकालीन काव्य की स्थिति आती है | अनिल जी आप किस समकालीनता की बात कर रहे हैं ; कालखण्ड या युगबोध को प्रदर्शित करती काव्य रचनाएँ या आज के सन्दर्भ को व्यंजित करता काव्य लोक |
       यदि सन्दर्भ आज का है, तो आज का काव्य परिवेश यथार्थ का आग्रही है | वह यथार्थतन केवल कथ्य में वरन् शिल्प, भाषा, भाव, प्रतीक, बिम्ब, शैली सब में यथार्थता का अनुमोदन मांगता है | दूसरे शब्दों में इसे नवता का पर्याय भी कह सकते हैं | जो यथार्थ की विशेषताओं, इसके प्रारूपों व इसकी विवेचनाओं को नहीं पकड़ पायेगा वह स्वयं को अधिक दूर तक जाने की ऊर्जा नहीं दे सकता | वह पुरातन व अतीत में खो जाने की भयावहता से से भी अनुप्राणित हो सकता है | अतः यथार्थ प्रमुख मांग है ; जो रचनाकार के लिए परम आवश्यक है |
  स्वतंत्रता पूर्व के हिन्दी साहित्य में किस तरह की स्थितियां कथ्य में रहीं, क्या आज के साहित्य का मूलस्वर राष्ट्रीय चेतना से आगे कुछ कहने में सक्षम हो सका है ?
 स्वतंत्रता पूर्व के हिंदी साहित्य में इसका प्रमुख स्वर, शोषण, दमन, अशिक्षा, बेकारी, गरीबी के प्रति आक्रोश, के रूप में रहा | उस काल में साहित्यिक चेतना से अनुप्राणित रचना धर्मियों की पुस्तकों, पत्रिकाओं, पत्रों को जब्त करने से लेकर उन्हें जेल भेजने तक की घटनाएँ सामने आती हैं | हिन्दी साहित्य के समानांतर चलने वाली अन्य साहित्यिक धाराओं-आन्दोलनों ने भी इस तरह के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया | बांग्ला साहित्य, मराठी साहित्य, अवधी व व्रज जैसे आंचलिक भाषाओँ के साहित्य में इस तरह की रचनाधर्मिता की छाप देखी जा सकती है | यह बात अलग है कि उनमे से बहुत कुछ अब भी शोध, अनुसंधान, प्रकाशन, प्रसारण की बाट जोह रहा है |
        स्वतंत्रता पूर्व के गद्य साहित्य में नई जोश व उमंग देखने को मिलता है | काव्य में इसकी विभिन्न धाराओं में से मंच की धारा तो विपुल रूप से राष्ट्रवादी रचनाओं की वाहक रही | वहीँ अकादमी काव्य धारा के प्रवर्तकों ने उस समय अपनी सामर्थ्य भर लेखन किया | अज्ञेय अपने लेखन के कारण ही जेल में ठूंस दिए गए | जैनेन्द्र ने उनकी प्रथम कहानी प्रकाशन में प्रेमचंद को उनका उपनाम अज्ञेय अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों से बचने के लिए ही सुझाया था |
        स्थितियां आज भी कमोवेश वैसी ही हैं | मंच व गंभीर लेखन के प्रति राष्ट्रवाद जहां काव्य में झूल रहा है वहीँ गद्य में यह वामपंथ एवं दक्षिणपंथ की खांचों में विभक्त हो शिशक रहा है | आज राष्ट्र या राष्ट्रधर्म की बात कहने वाला साहित्य के बंटे हुए गिरोहों के मध्य में अस्पृश्य हो जाता है | परंपरा आज तिरोहित की जा रही है | अतीत को कोशना फैसन बन गया है | नैतिकता का श्राद्ध करने वाले कुछ गिरोहबद्ध रचनाकारों ने नग्नता को अपनी पहचान बना ली है | अनिल जी आज का परिदृश्य विषाक्त हो गया है | जीवन-मूल्यों की बात करने वाला आज प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि धर्म, संस्कृति, सभ्यता और संस्कार को गली देने वाले महिमामंडित हो रहे हैं | साहित्य के इन सरोकारों के आधार पर व्यक्ति, समाज, समूह, समुदाय, कवि, लेखक ही नहीं बल्कि संस्थाएं, सरकार, सत्ता में भी अलग-अलग बंखारा हो गया है | चयन व वितरण के मानदण्ड रचनापरक नहीं वरन व्यक्ति परक हो गया है | तब से अब तक हमने इतनी प्रगति की है अनिल जी |
   शुक्ल जी, आपकी दृष्टि में जनसामान्य की अपेक्षाओं को यथार्थ-धरातल पर रखने का प्रयास साहित्य की किस विधा में सबसे अधिक दिखाई देता है?
   अनिल जी विधा का चयन न केवल रचनाकार का विशेषाधिकार है वरंन् यह कथ्य केन्द्रित भी होता है | कहानी, लघुकथा, उपन्यास तीनों का शिल्प अलग अलग होते हुए भी मूल में सूक्ष्म से विराट की ओर एक यात्रा है | इसी तरह से हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं और रूपों के लिए कहा जा सकता है | कविता, कहानी, लघुकथा, लेख, साक्षात्कार, जीवनी, डायरी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, संस्मरण, रिपोर्ताज, निबंध पत्र, समीक्षा आदि सभी विधाएँ अपने आप में पूर्ण भी हैं, सम्बंधित भी हैं तथा अवलम्बित भी हैं | यथार्थ के धरातल पर विधा की कसौटी रचनाकार की दक्षता पर निर्भर करता है | एक लोक गायक जन जन का नायक होता है | प्रेमचन्द जैसा कालजयी रचनाकार हो तो कहानियाँ युग प्रवर्तक ही होंगी | निराला का स्पर्श पाकर शब्द आन्दोलन बन जाएंगें | आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लेखनी हो तो आलोचना, निबंध व इतिहास वार्तालाप करते नजर आएगें | प्रसाद की कलम ऐतिहासिक पात्रों को नाटकों से न केवल जीवित करती हैं वरन कामायनी जैसी कृति द्वारा युग प्रवर्तक महाकाव्य का सृजन करती है |
           ये सभी रचनाएँ यथार्थ के धरातल पर संदर्भित हैं | अनिल जी विधा नहीं कथ्य, शिल्प व शैली के साथ साथ रचनाकार की योग्यता, क्षमता, दक्षता, प्रयोगकारिता सभी कुछ मिल कर प्रभावी व श्रेष्ठ बनते हैं | यदि आप मेरी दृष्टि से इसका उत्तर चाहते हैं तो यह कविता में ज्यादा सहज रूप से सम्भव है |

  
 आज का साहित्य विभिन्न अर्थों में बंटा हुआ है ; इस स्थिति में आलोचना विधा के भविष्य को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे ?
