Saturday 18 February 2017

बोल जगत-जन शापित जीवन

बोल जगत-जन शापित जीवन
उदास आज क्यों  है  तू  भला
छोड़ धरा-धन-धाम  यहाँ का
और कहाँ किस प्रान्त चला ||

धरा को बोला था मन-मंदिर
जग-जीवन  जगती का  मूल
प्रीति-प्रेम से रहना था हमको
संग-साथ  सब  दुर्गति   भूल

था  हमने  भी  सोचा  ऐसा
रहेंगे,  है  तू  कहता  जैसा  
देख-देख  हम  बढ़े  थे  आगे
क्योंकर हुआ तू मौन चला

मन-मन्दिर से ऐसी अनबन
जग-जीवन से ऐसी उलझन
प्रीति-प्रेम से तोड़ मोह अब
लोक-रीति से ऐसी अनशन

समझ नहीं आता है अब तक
तू ही  था  कहता, स्वर्ग यहाँ
मोह-भंग क्यों आज हुआ अब
और कहाँ किस प्रान्त चला ||

संघर्ष किए थे इतने दिन तक
जिए नहीं थे जितने दिन तक
हँसे  थे  हमको  देख  देख  सब
झेल लिए  थे  कितने दिन तक

कैसी अति से पीड़ित अब तू
जो कुछ ऐसा है भाव धरा
जन-जीवन के छोड़ साथ सब
और कहाँ किस प्रान्त चला |



Tuesday 14 February 2017

हम मौन बैठे हैं

बहुत कुछ
बनाने के दौरान
ठीक नहीं हो रहा है
सब कुछ
कुछ मिल रहा है
कुछ छूटता जा रहा है
कुछ हमारे तुम्हारे बीच
नजर आ रहा है
तुम नहीं कह सकते
वह तुम्हारा है
मैं नहीं कह सकता
वह हमारा है
हमारे तुम्हारे के बीच में
किसी और का
होता जा रहा है कुछ
फिर भी समझ से बाहर है
बहुत कुछ
कुछ न तो मिल रहा है
न तो छूट रहा है
गायब होता जा रहा है
हम मौन बैठे हैं
ठीक उसी तरह जैसे
पिछली सदियों में बैठे थे
बोलना था कुछ
इन दिनों एक दम से खाली रहा
मैं भी और तुम भी
फिर भी हमारे तुम्हारे बीच
घटित हुआ सब कुछ जैसे
घटित होना बाकी है
बहुत कुछ....|