 मैं आपके प्रश्न की भाषा से सहमत नहीं हूँ मित्र | साहित्य ज्ञान का अखण्ड स्वरुप है | और ज्ञान विभाजित नहीं किया जा सकता | हाँ, अपनी सुविधा और अवसरवादिता के कारण कुछ साहित्यकारों ने अपने अपने गिरोह बना लिए हैं | विभिन्न पंथों, वादों, ध्रुवों, खण्डों, क्षेत्रों, अंचलों, जातियों, सम्प्रदायों, समूहों, प्रान्तों के नाम, स्थान व स्वरुप में बंटे रचनाकारों ने आज अपने कृत्यों से साहित्य को न केवल मर्माहत किया है अपितु शर्मिंदा कर आहत भी किया है | आज पत्र-पत्रिकाओं के निर्धारण कर्ता में गिरोह बंद रचनाकार/ संपादक/ प्रकाशक/ आलोचक/ प्राध्यापक हो गए हैं | देश के विश्वविद्यालयों का उत्तर या दक्षिण खेमों में बँटना किस कोण से सही कहा जाएगा | लेखन से लेकर संपादन, समीक्षण, प्रकाशन तक में साहित्य के ये एजेंट सक्रिय हैं | विभागीय नियुक्तियों से लेकर प्रोन्नति तक में इनकी दादागिरी चलती है | अब इस स्थिति में भयावहता का अंदाजा आप बखूबी लगा सकते हैं, अनिल जी |
         आपके प्रश्न के दूसरे भाग आलोचना पर विचार करने पर वह अपने परिवेश से प्रभावित/ संक्रमित है | आज आलोचना प्रायोजित हो गयी है | बनारस हिन्दी विश्वविद्यालय के ख्यातिलब्ध महान साहित्यकार व रचना, शोध, आलोचना के शिखर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी अपने रचनाधर्मिता के लिए समर्पित रहे | आलोचना में पारदर्शिता के पक्षधर द्विवेदी जी ने नये प्रतिमानों का सृजन किया | बाद के कालखण्डों में उन्हीं के प्रिय शिष्य नामवर सिंह ने सारे परिदृश्य का वितान ही बदल के रख दिया | क्या कविता, क्या कहानी सभी कुछ नव्यता के पक्षधरों में अपने ढंग से व्यंजित करने में पूरे मानकों को प्रतिष्ठापित कर दिया | काव्यशास्त्र को निकाल कर समाज शास्त्र का प्रयोग, नैतिक मूल्यों की जगंह पर यथार्थ के गोपन पलों का वीभत्स चित्रण बन गयी है | और तो और लेखक, कवि अपनी शर्तों पर समीक्षा लिखने लिखवाने लगे तथा प्रकाशक उसे अपने मानकों पर छापने लगे | पत्र-पत्रिकाओं ने खुले तौर पर साहित्यकारों व विधाओं का बहिस्कार कर रखा है | ये सभी कुछ क्या गौरव के विषय हो सकते हैं |
       नहीं कदापि नहीं | तो आलोचना को नए उपकरणों व मानकों पर आधारित कर इसे इसके समग्र स्वरूप में स्वीकार यदि नहीं किया जाता तो यह विधा मृत हो जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं |  
 कहीं ऐसा तो नहीं कि आलोचना का ही अंत होने वाला हो ?
 भाई कभी भी बीज का नाश नहीं होता | जिस प्रकार बादलों के ढहने पर सूर्य देदीप्यमान हो उठता है, जिस प्रकार राख हटने पर दहकता हुआ कोयला अंगारे के समान उद्भाषित हो उठता है या जेर से आच्छादित गर्म जेर के हटने पर अपना स्वरुप संसार के समक्ष जाता है ठीक उसी प्रकार से जब प्रायोजन का तिलस्म टूट जाएगा, जब गिरोह बंदी की जंजीरें छूट जाएगी तथा जब पारदर्शी व तटस्थ आलोचना की आवश्यकता होगी तब वह अपने मूल को लेकर उपस्थित हो उठेगी |
      अनिल जी आज भी सच्चे, खेमा रहित आलोचक हैं पर वे सामने नहीं आ पा रहे हैं | एक बात और आलोचना की विधा में कलम चलाकर श्रेय एवं प्रेय प्राप्त करने वाले रचनाकार जब स्वयं विधा और साहित्य से ऊंचे हो जाते हैं तब यह समस्या ज्यादा विकराल होने लगती है | मान-सम्मान-पद-प्रतिष्ठा जिस विधा ने लोगों को प्रदान किया बाद में उन्होंने अपने आपको स्वयं भू-साहित्य चिन्तक, निर्माता, विचारक, विद्वान घोषित कर दिया | ऐसे छद्म विद्वानों ने आज स्थिति लाने के दोषी हैं | विभिन्न तरह की संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, अकादमियों, पुरस्कार समितियों आदि में इनकी सक्रियता साहित्य व साहित्यकारों के लिए प्रेरक न बनकर अभिशाप बनता जा रहा है |
         एक बात और सर्वमान्य मानकों तथा तथा आलोचना के उपकरणों का अभाव भी इसका एक प्रमुख कारण है | आज एक ही मानक पर समान तरह के उपकरणों द्वारा कविता, कहानी, लघुकथा, निबंध, आत्मकथा, डायरी, रिपोर्ताज उपन्यास आदि सभी की आलोचना की जा रही है, जो दुर्भाग्य पूर्ण है | रचनाकार प्रतिकूल टिप्पणियां सुनने के लिए तैयार नहीं है तथा दूसरी तरफ आलोचक संतुलन बिठाने में नाकाम सिद्ध हो रहा है, रिव्यू पैनल भी पत्रिकाओं के निहित स्वार्थ सिद्धि के साधन बनते जा रहे हैं | आज पंथों व खेमों में बैठे साहित्यालोचक किसी भी रचनाकार को उसकी एक पंक्ति के सन्दर्भ हीन आधार पर उसे किसी एक खेमे का सिद्ध करने को प्रतिबद्ध है | आज नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों को लांक्षित करना, महापुरुषों को अशोभनीय शब्दों से तिरस्कृत करना, अतीत को नकार कर गैर देशों की मान्यताओं का गुणगान करना एक प्रचलन बनता जा रहा है |
          इसके बाद भी आलोचना का भविष्य उज्जवल है, ऐसा मेरा प्रबल मत है |
 वर्तमान में साहित्य के सन्दर्भ में यदि विमर्शों की बात की जाय तो क्या साहित्य को विभाजित करना उचित है?
 भाई अनिल जी आपके इस प्रश्न का उत्तर मैंने प्रकारांत से पूर्व प्रश्नों का उत्तर देते हुए काफी हद तक देने का प्रयास किया है | विमर्श स्वयं को अलग पहचान देने की कोशिश मात्र है और कुछ नहीं| मेरे विचार से साहित्य का यह विभाजन साहित्य का नहीं वरन् साहित्यकारों का है | लोगों ने स्वयं के लिए केंद्र व परिधि का निर्धारण कर उसके अनुरूप दायरे में बंधकर साहित्य लेखन का निश्चय किया है |
       जब हम स्त्री-विमर्श की बात करते हैं तो इसका दो अर्थ हो सकता है | पहला स्त्री व स्त्रीजन्य संवेदनाओं को केंद्र में रखकर लेखन कर्ता तथा दूसरा अर्थ होता है स्त्री लेखिकाओं का समूह| पहला अर्थ समग्र है तथा दूसरा अर्थ संकुचित | यही अभिप्राय दलित विमर्श को लेकर भी दिया जा रहा है |
        अनिल जी साहित्य का विभाजन वह चाहे विषय, कथ्य, शिल्प, शैली, भाषा, जाति, पंथ, अंचल, संप्रदाय किसी भी को लेकर हो स्वीकार नहीं किया जा सकता | अब तो यह पुरातन व नवीन में भी बंट रहा है | विमर्श शब्द अपने आपमें बहुत भ्रामक है और उससे भी विचित्र है इसका साहित्य में विभाजन हेतु प्रयोग | मैं यह विभाजन किसी भी कोण से उचित नहीं मानता |
 डॉ० जयशंकर शुक्ल जी तो फिर भी स्वानुभूति और सहानुभूति के प्रश्न पर आपका क्या विचार है ; क्या ये साहित्य में प्रासंगिक है ?
 अनिल कुमार पाण्डेय जी आपका प्रश्न एक बड़े बहस को जन्म देता है | वास्तव में ये दोनों शब्द अपने साथ एक विचार, एक परंपरा, तथा एक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं | शाब्दिक अर्थ ग्रहण करें तो स्वानुभूति जहां एकांगी है, निजी है, व्यक्तिगत/व्यहिरगत हैं वहीँ सहानुभूति सापेक्ष है, सार्वजनिक है और समष्टिगत है| साहित्य मूलतः इन्हीं दोनों का समुच्चय है | प्रारंभ से ही साहित्य इन्हीं दोनों शब्दों पर टिका हुआ है|
         सम्पूर्ण वैदिक व उत्तर वैदिक वांग्मय स्वानुभूति पर निर्भर करता है, लेकिन जब हम उसकी व्याख्या करते हैं तो वह अपने विशद सन्दर्भों में हमारे सामने व्यंजित होता है | मूलतः वह परंपरा आज भी उसी रूप में जारी है | लेखक अपने अनुभवों से ही अपने रचना संसार का सृजन करता है | स्वानुभूति इस मायने में विशेष प्राभावी हो जाती है | सत्य को हम अनुभव कर सकते हैं यह शब्द में नहीं वरन अर्थ में होता है | अनुभव को ही स्वानुभूति कह सकते हैं | व्यापक फलक पर हमारा चिंतन हमारे ‘स्व’ से प्रारंभ होकर ‘पर’ पर विराम पाता है |
         एक लेखक को इन दोनों के मध्य संतुलन स्थापित करना अति आवश्यक होता है| हमें क्यों लिखना है यह जानने से पूर्व क्या नहीं लिखना है इसे जानना ज्यादा जरूरी है | इसी तरह से विचार के धरातल पर भी जाने हैं | भाई सहानुभूति हमारी आपके साथ हो सकती है लेकिन स्वानुभूति तो हमारी अपने साथ ही होगी ; हाँ प्रेरक के रूप में अन्य उपादान हो सकते हैं |
 डॉ० साहब क्या साहित्य में रोजी रोटी के अतिरिक्त भी कुछ है, जिसे संदर्भित करने की आवश्यकता हो ?
मित्र आपका प्रश्न समीचीन तो है पर इसकी भाषा अधूरी है | “रोजी रोटी का साहित्य में सन्दर्भ” इस वाक्यांश का स्वयं सन्दर्भ निश्चित करना होगा | भाई साहित्य में स्वप्रेरित रोजी रोटी, विषय के रूप में रोजी रोटी, अथवा साहित्य से रोजी रोटी, लेखन, संपादन, प्रकाशन, विपणन द्वारा रोजी रोटी यह स्पष्ट नहीं किया आपने | खैर, मैं दोनों ही दृष्टियों से इसका उत्तर देना चाहूँगा | प्रथम में दोनों विधाओं में रचनाकार विषय चयन में रोजी-रोटी को केंद्र में रखकर लेखन करें-अर्थात् औद्योगीकरण, शहरीकरण, आधुनिकीकरण आदि पर केन्द्रित विषय-वस्तु का चयन, विवेचन तथा लेखन | इसी के साथ इन प्रतिवादी सोपानों के कारण गांवों का क्षरण, समाज का टूटन, नए समाज का निर्माण, परिणाम स्वरुप संस्कृतियों का टकराव, सेक्स व हिंसा का नवीन आगाज, परिवार नामक संस्था का टूटन, तलाक, सह-वास सम्बन्ध (live in), अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार को नए आयाम देती व्यवस्था उक्त सभी रोजी रोटी से ही जुड़ती नजर आती है | ऐसे में हम यदि युग, देश, काल, परिस्थितियो के अनुसार लेखन करते हैं तो उस साहित्य रुपी दर्पण में समाज अपना स्वयं का चेहरा देख सकता है | यदि लेखन व लेखक की सफलता का राज भी है | भाषा, शिल्प, विचार सभी कुछ आज के हिसाब से होना चाहिए |

       पुरातन का मिथ्या दम्भ व जयगान अप्रासंगिक व त्याज्य है ; अतीत पर गर्व करें, पूजें पर लेखन में सोच समझकर प्रयोग करें | रोजी रोटी जैसे शब्द के द्वारा आपने विषय वस्तु सम्बन्धी बात करने को मुझे विवश किया आभार ! दूसरे फलक पर साहित्य के द्वारा कमाई यह लेखन, संपादन, प्रकाशन, पुरस्कारादि के द्वारा देखा जा सकता है | मित्र साहित्य को प्रासंगिक रहना है, लेखन व लेखक को फुल टाइम साहित्य सेवा करके परिवार का भरण-पोषण करना है ; यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है | जापान, जर्मनी, फ़्रांस जैसे देशों में एक शोध-आलेख छप जाने पर लेखक को इतना कुछ मिलता है, जिसके प्रभाव से वह वर्ष भर अपना जीवन यापन आर्थिक रूप से कर सकता है | अंग्रेजी भाषा के लेखक व लेखन आज समाज में ‘आइकान’ बने हुए हैं इसी स्थिति को हिंदी साहित्य में स्थापित करने की आवश्यकता है | रोजी रोटी के अतिरिक्त बहुत कुछ है पर वह इसी से समर्पित व संदर्भित्त है| कहा भी गया है, “भूखे भजन न होय कृपाला |”
 डॉ० साहब आज बहुत से रचनाकार गुमनामी में खो रहे हैं, गुमनाम हो रहे हैं ; यदि ऐसा है तो इसकी वजह क्या है ?
: अनिल कुमार पाण्डेय जी आपके प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं एक शोध-निष्कर्ष की चर्चा करना चाहूँगा | लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान वि वि के पूर्व कुलपति प्रो० डॉ० राधावल्लभ त्रिपाठी ने एक शोध किया जिसके द्वारा उन्होंने कालिदास के समकालीन लगभग 452 कवियों, उनकी रचनाओं, उनकी प्रवृत्तियों को ढूंढ निकाला | अब उक्त शोध के आलोक में आप सोच सकते हैं कि ये गुमनामी अब या आज हो ऐसा नहीं है | अब रही बात आज के कालखण्ड में सक्रिय/निष्क्रिय रचनाकारों के गुमनामीं का तो आपके प्रश्नों का उत्तर विविध परिप्रेक्ष्यों में देना चाहूँगा-
     भाई रचनाकार या रचनाएँ कालजयी तभी होती हैं, जब वे युग की आवाज को स्वर दे, यदि तत्कालीन परिस्थितियों, युगानुरूप विचार श्रृंखलाओं, देशकाल वातावरण केन्द्रित कथ्यों, विविधता पूर्ण शिल्प तथा भाषा का प्रयोग रचनाकार करने में समर्थ है, तो वह अपनी जगह बना लेगा इसमें कोई दो राय नहीं है | गोस्वामी तुलसीदास जी सार्वकालिक महान व विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं | उनकी उक्त उक्ति को सन्दर्भ रूप में व्यक्त करने वाले रचनाकारों को बार बार सोचने की जरूरत है कि क्या वे दीमकों के लिख रहे हैं | स्वान्तः सुखाय का उद्घोष करने वाले ज्यादातर लोग अपनी गुमनामी के लिए स्वतः जिम्मेदार हैं ऐसा मेरा मत है |
       लेखन के लिए विषय व विधा का चयन अत्यन्त आवश्यक है, जो श्रमसाध्य है | हम आज शार्टकट ढूंढ़ते हैं | सफलता हेतु किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं ; यहीं से हमारी दुर्गति शुरू हो जाती है | रचनाकारों का यश उनकी रचनाओं से होता है ; कई प्रकाशक व संपादक या पाठक व आलोचक लेखक को उनके लेखन से ही जानते व पहचानते हैं | रचनाधर्मिता ही हमे व हमारे यश को दिग दिगन्त तक फैलाती है, बढ़ाती है | अर्थात, हम यदि अपनी रचनाओं के माध्यम से जाने जाएँ तो हम गुम नहीं होंगे परन्तु आज का परिवेश कुछ बदल सा गया है ; अब लोग तिकड़म, खेमेबाजी, पद, प्रतिष्ठा व पहुँच के द्वारा अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं, यह मिल तो जाती है शीघ्र ही पर उतनी ही शीघ्रता से समाप्त भी हो जाती है | हमारा तटस्थ मूल्यांकन हमारी रचनाओं और कृतियों से ही होता है |
         इसके पक्ष में तर्क के रूप में कबीर को लिया जा सकता है | कई शताब्दियों तक गुमनामी में खोए रहने वाला, युग सुधारक, युग प्रवर्तक रचनाकार अँधेरे में, गुमनामी में ही खोया रहा | उनको समाज में लाने का श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को जाता है जिन्होनें उनके शबदों, साखियों, रमैनियों का संकलन करके उनपर आलोचनात्मक दृष्टि से एक पुस्तक लिखी | हम शुरुवात नहीं करना चाहते बल्कि हम भारतीयों की अनुकरण की आदत है | कुछ विशेष परिस्थितियों में हम किसी सत्य को तब मानते हैं, जब पश्चिम में बैठा कोई व्यक्ति उसे अनुमोदित कर दे | यह स्थिति हमारे लिए व हमारे साहित्य के लिए घातक है | बाद में महामना मदन मोहन मालवीय के आह्वान पर शांति निकेतन छोड़कर आए हिंदी के उद्भट विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर नामक पुस्तक उनपर केन्द्रित लिखी और फिर लाइन लग गयी उनके वन्दन, अभ्यर्चन को | निराला को हम समग्र रूप से जान पाए इसके लिए हमे जानकी वल्लभ शास्त्री और रामविलास शर्मा का धन्यवाद् करना चाहिए | बच्चन को हम अजीत कुमार की दृष्टि से देखते हैं |
        अनिल यह विशद् विषय है जिस पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है | हाँ शोध व अनुसंधान में लगे लोगों की जिम्मेदारी भी बनती है, जिससे वे बच नहीं सकते | रचनाकार अपना लेखन करने के साथ साथ उसके प्रकाशन के प्रति सजग रहे और शोधार्थी मूल्यांकन हेतु तत्पर | मेरी अपनी मान्यता है कि शोध विकास कमेटियों में विषयों का सूची बद्ध करने में विषय विशेषज्ञों की मदद ली जानी चाहिए | जैसा कि अन्य विषयों विभागों में है तभी हम भाषा, विचार व रचनाकार को गुमनामी से बचा पाएंगे |
 शुक्ल जी आपके रचना फलक को देखते हुए यह पता चलता है कि आपने नवगीत, कहानी, उपन्यास, लघुकथा, साक्षात्कार, समीक्षा, संस्मरण, यात्रा वृत्त जैसे विविध विषयों पर प्रचुर लेखन किया है | पर मूलतः आप कवि हैं और यह प्रश्न समीचीन है कि कविता धीरे धीरे अपना अर्थ खोती जा रही है, आपका क्या मत है ?