Monday 13 February 2017

कविता की शाश्वत एवं जीवंत भूमिका का निर्वहन


    
         कविता मात्र वैयक्तिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भर नहीं है और न ही तो स्वान्तः सुखाय की प्रवृत्ति को प्रमुखता देने का एक ऐसा साधन ही है जिसके माध्यम से जो चाहे कह दिया जाए | आज के इस अस्वाभाविक समय में, जहाँ कुछ भी घटित होना आश्चर्य की बात नहीं रह गयी है जैसा कि आज के कुछ दशक पहले हुआ करती थी;  यह कहीं गहरे में समझने का विषय है कि कवि स्वतंत्र हो सकता है लेकिन कविकर्म स्वतंत्र नहीं होता | इसका अपना सामाजिक दायित्व है, अपनी भूमिका और अपनी जिम्मेदारी है | लाख चाहने के बावजूद भी कवि न तो अपने सामाजिक दायित्व से विमुख हो सकता है और न ही तो अपनी भूमिका से | जिम्मेदारी तो उसको हर हाल में निभानी ही है क्योंकि अपने स्वभाव तथा व्यवहार में पहले वह एक सामाजिक व्यक्ति है और दूसरे यथार्थ स्थिति का अन्वेषक भी | एक कवि के लिए यहाँ अन्वेषक शब्द इसलिए प्रयुक्त करना उचित दिखाई दे रहा है क्योंकि वह उन्हीं विषयों को अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है जो विषय सामाजिक महत्त्व के होते हैं | मनुष्य जिन सामाजिक दायरे में बंधकर अपना जीवन निर्वाह कर रहा होता है कई बार वे दायरे इतने अधिक संकीर्ण हो जाया करते हैं कि मनुष्यता के विकास के लिए संभावनाएँ लगभग न के बराबर दिखाई देती हैं |
          जिन पाशुविक प्रवृत्तियों को त्यागकर सभ्य होने की सामान्य स्थिति को वह बड़े श्रम के साथ प्राप्त करता है; उन स्थितियों को इस तरह आसानी से अपने अतीत अनुभवों एवं संस्कारों में ढलता देख जब उस सामान्य प्रक्रिया पर कोई प्रश्न चिह्न लगाने का प्रयत्न करता है तो कहीं गहरे में एक कवि की भूमिका का निर्वहन कर रहा होता है | यहीं से कविता अपना आकार प्राप्त कर रही होती है और कवि, कविकर्म की अनिवार्यता में स्वयं को ढाल रहा होता है | यहाँ कवि के स्वभाव और व्यवहार में एक बड़ा परिवर्तन होता है जो कालांतर में अपने परिवर्तित हो रहे समय को जीने और बदलने के लिए ही जाना जाता है | इन्हीं संस्कारों में रचते-बसते वह कवि अपने उस समय का सबसे बड़ा विद्रोही और समकालीन आततायी शक्तियों का सबसे बड़ा प्रतिरोधी दिखाई देता है | कबीर का व्यक्तित्व इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जो सम्पूर्ण मध्यकाल में अकेला तमाम विरोधों और अवरोधों को सहने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करता है और बाद में अपने जैसे कई बड़े प्रतिबद्ध रचनाकारों को जमीनी चिंतन करने के लिए प्रेरणा का माध्यम बनता है |
           आधुनिक काल के विद्रोही कवियों में शुमार निराला और नागार्जुन कबीर की प्रेरणा से ही प्रभाव ग्रहण करते हुए दिखाई देते हैं | मुक्तिबोध का रचना-संसार अपनी बनावट तथा बुनावट में कबीर के संघर्षशील व्यक्तित्व का ही अवतार कहा जा सकता है |  समकालीन हिन्दी कविता में भी कई बड़े कवि-व्यक्तित्व हुए हैं जिनको युग की समस्त विडम्बनाओं से लड़ते, सामाजिक अस्तित्व को स्थिरता प्रदान करने के लिए संघर्ष की राह पर चलते हुए पाया गया है |
         यदि कविता के माध्यम से रचनाधर्मिता की वर्तमान संघर्षशीलता को जानने और समझने की कोशिश की जाए तो एक नाम बड़े सिद्दत के साथ उभरकर सामने आता है, वह है—कवयित्री सरला माहेश्वरी का नाम, जो कविता संग्रह “आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ” के द्वारा यथार्थात्मक कल्पना के माध्यम से जटिल होती जा रही सामाजिक विसंगतियों को बड़ी सूक्षमता से विश्लेषित करती हैं | सुप्तप्राय मानवीय अनुभूतियों को जगाने का सफल उपक्रम करती हैं | एक प्रयास करती हैं पशुवत व्यवहार में तब्दील होती जा रही मानवीय संवेदना को जीवित रखने का | इस प्रयास की यथार्थ स्थिति ‘दुआ करो’ कविता में कुछ तरह व्यंजित हुआ है—यथा,
“दुआ करो
प्रतिशोध और प्रतिहिंसा में उठे हाथ
काँप-काँप जाए
दुआ करो
अहंकारी अट्टहास का बादल फटने से पहले
मासूम मुस्कान की धूप खिल-खिल जाए
दुआ करो
द्वेष की दीवार उठने से पहले
दरक-दरक जाए
दुआ करो
नफ़रत की आग भड़कने से पहले
इंसानियत बरस-बरस जाए |”