 भाई साहब पूरी विनम्रता एवं आदर के साथ मैं आपकी बात स्वीकार करता हूँ और यह भी स्वीकार करता हूँ कि इस लेखन संसार को विकसित करने में आप जैसे लोगों का विशेष योगदान है | जिनके प्रति मैं कृतज्ञ हूँ तथा ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ | मेरा लेखन वह है जो करवा लिया गया है | कुछ परिस्थितियों तथा कुछ मांग ने मुझे सदैव लेखन हेतु प्रेरित किया | पत्र-पत्रिकाओं ने सम्पादकों-प्रकाशकों ने, पाठकों व रचनाकारों ने अलग-अलग ढंग से सरोकारों पर आधारित मेरे लेखन को सदैव गतिमान रखने में सहयोग किया | आज आपके माध्यम से मैं उन सभी का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद् ज्ञापित करता हूँ |
        मेरा अपना मानना है कि उक्त वर्णित विविध समूहों, संस्थाओं, व्यक्तियों का ऋण है मुझ पर जिसको कुछ हद तक नई प्रतिभाओं का सहयोग करके उतारा जा सकता है और मैं इसके लिए पूरी तरह कटिबद्ध भी हूँ | यथा संभव इस तरह के प्रेरणा, परामर्श, संशोधन आदि के द्वारा मैं अपने रचनाकार को निरंतर नवता से जुड़े रहने का संयोग उपलब्ध कराता रहता हूँ | इस तरह की शाश्वत परंपरा साहित्य को मजबूती प्रदान करता है |
       यह तथ्य सूर्या की रश्मियों जैसा अकाट्य है कि मैं मूलतः कवि हूँ, गीतकार हूँ | अनिल जी हमारे देश में कवि के लिए कई तरह के समूह, धड़े, खांचे बने हुए हैं | मंच व अकादमी स्तर पर रचनाकारों का बंटवारा यदि चिरंतन है तो छन्दस व अछांदस रचनाकारों का वर्गीकरण भी पिछले 60-62 वर्षो से शाश्वत है | ऐसी स्थितियों में जब कवियों के मध्य विरोधाभाषों की विषमताएं मुखर हों, ऐसे में कविता का भविष्य क्या होगा आप स्वयं समझ सकते हैं | कविता के क्षेत्र में बड़ा अखाडा है, जिसका परिणाम निश्चित रूप से विधा को ही भुगतना पड़ता है |
      जैसे कविता विधा के कई समूह, खेमें, स्वरुप, शिल्प हैं उसी तरह से कवि भी तीन तरह के होते हैं | यह विषय बड़ा गहन है | मित्र पहली श्रेणी के कवि शीर्ष पदस्थ अधिकारी / कर्मचारी तथा अकादमियों के जुड़े लोग होते हैं ये प्रतिदान में समर्थ होते हैं | अतः अधिकतर इनाम / पुरस्कार यही ले जाते हैं ; काव्य की छंद विहीन पद्धति इनके लेखनी को चमत्कृत करती है | दूसरे कोटि में शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों से जुड़े प्राध्यापक होते हैं | यह भी शोध, अनुसंधान, पुरस्कार, सम्मान, सेमीनार, संगोष्ठी, के माहिर उसके करता-धर्ता होते हैं ; ये भी रचनात्मक रूप से सुस्त होते हैं, जो भी लिखते हैं ये वह सभी छपता है | तीसरे स्थान पर विचारा – दीन हीन मौलिक कवि होता है जो ऊपर के दोनों कोटियों के लोगों की दया पर निर्भर करता है | ऐसी स्थितियों में कविता के भविष्य का निर्धारण आप बखूबी कर सकते हैं |
आज के साहित्यिक परिधि में रचनाकार, प्रकाशक व आलोचक के आपस में बढ़ते विरोधाभाषों को आप किस दृष्टि से देखते हैं ?
 अनिल जी विरोधाभाष यदि वैयक्तिक नहीं वैचारिक है तो वह स्वागत योग्य है | समर्थन हमेशा प्रगति का वाहक नहीं होता बल्कि वह पीछे भी धकेलता है| हमारी चेतना को जाग्रत करने वाला वैचारिक विरोध हमें प्रगति. नए प्रतिमान गढ़ने में हमारी मदद करता है | इस प्रवृत्ति को पुष्पित व पल्लवित होने हेतु हमे प्रेरित करना चाहिए | यदि विरोधाभाष वैयक्तिक स्वार्थों के लिए है तो वह निंदनीय है | आज के आलोचक चारण व भांट हो गए हैं | वे प्रायोजित आलोचना लिखकर आलोचना विधा को कलंकित कर रहे हैं तथा स्वयं के साथ भी छल कर रहे हैं |
        आलोचना के क्षेत्र में एक नया शब्द इन दिनों आकार ले रहा है वह है सकारात्मक आलोचना | शिल्प, कथ्य , भाषा, भाष, विचार कहाँ के स्तर पर दिया गया विवेचनात्मक लेखन खटकने लगा है | एक घटना मेरे साथ हुई | मुरादाबाद के एक साहित्यकार मित्र की पुस्तक पर साढ़े छः (61/2) पेज के आलोचना में छः पेज सकारात्मक या प्रशस्ति वाचक रही और 1/2 पेज में कमियों को लिखने के कारण वह नाराज हुए और सालों बात चीत बंद रही | अब आप देखें समय, श्रम, धन, खर्च करके दुश्मनी कौन मोल लेना चाहेगा | विधाओं व खेमों में गिरोह बंद आलोचक कहाँ किस पर क्या लिखेंगें यह पूर्वनियोजित है, निश्चित है| इसी प्रकार आज प्रकाशकों ने अपने क्षेत्र, विधा, लेखक, संपादक तय कर चुके हैं | कई नामचीन प्रकाशकों ने कविता न छापने की घोषणा कर रखी है | पर फिर भी पद देखकर वह भी समझौता कर लेते हैं | आज का दौर कठिन दौर है मित्र | आज लेखक किताब लिखता है प्रकाशक उसको छापने का सौदा करता है | तय होने पर वह रचनाकार पैसा पहले अदा करते हैं कम्पोजिंग तभी शुरू होती है | अब प्रूफ रीडिंग के बाद किताब छपती है | लेखक को कम मूल्य पर या आधे मूल्य पर किताबें मिलती हैं जिसे वह बाँट कर लोकार्पण करके अपना अहम् तुष्ट करता है |
           अनिल जी यह है साहित्य का यथार्थ जिसे कहने, सुनने, जताने, पाने में सभी संकोच करते हैं | जबकि इसके शिकार सभी हैं | चार साल पहले गाजियाबाद के एक वयोवृद्ध व यशस्वी कवि जिन्होनें अपने शिखर पर होने की स्वयं घोषणा कर रखी है | उन्होंने कहा शुक्ल जी मैं 89 वर्ष का, 50 पुस्तकें छाप गयी, 25000 दोहे, 10000 गज़लें लिखी पड़ी हैं | अब भी मैं प्रकाशक को पैसे देकर छपता हूँ तथा अपनी खरीदी हुई किताब बाँट देता हूँ | आप जैसे लोग भी खरीदते नहीं मेरी किताब | ये स्थिति है हिंदी साहित्य में रचनाकार की, प्रकाशक की तथा आलोचक तो अब रहा ही नहीं | अब लोग स्वयं ही खुद पर लिखकर किसी और का नाम डाल देते हैं | दिल्ली के एक नवगीतकार जो समग्र चेतना के हिमायती हैं, ने नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, नचिकेता जैसे शीर्षस्थ व प्रसिद्ध आलोचकों के द्वारा लिखित लेखों में छेड़छाड़ करके अपनी प्रशस्ति ही नहीं डाली बस अपनी अनगढ़ रचनाओं को कोटेशन के रूप में डाल दिया | हद है बेशर्मी की | अतः इसे क्या कहेंगे बताइए |
         मेरी अपनी दृष्टि की मैं क्या कहूं अब स्वार्थ लोलुपता व सुविधा ही सबकुछ है | देखिए इसका उत्तर काल कैसा होता है |
        अनिल कुमार पाण्डेय जी आपने मुझे इन प्रश्नों के माध्यम से कुरेदकर जो सत्य निकलवाया है, समय बतलाएगा इसके महत्व पर मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ और इस तरह के साहित्यिक अनुष्ठान में आपके आह्वाहन पर आगे भी मैं आपके साथ सामिल रहूँगा| बहुत ही आभार आपका !
द्रष्टव्य—साभार, पाण्डेय, अनिल कुमार, साहित्य का यथार्थ, मेरठ : उत्कर्ष प्रकाशन, 2015   


Tuesday 26 April 2016

समकालीन हिंदी कविता : सामाजिक सच की तलाश



            जीवन-प्रयासों का साहित्य के अन्य विधाओं की अपेक्षा कविता में घटित होने की संभावनाएं अधिक होती हैं | घटना कोई भी हो वह अपने स्वरुप में समाज सापेक्ष होती है | समाज का अभिप्राय मनुष्य के संगठित समूह से है | घटनाएँ समाज में रहने वाले मनुष्य के साथ घटित होती हैं | इन्हें अक्सर सामाजिक घटनाओं के नाम से अभिहित किया जाता है | मनुष्य घटनाओं को वहन करता है, झेलता है | घटनाओं के वहन करने और झेलने की यह प्रवृत्ति समाज में घटित होती है | घटनाओं का घटित होना साश्वत है | इनको झेलना मनुष्य की नियति और समाज का स्वभाव होता है | स्वभाव में अपनाने की प्रवृत्ति प्रबल होती है तो नियति में मजबूरी का प्राधान्य होता है | कविता में ये सभी प्रवृत्तियाँ स्वभावतः विद्यमान होती हैं | यह इसलिए क्योंकि कवि घटना, समाज और मनुष्य का एक अविभाज्य अंग होता है | पहले वह मनुष्य है; फिर समाज है; और इन दोनों के मध्य घटित होने वाले घटनाओं का, भुक्तभोगी, वाहक और अंततः एक हद तक झेलने की प्रक्रिया में सबसे संवेदनशील व्यक्तित्व भी है | कविता के सम्बन्ध में इसीलिए कहा जाता है कि जिस कविता में मानव-जीवन की संगति-विसंगति, वेदना-संवेदना, दुःख-दर्द गहरे यथार्थ से जुड़कर न व्यंजित हुआ हो, वह कविता नहीं हो सकती, बाकी चाहे जो हो |
             सामाजिक परिवेश का यथार्थ हमारे दैनिक जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का साकार रूप होता है | हमारे जीवन की यह भी एक विशिष्ट विशेषता है कि जिस समय घटनाएँ घटित होती रहती हैं, हमें इनका आभाष नहीं होता | घटित होने के बाद हम उन्हीं घटनाओं के प्रति अधिक सक्रिय दिखाई देते हैं जिसके प्रति उसके वर्तमान होने से पहले लापरवाह होते हैं | कवि-हृदय वर्तमान को बड़े बारीकी से जीता है | जीने की स्थिति में बारीकी की पड़ताल अतीत के अनुभवों से उत्पन्न होती है | अतीत की घटनाएँ उसे वर्तमान के प्रति अधिक संवेदनशील बने रहने के लिए एक विशेष दृष्टि प्रदान करती हैं | वह इसी दृष्टि से भविष्य का रूप-संवरण करता है | समाज का नेतृत्व रूप-संवरण की इस प्रक्रिया से होकर गुजरती है | साहित्य को इसीलिए समाज का दर्पण कहा गया और कविता को मानव-जीवन का सबसे संवेदनशील हमसफर | 
           सामाजिक परिवेश में कविता का उत्पन्न होना अब महज कल्पना की प्रगाढ़ता भर नहीं कहा जा सकता | यह इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि कविता की रचना अब अनायास नहीं होती, सायास होती है | वह मन बहलाने का एक विकल्प न होकर परिवर्तन का एक संकल्प बनकर रची जा रही है | विकल्प की स्थिति में लापरवाही होती है | किसी भी स्थिति के प्रति गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इसके केंद्र में होता है | ऐसी अवस्था में समय सापेक्ष घटनाओं से जूझने के बजाय उससे मुंह मोड़ लेने की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है | पलायनवादी प्रवृत्ति यहाँ प्रमुखता के साथ व्यंजित होती है | जबकि संकल्प के धरातल पर विकल्प का अभाव होता है | यहाँ जो है, जैसे है उसे करना है | अधूरा छोड़कर हटना नहीं, अपितु पूर्णता प्रदान करना है | पूर्णता के लिए व्यक्ति को संघर्ष करना होता है | संघर्ष के केंद्र में होने से पलायन के बनिस्बत यहाँ स्थायित्व की प्रबलता होती है | रचनाकार को किसी भी स्थिति से घबड़ाकर या मुंह मोड़कर हटने के बजाय प्रतिबद्ध होकर उसे झेलने और एक हद तक विजय प्राप्त करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है |
            तत्परता का यह भाव हिन्दी साहित्य के समकालीन कवियों में/आज के कवियों में यथार्थतः विद्यमान है | और यह सब कवियों द्वारा समाज और घटना के प्रति स्वयं के संकल्पबोध को अनुभव के धरातल पर व्यंजित करते हुए जनसामान्य के अनुभूति के साथ बने रहने की प्रतिबद्धता से संभव हुआ है | इस सन्दर्भ में प्रो० रतन कुमार पाण्डेय द्वारा समकालीन कवि एवं कविता के विषय में कही गयी यह उक्ति ठीक प्रमाणित होती है “समकालीन कविता का एक बड़ा हिस्सा संकल्पबोध और दायित्वबोध से जुड़कर आज हमारे सामने आ रहा है | इस कारण इन रचनाओं में सामाजिक परिवर्तन की अदम्य लालसा हमे दिखाई पड़ती है | यहाँ उपस्थित रचना-संसार मानवीय सरोकारों, सकारात्मक मूल्यों और आत्मीय सम्बन्धों का संसार है, जो पूंजीगत दबावों और इतर कारणों से निरंतर क्षरित हो रहा है | समकालीन कवि मानवीय मूल्यों और मानवीय न्याय के संघर्ष में अपनी रचना की उपयोगिता जांचना-परखना चाहता है |”1
           कविता के समकालीन परिदृश्य और वर्तमान जीवन-परिवेश में सामाजिक विकास के साथ-साथ घटनाओं की संख्या में कुछ अधिक वृद्धि महसूस की गयी है | ये घटनाएँ राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरातल पर अपने विशिष्ट एवं विविध रूप में हमारे सामने समय-समय पर उपस्थित होती रही हैं | जिस प्रकार की सामाजिकता की बात हमारे सिद्धांतों में आये दिन की जाती है उस सामाजिकता के सम्बन्ध में यह गौर करने का विषय है कि देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक घटित होने वाली समस्त घटनाओं में, जिसके केंद्र में आम आदमी और धर्म का मुद्दा विशेष तौर पर सुमार रहा है, व्यावहारिक धरातल पर सामाजिकता का भाव बहुत हद तक दूषित हुआ है | सामाजिक आकाओं की चर्चाओं में आम आदमी को जितनी तीव्र गति से शामिल करने की होड़ मची, मुख्य धारा से वह उतनी ही तीव्र गति से कटता गया | ऋतुराज की एक कविता है ‘हसरुद्दीन’ इसमें सच्चाई को अभिव्यक्त करने का प्रयास बड़े ही सलीके से किया गया है| कवि कहता है-
हसरुद्दीन !!