         ‘नफ़रत की आग’ मानवीय संभावनाओं को मटियामेट करने के लिए पर्याप्त होती हैं | इंसानियत की वर्तमानता इस आग को शीतल करने का कार्य करती है | आज सबसे बड़ी कमी इसी इंसानियत की है | कवयित्री यदि वर्तमान पीढ़ी को ‘दुआ करो’ के लिए निवेदन करती है तो इसलिए क्योंकि प्रेम और हिंसा के मध्य का वातावरण अपनी सम्पूर्णता में  भयानक रूप ले चुका है | ऐसे वातावरण में
“अब तो
न झरनों में संगीत है, न फूलों में रंगत है
न डल झील में शिकारों की हलचल है
अब तो बस बन्दूक और बूटों की टहल है
ख़ामोशियों की चहल-पहल है |”
यहाँ यथार्थ स्तब्ध है, मौन है और बेबस है जबकि दिखावापन ही असलियत के रूप में परिभाषित हो रहा है | सूक्ष्मता से देखने के ऐसा आभास जरूर होता है कि प्रेम’ में ‘हिंसा’ है और ‘हिंसा’ में ‘प्रेम’ है | ये आवरण इतने सघन और अपारदर्शी हैं कि वास्तविकता लाख प्रयत्नों के बावजूद भी सामने निकल कर नहीं आ पाती | ऐसे में कवि-हृदय में इस प्रश्न का उठना तो जायज है ही
“झूठे
दोगले
कपटी
स्वार्थी लोग
कौनसा जादुई शीशा रखते हैं कि
हमेशा
असली चेहरा
छिपा लेते हैं?”
ये ऐसे ही लोग हैं जो अमन-शान्ति का पैगाम लिए पूरे परिवेश में नफ़रत का ठीका लेकर घुमते हुए दिखाई देते हैं; इस विश्वास के साथ कि जैसे इनके जैसा हमदर्द इस पूरे आवाम में कोई और न हो |
         यह चेहरा इतने अधिक झूठों और फौरेबों के मिश्रण से ऐसे सांचे में ढाला गया होता है कि आज के इस परिदृश्य में यह पहचानना भी मुश्किल हो गया है कौन ‘प्रेम’ करने लायक है और कौन ‘हिंसा’ | किसे सत्य का संरक्षक समझा जाए और किसे असत्य का पोषक | किसे पुण्य का लाभार्थी माना जाए और किसे पाप का उत्तरदायी | किसे प्रेम का प्रचारक घोषित किया जाय और किसे घृणा और आतंक का प्रसारक | ‘नारायण काम्बले’ कविता के माध्यम से सरला का यह कहना अकारण नहीं है कि
“यहाँ
पाप और पून्य
निर्ममता और मानवता
भलाई और बुराई
हत्या और आत्म-हत्या
सच और झूठ में
इतना घालमेल हो चुका है कि
किसी में कोई अंतर ही नहीं रह गया है |”
         ‘अंतर’ का ख़त्म होना और एक ‘शाश्वत व्यवस्था’ में ‘घालमेल’ का वास्तविक आभास होना कवयित्री के यथार्थ स्थिति के प्रति गहरी जागरूकता को दर्शाता है | निश्चित ही इस जागरूकता में अन्य युग के कवियों के समान भावुकता भर नहीं है और न ही तो ‘घड़ियाली आँसू’ बहा भर देने का ढोंग ही है; यहाँ सच को सच की तरह कहने का साहस है | कवयित्री के इस साहस में कई विशिष्टताओं के दिग्दर्शन होते हैं | एक तरफ जहाँ संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि उसकी कविताएँ “अकेली जलती हुई मशाल” हैं और यह भी कि
“अंतर में है उसके
जंगल को सुलगाने की आग
देना चाहती
हजारों उठे हुए हाथों में
जलते हुए सवाल”
      वहीं उसकी कविताओं में प्रतिबिम्बित समकालीन जीवन-विसंगतियों के मुहावरे कबीर की तरह बीच बाजार में खड़े होकर मानों उन सभी से यह जानना चाहती हो कि “है कोई जवाब” क्यों हजारों जिंदगियां जो करोड़ों मिन्नतों के बाद मुश्किल से मिली होती हैं रंच मात्र वहशीपन की वजह से तबाह होने के लिए विवश और मजबूर हैं? इन जिन्दगियों की तबाही के जितने भी हुक्मरान हैं वह सबको जानती है और यह भी मानती है
“आखिर सभी देवता
चाहे वे जन्नत के हों या जहन्नुम के
सभी एक ही रसायन के बने होते हैं
इसलिए विल्कुल निर्विकार, निःशब्द
देख रहे थे गोलियों की यह ‘रासलीला’|’
       देवताओं के पास मौन होती है, निःशब्दता होती है लेकिन ‘रासलीला’ का यह मौन उत्सव कुरुक्षेत्र के रुदन में तब बदलता जब देवताओं के घर पर वही गोलियों की पिचकारी खुनी रंगों की बरसात कर रही होती | न्हास देवताओं का भी होता है और महाशक्तियों की भी सवाल बस उस सवाल और उस सवाल के समझ का है, जो सरला माहेश्वरी देना चाहती हैं |
        वर्तमान मन्दिर और मस्जिद की तरह राजघराने सेफ और सुरक्षित हैं, जनता के घर और बस्तियां जलाई जा रही हैं | कवयित्री का मानना है कि नेता “विल्कुल ईश्वर जैसे” होते हैं जो “आँधी आये या तूफ़ान/ अकाल आये या भूचाल/....मूर्तिमत् जीवन के/ निष्प्राण पत्थर जैसे/ सतत तपस्या में लीन” रहते हैं | “नहीं सताती उन्हें भूख-प्यास की आग/ नहीं जलाती उन्हें चिंताओं की आँच/ ईश्वर की ही तरह पहने रहते मोटी खाल/ नहीं बनते कभी किसी भूखे-प्यासे की ढाल |” ठीक उस ईश्वर की तरह जनता के कमाई का हक़ ये अपना पैत्रिक अधिकार मानते हैं, जो मन्दिर में बैठे-बैठे साधारण जनमानस के घरों का राशन अपने आवरण में समेटने की पूरी क्षमता रखता है | इस दृष्टि से किसानों पर लिखी गयी कविताएँ अपने स्वभाव तथा व्यवहार में ठीक ‘होता है जैसा’ वास्तविक दिखाई देती हैं जहाँ किसान मानते हैं कि ‘बदनसीब हम’ मात्र दूसरों के ‘हार की जीत’ के माध्यम भर होते हैं जो किसी न किसी दिन अपना हक़ मांगने पर ‘देवीराम’ बनाकर सभी अधिकारों से वंचित कर दिए जाते हैं |
          समकालीन हिन्दी कविता में इन दिनों ऐसा कहा जाता रहा है कि किसानों के दुःख-दर्द को अभिव्यक्ति देने का बहुत कम साहस दिखाया गया है | यह इसलिए भी क्योंकि कवि को भी तो रहना उसी देश-परिवेश में है जहाँ कि वे सभी शक्तियां वर्तमान हैं, जिनके सामने सभी घुटने टेकते हुए चलने के लिए विवश हैं...इसलिए भी कि कहीं वे भी देश-विरोधी गतिविधियों में सक्रिय न करार दे दिए जाएं | विकास का सारा सम्बन्ध मौजूद भूमि के क्षेत्रफल से है | भारतीय परिवेश में भूमि किसानों के जीवन-यापन के साधन तो हैं ही देश की समृद्धि के लिए आवश्यक भी हैं | सरकारें बनती हैं और समाप्त हो जाती हैं | किसानों की स्थितियाँ वहीं की वहीं बनी रहती हैं | पूँजीपति वर्ग और शासन-सत्ता के पंजों में पूर्णरूप से आ चुके किसानों के यथार्थ स्थिति पर सरला महेश्वरी की कविता ‘होता है जैसा’ में समकालीन प्रभुत्व के सामने असहाय और संघर्ष कर रहे किसानों की साकार परिदृश्य को अभिव्यक्त किया गया है | सरला के अनुसार विकास, मँहगाई और भूमण्डलीकरण के चकाचौंध में उलझा किसान, जो सभी सुख-सुविधाओं का मूल है, आत्महत्या कर रहा है, मर रहा है, बावजूद उसकी सहायता के सरकारें उसे छोड़ने और विवश होने की ही फरमाईस करती दिखाई देती हैं
“पर ये पृथ्वी का भगवान् तो
है सबसे बड़ा शैतान
मौत ही जीवन का निदान
सुना रहा फरमान
जल, जंगल, जमीन
सब पर उसके अरमानों का राज
बेधड़क, कर रहा एलान
उधार के खातों में जमा कर रहा
जिंदगी का हिसाब |”
   इस हिसाब से जीवन कितना विसंगतियों का वर्तमान हो उठा है, यह सोचने और चिंतन करने का विषय है|   
        सौंदर्य और प्रेम की बात की जाए तो सरला माहेश्वरी का कवि-कर्म बनावटी वसूलों एवं दिखावटी रिवाजों के खिलाफ है | लगता है कि उसके लिए वर्तमान मनुष्य की मानवीयता के सृंगार से अधिक रुचिकर कोई विषय नहीं है |  संग्रह के व्यापक सरोकारों में धार्मिक उन्माद में जार जार होती मानवीयता के प्रति तीव्र आक्रोश है तो स्त्रियों के बदहाल होते जीवन के प्रति, उनकी संघर्षधर्मिता और जिजीविषा के प्रति समर्पण भी है | संग्रह की कविताओं को पढ़कर एक बार यह एहसास फिर से वर्तमान हो उठता है कि स्त्री के यथार्थ और उसके दुःख को सही अर्थों में यदि कोई समझ सकता है तो वह स्त्री ही है | सरला के यहाँ की स्त्रियाँ सदियों से शोषण के आंच में पिसती, जलती और भुनती हुई स्त्रियाँ हैं | भीड़ में हैं फिर भी शोषित हैं और अकेली हैं फिर भी शोषित हैं | कवयित्री का मानना है कि “एक अकेली औरत का होना/ खतरे की सारी संभावनाओं के/ योग का संभव होना” है | वह यह भी मानती है कि “दुनिया के सभी धर्मों के नजर में/ औरत सबसे बड़ी बुराई है, कि/ खुदा ने औरत को पैदा ही किया है/ आदमी को सुख भर देने के लिए|” सुख देने की लालसा में औरतों ने सदैव अपनी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं को दमित किया है | यह सभी को पता है कि सेवा करते करते ही आज से नहीं सदियों से सदियों की मांग पर “चिता की तरह/ सज गयी औरतें/ लकड़ी की तरह/ जल गयी औरतें/ मंदिर की मूर्ति बन गयी औरतें |” ये वही औरतें हैं जो पुरुषों द्वारा दिए जा रहे प्रेम को यह नहीं समझ पायीं कि “इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ?” यथा-
हमारा दिल दहल जाता है
दिल उनका बहल जाता है
पहाड़ टूटता है हम पर
उन्हें मजाक सूझता है
जान पे बन आती है हमारे
उन्हें इसमें कोई बात नजर नहीं आती
हम बेमौत ही मरते जाते हैं
बस यूँ ही आते जाते हैं
हमारे जीवन का क्या है मानी
सब तो है उनकी मेहरबानी
इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ
बेदाम की ये जिंदगी उन पे वार दूँ |” 