समझे कुछ?
कि हसरुद्दीन होने में
यहाँ कितना टोटा है घाटा है
रोज़ा है फटा मोजा है
लुंगी और अँगोछा है
धूल कीचड़ में कंचे खेलते
तुम्हारे बच्चे हैं
क्या कभी किसी ने पूछा है?...
दरअसल, हसरुद्दीन, उन्हें तो
तुम्हें सफाई से अलग करना था
और तुम्हें उनसे दूर
बिलकुल बाहर
इस पोखरे के किनारे
अपना पेट भरना था|”2
     ‘बिलकुल बाहर’ होकर जीवन यापन करने की प्रक्रिया ने जनसामान्य के हृदय में असंतोष का भाव लेकर आया | यह वही समय है जब इस देश में नक्सलवाद की समस्या अचानक उभर आती है| आतंकवाद का आतंक अपना विकराल रूप लेने लगता है और फिर उसके बाद तमाम हसरुद्दीन को बलि का बकरा बनाने की कवायद यहीं से प्रारंभ होती है | उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी, उग्रवादी अनेक ऐसे नामों से विभूषित करना प्रारंभ किया जाता है, जिनका वे स्वप्न भी नहीं देखे होंगे| जबकि उनकी लड़ाई किसी से नहीं थी और दुश्मनी भी किसी से नहीं थी | उनसे किसी को खतरा भी नहीं था | गलत था तो बस इतना कि अपने अस्तित्व के लिए, जीवन के लिए और वह भी जिन्दा रहने के लिए मात्र अपना हक़ मांगने की कोशिस कर रहे थे| अपने हक़ की माँग करना किसी अपराध से कम नहीं है | लेकिन हक़ को प्राप्त करने के बजाय उससे मुंह फेर लेना भी एक बड़े अपराध की श्रेणी में आता है | सवाल ये है कि आम आदमी अपराध से अपराधियों के शक्ल में लड़ने या जूझने के बजाय बार बार बचाव की ही मुद्रा में क्यों आता है? बार-बार झिडके जाने और शोषित होने के बावजूद वह स्वयं को दुबारा और फिर फिर शोषित होने के लिए प्रस्तुत करने पर आमादा क्यों रहता है? दिनेश कुमार शुक्ल के कविता संग्रह ‘आखर अरथ’ की एक कविता है ‘बचते-बचाते’, इस कविता में कवि ने आम आदमी की इस प्रवृत्ति का बखूबी चित्रण किया है जहां वह स्वयं को शोषण के लिए आमंत्रित करने की आदत का शिकार है-यथा-
भीतर भरी ग्लानि से छुपकर
आते हैं वे समर्थ के द्वार
त्योहार की जोहार करने
अपनी बीमारियों से नज़रें चुराकर
पर्दा उठाकर भविष्य में झाँकते हैं
और घड़ी भर आगे भी जाती नहीं नज़र,
अपनी निराशा को झुठलाते हुए
बचकर निकल आते हैं वे
सभ्यता-समीक्षा के कुहराम में
और अपने दुखों को रख आते हैं ऊँचे ताक पर...
कर्ज वसूलने वालों/और मदद माँगने वालों
और उम्मीद रखने वालों से
बचते बचाते वे भागते हैं कभी
सातवीं शताब्दी में तो कभी पच्चीसवीं शताब्दी में,
अपने भविष्य से छिपते
छिपते हुए अपने वर्तमान से
वे भागते हैं अतीत की कन्दरा में
और अतीत उन्हें दबोच लेता है
और उठाकर वापस फेंकता है लहूलुहान वर्तमान में ||”3  
     अतीत में आम आदमी के लिए संरक्षण नहीं है और वर्तमान लहूलुहान है | समय को लहूलुहान करने की चाहत आम आदमी कम ही होती है क्योंकि उनेक पास एक मोह होता है, वो सबको अपना समझते हैं सबको प्यार करते हैं | उनका भी जो उनका शोषण करता है और उनका भी जो पग पग पर उनको छलता है | छलना और शोषित होना नियति बन गयी है उनकी | यह आसानी से समझ जा सकता है कि आम आदमी जो हाशिए पर है, वह अपराध करना नहीं चाहता, अपराध से बचना चाहता है लेकिन उसे बड़े सलीके से अपराधी घोषित कर दिया जाता है | हालांकि अपराधी होने की प्रक्रिया में वह अंतिम समय तक यह नहीं समझ पाता कि आखिर उसका दोष क्या है? वह भूख से लड़ रहा होता है | अपने समय के सच से टकराने की हिम्मत जुटा रहा होता है क्योंकि यही हिम्मत उसके साथ-साथ उसके परिवार के कई लोगों को जिलाने का साधन है | संसाधन उसके पास और कुछ भी तो नहीं लेकिन इस हिम्मत पर भी पहरा, समाज की यह प्रवृत्ति उसे तो अचंभित करता ही है उसके साथ हमदर्दी लिए एक कवि को भी हैरत में डालता है | अपराध का सियापा खड़ा करने वालों के प्रति अपनी अभिव्यक्ति देते हुए लीलाधर जगूड़ी यह विस्मय प्रकट करते हुए कहते हैं कि—
“जो लोग कहते हैं कि अपराध बढ़ रहे हैं वे एक बार भी नहीं कहते कि
गरीबी बढ़ रही है
हर ठोकर के बाद वह दोहराता है
कि आदमी गुजारे लायक अमीर और कष्ट उठाने लायक गरीब बना रहे
तो मनुष्यता फिर से कायम की जा सकती है
अभावग्रस्त स्थिति में भी काम करके नाम कमाने की परंपरा
कुछ बची रह सकती है
वह उन सबको थर्रा देना चाहता है जो गरीबी से असहमति दिखाते हुए
गरीब से ढाढस बनाए रखने को कहते रहते हैं ||”4
        भूख को ख़त्म करने की लालशा लिए आम आदमी पहले तो सडकों पर आता है और फिर उसके बाद विकल्प न मिलने की स्थिति में संघर्ष का दामन पकड़ता है | इस संघर्ष में उसे बार-बार तिरोहित होना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है | एक तो आतंकवादी या नक्सलबाड़ी के तमगे से विभूषित होने का दुःख और दूसरे ‘आम’ होने का संताप ये दोनों स्थितियाँ जनसामान्य के जीवन की बहुत बड़ी घटनाएँ हैं | सरकारी दफ्तरों आदि में एक तो इनका चयन ही नहीं होता और यदि होता भी है...या तो किसी के दया पर निर्भर रहा करते हैं या फिर तमाम व्यंग्यों, अपमानोक्तियों को सहते, लाचार दयनीय और दीनहीन रहकर किसी तरह अपना समय व्यतीत किया करते हैं | समय व्यतीत करने की प्रक्रिया भी खासी मंहगी साबित होती है उनके लिए यह इसलिए भी क्योंकि पेट भरने तक का अनाज और तन ढकने तक के वस्त्र तो बड़े मसक्कत ते नशीब होते हैं ऊपर से परिवार का खर्च भी उन्हीं के जिम्मे| यहाँ झेलना होता है | जीवन को और उस समय को| इन स्थितियों के प्रति असंतोष उस समय के कवियों में और उसके बाद के कवियों में देखा जा सकता है| कहीं न कहीं इस प्रकार की व्यवस्था के शिकार हैं तो वे भी| उदयप्रकाश की एक कविता है “जीवनदास”, इस कविता में कवि ने जीवनदास के बहाने जीवन-ताण्डव में उलझे और अनवरत स्वार्थलिप्सा के शिकार होते आम आदमी के दबे-कुचले व्यक्तित्व को इस तरह प्रश्नों के केंद्र में उत्साहित करता दिखाई देता है--
“कब तक अकेले दफ्तर से
लौटोगे गंजे-गुस्सैल बाबू की
मेज वाली घंटी पर हांफते-झींखते
 कब तक कैरियर में
खाली झोला भूखा कनस्तर
झुलाए लौटोगे
कब तक बच्चों के गाल में
खाली थपकियाँ बजाओगे
कब तक औरत को ठोंक-पीट कर
सुलाओगे
शहर की नीयत और
मोहल्ले की चाल-चलन पर
कब तक भरोसा करोगे जीवन दास? कब तक
आखिर कब तक  
यूं खोए-लुटे 
थके रुआँसे रहोगे?”5