          भाव एवं भाषा की दृष्टि से यह कविता-संग्रह पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध साहित्य की कोटि में देखा परखा जा सकता है | काव्य-पाठ के दौरान कई जगह यह आभास होता रहा है कि कवि-हृदय वैचारिक-उग्रता के मोह-जाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है जो शायद कवयित्री का अपना स्वभाव और व्यवहार भी हो सकता है | इन सबके बावजूद अपने समष्टि में कवि एवं कविता की शाश्वत एवं जीवंत भूमिका का निर्वहन “आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ” में देखा जा सकता है | मेरे ख्याल से जब भी समकालीन हिन्दी कविता में जनधर्मी भूमिका के निर्वहन की बात आएगी सरला माहेश्वरी के इस संग्रह का नाम जरूर लिया जाएगा |  

Sunday 12 February 2017

गाँव और गंवई परिवेश पर बोलती कृति "अबोले के विरुद्ध"


          अक्सर लोग समकालीन हिन्दी कविता में गाँव और गंवई परिवेश के सम्बन्ध में चिंता करते हुए पाए जाते हैं | चिंता के केन्द्र में यह विमर्श मुख्य होता है कि आजकल के कवि गाँव और किसान को एकदम से भूलते जा रहे हैं | यह कहता भी वही है जिससे कविता का दूर-दूर तक का कोई रिश्ता-नाता नहीं होता | होता भी है तो बस मात्र इसलिए कि कौन-सा बहाना मिले उन्हें और कवि को कठघरे में खड़ा करें | जहाँ तक मुझे लगता है, गंवई परिवेश का वर्तमान कविता में न दिखाई देना एक तरह से चन्द्रमा की उपस्थिति और सूर्य की वर्तमानता से बेखबर रहते हुए मोम का दिया जलाने की झूठी प्रतिबद्धता दिखाना ही है | एक सच यह भी हो सकता है कि कविता ने तो गाँव से लेकर शहर तक लोगों से जुड़कर रहने की प्रतिबद्धता आज से नहीं प्रारंभ से दिखाया है; हम ही इतने निकम्मे रहे कि उसकी उपस्थिति को कभी साकार रूप में न अपना सके |
          कवि अपनी कविताओं में गाँव/ग्रामीण यथार्थ को कोई महत्त्व नहीं दे रहा है, कवि आम आदमी के जीवन से कट कर ए.सी. रूम और मालों में बैठकर कविता रच रहा है, कवि राजनीतिक लाभ से सत्ता की चाटुकारिता में लगा हुआ है, कवि अपने कर्तव्यों से विमुख होकर कविता के साथ खिलवाड़ कर रहा है,  जितनी चारुता और प्रतिबद्धता के साथ हम ये तमाम प्रकार के हवाओं को उछालने में मशगूल रहते हैं उसका आधा भी यदि कवियों की रचनाओं को पढ़ने और निरपेक्ष भाव से उसका मूल्यांकन करने की प्रतिबद्धता जाहिर करें तो शायद यथार्थ का परिदृश्य कुछ और हो सकता है | क्या एक कवि की तरफ से यह पूछने का साहस किया जा सकता है कि आज के आलोचक और पाठक उन्हीं कवियों पर ज्यादा ध्यान देते हैं जो साहित्य-सत्ता के बहुत करीबी होते हैं? जिनकी कविताओं में/विचारों में कोई नवता भले न हो परन्तु उन्हें सत्ता के केंद्र में रहने के कारण पुरस्कृत कर दिया जाता है और फिर साहित्य-माफियाओं द्वारा समीक्षा/आलोचना का एक पूरा दौर उनपर केन्द्रित कर दिया जाता है? वर्तमान समय के बहुत से कवियों के कवि-कर्म में जनधर्मिता बड़ी तीव्र अनुभूतियों के साथ निभाई गयी है लेकिन यह साहित्य जगत के लिए अफ़सोस और विडम्बना का विषय रहा है कि उन पर ध्यान लोगों का कम ही गया |
          आज ये विचार इसलिए मन-मस्तिष्क में उपज रहे हैं क्योंकि इन दिनों समकालीन कविता के कई नए-पुराने कवियों को पढ़ने का अवसर हाथ लगा है | जयप्रकाश मानस उन सभी कवियों में से एक हैं जिनका कविता-संग्रह अपने बनावट और बुनावट में है ही “अबोले के विरुद्ध’ | जयप्रकाश मानस के कवि-दृष्टि की साथ चलते हुए सोचने का प्रयत्न किया जाय तो गाँव, गंवई परिवेश और ग्रामीण यथार्थ इतनी सिद्दत के साथ इस संग्रह में शामिल है...पढ़ते हुए कभी गाँव वासियों के घर और उनसे भी दूर बागों-बगीचों में जीवन-यापन करने वाले वनवासियों के घर में चूल्हे पर पक रहे वे भोजन याद आते हैं, जो पकते ही रहते हैं और बच्चे अक्सर उन्हें देखते हुए ही सो जाते हैं, कितने परिवार में यह भी सच है कि गाहे-बेगाहे बचे हुए पत्तल और दोने को नोंच-खरोच कर पेट पालने की स्थिति अब भी वर्तमान है और वही इनके भूखे-प्यासे रह जाने की सच्चाई भी कहते हैं, 