         घुटी-पिटी जीवन जीने की इच्छा से अच्छा होता है सीधे तौर पर प्रतिकार करना उनकी नीतियों एवं प्रणालियों का बहिष्कार और बहुत हद तक प्रतिरोध करना | इस स्थिति से मूल्यांकन किया जाए तो आम आदमी को मुख्य धारा में लाने की जद्दोजहद इस समय के कवियों में विशेष तौर से देखी, परखी और अपनाई गयी | वे उनके अन्दर विद्यमान आतंरिक शक्तियों को पहचानने और बढ़ाने में अधिक सक्रिय हैं उन्हें पता है कि इस अस्तित्त्व के गिरते और लगभग लुप्त होते समय में एक मात्र साहस ही है जो उन्हें लड़ने और जूझने के लिए प्रेरित कर सकता है | यह साहस कविता के शक्ल में ही दिया जा सकता है यह भी उन्हें पता है | ‘सर्कस’ कविता में ऋतुराज ने आम आदमी के अंतरतम को जगाते हुए कहा हैं-
सिर्फ साहस और कौशल के द्वारा
लड़ सकता है मनुष्य अपनी तुच्छता और शोषित स्थिति से
सिर्फ ‘अचरज’ की निरंतर रचना ही
निर्लज्ज और दम्भी शोषक के मन में हीनता भर सकती है
सिर्फ कई साहसी सजग जीवों का परस्पर संगठन
उन्हें इस उत्पीड़न से मुक्त कर सकता है |”6
             इस समय तक पहुँचने के बावजूद भी, जब अभिव्यक्ति के संसाधनों और तरीकों में बड़े बदलाव हुए हैं, कुछ कवि ऐसे भी हैं जो जनता के दुःख-दर्द से दूर होकर काल्पनिक कवि-कर्म में संलिप्त हैं | यहाँ कहना यह भी शायद ही गलत हो कि बहुत से कवि उस हाशिए पर धकेले जा चुके आम आदमी के करीब आने के बजाय स्वयं को सामाजिक आकाओं के आवरण में सुरक्षित करने के प्रयास में सक्रिय हैं | इन्हें कविता के समकाल में रखने का औचित्य नहीं बनता | यहाँ तक आते-आते शोषक और शोषित का जो नारा मार्क्स-दर्शन से प्रभूत हुआ था, अपने स्पष्ट और साकार रूप में सबके सामने मौजूद दिखाई देने लगता है | अब चिंतन का आधार मार्क्स-दर्शन ही नहीं अपितु अपने समय की यथार्थ स्थिति हो चुकी है जिसमें कवियों का अपना चिंतन और अपनी विचारधारा है | हालाँकि प्रभाव उसका अब भी कहीं न कहीं इनके चिंतन में वर्तमान है | यह समकालीन चिंतन और कवि-समाज की एक बड़ी घटना है | इस घटना से इस समय का प्रत्येक समकालीन कवि स्वयं को सम्बद्ध रखता है और वह कामयाब भी होता है | एक समय था जब नागार्जुन ने जनसामान्य से जुड़कर चिंतन करने के लिए खुले रूप में उद्घोष किया था | उनका वह उद्घोष आज के कवियों के चिंतन का आधार है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता | यह बात अवश्य ध्यान रखने की है कि नागार्जुन की प्रतिबद्धता का उद्घोष मात्र नागार्जुन का नहीं अपितु वर्तमान समय के सभी सक्रिय समकालीन कवियों का उद्घोष होना चाहिए-
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अन्ध-बधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए
अपने आपको भी व्यामोह से बारम्बार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा प्रतिबद्ध हूँ||”7
          ‘अन्ध-बधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने’ और ‘बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’ अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखने वाले रचनाकारों को ही समकालीन कवि की कोटि में देखा जाना चाहिए और उन्हीं को रखा भी गया | जो तत्कालीन समय-समाज में विद्यमान इन समस्याओं से दूर रहे, वे चर्चा की मुख्य धारा से दूर रहे | यह डॉ० अश्विनी पराशर के इस वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो जाता है- “एक तरफ सुविधाभोगी जीवन की ललक है | समझौतावादी दृष्टिकोण है, सत्ता की शक्ति को हथियाने की होड़ है तो दूसरी तरफ बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी की बदहाली और शोषण से त्रस्त समाज की महत्वपूर्ण इकाई है | तथा काठ का उल्लू, अदना आदमी और उसकी दास्तान है | इन दोनों छोरों से घिरे हुए आदमी और उसके जीवन को लेकर आज का कवि और उसकी कविता चिंतित है | यह चिंता की एक ऐसी रेखा है कि जो भी विचारक, स्वप्नद्रष्टा दार्शनिक, कवि इसके जितना अधिक नजदीक है वह उतना ही अधिक समकालीन है और जो जितना अधिक दूर है वह उतना ही अधिक अप्रासंगिक |”8 आम आदमी के नजदीक होने की ललक मात्र समकालीन कवियों में ही परिलक्षित होती है  और वह इस ललक को वर्तमान रखने की पूरी कोशिश में है | इसीलिए वह अपने समय के तमाम प्रश्नों से सीधे तौर पर जूझता है | चुनौती देता है समय और समाज को | हाशिए पर लाए गए जनसमुदाय पक्ष में खड़े होकर वह संघर्ष करता है, संघर्ष के दिनों में वह यह भी नहीं सोचता कि प्रतिरोधी पक्ष का क्या रुख होगा? उदय प्रकाश की ‘बचाओ’ कविता में अपने समय के बड़े सच से सामना करने का यह साहस देखा जा सकता है-
“वैसे खड़ाऊँ, दातुन और पीतल के लोटे को
बचाने की इतनी सख्त जरूरत नहीं है
रथ, राजकुमारी, धनुष ढाल और तांत्रिकों के
संरक्षण के लिए भी जरूरी नहीं है कोई कानून
बचाना ही है तो बचाए जाने चाहिए
गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों में घोंसले, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में
नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी,
क्या कुम्हार, धर्मनिरपेक्षता और
एक-दूसरे पर भरोसे को बचाने के लिए
नहीं किया जा सकता संविधान में संशोधन
सरदार जी आप तो बचाइए अपनी पगड़ी
और पंजाब का टप्पा
मुल्ला जी, उर्दू के बाद आप फिक्र करें कोरमे के शोरबे का
जायका बचाने की
इधर मैं एक बार फिर करता हूँ प्रयत्न
कि बच सके तो बच जाए हिन्दी में समकालीन कविता ||”9      
           हिंदी काव्य साहित्य में समकालीन आन्दोलन अपने जिन उद्देश्यों को लेकर गतिशील हुआ था और जिन प्रतिबद्धता के लिए उसकी अपनी अलग पहचान बनी थी उसे वर्तमान रखने का प्रयास हमारे अपने समय के (इक्कीसवीं सदी के कवियों में भी) विद्यमान है|