“चूल्हे के तीन ढेलों के ऊपर
खदबदा रहा है चावल-आलू अभी भी
पतरी-दोना अभी भी दे रहे हैं गवाही
कितने भूखे थे वे सचमुच |”
        चूल्हे के ये वर्तमान दृश्य अभी आँखों से पूर्णतः ओझल भी नहीं हो पाते कि तभी अपने दूसरे स्वरूप में इन दृश्यों की वर्तमानता के साथ कर्ज में डूबे पिता की चिंता आभासित होने लगती है इन तमाम विडम्बनाओं के साथ कि, वर्तमान तो जैसे-तैसे कट रहा है लेकिन भविष्य कैसा होगा? जो स्वप्न अपने गाढ़े दिनों में भविष्य के सँजोए गए थे, इस आशय के साथ कभी जब दिन बहुरेंगे हमारे, उनका पूरा होना क्या संभव हो सकेगा? कितने सुन्दर और मार्मिक ढंग से इस विसंगति को इस कविता का विषय बनाया गया है, यह देखने योग्य है-यथा,
“इस साल फिर
बिटिया की पठौनी
पुरखौती जमीन की
कागज़ पतर नहीं लौटेगी
साहूकार की तिजोरी से
बूढ़ी माँ की अस्थियाँ
त्रिवेणी नहीं देख पाएंगी
रातें कटेंगी बिच्छू की तरह
दिन में डराएंगे
आने वाले दिनों के प्रेत |”
       यहाँ प्रेत का सम्बन्ध उन सूदखोरों से है जो मात्र गांवों में पाए जा सकते हैं क्योंकि डरने वाले की स्थिति ठेठ ग्रामीण किसान और मजदूर वर्ग की विद्यमानता को दर्शाता है | अस्थियों के प्रति प्रेम आज के इस भौतिकतावादी युग में विशुद्ध रूप से ग्रामीणों में ही बचा है | शहरों में तो बूढ़ी माताओं को बृद्धाश्रम की दहलीज पर निर्ममता से छोड़ आने के दृश्य दिखाई देते हैं | अस्थियों के महत्त्व भला उनको क्या समझ आएँगे |
      आज भी गाँव में निवास करने वालों का अधिकांश अपने वास्तविक रूप में आर्थिक शोषण का शिकार है | इस आर्थिक शोषण और उसमें व्याप्त विषमता की भावना को यदि ध्यान से मूल्यांकित करने का प्रयास किया जाय तो यह समझते देर विल्कुल नहीं लगेगी, खासकर उनको जिन्होंने आर्थिक समस्याओं को भोगा और जिया है, कि व्याज और मूर के व्यामोह में उलझे और विनष्ट होते गंवई परिवेश की यथार्थ स्थितियाँ तो जैसे रोने और सोचने पर ही विवश कर देती हैं | विवश होने की स्थितियाँ इसलिए भी यहाँ वर्तमान दिखाई देती हैं क्योंकि गाँव इन्हें झेलने के लिए कई अर्थों में सबसे उपयुक्त माध्यम होता है | शोषित प्रवृत्ति का तांडव सबसे अधिक यहीं देखने को मिलता है | यही वह स्थल होता है जहाँ सभी प्रकार के शोषक प्रवृत्ति के हिमायती अपना दाँव आजमाते आसानी से दिखाई दे जाते हैं |--
“मनचला दुकानदार
किसान की बेटियों से करता है/
चुहलबाजी/ षड्यंत्र छलक रहा है/
बाजार से/ गोदाम तक/
व्याजखोर रख्सा की आँखों में/
नाच रही हैं/ पुरखों के जेवरातों की चमक/
जलताण्डव की बहुरंगी तस्वीरें उतारकर/
आत्ममुग्ध हैं कुछ सूचनाजीवी/
डुबान क्षेत्र के ऊपर/
किसी बड़ी मछली की फिराक में/
उड़ रहे हैं बगुले/ शहर के मन में/
जा बैठा है सियार/ गाँव/
सब कुछ झेलने के लिए/ फिर से है तैयार |”
          सोचने का विषय है कि अब मानस द्वारा ये जो गाँव का यथार्थ कहा गया है ‘अबोले के विरुद्ध’ में क्या इसकी यथार्थता पर कोई शक किया जा सकता है? क्या जो विभिन्न स्वरूपों में बगुलों के झुण्ड “डुबान क्षेत्र के ऊपर/ किसी बड़ी मछली की फिराक में/ उड़ रहे हैं” उनके षड्यंत्रकारी जहरीले नीयत की वर्तमानता पर कोई शक हो सकता है? या फिर इस बात से इनकार किया जा सकता है कि “मनचला दुकानदार/ किसान की बेटियों से करता है/ चुहलबाजी” मात्र इसलिए क्योंकि उसका पिता कर्जदार है और इसीलिए वह अभिशप्त भी है उसके द्वारा दिए जा रहे सभी प्रकार के ताड्नाओं-प्रताणनाओं को सहने के लिए |