ऐसा होना बहुत आवश्यक है क्योंकि कविता होने की पहली शर्त ही है उसका जनधर्मी होना| अपने समय के सच को अधिक से अधिक जानने के लिए प्रयत्न करना और सच के मार्ग पर आने वाले बाधाओं से, फौरेबों एवं संकीर्णताओं से लड़ने का साहस दिखाना | ये तो समकालीन कविता की जन धर्मिता है | इसे सभी ने स्वीकार किया है परन्तु ध्यान देने का विषय यह भी है कि यह समय, विशेषकर जिस माहौल और जिस दौर में हम जीवन यापन कर रहे हैं या करने को बाध्य हैं (कुछ समकालीन कवियों की दृष्टि में), किसी भी रूप सहज और सरल नहीं है | जब समय सहज और सरल नहीं है तो फिर ऐसे समय में न तो स्वतंत्रता पूर्वक रोया जा सकता है और न ही तो स्वतंत्रता पूर्वक हँसा जा सकता है | हंसने और रोने की स्थिति में इसका भी जवाब जनता हमसे मांगती है | फिर किसी भी संवेदनशील विषय पर कविता लिखने से पहले और लिखने से ज्यादा उस पर बोलने से पहले (आज के कवि कुछ हद तक लिख कम और बोल ज्यादा रहे हैं) आज के कवियों को एक बार आत्म-मंथन जरूर कर लेना चाहिए | हालाँकि कविता हृदय की आवाज होती है लेकिन यह अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है | समय इतना संवेदनशील और लोग इतना लापरवाह और धूर्त हो गए हैं कि उनके रोने की शक्ल में आंसू नहीं बहाया जा सकता | क्या पता उनके आँसू घडियाली आँसू ही हों |  दिखाने भर के ही हों और उसका हकीकत किसी को छलने के लिए रहा हो? ऐसी स्थिति में हमें सोचने की आवश्यकता है | आतंकवाद और नक्सलवाद की समस्या पर महादेव टोप्पो द्वारा लिखी गयी एक कविता है ‘वह’ निश्चित ही इस कविता में कोरी भाउकता है और जन संवेदनाओं से खिलवाड़ करने का दुःसाहस है | इसे जन्धार्मिता नहीं कहा जा सकता-यथा-
एक और क्रन्तिकारी
नहीं, नहीं आतंकवादी मारा गया
नहीं, नहीं एक नक्सलवादी मारा गया
अखबारों में छपा फोटो

जैसा कि पुलिस ने बताया—
उसके बैग से मिले कुछ विस्फोटक
एक देशी कट्टा, दो विदेशी रिवाल्वर,
हाँ, कुछ नकदी भी
लेकिन, उसके झोले के अन्दर
कुछ और भी था
प्रेम कविता पर एक किताब
था उसके अन्दर सूखा गुलाब
सुगंध जिसकी किताबों के पन्नों में थी फ़ैली
हाँ, था वह शहीद, था क्रन्तिकारी, था एक प्रेमी
नहीं, नहीं था वह आतंकवादी
नहीं, नहीं वह एक युवक था
और प्रेम की उसे भी थी दरकार
न पुलिस समझती है
न दुनिया समझती है और न सरकार ||”10
     आतंकवादी यदि क्रन्तिकारी होता है, शहीद होता है, प्रेमी होता है और यदि उसे भी प्रेम की दरकार होती है तो वो क्या होता है जो इनके बदले की हिंसा का शिकार होता है | इसका जवाब इस कवि के पास शायद नहीं हो? दुनिया और सरकार यदि उसे प्रेम दे तो फिर उसे क्या दे जो इनका शिकार हो रहा है? इसका जवाब भी शायद इस कवि के पास न हो? यह कोरा आत्मालाप है | हालाँकि नया ज्ञानोदय के साहित्य वार्षिकी में छपने के बाद इस कवि को ढेरों बधाइयां दी गयी होंगी और यह कवि स्वीकार भी किया होगा बड़ी आत्मीयता से; पर क्या इस आत्मालाप से पड़ने वाले प्रभाव के प्रति यह कवि एक बार भी आत्मचिंतन किया होगा? यह एक विमर्श का विषय है खासकर इस संवेदनशील समय में | आतंकवादी वह है जो सबको निरपराध मारता है या फिर वह है जो निरपराध मरता है? यथार्थ के नाम पर सच के साथ ऐसा छलावा एक भावुकता ही कर सकती है | यथार्थवादी और आतंकवादी सच को अनिल गंगल की कविता “पानी से भरे घड़े” में इस तरह भी देखा जा सकता है-यथा-
न धर्म हैं वे कोई
न कोई जाति
न नस्ल हैं वे आर्य या यहूदी
न सवर्ण और शूद्र
वे प्रान्त भी नहीं हैं कोई
न ही कोई भाषा या लिपि

सभ्यता के आरम्भ में ही
वे सिर्फ पानी से भरे घड़े हैं
प्यासे मनुष्य की प्यास बुझाने को ही
उन्होंने माना है अपना चिरन्तन धर्म
न शिया हैं वे, न सुन्नी
न आर्य हैं वे, न सनातनी
 कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट तो नहीं ही हैं वे
दुबोया हो जिन्होंने इतिहास को एक खूनी समन्दर में ||11
       इस कविता के अन्दर और कवि की दृष्टि में निरा भावुकता न होकर निरपेक्षता और स्पष्टता है | इस प्रकार के निरपेक्षता और स्पष्टता की आवशकता आज के समय के कवियों में होनी चाहिए | इसकी अपेक्षा जनता को भी है, देश और समाज को भी | इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक संभावनाओं को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार के सामाजिक संस्थाओं का निर्माण किया गया | कई प्रकार के संगठन और दल अस्तित्व में आए | दुर्भाग्य यह रहा कि जिस उद्देश्य के तहत विभिन्न संस्थाओं की प्रतिस्थापना और पोषण का कार्य किया गया, वह उद्देश्य धीरे-धीरे अपने मूल स्वरुप में अवसरवादिता का शिकार होता गया | सामाजिक संस्थाओं की प्रतिस्थापना में अवसरवादिता का निचले स्तर तक गिरकर इस्तेमाल करना सामाजिकता के स्थान पर असामाजिकता को आमंत्रित करना होता है | आमंत्रण का यह स्तर इस देश के कवियों एवं साहित्यकारों द्वारा भी बड़े पैमाने पर अपनाया गया | समय आ गया है कि संवेदनशील समय में अब अवसरवादी प्रवृत्ति को त्यागकर त्यागमयी विशेषताओं का वरण किया जाय | यह एक विशेष प्रकार का सच होगा | इस सच से टकराने का साहस यदि आज के कवि करते हैं तो निःसंदेह आने वाला समय सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् की भावना से परिपूर्ण समय होगा |

सन्दर्भ-संकेत

      1.      पाण्डेय, रतन कुमार, समकालीन कविता : प्रकृति और परिवेश, दिल्ली, अनंग प्रकाशन, 2002, पृष्ठ-57
      2.      ऋतुराज, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताबघर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-26-27
      3.      शुक्ल, दिनेश कुमार, आखर अरथ, नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ, 2009, पृष्ठ-153-154
      4.      जगूड़ी, लीलाधर, ख़बर का मुँह विज्ञापन से ढका है, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-65 
      5.      प्रकाश, उदय, सुनो कारीगर, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2007, पृष्ठ-27
      6.      ऋतुराज, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताबघर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-47
      7.       
      8.      डॉ विनय, डॉ० अश्विनी पराशर (सं.) समकालीन हिन्दी कविता संवाद, अश्विनी पराशर का लेख (लीलाधर जगूड़ी : सवालों के जत्थों से जूझता आदमी) दिल्ली, सन्मार्ग प्रकाशन, 1983, पृष्ठ-140
      9.      प्रकाश, उदय, कवि ने कहा, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-93
    10.    मंडलोई, लीलाधर (सम०),  नया ज्ञानोदय, महादेव टोप्पो की कविता (वह) साहित्य वार्षिकी 2015, पृष्ठ-290
    11.    मंडलोई, लीलाधर, (सम०), नया ज्ञानोदय,  अनिल गंगल की कविता (पानी से भरे घड़े), अंक-जून 2015, पृष्ठ-84