          ‘अबोले के बिरुद्ध’ रचे जा रहे तमाम प्रकार के षड्यंत्रों के अतिरिक्त यदि यथार्थ सामाजिक परिदृश्य को समझने का प्रयत्न किया जाय तो ये हकीकत है कि मानव विकास के इतने लम्बे अनुभवों को अभिव्यक्त देने के बावजूद “अभी/ निहायत अपरिचित, उदास, एकाकी/ शब्दों की उपस्थिति/ नहीं हुई है कविता में |” यानि अपनी सम्पूर्णता के साथ गाँव में निवास करने वाले आम आदमी की बात इतने विकसित प्रारूपों का रूप धारण करने के उपरांत भी ‘नहीं हुई है किवता में |’ यह निश्चित ही विचार और विमर्श का विषय है कि  काव्य-जगत में अभी तक परंपरा, उल्लास और उत्साह को ही विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति देने का उपक्रम क्यों किया जाता रहा; बावजूद इसके कि यथार्थ के अन्यानेक विषय अपनी अभिव्यक्ति की राह को तलाश रहे थे |
         हिन्दी कविता में यह उपक्रम उनके द्वारा विशेषकर किया गया जो स्वयं को एक तटस्थ नागरिक के तौर पर शुमार होने का दावा करते रहे हैं | तटस्थता का दावा करने वाले ऐसे जनों के सन्दर्भ में यहाँ कवि को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि ऐसे स्वयं-भू “तटस्थ उपाय नहीं ढूंढते/ नहीं करते निर्णय/ न ही करते कोई विचार |” वे यदि कुछ करते हैं तो मात्र सुचारू रूप से संचालित हो रही व्यवस्था में खलल डालने की प्रक्रिया का निर्वहन भर | उनके लिए जो जैसा हो रहा है, अच्छा हो रहा है और आगे जैसा भी होगा अच्छा ही होगा की धारणा सबसे महत्त्वपूर्ण होती है | इसलिए भी क्योंकि इस विशेष प्रक्रिया के प्रतिरोध में बोलने के लिए जितनी आवश्यकता मेहनत की होती है उससे कहीं अधिक आवश्यकता साहस की होती है | साहस और मेहनत के अभाव में व्यक्ति हर समय बचाव की मुद्रा में दिखाई देता है जो एक कर्मठशील व्यक्ति के लिए सबसे दयनीय स्थिति होती है लेकिन इस दयनीयता में भी वह स्वयं को तटस्थ मानता है | तटस्थता की इस स्थिति से कवि बचकर रहने की सलाह देता है और वह मानता है कि “जो नहीं उठाते जोखिम/ जो खड़े नहीं होते तनकर/ जो कह नहीं पाते बेलाग बात/ जो नहीं बचा पाते धूप-छाँह/ यदि तटस्थता यही है/ तो सर्वाधिक खतरा/ तटस्थ लोगों से है |” बचाव की मुद्रा में आने और उसमें वर्तमान रहने की स्थिति में व्यक्ति स्वयं को बहुत शरीफ मानता है | कई अर्थों में समय सराफत का नहीं रहा | अनेति और कुनीतियों को रोकने के लिए कई बार शराफत का चोला उतारना पड़ता है और जयप्रकाश मानस भी मानते हैं “खुद को शरीफ बनाए रखने में/ पृथ्वी को ज्यादा दिनों तक/ सुरक्षित नहीं रखा जा सकता |”
     समकालीन समाज की सबसे बड़ी समस्या यही है कि सबको अपना सब कुछ सुरक्षित रखने की चिंता है | इस बीच आधार-रूप में उपस्थित धरती की चिंता कोई नहीं कर रहा है | धरती वह जो हमें रहने योग्य धरातल प्रदान करती है, धरती वह जो हमें खाने योग्य अन्न प्रदान करती है, धरती वह जो तमाम विसंगतियों के बावजूद चलने, ठहरने और बहुत हद तक हजारों-हजारों स्मृतियों को सहेजकर रखने के लिए प्रेरित और उत्प्लावित करती है | धरती हमारे समाज में, इन सबके अतिरिक्त हवा, पानी, वायु तथ अग्नि की उपलब्धता को सहज तथा सरल बनाती है | सरलता और सहजता मानवीय गुणों के सबसे उजले पक्ष माने गये हैं | उजले पक्ष का महत्त्व तभी है जब हम उसको अपने व्यावहारिक जीवन में अपनाएं | व्यावहारिकता इसी में है कि अपने आस-पड़ोस, पर-परिवार, गाँव-समाज में रहने वाले जनों के बीच रहते हुए “कुछ देर साथ चलो/ कि वह विल्कुल अकेला न समझे/ कुछ तो बतियाओ/ कि वह निहायत अबोला न रह जाये/ कुछ तो भीतर की सुनो/ कि वह बाहर-ही-बाहर न मर जाए/ कुछ तो देखो/ कि वह दुर्दिन से न डर जाए” और यदि इन व्यावहारिक स्थितियों से मेल खाते ऐसे सभी कार्यों में “कुछ भी नहीं कर सकते तो/ इस पृथ्वी में होने का मतलब क्या है?”
       पृथ्वी में रहने का मतलब कवि के लिए सार्थक कर्मण्यता को बढ़ावा देना है न कि निष्क्रियता को अपनाकर जड़त्व में तब्दील हो जाना | जो सक्रिय कर्म करते हैं वे ही पृथ्वी में निर्मित होने वाले विशिष्ट पदों के भागीदार होते हैं | उनसे कई-कई जीव-जीवनियों का निर्माण होता है | उनसे ही लोग प्रेरणा और प्रोत्साहन को प्राप्त करते हैं | ऐसे पद प्राप्त लोगों से कवि का यह कहना “हमारे बीच से कोई/ जब भी बन जाए पोखर/ ताल झील नदी या समुद्र/ तो भी वह बिना प्रतीक्षा/ बहता चला जाए” पृथ्वी के अस्तित्व और पृथ्वी के ऋण-भार बचाने और हल्का करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है | यही वजह है कि मानवीय व्यवहार में भावाभिव्यक्ति के माध्यम कोई भी क्यों न हों लेकिन कवि की ख्वाहिश यही है कि हमारे जिजीविषा और जीवन-संघर्षों में हर क्षण विद्यमान रहने वाली “हर भाषा में साफ़-साफ़ देखी जा सके/ पृथ्वी की आयु निरंतर बढ़ते रहने की अभिलाषा |”
         यह अभिलाषा समकालीन हिंदी कविता के कुछ चुनिन्दा कवियों में ही देखी-परखी जा सकती है | चुनिन्दा कवियों में इसलिए क्योंकि सच कहने का साहस सबमे एक सामान नहीं हो सकता | जनधर्मिता की बात करना एक बात है और जन-पक्ष में खड़े होकर अपनी उपस्थिति का एहसास कराना एक अलग बात है | जयप्रकाश मानस अपनी कविताओं के माध्यम से न सिर्फ जनधर्मिता की बात करते हुए दिखाई देते हैं अपितु उसके पक्ष में अंतिम स्थिति तक उपस्थित होकर अन्य लोगों को भी सोचने, समझने और उनके हित में कुछ से बहुत कुछ करने के लिए प्रेरित करते हुए भी दिखाई देते हैं | मानस का यह कहना “नींद से छूटते ही चला जाऊँगा/ मुस्कराहट से बेखबर/ ढेर सारी विपत्तियों/ तमाम उहापोहों/ समूचे बेगानेपन के/ भंवरजाल से फँसे/ भोर से पहले चिड़ियों के प्रभाती से कोशों दूर खड़े/ उन सभी अपरिचितों के बिलकुल करीब/ जो मुझसे भी उतने ही अपरिचित हैं/ जानना चाहूँगा उतना/ जिसके बाद जानने को शेष न रहे रंचमात्र मुझसे” जो स्वयं कवि से भी अपरिचित हैं और ‘उन सभी अपरिचितों के बिलकुल करीब’ जो न तो भारतीय सरकार की पहुँच में हैं और न ही तो महानगरीय परिवेश में पलने वाले जड़ आराम-पसंद नौकरशाहों की स्वार्थ-दृष्टि के कृपापात्र बन पाए हैं; उन सभी तक पहुँचने की कवि की ऐसी तीव्र अभिलाषा उस साहस का ही प्रमाण है जिसका यदि तिहावा भी लोग अनुसरण-लाभ उठा सकें तो इस पृथ्वी का भी कल्याण हो जाए और उनका भी जिन्हें कि इस पृथ्वी का अंश मानने से ही इनकार किया जा रहा है |
      ऐसा होने और करने के स्थान पर दरहकीकत और विडंबना तो यह है कि इन सभी गुमनाम-बदनाम जन सामान्य की दशा-दुर्दशा, गति-दुर्गति से बेखबर आज का अधिकाँश रचनाकार कहीं ‘फीलगुड’ तो कहीं ‘शाइनिंग इण्डिया’ का विज्ञापन बनाने में मशगूल है | तमाम-तमाम राजनीतिक, अधिशापित जुमलेबाजी, अंध-वैचारिक फतवेबाजी के केंद्र में रहते हुए गैर जिम्मेदार रचनाकार तानाशाही नारे गढ़ने में संलग्न है | इन सब घटनाओं एवं व्यवहारों के आस-पास रहते हुए भी कवि मानस का हृदय पृथ्वी के इस विलुप्त हो रहे मानवीय संस्कृति के पास ही रह जाना चाहता है और अंतिम रूप में यह उद्घोस करता भी है  “आदिवासी नहीं जानता/ सभ्यता को पढ़ने की चतुर भाषा/ विचारशीलता के बिम्ब भी/ होते नहीं उसके पास/ फिर भी चाहता हूँ ताउम्र/ आदिवासी गमकता रहे/ कोठी में धान की मानिंद/ गाँव में तीज-तिहार की मानिंद/ पोखर में पनिहारिनों की हँसी की मानिंद/ वन में चार-चिरौंजी की मानिंद/ मेरी कविता में/ अपरिहार्यतः/ अनिवार्यतः |” स्वाभाविक और सच्चे अर्थों में प्रतिबद्धता इसे कहते हैं | बगैर किसी पक्षपात के निष्पक्षता के साथ खड़े होने की पक्षधरता इसे कहते हैं न कि उसे कि व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दूसरों को फंसाते और झुलाते नजर आएं | इस आशा के साथ कि समकालीन कवि समुदाय भी ऐसे मार्ग को अपनाएगा—विशेष शुभकामनाओं एवं मंगलकामनाओं के साथ-अनिल